कापालिक
--
हातिम ताई का अधिकांश बचपन और कैशोर्य कापालिकों के देश में व्यतीत हुआ था ।
बचपन से वह इस अर्थ में ब्रह्मचारी था कि उसकी सभ्यता और संस्कृति में काम-भावना का संबंध दैहिक वृत्ति तक सीमित था । इस अर्थ में विवाह के बाद उसकी पत्नी ने उसके पुत्र-पुत्रियों को जन्म दिया किन्तु उसने कभी काम-भावना को मन का विषय नहीं बनाया । न तो वह काम-अनुभव को स्मृति का और न कल्पना का साधन बनाता था । हमें यह शायद असंभव जान पड़े किन्तु इसका एक कारण यह भी था कि कापालिकों की सभ्यता-संस्कृति में ईश्वर की पूजा भी लिंग-स्वरूप में की जाती थी इसलिए इसे उपहास, निन्दा या मनोरंजन की दृष्टि से देखने की कल्पना तक कर पाना उनके लिए असंभव था ।
वे सभी पुरुष एवं स्त्रियाँ इस दृष्टि से वैसे भी एक-पत्नीव्रत या एक-पतिव्रत का पालन करते थे कि पति या पत्नी वंशवृद्धि का साधन है, और भले ही एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ हों या एक स्त्री के एक से अधिक पति हों, विवाहेतर काम-संबंध रखना उनके लिए अकल्पनीय ही था ।
इस प्रकार कामवृत्ति का ऐसा संस्कार उनके लिए वैसा ही साधारण था जैसे भूख-प्यास, शीत-उष्ण, पीड़ा अथवा सुख के इन्द्रिय-भोग आदि से गुज़रना और निवृत्त होने के बाद मनोवृत्ति के रूप में उस बारे में कोई कल्पना या स्मृति तक न पैदा हो । हम कह सकते हैं कि यद्यपि उनका शैक्षिक विकास अल्पप्राय था, वे न तो पढ़े लिखे थे, न साहित्य या कलाओं में दक्ष थे, वे तो बस प्रकृति-प्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनायास उस कर्म में प्रवृत्त होते थे जिसकी प्रवृत्ति उस समय उनके शरीर में सक्रिय होती थी ।
एक दृष्टि से वे गीता के उस श्लोक की शिक्षा पर आचरण करते थे, जिसमें कहा गया है :
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२
(अध्याय १४)
इसलिए यद्यपि विवाह नामक संस्था उनके समाज में अवश्य थी किन्तु यह नैतिक-अनैतिक के कठोर नियमों से बँधी नहीं थी ।
शायद ही कोई पुरुष किसी अपनी या पराई स्त्री को भोग की वस्तु की तरह देखता, ऐसा विचार, कल्पना करता था, और न ही कोई स्त्री किसी अपने या पर-पुरुष को इस प्रकार देखती, ऐसा विचार या कल्पना करती थी ।
बहुत संक्षेप में वे काम के मानसिक-स्वरूप से जकड़े हुए न थे । शायद कभी दुर्घटनावश ऐसी स्थिति बन जाती जब इस प्रकार के संयोग घटित हो भी जाते थे तो वे दुःस्वप्न समझकर उसे बस हृदय से भूल जाते थे । न उसकी चर्चा करते, न निन्दा, न उसमें किसी प्रकार का गौरव अनुभव करते, न उसे महिमामण्डित करते, न किसी से ईर्ष्या, प्रतिशोध या अपराध या अपमान अनुभव करते ।
आज के युग में यह कुछ अटपटा और शायद असंभव भी लग सकता है किन्तु जब हम हातिम ताई के उन अनुभवों के बारे में जानेंगे जो उसे कठोलिकों की सभ्यता और संस्कृति में रहते हुए प्राप्त हुए तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि कठोलिकों की सभ्यता और संस्कृति की प्रेरणाएँ किस प्रकार कापालिकों की प्रेरणाओं से कुछ भिन्न थीं ।
कठोलिक
--
जैसा कि गिरीश (ग्रीस) देश में ऋषि आचार्य शुक्र के कुल (भृगु-कुल) के प्रभाव में समाज और सभ्यता तथा संस्कृति अपने विकास के चरम पर थी, यह समझना कठिन न होगा कि कठोलिक मनोवृत्ति से उसी प्रकार का व्यवहार करते थे जैसा कि कापालिक शारीरिक वृत्तियों के संबंध में करते थे । उनका भी अलिखित विधान यही था जिसका प्रयोग वे मन पर करते थे । बिल्कुल वही प्रेरणा, जिससे कापालिक देह के स्तर पर भी आचरण करने मात्र से धर्म के अनुकूल चलते हुए परम श्रेयस् (पुरुषार्थ) सिद्ध करते थे । वही प्रेरणा जो मानों उन्हें गीता के इसी श्लोक से मिलती हो ।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२
(अध्याय १४)
इस प्रकार देह की वृत्तियों को मन का विषय न बनाते हुए, उन वृत्तियों की निन्दा या प्रशंसा न करते हुए, उनका उपहास, अपराध या गौरव-बोध अनुभव न करते हुए, शरीरधर्म की और मनोधर्म की बाध्यताओं तथा मर्यादाओं को समझकर विवेकपूर्वक वे समस्त मनोवृत्तियों से उदासीन रहते हुए आत्मधर्म की जिज्ञासा और अनुसंधान करते थे ।
इस प्रकार शरीरधर्म और मनोधर्म के मध्य किसी प्रकार की टकराहट प्रायः नहीं होती थी ।
गीता के अध्याय् १४ के उपरोक्त उल्लिखित श्लोक २२ के तुरंत बाद का ही श्लोक इस प्रकार है :
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥२३
जिसकी भूमिका इस अध्याय से पूर्व के अध्याय ९ के निम्नलिखित श्लोक में भी दृष्टव्य है:
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९
(अध्याय ९)
--
किन्तु कठोलिकों की परंपरा इस दृष्टि से कापालिकों से भिन्न थी कि वे उस निवृत्ति-मार्ग पर चलते हुए आत्मानुसन्धान करते थे जिससे उनके पूर्व-पुरुष आचार्य
उशना वा वाजश्रवा (उशन् ह वाजश्रवसः सर्ववचसं ददौ -कठोपनिषद्)
ने अपना सब कुछ विश्वजित यज्ञ के अनुष्ठान के समय दान कर दिया था । और तब उनके पुत्र नचिकेता ने प्रश्न किया था :
"फिर तो आप मेरा भी दान कर देंगे?"
उसके पिता जानते थे कि नचिकेता ने उसके पुत्र के रूप में इस मृत्युलोक में जन्म लिया और जिस दिन भी विधाता ने लिखा होगा, वह उससे पूर्व या वह स्वयं उसके बाद मृत्यु के अधिष्ठाता देवता यम के लोक को प्राप्त होगा । इस अटल सत्य को जानते हुए ही उसने पुत्र से कहा :
"मृत्यवे त्वा ददामीति ॥"
(मृत्युवे त्वा ददामि इति)
तात्पर्य यह कि ’यह घर, स्त्री, पुत्र, धन, ज्ञान, इत्यादि ’मेरा है’, इस प्रकार का ज्ञान प्रथमतः ’मेरे द्वारा अपने-आपके ज्ञान’ के होने के उपरान्त ही घटित होता है ...’ इस सरल तथ्य के प्रति जागृत होकर विवेकपूर्वक उसने यमराज को वह (पुत्र) दान कर दिया अर्थात् लौटा दिया ।
कापालिक केवल ईश्वर-समर्पण बुद्धि से ’प्रवृत्ति-मार्ग’ पर चलते हुए, सहज और अनायास जीते हुए परम-श्रेयस् की सिद्धि कर लेते थे, जबकि कठोलिक अपेक्षाकृत भिन्न रीति से निवृत्ति-मार्ग (नेति-नेति) पर चलते हुए आत्मानुसन्धान करते थे ।
कठोपनिषद् अवश्य ही उनके सिद्धान्त का आधारभूत ग्रन्थ था ।
--
गरुड़ ने हातिम ताई को इस प्रकार इसीलिए चुना कि हातिम ताई दोनों प्रकार की शिक्षाओं के लिए पूर्ण अधिकारी और पात्र था ।
--
--
हातिम ताई का अधिकांश बचपन और कैशोर्य कापालिकों के देश में व्यतीत हुआ था ।
बचपन से वह इस अर्थ में ब्रह्मचारी था कि उसकी सभ्यता और संस्कृति में काम-भावना का संबंध दैहिक वृत्ति तक सीमित था । इस अर्थ में विवाह के बाद उसकी पत्नी ने उसके पुत्र-पुत्रियों को जन्म दिया किन्तु उसने कभी काम-भावना को मन का विषय नहीं बनाया । न तो वह काम-अनुभव को स्मृति का और न कल्पना का साधन बनाता था । हमें यह शायद असंभव जान पड़े किन्तु इसका एक कारण यह भी था कि कापालिकों की सभ्यता-संस्कृति में ईश्वर की पूजा भी लिंग-स्वरूप में की जाती थी इसलिए इसे उपहास, निन्दा या मनोरंजन की दृष्टि से देखने की कल्पना तक कर पाना उनके लिए असंभव था ।
वे सभी पुरुष एवं स्त्रियाँ इस दृष्टि से वैसे भी एक-पत्नीव्रत या एक-पतिव्रत का पालन करते थे कि पति या पत्नी वंशवृद्धि का साधन है, और भले ही एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ हों या एक स्त्री के एक से अधिक पति हों, विवाहेतर काम-संबंध रखना उनके लिए अकल्पनीय ही था ।
इस प्रकार कामवृत्ति का ऐसा संस्कार उनके लिए वैसा ही साधारण था जैसे भूख-प्यास, शीत-उष्ण, पीड़ा अथवा सुख के इन्द्रिय-भोग आदि से गुज़रना और निवृत्त होने के बाद मनोवृत्ति के रूप में उस बारे में कोई कल्पना या स्मृति तक न पैदा हो । हम कह सकते हैं कि यद्यपि उनका शैक्षिक विकास अल्पप्राय था, वे न तो पढ़े लिखे थे, न साहित्य या कलाओं में दक्ष थे, वे तो बस प्रकृति-प्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनायास उस कर्म में प्रवृत्त होते थे जिसकी प्रवृत्ति उस समय उनके शरीर में सक्रिय होती थी ।
एक दृष्टि से वे गीता के उस श्लोक की शिक्षा पर आचरण करते थे, जिसमें कहा गया है :
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२
(अध्याय १४)
इसलिए यद्यपि विवाह नामक संस्था उनके समाज में अवश्य थी किन्तु यह नैतिक-अनैतिक के कठोर नियमों से बँधी नहीं थी ।
शायद ही कोई पुरुष किसी अपनी या पराई स्त्री को भोग की वस्तु की तरह देखता, ऐसा विचार, कल्पना करता था, और न ही कोई स्त्री किसी अपने या पर-पुरुष को इस प्रकार देखती, ऐसा विचार या कल्पना करती थी ।
बहुत संक्षेप में वे काम के मानसिक-स्वरूप से जकड़े हुए न थे । शायद कभी दुर्घटनावश ऐसी स्थिति बन जाती जब इस प्रकार के संयोग घटित हो भी जाते थे तो वे दुःस्वप्न समझकर उसे बस हृदय से भूल जाते थे । न उसकी चर्चा करते, न निन्दा, न उसमें किसी प्रकार का गौरव अनुभव करते, न उसे महिमामण्डित करते, न किसी से ईर्ष्या, प्रतिशोध या अपराध या अपमान अनुभव करते ।
आज के युग में यह कुछ अटपटा और शायद असंभव भी लग सकता है किन्तु जब हम हातिम ताई के उन अनुभवों के बारे में जानेंगे जो उसे कठोलिकों की सभ्यता और संस्कृति में रहते हुए प्राप्त हुए तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि कठोलिकों की सभ्यता और संस्कृति की प्रेरणाएँ किस प्रकार कापालिकों की प्रेरणाओं से कुछ भिन्न थीं ।
कठोलिक
--
जैसा कि गिरीश (ग्रीस) देश में ऋषि आचार्य शुक्र के कुल (भृगु-कुल) के प्रभाव में समाज और सभ्यता तथा संस्कृति अपने विकास के चरम पर थी, यह समझना कठिन न होगा कि कठोलिक मनोवृत्ति से उसी प्रकार का व्यवहार करते थे जैसा कि कापालिक शारीरिक वृत्तियों के संबंध में करते थे । उनका भी अलिखित विधान यही था जिसका प्रयोग वे मन पर करते थे । बिल्कुल वही प्रेरणा, जिससे कापालिक देह के स्तर पर भी आचरण करने मात्र से धर्म के अनुकूल चलते हुए परम श्रेयस् (पुरुषार्थ) सिद्ध करते थे । वही प्रेरणा जो मानों उन्हें गीता के इसी श्लोक से मिलती हो ।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२
(अध्याय १४)
इस प्रकार देह की वृत्तियों को मन का विषय न बनाते हुए, उन वृत्तियों की निन्दा या प्रशंसा न करते हुए, उनका उपहास, अपराध या गौरव-बोध अनुभव न करते हुए, शरीरधर्म की और मनोधर्म की बाध्यताओं तथा मर्यादाओं को समझकर विवेकपूर्वक वे समस्त मनोवृत्तियों से उदासीन रहते हुए आत्मधर्म की जिज्ञासा और अनुसंधान करते थे ।
इस प्रकार शरीरधर्म और मनोधर्म के मध्य किसी प्रकार की टकराहट प्रायः नहीं होती थी ।
गीता के अध्याय् १४ के उपरोक्त उल्लिखित श्लोक २२ के तुरंत बाद का ही श्लोक इस प्रकार है :
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥२३
जिसकी भूमिका इस अध्याय से पूर्व के अध्याय ९ के निम्नलिखित श्लोक में भी दृष्टव्य है:
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९
(अध्याय ९)
--
किन्तु कठोलिकों की परंपरा इस दृष्टि से कापालिकों से भिन्न थी कि वे उस निवृत्ति-मार्ग पर चलते हुए आत्मानुसन्धान करते थे जिससे उनके पूर्व-पुरुष आचार्य
उशना वा वाजश्रवा (उशन् ह वाजश्रवसः सर्ववचसं ददौ -कठोपनिषद्)
ने अपना सब कुछ विश्वजित यज्ञ के अनुष्ठान के समय दान कर दिया था । और तब उनके पुत्र नचिकेता ने प्रश्न किया था :
"फिर तो आप मेरा भी दान कर देंगे?"
उसके पिता जानते थे कि नचिकेता ने उसके पुत्र के रूप में इस मृत्युलोक में जन्म लिया और जिस दिन भी विधाता ने लिखा होगा, वह उससे पूर्व या वह स्वयं उसके बाद मृत्यु के अधिष्ठाता देवता यम के लोक को प्राप्त होगा । इस अटल सत्य को जानते हुए ही उसने पुत्र से कहा :
"मृत्यवे त्वा ददामीति ॥"
(मृत्युवे त्वा ददामि इति)
तात्पर्य यह कि ’यह घर, स्त्री, पुत्र, धन, ज्ञान, इत्यादि ’मेरा है’, इस प्रकार का ज्ञान प्रथमतः ’मेरे द्वारा अपने-आपके ज्ञान’ के होने के उपरान्त ही घटित होता है ...’ इस सरल तथ्य के प्रति जागृत होकर विवेकपूर्वक उसने यमराज को वह (पुत्र) दान कर दिया अर्थात् लौटा दिया ।
कापालिक केवल ईश्वर-समर्पण बुद्धि से ’प्रवृत्ति-मार्ग’ पर चलते हुए, सहज और अनायास जीते हुए परम-श्रेयस् की सिद्धि कर लेते थे, जबकि कठोलिक अपेक्षाकृत भिन्न रीति से निवृत्ति-मार्ग (नेति-नेति) पर चलते हुए आत्मानुसन्धान करते थे ।
कठोपनिषद् अवश्य ही उनके सिद्धान्त का आधारभूत ग्रन्थ था ।
--
गरुड़ ने हातिम ताई को इस प्रकार इसीलिए चुना कि हातिम ताई दोनों प्रकार की शिक्षाओं के लिए पूर्ण अधिकारी और पात्र था ।
--
No comments:
Post a Comment