गुरु-पूर्णिमा
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पहली बार वर्ष जब १९८२-८३ के समय मुझे ईश-कृपा का भान तब हुआ जब मैं श्री महर्षि रमण के वचनों का अध्ययन-पठन कर रहा था ।
उनकी शिक्षा और उपदेश का मूल तत्व तो एक पैने नुकीले बाण की तरह पहले ही हृदय (या हृदय-ग्रंथि) को भेद चुका था, किन्तु शिशु के जन्म के बाद भी उसके बड़े होने में समय लगता है, श्री महर्षि रमण की शिक्षाओं और उपदेशों की ज़रूरत मुझे थी और वह मुझे निरंतर प्राप्त होता रहा ।
उनसे बातचीत के मूल-संग्रह (अंग्रेज़ी संस्करण : 'Talks with Sri Raman Maharshi', तथा हिन्दी संस्करण "श्री रमण महर्षि से बातचीत") तथा दूसरी पुस्तकें ("मैं कौन?", "श्री रमण-वाणी" "आत्मानुसन्धान" "तत्वबोध") आदि को पढ़ने के बाद भी मुझे उन ग्रन्थों से निरन्तर वह सब प्राप्त होता रहा, जिसकी समय-समय पर मुझे आवश्यकता होती थी ।
उनकी शिक्षाओं के मूल-संग्रह में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम की विचारधारा के मूल-तत्वों (Tenets) से जुड़े अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनका सन्दर्भ आज के युग में भी अत्यन्त प्रासंगिक है । यह अवश्य है कि धर्म (सनातन धर्म) किस प्रकार इन तीनों ऐतिहासिक परंपराओं का उद्गम है और वे परस्पर किस तरह एक-दूसरे से जुड़े हैं इसे सन्तोषजनक रूप से जानने-समझने में मुझे ३५ वर्ष लग गए ।
सबसे पहले मेरी ध्यान बाइबिल की उस उक्ति "आय एम दैट आय एम" पर गया जिसका उल्लेख "श्री रमण महर्षि से बातचीत" के क्रमांक 77, 106, 112, 131, 164, 188, 189, 201, 311, 338, 354, 426, 436, 476, और 609 में पाया जाता है ।
इससे मुझे यह स्पष्ट हो गया कि तोराह (हिब्रू बाइबिल), कैथोलिक बाइबिल (ओल्ड तथा न्यू टेस्टामेन्ट) में ’यहोवा’, तथा क़ुरान में वर्णित ’अल्लाह’ उसी दिव्य सत्ता के भिन्न भिन्न नाम हैं जिसे संस्कृत में ’ईश्वर’ (संज्ञा) तथा ’ईशिता’(क्रिया-विशेषण) कहा गया है । बाइबिल में इसका उल्लेख सीधे, बिल्कुल उसी प्रकार ’मैं’ के प्रयोग के माध्यम से उत्तम पुरुष एकवचन (’मैं’/ 'I') से किया गया है जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने किया है ।
इस प्रकार यह दिव्य सत्ता ही जिसे प्रत्यक्षतः हर कोई अनायास ’मैं’ की अन्तःस्फूर्ति से जानता है, वास्तविक ’यहोवा’ / 'Jehovah', ’अल्लाह’, ’मैं’ तथा ’ईश्वर’ का मूल वास्तविक स्वरूप है । वही एकमात्र ’यहोवा’, ’अल्लाह’, ’मैं’ तथा ’ईश्वर’ धर्म तथा अध्यात्म का सारतत्व है ।
आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Angel) जाबालि ऋषि (Gabriel) ने इसका ही उपदेश यहूदी संप्रदाय के प्रथम-पुरुष मूसा (Moses) को दिया, जिसका सीधा तात्पर्य (और व्याकरण के अनुसार अर्थ भी) वही है जिसे हिब्रू भाषा में ’यह्व’ अथवा ’यॉट्-हे-वौ-हे’(Y-H-V-H) से व्यक्त किया जाता है ।
निश्चित ही इसका उल्लेख ’यह्वः’ तथा ’यह्वी’ के रूपों में ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर बार बार पाया जाता है । Moses को पर्वत पर झाड़ियों में जिस प्रकाश / अग्नि के दर्शन हुए, ऋग्वेद में उसी अग्नि के ’यह्वः’ तथा ’यह्वी’ के उल्लेख से भी इसमें संशय नहीं हो सकता कि अग्नि ही वह दिव्य सत्ता है जिसका संकेत स्थूल अग्नि के माध्यम से Moses को इंगित किया गया । यहूदी (हिब्रू बाइबिल) के अनुकरण से ही ईसाई बाइबिल (संहिता) अस्तित्व में आया और (जैसा कि पहले कहा गया), जहाँ ’मैं’ के रूप में ’यहोवा’ / Jehovah का वर्णन ’उत्तम पुरुष एकवचन संज्ञा’ ('I') की तरह पाया जाता है ।
इन्हीं दो बाइबिल के अनुकरण से इस्लामी क़ुरान को उसका वर्तमान प्रचलित स्वरूप प्राप्त हुआ ।
क़ुरान के अध्याय 14 खण्ड (अल् इस्र / Exodus) में इसी प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन है, जिसका बाइबिल में यह वर्णन पाया जाता है कि किस प्रकार यहूदी कबीले को मिस्र से बहिष्कृत होने के बाद Moses के नेतृत्व में अपने राज्य की खोज करते समय आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Angel) जाबालि ऋषि (Gabriel), इन्द्र (Metatron) और अग्नि (Light), शिव के ज्योतिर्लिङ्ग के दर्शन तथा सहायता मिली । वास्तव में ’मिस्र’ / Egypt तथा ’इस्र’ / Isra क्रमशः महेश्वर एवं ईश्वर के ही सज्ञात (cognates) हैं ।
इस ’इस्र’ / Isra के भी पुनः दो रूप हैं :
एक का वर्णन वाल्मिकी-रामायण में एक अत्यन्त पराक्रमी राजा ’इल’ के रूप में भगवान् श्रीराम ने कथा द्वारा अपने अनुज श्री लक्ष्मण से किया है ।
कहने की आवश्यकता नहीं, कि वहाँ राजा ’इल’ को संपूर्ण पृथ्वी का एकमात्र ईश्वर कहा गया है । आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Anjel) जाबालि ऋषि (Gabriel) ने ’ईश्वर’ का वर्णन जिस रूप में Moses से किया वह वही आध्यात्मिक ’ईश्वर’ है जिसे यहूदी परंपरा में ’यहोवा’/ 'Jehovah' कहा गया ।
इसे ही उस दिव्य सत्ता (परमेश्वर) का एकमात्र ’नाम’ कहा गया है ।
बृहदारण्यक उपनिषद् में ’अहम् नाम अभवत्’ का उल्लेख स्पष्ट प्रमाण है कि ’अहम्’ / ’मैं’ / "I AM THAT I AM" ही एकमात्र परमेश्वर है ।
’ईसर’, ’इस्र’, ’अल्-इस्र’, (इस्र-आलय -इसरायल / Israel) उसी ’ईश्वर’ के लोकभाषाओं में प्रचलित हुए पर्याय हैं । यही ’ईश्वर’ दक्षिण भारत में भगवान् शिव के रूप में आराध्य और पूज्य है, तो इसे ही मालवा, निमाड़ तथा ब्रजभूमि तक में ’ईसर’ एवं ’ईसुर’ के रूप में श्राद्धपक्ष के दिनों में लोक में प्रचलित परंपराओं में ’संजा’ के साथ देखा जा सकता है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ’संजा’ का उद्भव ’सन्ध्या’ में देखते हैं किन्तु स्कन्द-पुराण में जिस संज्ञा का वर्णन सूर्य की पत्नी के रूप में पाया जाता है वह अधिक ग्राह्य है । उसी सूर्य-पत्नी संज्ञा ने सूर्य के ताप से संत्रस्त होकर अपनी एक प्रतिमा छाया निर्मित की और उसे सूर्य के पास छोड़ते हुए यह कहकर पिता (विश्वकर्मा) के घर चली गई कि जब तक तुम पर अत्यन्त विपत्ति न आ जाए तब तक यह रहस्य सूर्यदेव पर खुलने मत देना । सूर्य और संज्ञा से ही यमराज, वैवस्वत् मनु एवं अश्विनौ (अश्विनीकुमार) / Equinox का जन्म हुआ । यह न केवल पौराणिक वर्णन बल्कि खगोल-विज्ञान का सत्य भी है कि अश्विनौ (अश्विनीकुमार) / Equinox - (Equin-oxen) पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा-पथ पर स्थित दो बिन्दु-युग्मों का नाम है जिसे अंग्रेज़ी में Equinox / इक्विनॉक्स तथा Solstice सोल्स्टिस् कहा जाता है । सूर्य से ही ’सौर’ तथा ’सोल’, ’सोलर’ तथा ’सोल्स्टिस्’ 'Solomon', ’सौरमान’, ’सोलोमन’,'सुलेमान’ -- शब्द बने और अश्विनौ या अश्विन्-ऊक्षिण से ’इक्विनॉक्स’/ Equinox बने; -जो दो विषुवों (Equinox तथा मकर और कर्क-संक्रान्तियों (Solstice) के रूप में वेद में वर्णित हैं ।
’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ एवं ’अल् आ ह ऊ’, ’अल् आ ह ऊऽ’, ’अल् आ ह ऊऽऽ’ इत्यादि की विवेचना भी वैदिक ऋचा, मन्त्र, नाम आदि के रूप में की जा सकती है । इस प्रकार ’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ एवं ’अल् आ ह ऊऽ’ एवं ’अल् आ ह ऊऽऽ’ ईश्वर के ही नाम, मन्त्रात्मक स्वरूप, सूक्ष्म आधिदैविक प्रतिमा (विश्व) तथा स्थूल आधिभौतिक प्रतिमा (दृश्य जगत्) भी हैं ।
’अल्’ शब्द वैसे भी व्याकरण सम्मत ’प्रत्याहार’ भी है जिसका अर्थ वही है जिसे अंग्रेज़ी में ’ऑल’ / 'All' से व्यक्त किया जाता है । ’अलं’ संस्कृत अव्यय पद है जिसका प्रयोग पूर्ण, पूर्ण करने के अर्थ में किया जाता है । अरबी भाषा में यही ’अल्’- ’आर्टिकल’ / उपपद एवं उपाधि की तरह प्रयुक्त होता है । ’आलम’ शब्द को इसी प्रकार ’स्थिति’ या ’संसार’ ’दुनिया’ के पर्याय की तरह प्रयुक्त किया जाता है ।
संक्षेप में :
यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम परंपराओं में ’यहोवा’/ 'Jehovah', ’मैं’ नामक ’God’, तथा ’अल्लाह’ को व्यक्तिवाचक सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया जो संसार का एकमात्र स्वामी है और संसार को बनाता-मिटाता है । इससे ’एकेश्वरवाद’ का उद्भव हुआ, जिसे दुर्भाग्यवश ’पूर्ण सत्य’ मान लिया गया ।
’इल’ ऐसा ही एक राजा अवश्य था जो संपूर्ण पृथ्वी का एकमात्र ’ईश्वर’ था, जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 87 में विस्तार से किया गया है, किन्तु वह एकमात्र ’ईश्वर’ इला (पृथ्वी) का पति था / है, न कि परमेश्वर । परमेश्वर, महेश्वर, ईश्वर, परमात्मा तो वह है जिसे बाइबिल में ’यहोवा’ / 'Jehovah' तथा क़ुरान में ’अल्लाह’ कहा गया है । यह सृष्टिकर्ता और सृष्टि भी है । वही, जिसे बृहदारण्यक उपनिषद् में ’अहम्’ नाम प्राप्त हुआ, जिसका वर्णन गीता में इस प्रकार है :
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥२०
(अध्याय १०)
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पहली बार वर्ष जब १९८२-८३ के समय मुझे ईश-कृपा का भान तब हुआ जब मैं श्री महर्षि रमण के वचनों का अध्ययन-पठन कर रहा था ।
उनकी शिक्षा और उपदेश का मूल तत्व तो एक पैने नुकीले बाण की तरह पहले ही हृदय (या हृदय-ग्रंथि) को भेद चुका था, किन्तु शिशु के जन्म के बाद भी उसके बड़े होने में समय लगता है, श्री महर्षि रमण की शिक्षाओं और उपदेशों की ज़रूरत मुझे थी और वह मुझे निरंतर प्राप्त होता रहा ।
उनसे बातचीत के मूल-संग्रह (अंग्रेज़ी संस्करण : 'Talks with Sri Raman Maharshi', तथा हिन्दी संस्करण "श्री रमण महर्षि से बातचीत") तथा दूसरी पुस्तकें ("मैं कौन?", "श्री रमण-वाणी" "आत्मानुसन्धान" "तत्वबोध") आदि को पढ़ने के बाद भी मुझे उन ग्रन्थों से निरन्तर वह सब प्राप्त होता रहा, जिसकी समय-समय पर मुझे आवश्यकता होती थी ।
उनकी शिक्षाओं के मूल-संग्रह में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम की विचारधारा के मूल-तत्वों (Tenets) से जुड़े अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनका सन्दर्भ आज के युग में भी अत्यन्त प्रासंगिक है । यह अवश्य है कि धर्म (सनातन धर्म) किस प्रकार इन तीनों ऐतिहासिक परंपराओं का उद्गम है और वे परस्पर किस तरह एक-दूसरे से जुड़े हैं इसे सन्तोषजनक रूप से जानने-समझने में मुझे ३५ वर्ष लग गए ।
सबसे पहले मेरी ध्यान बाइबिल की उस उक्ति "आय एम दैट आय एम" पर गया जिसका उल्लेख "श्री रमण महर्षि से बातचीत" के क्रमांक 77, 106, 112, 131, 164, 188, 189, 201, 311, 338, 354, 426, 436, 476, और 609 में पाया जाता है ।
इससे मुझे यह स्पष्ट हो गया कि तोराह (हिब्रू बाइबिल), कैथोलिक बाइबिल (ओल्ड तथा न्यू टेस्टामेन्ट) में ’यहोवा’, तथा क़ुरान में वर्णित ’अल्लाह’ उसी दिव्य सत्ता के भिन्न भिन्न नाम हैं जिसे संस्कृत में ’ईश्वर’ (संज्ञा) तथा ’ईशिता’(क्रिया-विशेषण) कहा गया है । बाइबिल में इसका उल्लेख सीधे, बिल्कुल उसी प्रकार ’मैं’ के प्रयोग के माध्यम से उत्तम पुरुष एकवचन (’मैं’/ 'I') से किया गया है जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने किया है ।
इस प्रकार यह दिव्य सत्ता ही जिसे प्रत्यक्षतः हर कोई अनायास ’मैं’ की अन्तःस्फूर्ति से जानता है, वास्तविक ’यहोवा’ / 'Jehovah', ’अल्लाह’, ’मैं’ तथा ’ईश्वर’ का मूल वास्तविक स्वरूप है । वही एकमात्र ’यहोवा’, ’अल्लाह’, ’मैं’ तथा ’ईश्वर’ धर्म तथा अध्यात्म का सारतत्व है ।
आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Angel) जाबालि ऋषि (Gabriel) ने इसका ही उपदेश यहूदी संप्रदाय के प्रथम-पुरुष मूसा (Moses) को दिया, जिसका सीधा तात्पर्य (और व्याकरण के अनुसार अर्थ भी) वही है जिसे हिब्रू भाषा में ’यह्व’ अथवा ’यॉट्-हे-वौ-हे’(Y-H-V-H) से व्यक्त किया जाता है ।
निश्चित ही इसका उल्लेख ’यह्वः’ तथा ’यह्वी’ के रूपों में ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर बार बार पाया जाता है । Moses को पर्वत पर झाड़ियों में जिस प्रकाश / अग्नि के दर्शन हुए, ऋग्वेद में उसी अग्नि के ’यह्वः’ तथा ’यह्वी’ के उल्लेख से भी इसमें संशय नहीं हो सकता कि अग्नि ही वह दिव्य सत्ता है जिसका संकेत स्थूल अग्नि के माध्यम से Moses को इंगित किया गया । यहूदी (हिब्रू बाइबिल) के अनुकरण से ही ईसाई बाइबिल (संहिता) अस्तित्व में आया और (जैसा कि पहले कहा गया), जहाँ ’मैं’ के रूप में ’यहोवा’ / Jehovah का वर्णन ’उत्तम पुरुष एकवचन संज्ञा’ ('I') की तरह पाया जाता है ।
इन्हीं दो बाइबिल के अनुकरण से इस्लामी क़ुरान को उसका वर्तमान प्रचलित स्वरूप प्राप्त हुआ ।
क़ुरान के अध्याय 14 खण्ड (अल् इस्र / Exodus) में इसी प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन है, जिसका बाइबिल में यह वर्णन पाया जाता है कि किस प्रकार यहूदी कबीले को मिस्र से बहिष्कृत होने के बाद Moses के नेतृत्व में अपने राज्य की खोज करते समय आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Angel) जाबालि ऋषि (Gabriel), इन्द्र (Metatron) और अग्नि (Light), शिव के ज्योतिर्लिङ्ग के दर्शन तथा सहायता मिली । वास्तव में ’मिस्र’ / Egypt तथा ’इस्र’ / Isra क्रमशः महेश्वर एवं ईश्वर के ही सज्ञात (cognates) हैं ।
इस ’इस्र’ / Isra के भी पुनः दो रूप हैं :
एक का वर्णन वाल्मिकी-रामायण में एक अत्यन्त पराक्रमी राजा ’इल’ के रूप में भगवान् श्रीराम ने कथा द्वारा अपने अनुज श्री लक्ष्मण से किया है ।
कहने की आवश्यकता नहीं, कि वहाँ राजा ’इल’ को संपूर्ण पृथ्वी का एकमात्र ईश्वर कहा गया है । आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Anjel) जाबालि ऋषि (Gabriel) ने ’ईश्वर’ का वर्णन जिस रूप में Moses से किया वह वही आध्यात्मिक ’ईश्वर’ है जिसे यहूदी परंपरा में ’यहोवा’/ 'Jehovah' कहा गया ।
इसे ही उस दिव्य सत्ता (परमेश्वर) का एकमात्र ’नाम’ कहा गया है ।
बृहदारण्यक उपनिषद् में ’अहम् नाम अभवत्’ का उल्लेख स्पष्ट प्रमाण है कि ’अहम्’ / ’मैं’ / "I AM THAT I AM" ही एकमात्र परमेश्वर है ।
’ईसर’, ’इस्र’, ’अल्-इस्र’, (इस्र-आलय -इसरायल / Israel) उसी ’ईश्वर’ के लोकभाषाओं में प्रचलित हुए पर्याय हैं । यही ’ईश्वर’ दक्षिण भारत में भगवान् शिव के रूप में आराध्य और पूज्य है, तो इसे ही मालवा, निमाड़ तथा ब्रजभूमि तक में ’ईसर’ एवं ’ईसुर’ के रूप में श्राद्धपक्ष के दिनों में लोक में प्रचलित परंपराओं में ’संजा’ के साथ देखा जा सकता है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ’संजा’ का उद्भव ’सन्ध्या’ में देखते हैं किन्तु स्कन्द-पुराण में जिस संज्ञा का वर्णन सूर्य की पत्नी के रूप में पाया जाता है वह अधिक ग्राह्य है । उसी सूर्य-पत्नी संज्ञा ने सूर्य के ताप से संत्रस्त होकर अपनी एक प्रतिमा छाया निर्मित की और उसे सूर्य के पास छोड़ते हुए यह कहकर पिता (विश्वकर्मा) के घर चली गई कि जब तक तुम पर अत्यन्त विपत्ति न आ जाए तब तक यह रहस्य सूर्यदेव पर खुलने मत देना । सूर्य और संज्ञा से ही यमराज, वैवस्वत् मनु एवं अश्विनौ (अश्विनीकुमार) / Equinox का जन्म हुआ । यह न केवल पौराणिक वर्णन बल्कि खगोल-विज्ञान का सत्य भी है कि अश्विनौ (अश्विनीकुमार) / Equinox - (Equin-oxen) पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा-पथ पर स्थित दो बिन्दु-युग्मों का नाम है जिसे अंग्रेज़ी में Equinox / इक्विनॉक्स तथा Solstice सोल्स्टिस् कहा जाता है । सूर्य से ही ’सौर’ तथा ’सोल’, ’सोलर’ तथा ’सोल्स्टिस्’ 'Solomon', ’सौरमान’, ’सोलोमन’,'सुलेमान’ -- शब्द बने और अश्विनौ या अश्विन्-ऊक्षिण से ’इक्विनॉक्स’/ Equinox बने; -जो दो विषुवों (Equinox तथा मकर और कर्क-संक्रान्तियों (Solstice) के रूप में वेद में वर्णित हैं ।
’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ एवं ’अल् आ ह ऊ’, ’अल् आ ह ऊऽ’, ’अल् आ ह ऊऽऽ’ इत्यादि की विवेचना भी वैदिक ऋचा, मन्त्र, नाम आदि के रूप में की जा सकती है । इस प्रकार ’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ एवं ’अल् आ ह ऊऽ’ एवं ’अल् आ ह ऊऽऽ’ ईश्वर के ही नाम, मन्त्रात्मक स्वरूप, सूक्ष्म आधिदैविक प्रतिमा (विश्व) तथा स्थूल आधिभौतिक प्रतिमा (दृश्य जगत्) भी हैं ।
’अल्’ शब्द वैसे भी व्याकरण सम्मत ’प्रत्याहार’ भी है जिसका अर्थ वही है जिसे अंग्रेज़ी में ’ऑल’ / 'All' से व्यक्त किया जाता है । ’अलं’ संस्कृत अव्यय पद है जिसका प्रयोग पूर्ण, पूर्ण करने के अर्थ में किया जाता है । अरबी भाषा में यही ’अल्’- ’आर्टिकल’ / उपपद एवं उपाधि की तरह प्रयुक्त होता है । ’आलम’ शब्द को इसी प्रकार ’स्थिति’ या ’संसार’ ’दुनिया’ के पर्याय की तरह प्रयुक्त किया जाता है ।
संक्षेप में :
यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम परंपराओं में ’यहोवा’/ 'Jehovah', ’मैं’ नामक ’God’, तथा ’अल्लाह’ को व्यक्तिवाचक सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया जो संसार का एकमात्र स्वामी है और संसार को बनाता-मिटाता है । इससे ’एकेश्वरवाद’ का उद्भव हुआ, जिसे दुर्भाग्यवश ’पूर्ण सत्य’ मान लिया गया ।
’इल’ ऐसा ही एक राजा अवश्य था जो संपूर्ण पृथ्वी का एकमात्र ’ईश्वर’ था, जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 87 में विस्तार से किया गया है, किन्तु वह एकमात्र ’ईश्वर’ इला (पृथ्वी) का पति था / है, न कि परमेश्वर । परमेश्वर, महेश्वर, ईश्वर, परमात्मा तो वह है जिसे बाइबिल में ’यहोवा’ / 'Jehovah' तथा क़ुरान में ’अल्लाह’ कहा गया है । यह सृष्टिकर्ता और सृष्टि भी है । वही, जिसे बृहदारण्यक उपनिषद् में ’अहम्’ नाम प्राप्त हुआ, जिसका वर्णन गीता में इस प्रकार है :
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥२०
(अध्याय १०)
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