ब्रह्मा, वसिष्ठ, वरुण, मित्र, उर्वशी, कुम्भ, वीर्य, पुरूरवा
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वाल्मीकि रामायणे उत्तरकाण्डे,
षट्पञ्चाशः सर्गः
--
रामस्य भाषितं श्रुत्वा लक्ष्मणः परवीरहा।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा राघवं दीप्ततेजसम्।।1
निक्षिप्य देहो काकुत्स्थं कथं तौ द्विजपार्थिवौ।
पुनर्देहेन संयोगं जग्मतुर्देवसम्मतौ।।2
लक्ष्मणेनैवमुक्तस्तु राम इक्ष्वाकु-नन्दनः।
प्रत्युवाच महातेजा लक्ष्मणं पुरुषर्षभ।।3
तौ परस्परशापेन देहमुत्सृज्य धार्मिकौ।
अभूतां नृपविप्रर्षी वायुभूतौ तपोधनौ।।4
अशरीरः शरीरस्य कृतेऽन्यस्य महामुनिः।
वसिष्ठस्तु महातेजा जगाम पितुरन्तिकम्।।5
सोऽभिवाद्य ततः पादौ देवदेवस्य धर्मवित्।
पिताहमथोवाच वायुभूत इदं वचः।।6
भगवन् निमि-शापेन विदेहत्वमुपागमम्।
देवदेव महादेव वायुभूतोऽहमण्डजः।।7
सर्वेषां देहहीनानां महद् दुःखं भविष्यति।
लुप्यन्ते सर्वकार्याणि हीनदेहस्य वै प्रभो।।8
देहस्यान्य सद्भावे प्रसादं कर्तुमर्हसि।
तमुवाच ततो ब्रह्मा स्वयंभूरमितप्रभः।।9
मित्रा-वरुणजं तेज आविश त्वं महायशः।
अयोनिजस्त्वं भविता तत्रापि द्विजसत्तम।
धर्मेण महता युक्तः पुनरेष्यसि मे वशम् ।।10
(त्रिपदीय श्लोक)
एवमुक्तस्तु देवेन अभिवाद्य प्रदक्षिणम्।
कृत्वा पितामहं तूर्णं प्रययौ वरुणालयम्।।11
तमेव कालं मित्रोऽपि वरुणत्वमकारयत्।
क्षीरोदेन सहोपेतः पूज्यमानैः सुरेश्वरैः।।12
एतस्मिन्नेव काले तु उर्वशी परमाप्सराः।
यदृच्छया तमुद्देशमागता सखिभिर्वृता।।13
तां दृष्ट्वा रूपसम्पन्नां क्रीडन्तीं वरुणालये।
तदाविशत् परो हर्षो वरुणं चोर्वशीकृते।।14
स तां पद्मपलाशाक्षीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम्।
वरुणो वरयामास मैथुनायाप्सरोवराम्।।15
प्रत्युवाच ततः सा तु वरुणं प्राञ्जलिः स्थिता।
मित्रेणाहं वृता साक्षात् पूर्वमेव सुरेश्वर।।16
वरुणस्त्वब्रवीद् वाक्यं कन्दर्पशरपीडितः।
इदं तेजः समुत्स्रक्ष्ये कुम्भेऽस्मिन् देवनिर्मिते।।17
एवमुत्सृज्य सुश्रोणि त्वय्यह्ं वरवर्णिनी।
कृतकामोभविष्यामि यदि नेच्छसि सङ्गमम्।।18
तस्य तल्लोकनाथस्य वरुणस्य सुभाषितम्।
उर्वशी परमप्रीता श्रुत्वा वाक्यमुवाच ह।।19
काममेतद्भवत्वेवं हृदयं मे त्वयि स्थितम्।
भावश्चाप्यधिकं तुभ्यं देहो मित्रस्य तु प्रभो।।20
उर्वश्या एवमुक्तस्तु रेतस्तन्महदद्भुतम्।
ज्वलदग्निसमप्रख्यं तस्मिन् कुम्भे न्यवासृजत्।।21
उर्वशी त्वमगत् तत्र मित्रो वै यत्र देवता।
तां तु मित्रः सुसंक्रुद्ध उर्वशीमिदमब्रवीत्।।22
मयाभिमन्त्रिता पूर्वं कस्मात् त्वमवसर्जिता।
पतिमन्यं वृतवती किमर्थं दुष्टचारिणी।।23
अनेन दुष्कृतेन त्वं मत्क्रोधकलुषीकृता।
मनुष्यलोकमास्थाय कंचित् कालं निवत्स्यति।।24
बुधस्य पुत्र राजर्षिः कशिराजः पुरूरवाः।
तमभ्यागच्छ दुर्बुद्धे स ते भर्ता भविष्यति।।25
ततः सा शापदोषेण पुरूरवसमभ्यगात्।
प्रतिष्ठाने पुरूरवं बुधस्यात्मजमौरसम्।।26
तस्य जज्ञे ततः श्रीमानायुः पुत्रो महाबलः।
नहुषो यस्य पुत्रस्तु बभूवेन्द्रसमद्युतिः।।27
वज्रमुत्सृज्य वृत्राय श्रान्तेऽथ त्रिदिवेश्वरे।
शतं वर्षसहस्राणि येनेन्द्रत्वं प्रशासितम्।।28
सा तेन शापेन जगाम भूमिं
तदोर्वशी चारुदती सुनेत्रा।
बहूनि वर्णाण्यवसच्च सुभ्रुः
शापक्षयादिन्द्रसदो ययौ च।।29
--
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः।।
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अर्थ :
श्री वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड,
सर्ग ५६
--
(ब्रह्माजी के कहने से वसिष्ठ का वरुण के वीर्य में आवेश, वरुण का उर्वशी के समीप एक कुम्भ में अपने वीर्य का आधान तथा मित्र के शाप से उर्वशी का भूतल में राजा पुरूरवा के पास रहकर पुत्र उत्पन्न करना )
श्रीरामचन्द्रजी के मुख से कही गयी यह कथा सुनकर शत्रुवीरों का संहार करनेवाले लक्ष्मण उद्दीप्त तेजवाले श्रीरघुनाथजी से हाथ जोड़कर बोले --
’ककुत्स्थभूषण ! वे महर्षि और वे भूपाल दोनों देवताओं के भी सम्मानपात्र थे । उन्होंने अपने शरीरों का त्याग करके फिर नूतन शरीर कैसे ग्रहण किया ?’
लक्ष्मण के इस प्रकार पूछने पर इक्ष्वाकुकुल-नन्दन महातेजस्वी पुरुषप्रवर श्रीराम ने उनसे इस प्रकार कहा :
’सुमित्रानन्दन ! एक-दूसरे के शाप से देह त्याग करके तपस्या के धनी वे धर्मात्मा राजर्षि और ब्रह्मर्षि वायुरूप (निराकार प्राणरूप) हो गये ।
’महातेजस्वी महामुनि वसिष्ठ शरीररहित हो जाने पर दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिए अपने पिता ब्रह्माजी के पास गये ।
’धर्म के ज्ञाता वायुरूप वसिष्ठजी ने देवाधिदेव ब्रह्माजी के चरणों में प्रणाम करके उन पितामह से इस प्रकार कहा :
"ब्रह्माण्डकटाह से प्रकट हुए देवाधिदेव महादेव ! मैं राजा निमि के शाप से देहहीन हो गया हूँ; अतः वायुरूप में रह रहा हूँ ।
"प्रभो ! समस्त देहहीनों को महान् दुःख होता है और होता रहेगा; क्योंकि देहहीन प्राणी के सभी कार्य लुप्त हो जाते हैं । अतः दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिये आप मुझ पर कृपा करें ।’
(टिप्पणी : देहरहित होने से वे वैसे ही देहभान से भी रहित थे जैसे मनुष्य व इतर प्राणी भी देह के होते हुए भी कभी कभी देहभान से रहित होकर मनोलोक में वृत्तिमात्र होकर विचरते रहते हैं ।)
’तब अमित तेजस्वी स्वयम्भू ब्रह्मा ने उनसे कहा --
’महायशस्वी द्विजश्रेष्ठ ! तुम मित्र और वरुण के छोड़े हुए तेज (वीर्य) में प्रविष्ट हो जाओ । वहाँ जाने पर भी तुम अयोनिज रूप से ही उत्पन्न होओगे और महान् धर्म से युक्त हो पुत्ररूप से मेरे वश में आ जाओगे (मेरे पुत्र होने के कारण तुम्हें पूर्ववत् प्रजापति का पद प्राप्त होगा)’
(टिप्पणी : स्थान और व्यतीत होनेवाला काल भी ब्रह्माकी ही सन्तान हैं।)
’ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर उनके चरणों में प्रणाम तथा उनकी परिक्रमा करके वायुरूप वसिष्ठजी वरुणलोक को चले गये ।
’उन्हीं दिनों मित्रदेवता भी वरुण के अधिकार का पालन कर रहे थे । वे वरुण के साथ रहकर समस्त देवेश्वरों द्वारा पूजित होते थे ।
’इसी समय अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी सखियों से घिरी हुई अकस्मात् उस स्थान पर आ गई ।
’उस परम सुन्दरी अप्सरा को क्षीरसागर में नहाती और जलक्रीडा करती देख वरुण के मन में उर्वशी के लिए अत्यन्त उल्लास प्रकट हुआ ।
’उन्होंने प्रफुल्ल कमल के समान नेत्र और पूर्ण चन्द्रमा के समान मुखवाली उस सुन्दरी अप्सरा को समागम के लिए आमन्त्रित किया ।
’तब उर्वशी ने हाथ जोड़कर वरुण से कहा :
’सुरेश्वर ! साक्षात् मित्रदेवता ने पहले से ही मेरा वरण कर लिया है ।’
’यह सुनकर वरुण ने कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर कहा --
’सुन्दर रूप-रंगवाली सुश्रोणि ! यदि तुम मुझसे समागम नहीं करना चाहतीं तो मैं तुम्हारे समीप इस देवनिर्मित कुम्भ में अपना यह वीर्य छोड़ दूँगा और इस प्रकार छोड़कर ही सफल मनोरथ हो जाऊँगा ।’
(टिप्पणी :
देवता भी मनुष्येतर प्राणियों की तरह भोगयोनि होने से विधाता के आदेश के अनुसार ही प्रारब्धवश स्वर्ग के भोगों को प्राप्त करते हैं, न कि अपनी इच्छा से उस तरह जैसे कि मनुष्य इच्छा, संकल्प, पराक्रम, और दैव के अनुकूल होने पर प्राप्त कर लेता है ।)
’लोकनाथ वरुण का यह मनोहर वचन सुनकर उर्वशी को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह बोली --
"प्रभो ! आपकी इच्छा के अनुसार ऐसा ही हो । मेरा हृदय आपमें अनुरक्त है और आपका अनुराग भी मुझमें अधिक है; इसलिए आप मेरे उद्देश्य से उस कुम्भ में वीर्याधान कीजिये । इस शरीर पर तो इस समय मित्र का अधिकार हो चुका है ।’
(व्यतीत होनेवाला काल, कामदेव, मित्र और वरुण की तरह स्वर्गलोक में वास करनेवाले देवता हैं, अप्सराएँ भी ऐसी ही देवता होती हैं किन्तु वे विधाता ब्रह्मदेवता के संकल्प से सृष्टि के कार्य में सहायक होती हैं । इस प्रकार देवताओं के लिए मानवोचित नैतिकता-अनैतिकता का प्रश्न ही नहीं उठता । वे प्रारब्धवश ही किसी कार्य में यन्त्रवत् संलग्न और संयुक्त होते हैं; - न कि अपने स्वतन्त्र संकल्प से ।)
’उर्वशी के ऐसा कहने पर वरुण ने प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशमान अपने अत्यन्त अद्भुत् तेज (वीर्य) को उस कुम्भ में डाल दिया ।
’तदनन्तर उर्वशी उस स्थान पर गयी, जहाँ मित्रदेवता विराजमान थे । उस समय मित्र अत्यन्त कुपित हो उस उर्वशी से इस प्रकार बोले --
"दुराचारिणी ! पहले मैंने तुझे समागम के लिए आमन्त्रित किया था; फिर किसलिए तूने मेरा त्याग किया और क्यों दूसरे पति का वरण कर लिया ?
"अपने इस पाप के कारण मेरे क्रोध से कलुषित हो तू कुछ काल तक मनुष्यलोक में जाकर निवास करेगी ।
"दुर्बुद्धे ! बुध के पुत्र राजर्षि पुरूरवा, जो काशिदेश के राजा हैं, उनके पास चली जा, वे ही तेरे पति होंगे’
’तब वह शाप-दोष से दूषित हो प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग-झूसी) में बुध के औरस पुत्र पुरूरवा के पास गयी ।
(टिप्पणी :
जैसे भौतिक रूप से काशी पृथ्वी पर गंगातट पर भी अवस्थित है और दक्षिण में काञ्ची में भी, उसी प्रकार प्रतिष्ठान / प्रतिष्ठानपुर भी दक्षिण में वर्तमान पैठण, महाराष्ट्र में भी अवस्थित है ।)
’पुरूरवा के उर्वशी के गर्भ से श्रीमान् आयु नामक महाबली पुत्र हुआ, जिसके इन्द्रतुल्य तेजस्वी पुत्र महाराज नहुष थे ।
’वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार करके जब देवराज इन्द्र ब्रह्महत्या के भय से दुःखी हो छिप गये थे, तब नहुष ने ही एक लाख वर्षों तक ’इन्द्र’ पद पर प्रतिष्ठित हो त्रिलोकी के राज्य का शासन किया था ।
’मनोहर दाँत और सुन्दर नेत्रवाली उर्वशी मित्र के दिये हुए उस शाप से भूतल पर चली गयी । वहाँ वह सुन्दरी बहुत वर्षों तक रही । फिर पाप का क्षय होने पर इन्द्रसभा में चली गयी’
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
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वाल्मीकि रामायणे उत्तरकाण्डे,
षट्पञ्चाशः सर्गः
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रामस्य भाषितं श्रुत्वा लक्ष्मणः परवीरहा।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा राघवं दीप्ततेजसम्।।1
निक्षिप्य देहो काकुत्स्थं कथं तौ द्विजपार्थिवौ।
पुनर्देहेन संयोगं जग्मतुर्देवसम्मतौ।।2
लक्ष्मणेनैवमुक्तस्तु राम इक्ष्वाकु-नन्दनः।
प्रत्युवाच महातेजा लक्ष्मणं पुरुषर्षभ।।3
तौ परस्परशापेन देहमुत्सृज्य धार्मिकौ।
अभूतां नृपविप्रर्षी वायुभूतौ तपोधनौ।।4
अशरीरः शरीरस्य कृतेऽन्यस्य महामुनिः।
वसिष्ठस्तु महातेजा जगाम पितुरन्तिकम्।।5
सोऽभिवाद्य ततः पादौ देवदेवस्य धर्मवित्।
पिताहमथोवाच वायुभूत इदं वचः।।6
भगवन् निमि-शापेन विदेहत्वमुपागमम्।
देवदेव महादेव वायुभूतोऽहमण्डजः।।7
सर्वेषां देहहीनानां महद् दुःखं भविष्यति।
लुप्यन्ते सर्वकार्याणि हीनदेहस्य वै प्रभो।।8
देहस्यान्य सद्भावे प्रसादं कर्तुमर्हसि।
तमुवाच ततो ब्रह्मा स्वयंभूरमितप्रभः।।9
मित्रा-वरुणजं तेज आविश त्वं महायशः।
अयोनिजस्त्वं भविता तत्रापि द्विजसत्तम।
धर्मेण महता युक्तः पुनरेष्यसि मे वशम् ।।10
(त्रिपदीय श्लोक)
एवमुक्तस्तु देवेन अभिवाद्य प्रदक्षिणम्।
कृत्वा पितामहं तूर्णं प्रययौ वरुणालयम्।।11
तमेव कालं मित्रोऽपि वरुणत्वमकारयत्।
क्षीरोदेन सहोपेतः पूज्यमानैः सुरेश्वरैः।।12
एतस्मिन्नेव काले तु उर्वशी परमाप्सराः।
यदृच्छया तमुद्देशमागता सखिभिर्वृता।।13
तां दृष्ट्वा रूपसम्पन्नां क्रीडन्तीं वरुणालये।
तदाविशत् परो हर्षो वरुणं चोर्वशीकृते।।14
स तां पद्मपलाशाक्षीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम्।
वरुणो वरयामास मैथुनायाप्सरोवराम्।।15
प्रत्युवाच ततः सा तु वरुणं प्राञ्जलिः स्थिता।
मित्रेणाहं वृता साक्षात् पूर्वमेव सुरेश्वर।।16
वरुणस्त्वब्रवीद् वाक्यं कन्दर्पशरपीडितः।
इदं तेजः समुत्स्रक्ष्ये कुम्भेऽस्मिन् देवनिर्मिते।।17
एवमुत्सृज्य सुश्रोणि त्वय्यह्ं वरवर्णिनी।
कृतकामोभविष्यामि यदि नेच्छसि सङ्गमम्।।18
तस्य तल्लोकनाथस्य वरुणस्य सुभाषितम्।
उर्वशी परमप्रीता श्रुत्वा वाक्यमुवाच ह।।19
काममेतद्भवत्वेवं हृदयं मे त्वयि स्थितम्।
भावश्चाप्यधिकं तुभ्यं देहो मित्रस्य तु प्रभो।।20
उर्वश्या एवमुक्तस्तु रेतस्तन्महदद्भुतम्।
ज्वलदग्निसमप्रख्यं तस्मिन् कुम्भे न्यवासृजत्।।21
उर्वशी त्वमगत् तत्र मित्रो वै यत्र देवता।
तां तु मित्रः सुसंक्रुद्ध उर्वशीमिदमब्रवीत्।।22
मयाभिमन्त्रिता पूर्वं कस्मात् त्वमवसर्जिता।
पतिमन्यं वृतवती किमर्थं दुष्टचारिणी।।23
अनेन दुष्कृतेन त्वं मत्क्रोधकलुषीकृता।
मनुष्यलोकमास्थाय कंचित् कालं निवत्स्यति।।24
बुधस्य पुत्र राजर्षिः कशिराजः पुरूरवाः।
तमभ्यागच्छ दुर्बुद्धे स ते भर्ता भविष्यति।।25
ततः सा शापदोषेण पुरूरवसमभ्यगात्।
प्रतिष्ठाने पुरूरवं बुधस्यात्मजमौरसम्।।26
तस्य जज्ञे ततः श्रीमानायुः पुत्रो महाबलः।
नहुषो यस्य पुत्रस्तु बभूवेन्द्रसमद्युतिः।।27
वज्रमुत्सृज्य वृत्राय श्रान्तेऽथ त्रिदिवेश्वरे।
शतं वर्षसहस्राणि येनेन्द्रत्वं प्रशासितम्।।28
सा तेन शापेन जगाम भूमिं
तदोर्वशी चारुदती सुनेत्रा।
बहूनि वर्णाण्यवसच्च सुभ्रुः
शापक्षयादिन्द्रसदो ययौ च।।29
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इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः।।
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अर्थ :
श्री वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड,
सर्ग ५६
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(ब्रह्माजी के कहने से वसिष्ठ का वरुण के वीर्य में आवेश, वरुण का उर्वशी के समीप एक कुम्भ में अपने वीर्य का आधान तथा मित्र के शाप से उर्वशी का भूतल में राजा पुरूरवा के पास रहकर पुत्र उत्पन्न करना )
श्रीरामचन्द्रजी के मुख से कही गयी यह कथा सुनकर शत्रुवीरों का संहार करनेवाले लक्ष्मण उद्दीप्त तेजवाले श्रीरघुनाथजी से हाथ जोड़कर बोले --
’ककुत्स्थभूषण ! वे महर्षि और वे भूपाल दोनों देवताओं के भी सम्मानपात्र थे । उन्होंने अपने शरीरों का त्याग करके फिर नूतन शरीर कैसे ग्रहण किया ?’
लक्ष्मण के इस प्रकार पूछने पर इक्ष्वाकुकुल-नन्दन महातेजस्वी पुरुषप्रवर श्रीराम ने उनसे इस प्रकार कहा :
’सुमित्रानन्दन ! एक-दूसरे के शाप से देह त्याग करके तपस्या के धनी वे धर्मात्मा राजर्षि और ब्रह्मर्षि वायुरूप (निराकार प्राणरूप) हो गये ।
’महातेजस्वी महामुनि वसिष्ठ शरीररहित हो जाने पर दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिए अपने पिता ब्रह्माजी के पास गये ।
’धर्म के ज्ञाता वायुरूप वसिष्ठजी ने देवाधिदेव ब्रह्माजी के चरणों में प्रणाम करके उन पितामह से इस प्रकार कहा :
"ब्रह्माण्डकटाह से प्रकट हुए देवाधिदेव महादेव ! मैं राजा निमि के शाप से देहहीन हो गया हूँ; अतः वायुरूप में रह रहा हूँ ।
"प्रभो ! समस्त देहहीनों को महान् दुःख होता है और होता रहेगा; क्योंकि देहहीन प्राणी के सभी कार्य लुप्त हो जाते हैं । अतः दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिये आप मुझ पर कृपा करें ।’
(टिप्पणी : देहरहित होने से वे वैसे ही देहभान से भी रहित थे जैसे मनुष्य व इतर प्राणी भी देह के होते हुए भी कभी कभी देहभान से रहित होकर मनोलोक में वृत्तिमात्र होकर विचरते रहते हैं ।)
’तब अमित तेजस्वी स्वयम्भू ब्रह्मा ने उनसे कहा --
’महायशस्वी द्विजश्रेष्ठ ! तुम मित्र और वरुण के छोड़े हुए तेज (वीर्य) में प्रविष्ट हो जाओ । वहाँ जाने पर भी तुम अयोनिज रूप से ही उत्पन्न होओगे और महान् धर्म से युक्त हो पुत्ररूप से मेरे वश में आ जाओगे (मेरे पुत्र होने के कारण तुम्हें पूर्ववत् प्रजापति का पद प्राप्त होगा)’
(टिप्पणी : स्थान और व्यतीत होनेवाला काल भी ब्रह्माकी ही सन्तान हैं।)
’ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर उनके चरणों में प्रणाम तथा उनकी परिक्रमा करके वायुरूप वसिष्ठजी वरुणलोक को चले गये ।
’उन्हीं दिनों मित्रदेवता भी वरुण के अधिकार का पालन कर रहे थे । वे वरुण के साथ रहकर समस्त देवेश्वरों द्वारा पूजित होते थे ।
’इसी समय अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी सखियों से घिरी हुई अकस्मात् उस स्थान पर आ गई ।
’उस परम सुन्दरी अप्सरा को क्षीरसागर में नहाती और जलक्रीडा करती देख वरुण के मन में उर्वशी के लिए अत्यन्त उल्लास प्रकट हुआ ।
’उन्होंने प्रफुल्ल कमल के समान नेत्र और पूर्ण चन्द्रमा के समान मुखवाली उस सुन्दरी अप्सरा को समागम के लिए आमन्त्रित किया ।
’तब उर्वशी ने हाथ जोड़कर वरुण से कहा :
’सुरेश्वर ! साक्षात् मित्रदेवता ने पहले से ही मेरा वरण कर लिया है ।’
’यह सुनकर वरुण ने कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर कहा --
’सुन्दर रूप-रंगवाली सुश्रोणि ! यदि तुम मुझसे समागम नहीं करना चाहतीं तो मैं तुम्हारे समीप इस देवनिर्मित कुम्भ में अपना यह वीर्य छोड़ दूँगा और इस प्रकार छोड़कर ही सफल मनोरथ हो जाऊँगा ।’
(टिप्पणी :
देवता भी मनुष्येतर प्राणियों की तरह भोगयोनि होने से विधाता के आदेश के अनुसार ही प्रारब्धवश स्वर्ग के भोगों को प्राप्त करते हैं, न कि अपनी इच्छा से उस तरह जैसे कि मनुष्य इच्छा, संकल्प, पराक्रम, और दैव के अनुकूल होने पर प्राप्त कर लेता है ।)
’लोकनाथ वरुण का यह मनोहर वचन सुनकर उर्वशी को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह बोली --
"प्रभो ! आपकी इच्छा के अनुसार ऐसा ही हो । मेरा हृदय आपमें अनुरक्त है और आपका अनुराग भी मुझमें अधिक है; इसलिए आप मेरे उद्देश्य से उस कुम्भ में वीर्याधान कीजिये । इस शरीर पर तो इस समय मित्र का अधिकार हो चुका है ।’
(व्यतीत होनेवाला काल, कामदेव, मित्र और वरुण की तरह स्वर्गलोक में वास करनेवाले देवता हैं, अप्सराएँ भी ऐसी ही देवता होती हैं किन्तु वे विधाता ब्रह्मदेवता के संकल्प से सृष्टि के कार्य में सहायक होती हैं । इस प्रकार देवताओं के लिए मानवोचित नैतिकता-अनैतिकता का प्रश्न ही नहीं उठता । वे प्रारब्धवश ही किसी कार्य में यन्त्रवत् संलग्न और संयुक्त होते हैं; - न कि अपने स्वतन्त्र संकल्प से ।)
’उर्वशी के ऐसा कहने पर वरुण ने प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशमान अपने अत्यन्त अद्भुत् तेज (वीर्य) को उस कुम्भ में डाल दिया ।
’तदनन्तर उर्वशी उस स्थान पर गयी, जहाँ मित्रदेवता विराजमान थे । उस समय मित्र अत्यन्त कुपित हो उस उर्वशी से इस प्रकार बोले --
"दुराचारिणी ! पहले मैंने तुझे समागम के लिए आमन्त्रित किया था; फिर किसलिए तूने मेरा त्याग किया और क्यों दूसरे पति का वरण कर लिया ?
"अपने इस पाप के कारण मेरे क्रोध से कलुषित हो तू कुछ काल तक मनुष्यलोक में जाकर निवास करेगी ।
"दुर्बुद्धे ! बुध के पुत्र राजर्षि पुरूरवा, जो काशिदेश के राजा हैं, उनके पास चली जा, वे ही तेरे पति होंगे’
’तब वह शाप-दोष से दूषित हो प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग-झूसी) में बुध के औरस पुत्र पुरूरवा के पास गयी ।
(टिप्पणी :
जैसे भौतिक रूप से काशी पृथ्वी पर गंगातट पर भी अवस्थित है और दक्षिण में काञ्ची में भी, उसी प्रकार प्रतिष्ठान / प्रतिष्ठानपुर भी दक्षिण में वर्तमान पैठण, महाराष्ट्र में भी अवस्थित है ।)
’पुरूरवा के उर्वशी के गर्भ से श्रीमान् आयु नामक महाबली पुत्र हुआ, जिसके इन्द्रतुल्य तेजस्वी पुत्र महाराज नहुष थे ।
’वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार करके जब देवराज इन्द्र ब्रह्महत्या के भय से दुःखी हो छिप गये थे, तब नहुष ने ही एक लाख वर्षों तक ’इन्द्र’ पद पर प्रतिष्ठित हो त्रिलोकी के राज्य का शासन किया था ।
’मनोहर दाँत और सुन्दर नेत्रवाली उर्वशी मित्र के दिये हुए उस शाप से भूतल पर चली गयी । वहाँ वह सुन्दरी बहुत वर्षों तक रही । फिर पाप का क्षय होने पर इन्द्रसभा में चली गयी’
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
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