Thursday, 25 July 2019

.. मुझे लगता है ...

दिल जो न कह सका, 
वही राज़ दिल कहने की बात आई ! 
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बिस्मिल्लाह-उर्-रहमान-उर्-रहीम ...
को संस्कृत में इस प्रकार पढ़ा / समझा जा सकता है ।     
"वि स्म इल आह -उत् -रहमान उत् -रहीम",
या;
"भीष्म इल आह -उत् -रहमान उत् रहीम"
रहसि / रहिं स्थितो यः स रहिष्मानः रहिमानः वा रहिम् / रहीम ।
रहसि / रहिं का अर्थ है रहस्य / राज़ के आवरण में छिपा हुआ, ’कूटस्थ’ ।
तात्पर्य है कि उसे इन नेत्रों से नहीं देखा जा सकता ।
उसे भक्ति या ज्ञान के नेत्रों से ही जाना / देखा जा सकता है ।
दूसरा अर्थ यह है कि वह 'अन्तर्यामी' है ।
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विस्तार से मैंने इसे पिछली पोस्ट में लिखा है ।
इल’ के बारे में भी कुछ पोस्ट्स में लिखा है ।
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इसलिए
"बिस्मिल्लाह-उर्-रहमान-उर्-रहीम ..."
कहकर किसी कार्य को आरंभ करने में क्या आपत्ति हो सकती है ?
(लेकिन यदि इसे कहने से अनावश्यक विवाद पैदा होता है तो क्या इसे कहना तब भी इतना ज़रूरी है?)
मुझे नहीं पता, कि चाहे हिन्दू हों या मुसलमान, कितने लोग हैं जो इस प्रकार की विवेचना या इसे इस अर्थ में सुनना तक स्वीकार करेंगे ।
हिन्दू के लिए यह नितान्त अनावश्यक है और विभिन्न मुसलमान भी इसका अर्थ अलग-अलग करते हैं ।
विश्वास न हो तो तारेक फ़तह (Tarek Fateh) से पूछ लीजिए !
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अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। 
(गीता 10/20) 

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