While writing the last post I suddenly knew that the word 'Semitic' is closely connected with this aspect of
'शमन-धर्म'
We can conveniently and convincingly arrive at the conclusion that the Sanskrit Language and the word 'Sanskrit' संस्कृत itself is a derivative of the word
'शं';
Though another way of elucidating could be by splitting the word as :
'सं' -स्कृत / सं कृत,
where the letter / वर्ण स् creeps in between सं and कृत .
This also clarifies that संस्कृत is not संकृत (which means hybrid or admixture).
संकृत is a word used in a derogatory sense, while संस्कृत is treated in the sense of 'refined'/ 'chaste' /शुद्ध / परिमार्जित .
Whatever be the truth, the word 'Semitic' could be interpreted in both ways.
There is the Language that is what we know 'Semitic' and the tradition as well that is thought of as 'Semitic'.
--
जब हातिम ताई ने आचार्य के मुख से 'ईश्वर' और 'परमेश्वर' सुना तो उनसे जिज्ञासावश पूछा :
"क्या ये दोनों एक ही नहीं हैं ?"
"एक हैं, और अनेक भी हैं, - और एक अथवा अनेक से विलक्षण भी हैं। इसलिए ये एकवचन, द्विवचन और बहुवचन भी हैं।"
हातिम ताई को कुछ स्पष्ट नहीं हुआ।
"अभी इसे समझने की जल्दी मत करो ।"
हातिम ताई को वे दिन याद आए जब कापालिकों के नगर में विष्णु-प्रतिमा के सामने स्थित दो गरुड-स्तंभों में से एक पर स्थित गरुड-प्रतिमा और दूसरे पर बैठे वास्तविक गरुड़ के बारे में उसे यही संशय हुआ था :
"क्या ये दोनों एक ही नहीं हैं ?"
तब आसपास खड़े लोगों ने उसे अचरजभरी निगाहों से देखा था क्योंकि उनमें से किसी को इस बात की कल्पना तक नहीं थी कि हातिम ताई का आगमन उनके बीच क्यों और कैसे हुआ था। क्योंकि वास्तव में उन दोनों में से किसी ने उसे उसके घर से अपहृत कर वहाँ से कुछ दूर एक ख़जूर के पेड़ पर ला रखा था।
हातिम ताई ने भी फिर और आग्रह नहीं किया।
बहुत दिनों तक नित्य शान्ति-पाठ करते करते उसे कौंधा कि जैसे 'शं' ही मित्र है और 'शं' ही वरुण है; जैसे 'शं' ही अर्यमा (होता) है और 'शं' ही इन्द्र तथा बृहस्पति है, ... और जैसे 'शं' ही विष्णु उरुक्रम भी है, ठीक उसी तरह वे दोनों एक हैं, अनेक हैं तथा एक और अनेक से विलक्षण भी हैं।
विस्मय से भर गया था वह।
आचार्य ने जब उसे विस्मय-चकित देखा तो पूछा :
"क्या हुआ ?"
कुछ पल तक तो वह कुछ बोल ही न सका।
फिर उसने कहा :
"आचार्यजी ! मैं जिस स्थान से आया हूँ उस कापालिकों के नगर में एक बड़ा मंदिर है जहाँ 360 प्रतिमाएँ ईश्वर की हैं, किन्तु परमेश्वर की कोई प्रतिमा नहीं हैं। 'कठोलिक' सम्प्रदाय के भृगु अङ्गिरा परंपरा के आचार्य समझ गए कि हातिम ताई कहाँ से आया था।
उन्होंने कहा :
"वे प्रतिमाएँ 24 तत्वों की हैं और प्रत्येक प्रतिमा एक ही आदित्य की है।
इस तरह आदित्य 12 होकर भी प्रतिमा के रूप में 24 तत्व भी हैं। और प्रत्येक तत्व पुनः कृष्ण-पक्ष तथा शुक्ल पक्ष के पंद्रह पंद्रह दिनों का होता है। इस प्रकार वे 360 प्रतिमाएँ, वर्ष की 360 तिथियों के रूप में संवत्सर की ही प्रतिमाएँ हैं जिनमें से प्रत्येक ही संवत्सर है।"
हातिम ताई का विस्मय तब और भी बढ़ गया था।
बहुत दिनों बाद उसे याद आया कि कापालिकों के उस मंदिर में एक भव्य स्वर्ण तथा रत्न-जटित शिव-लिङ्ग भी था जिसे वे लोग 'परमेश्वर' या 'ईश्वर' भी कहते थे।
तब उसने एक दिन आचार्य से प्रश्न किया कि क्या 'ईश्वर', 'परमेश्वर' तथा 'महेश्वर' एक ही हैं ?
तब आचार्य बोले :
"हाँ ! उन्हें ही 24 तत्वों के रूप में भी देखा जाता है, जिसकी चर्चा मैंने तुमसे पहले भी की थी। "
आचार्य को भी यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हातिम ताई को 'महेश्वर' के बारे में कैसे पता चला ?
वैसे आचार्य को यह भी ज्ञात था कि साङ्ख्य के आचार्य कपिल, भगवान् कपालीश्वर के भक्त भी थे, और उन्हें उनका ही अवतार भी कहा जाता है। आचार्य ने इसी आधार पर 24 तत्वों के उल्लेख से हातिम ताई को इसका संकेत भी दिया।
तब उन्होंने उसे बताया :
"इस पूरे क्षेत्र की लोकभाषा में ईश्वर को ईसर या इस्र तथा महेश्वर को महेसर या मिस्र कहा जाता है। मिस्र उस स्थान का नाम है जो यहाँ से बहुत दूर है।"
तब हातिम ताई को याद आया कि वास्तव में गरुड़ ने उसे उसी 'मिस्र' में स्थित उसके घर से पहली बार तब उठाया था, जब वह दो-तीन साल की आयु का था और अपने घर के बाहर अकेला ही खेल रहा था। वह प्रायः किसी अज्ञात प्रेरणा से उस रेगिस्तान की रेत से शिव-लिङ्ग बनाकर उसे ईश्वर मानकर, शीश झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर उसके सामने कुछ बुदबुदाता रहता था। हाँ उसने एक या दो बार माता-पिता के साथ 'मिस्र' के दर्शन भी किए थे।
हातिम ताई बहुत देर तक देह-भान भूलकर आनंदमग्न दशा में बैठा रहा।
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(24 तत्वों और 3 गुणों से ही 72000 नाड़ियों में;
- प्राणों की गति परिभाषित, प्रकाशित और व्यक्त होती है। )
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'शमन-धर्म'
We can conveniently and convincingly arrive at the conclusion that the Sanskrit Language and the word 'Sanskrit' संस्कृत itself is a derivative of the word
'शं';
Though another way of elucidating could be by splitting the word as :
'सं' -स्कृत / सं कृत,
where the letter / वर्ण स् creeps in between सं and कृत .
This also clarifies that संस्कृत is not संकृत (which means hybrid or admixture).
संकृत is a word used in a derogatory sense, while संस्कृत is treated in the sense of 'refined'/ 'chaste' /शुद्ध / परिमार्जित .
Whatever be the truth, the word 'Semitic' could be interpreted in both ways.
There is the Language that is what we know 'Semitic' and the tradition as well that is thought of as 'Semitic'.
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जब हातिम ताई ने आचार्य के मुख से 'ईश्वर' और 'परमेश्वर' सुना तो उनसे जिज्ञासावश पूछा :
"क्या ये दोनों एक ही नहीं हैं ?"
"एक हैं, और अनेक भी हैं, - और एक अथवा अनेक से विलक्षण भी हैं। इसलिए ये एकवचन, द्विवचन और बहुवचन भी हैं।"
हातिम ताई को कुछ स्पष्ट नहीं हुआ।
"अभी इसे समझने की जल्दी मत करो ।"
हातिम ताई को वे दिन याद आए जब कापालिकों के नगर में विष्णु-प्रतिमा के सामने स्थित दो गरुड-स्तंभों में से एक पर स्थित गरुड-प्रतिमा और दूसरे पर बैठे वास्तविक गरुड़ के बारे में उसे यही संशय हुआ था :
"क्या ये दोनों एक ही नहीं हैं ?"
तब आसपास खड़े लोगों ने उसे अचरजभरी निगाहों से देखा था क्योंकि उनमें से किसी को इस बात की कल्पना तक नहीं थी कि हातिम ताई का आगमन उनके बीच क्यों और कैसे हुआ था। क्योंकि वास्तव में उन दोनों में से किसी ने उसे उसके घर से अपहृत कर वहाँ से कुछ दूर एक ख़जूर के पेड़ पर ला रखा था।
हातिम ताई ने भी फिर और आग्रह नहीं किया।
बहुत दिनों तक नित्य शान्ति-पाठ करते करते उसे कौंधा कि जैसे 'शं' ही मित्र है और 'शं' ही वरुण है; जैसे 'शं' ही अर्यमा (होता) है और 'शं' ही इन्द्र तथा बृहस्पति है, ... और जैसे 'शं' ही विष्णु उरुक्रम भी है, ठीक उसी तरह वे दोनों एक हैं, अनेक हैं तथा एक और अनेक से विलक्षण भी हैं।
विस्मय से भर गया था वह।
आचार्य ने जब उसे विस्मय-चकित देखा तो पूछा :
"क्या हुआ ?"
कुछ पल तक तो वह कुछ बोल ही न सका।
फिर उसने कहा :
"आचार्यजी ! मैं जिस स्थान से आया हूँ उस कापालिकों के नगर में एक बड़ा मंदिर है जहाँ 360 प्रतिमाएँ ईश्वर की हैं, किन्तु परमेश्वर की कोई प्रतिमा नहीं हैं। 'कठोलिक' सम्प्रदाय के भृगु अङ्गिरा परंपरा के आचार्य समझ गए कि हातिम ताई कहाँ से आया था।
उन्होंने कहा :
"वे प्रतिमाएँ 24 तत्वों की हैं और प्रत्येक प्रतिमा एक ही आदित्य की है।
इस तरह आदित्य 12 होकर भी प्रतिमा के रूप में 24 तत्व भी हैं। और प्रत्येक तत्व पुनः कृष्ण-पक्ष तथा शुक्ल पक्ष के पंद्रह पंद्रह दिनों का होता है। इस प्रकार वे 360 प्रतिमाएँ, वर्ष की 360 तिथियों के रूप में संवत्सर की ही प्रतिमाएँ हैं जिनमें से प्रत्येक ही संवत्सर है।"
हातिम ताई का विस्मय तब और भी बढ़ गया था।
बहुत दिनों बाद उसे याद आया कि कापालिकों के उस मंदिर में एक भव्य स्वर्ण तथा रत्न-जटित शिव-लिङ्ग भी था जिसे वे लोग 'परमेश्वर' या 'ईश्वर' भी कहते थे।
तब उसने एक दिन आचार्य से प्रश्न किया कि क्या 'ईश्वर', 'परमेश्वर' तथा 'महेश्वर' एक ही हैं ?
तब आचार्य बोले :
"हाँ ! उन्हें ही 24 तत्वों के रूप में भी देखा जाता है, जिसकी चर्चा मैंने तुमसे पहले भी की थी। "
आचार्य को भी यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हातिम ताई को 'महेश्वर' के बारे में कैसे पता चला ?
वैसे आचार्य को यह भी ज्ञात था कि साङ्ख्य के आचार्य कपिल, भगवान् कपालीश्वर के भक्त भी थे, और उन्हें उनका ही अवतार भी कहा जाता है। आचार्य ने इसी आधार पर 24 तत्वों के उल्लेख से हातिम ताई को इसका संकेत भी दिया।
तब उन्होंने उसे बताया :
"इस पूरे क्षेत्र की लोकभाषा में ईश्वर को ईसर या इस्र तथा महेश्वर को महेसर या मिस्र कहा जाता है। मिस्र उस स्थान का नाम है जो यहाँ से बहुत दूर है।"
तब हातिम ताई को याद आया कि वास्तव में गरुड़ ने उसे उसी 'मिस्र' में स्थित उसके घर से पहली बार तब उठाया था, जब वह दो-तीन साल की आयु का था और अपने घर के बाहर अकेला ही खेल रहा था। वह प्रायः किसी अज्ञात प्रेरणा से उस रेगिस्तान की रेत से शिव-लिङ्ग बनाकर उसे ईश्वर मानकर, शीश झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर उसके सामने कुछ बुदबुदाता रहता था। हाँ उसने एक या दो बार माता-पिता के साथ 'मिस्र' के दर्शन भी किए थे।
हातिम ताई बहुत देर तक देह-भान भूलकर आनंदमग्न दशा में बैठा रहा।
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(24 तत्वों और 3 गुणों से ही 72000 नाड़ियों में;
- प्राणों की गति परिभाषित, प्रकाशित और व्यक्त होती है। )
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