Monday, 22 July 2019

The Bridge-Valley भृगुवल्ली / तैत्तिरीय

भृगुवल्ली / तैत्तिरीय / कृष्ण-यजुर्वेद 
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शमन-धर्म
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हातिम-ताई का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तो वह ऋषि भृगु - अङ्गिरा (Angel) के गोत्र के गुरुकुल का अन्तेवासी हो गया ।
तब उसे आचार्य के अन्य शिष्यों के साथ शिक्षा-सत्र में शामिल होने का प्रसंग उपस्थित हुआ ।
दूसरे सभी शिष्य अभी बालक वटुक थे, जबकि हातिम-ताई आयु के तीसरे पड़ाव को पार कर चुका था ।
"आचार्य ने उससे उसके पूर्व-जीवन का वृत्तान्त क्यों नहीं पूछा?"
हातिम ताई के इस प्रश्न पर आचार्य ने कहा :
"तुम आयु के तीसरे पड़ाव (सोपान) को पार कर चुके हो । ये वटुक अभी आयु के पहले पड़ाव का अतिक्रमण कर चुके हैं । इसलिए उन्हें ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी गई । आयु की दृष्टि से तुम गृहस्थ आश्रम की मर्यादा पूरी कर चुके हो । इसलिए उस पूर्व-जीवन से निवृत्त होकर इस वानप्रस्थ जीवन में प्रवृत्त होने पर तुम वैसे भी ब्रह्मचर्य में ही स्थित हो । वे ब्रह्मचारी वटुक भी प्रकृति से ही ब्रह्मचर्य में स्थित हैं और यदि अभी उन्हें संस्कार प्राप्त हो जाता है, तो वे आयु के आगामी सोपान तक पहुँचने से पूर्व ही विवेक-वैराग्य की उस भूमिका को प्राप्त कर लेंगे जिसे तुमने तुम्हारे पूर्व के शुभ कर्मों से तुम्हारी आयु के इस सोपान पर अदृश्य संयोग से प्राप्त किया है । अदृश्य इसलिए क्योंकि इसे ईश्वर-कृपा या दैव भी कहा जाता है । ईश्वर ही देवता है जिसे ब्रह्मचर्यपूर्वक वर्णों के अभ्यास से जाना जाता है । इसी देवता का नाम शंकर, शम्भू आदि है जो परिणाम (परि-नाम) के रूप में शान्त की तरह भी ग्रहण किया जाता है ।
यही (शम् - वर्ण) शान्ति के रूप में सर्वत्र अवस्थित नित्य-तृप्त परमेश्वर है । इसी प्रच्छन्न शान्त को शान्ति-पाठ के माध्यम से प्रकटतः जाना जाता है । अब तुम इस कक्षा के छात्र हो अर्थात् इस शिष्य मंडल की छाया में हो, अतः यहाँ बैठकर इसकी यह शिक्षा ग्रहण करो ।"
तब आचार्य ने शाम (साम) स्वरों में शान्ति-पाठ का उपदेश इस प्रकार प्रारंभ किया :

शं नो मित्रः । शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा ।
शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः ।
नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो ।
त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ।
ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि ।
तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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om̐
śaṃ no mitraḥ śaṃ varuṇaḥ | śaṃ no bhavatvaryamā |
śaṃ no indro bṛhaspatiḥ | śaṃ no viṣṇururukramaḥ |
namo brahmaṇe | namaste vāyo |
tvameva pratyakṣaṃ brahmāsi | tvāmeva pratyakṣaṃ brahma vadiṣyāmi |
ṛtaṃ vadiṣyāmi | satyaṃ vadiṣyāmi |
tanmāmavatu | tadvaktāramavatu | avatu mām | avatu vaktāram |
om̐ śāntiḥ śāntiḥ śāntiḥ ||
टिप्पणी :
सुरलोक को तब सुरीय / स्वरीय / स्वरीया आदि नामों से जाना जाता था । लोकभाषा के प्रभाव (असर) से इसमें ’अ’ उपसर्ग संयुक्त होने से इसे आगे चलकर असुरीय या असीरिया और वर्तमान में सीरिया (शाम) कहा जाने लगा । यह है सीरिया / शाम का प्रागितिहास । उर्दू भाषा में सीरिया को शाम कहा जाता है। 
'साम' वैसे तो सामवेद का तत्व है, किन्तु अर्थ-साम्य (purport / meaning) तथा ध्वनि-साम्य (phonetics) के आधार पर 'Psalm' को इसी का सज्ञात (cognate) कहा जा सकता है।
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