आज की रचना :
कच्चित् दृक्चित् दृग्चितः कच्चित् तथा च पश्चितः।
कश्चिद् दृष्टा क्वचिद् भोक्ता कर्ता सोऽहं साक्षि-सन्।।
दृक्चित् पूर्वचित्तथा पश्चितमेव च पश्यचित्।
साक्षी सन् प्राक्चित् तत्र भोक्ता कर्ता प्रतीयते।। *
--
गीता में कच्चित् (कोई) शब्द का प्रयोग पहली बार अध्याय 6 में इस प्रकार किया गया है :
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।38
अर्थ : अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से पूछते हैं :
"हे महाबाहो! वह आश्रयरहित और ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ पुरुष कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों ओर से भ्रष्ट होकर क्या छिन्न-भिन्न हुए बादल की भाँति नष्ट हो जाता है अथवा नष्ट नहीं होता?"
(गीता शांकरभाष्य से) ;
इसी प्रकार गीता में कच्चित् (कोई) शब्द का प्रयोग दूसरी तथा तीसरी बार अध्याय 18 में इस प्रकार
किया गया है :
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।72
अर्थ : भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं :
"हे पार्थ! क्या तूने मुझसे कहे हुए इस शास्त्र को एकाग्रचित्त से सुना, सुनकर बुद्धि में स्थिर किया ? अथवा सुना-अनसुना कर दिया ?
हे धनंजय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह--स्वाभाविक अविवेकता--चित्त का मूढ़भाव सर्वथा नष्ट हो गया, जिसके लिए कि तेरा यह शास्त्रश्रवण--विषयक परिश्रम और मेरा वक्तृत्वविषयक परिश्रम हुआ है।
(गीता शांकरभाष्य से)
--
*(श्लोकबद्ध करने का प्रयास किया है,यदि कोई त्रुटि हो तो विद्वज्जन कृपया परिमार्जन कर लें।)
अज्ञानजनित मोह--स्वाभाविक अविवेकता :
गीता अध्याय 7 का यह श्लोक यहाँ प्रासंगिक है :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।27
अर्थ : हे भारत ! हे अर्जुन ! इच्छा-द्वेष-जन्य द्वन्द्व-निमित्तक मोह के द्वारा मोहित हुए समस्त प्राणी, हे परंतप ! जन्मकाल में--उत्पन्न होते ही मूढभाव में फँस जाते हैं ।
--
[दृष्टव्य है कि 'Psyche' पश्यचित् का ही सज्ञात / सज्ञाति / cognate है। ]
--
कच्चित् दृक्चित् दृग्चितः कच्चित् तथा च पश्चितः।
कश्चिद् दृष्टा क्वचिद् भोक्ता कर्ता सोऽहं साक्षि-सन्।।
दृक्चित् पूर्वचित्तथा पश्चितमेव च पश्यचित्।
साक्षी सन् प्राक्चित् तत्र भोक्ता कर्ता प्रतीयते।। *
--
गीता में कच्चित् (कोई) शब्द का प्रयोग पहली बार अध्याय 6 में इस प्रकार किया गया है :
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।38
अर्थ : अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से पूछते हैं :
"हे महाबाहो! वह आश्रयरहित और ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ पुरुष कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों ओर से भ्रष्ट होकर क्या छिन्न-भिन्न हुए बादल की भाँति नष्ट हो जाता है अथवा नष्ट नहीं होता?"
(गीता शांकरभाष्य से) ;
इसी प्रकार गीता में कच्चित् (कोई) शब्द का प्रयोग दूसरी तथा तीसरी बार अध्याय 18 में इस प्रकार
किया गया है :
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।72
अर्थ : भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं :
"हे पार्थ! क्या तूने मुझसे कहे हुए इस शास्त्र को एकाग्रचित्त से सुना, सुनकर बुद्धि में स्थिर किया ? अथवा सुना-अनसुना कर दिया ?
हे धनंजय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह--स्वाभाविक अविवेकता--चित्त का मूढ़भाव सर्वथा नष्ट हो गया, जिसके लिए कि तेरा यह शास्त्रश्रवण--विषयक परिश्रम और मेरा वक्तृत्वविषयक परिश्रम हुआ है।
(गीता शांकरभाष्य से)
--
*(श्लोकबद्ध करने का प्रयास किया है,यदि कोई त्रुटि हो तो विद्वज्जन कृपया परिमार्जन कर लें।)
अज्ञानजनित मोह--स्वाभाविक अविवेकता :
गीता अध्याय 7 का यह श्लोक यहाँ प्रासंगिक है :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।27
अर्थ : हे भारत ! हे अर्जुन ! इच्छा-द्वेष-जन्य द्वन्द्व-निमित्तक मोह के द्वारा मोहित हुए समस्त प्राणी, हे परंतप ! जन्मकाल में--उत्पन्न होते ही मूढभाव में फँस जाते हैं ।
--
[दृष्टव्य है कि 'Psyche' पश्यचित् का ही सज्ञात / सज्ञाति / cognate है। ]
--
No comments:
Post a Comment