समय :
व्यक्तिगत और वैश्विक;
व्यतीत होनेवाला समय,
और न व्यतीत होनेवाला काल,
जो व्यतीत होनेवाले समय की तरह से हर मनुष्य को,
अपनी निज प्रतीति की तरह स्मृति में,
अपने-आपको एक पृथक् जीव की तरह,
अपने एक कल्पित पृथक् संसार में अनुभव होता है ।
ब्रह्मा, वसिष्ठ और निमि भी ऐसे ही विशिष्ट व्यक्ति हैं ।
--
श्री वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड,
सर्ग ५७
--
वसिष्ठ का नूतन शरीर धारण और निमि का प्राणियों के नयनों में मिवास
--
तां श्रुत्वा दिव्यसंकाशां कथामद्भुतदर्शनाम् ।
लक्ष्मणः परमप्रीतो राघवं वाक्यमब्रवीत् ॥1
निक्षिप्तदेहौ काकुत्स्थ कथं तौ द्विजपार्थिवौ ।
पुनर्देहेन संयोगं जग्मतुर्देवसम्मतौ ॥2
तस्य तद्भाषितं श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः ।
तां कथां कथयामास वसिष्ठस्य महात्मनः ॥3
यः स कुम्भो रघुश्रेष्ठ तेजःपूर्णो महात्मनः।
तस्मिंस्तेजोमयौ विप्रौ सम्भूतावृषिसत्तमौ।।4
पूर्वं समभवत् तत्र अगस्त्यो भगवानृषिः।
नाहं सुतस्तवेत्युक्त्वा मित्रं तस्मादपाक्रमत् ।।5
तद्धि तेजस्तु मित्रस्य उर्वश्याः पूर्वमाहितम्।
तस्मिन् समभवत् कुम्भे तत्तेजो यत्र वारुणम् ।।6
कस्यचित् त्वथ कालस्य मित्रावरुणसम्भवः।
वसिष्ठतेजसा युक्तो जज्ञे इक्ष्वाकुदैवतम् ।।7
तमिक्ष्वाकुर्महातेजा जातमात्रमनिन्दितम्।
वव्रे पुरोधसं सौम्य वंशस्यास्य हिताय नः ।।8
एवं त्वपूर्वदेहस्य वसिष्ठस्य महात्मनः।
कथितो निर्गमः सौम्य निमेः शृणु यथाभवत् ।।9
दृष्ट्वा विदेहं राजानामृषयः सर्व एव ते।
तं च ते याजयामासुर्यज्ञदीक्षां मनीषिणः ।।10
तं च देहं नरेन्द्रस्य रक्षन्ति स्म द्विजोत्तमाः।
गन्धैर्माल्यैश्च वस्त्रैश्च पौरभृत्यसमन्विताः ।।11
ततो यज्ञे समाप्ते तु भृगुस्तत्रेदमब्रवीत्।
आनयिष्यामि ते चेतस्तुष्टोऽस्मि तव पार्थिवः ।।12
सुप्रीताश्च सुराः सर्वे निमेश्चेतस्तदाब्रुवन्।
वरं वरय राजर्षे क्व ते चेतो निरूप्यताम्।। 13
एवमुक्तः सुरैः सर्वैर्निमेश्चेतस्तदाब्रवीत्।
नेत्रेषु सर्वभूतानां वसेयं सुरसत्तमाः ।।14
बाढमित्येव विबुधा निमेश्चेतस्तदाब्रुवन्।
नेत्रेषु सर्वभूतानां वायुभूतश्चरिष्यसि ।।15
त्वत्कृते च निमिष्यन्ति चक्षूंषि पृथिवीपते।
वायुभूतेन चरता विश्रामार्थं मुहुर्मुहुः ।।16
एवमुक्त्वा तु विबुधाः सर्वे जग्मुर्यथागतम्।
ऋषयोऽपि महात्मानो निमेर्देहं समाहरन् ।।17
अरणिं तत्र निक्षिप्य मथनं चक्रुरोजसा।
मन्त्रहोमैर्महात्मानः पुत्रहेतोर्निमेस्तदा ।।18
अरण्यां मथ्यमानायां प्रादुर्भूतो महातपाः।
मथनान्मिथिरित्याहुर्जननाज्जनकोऽभवत् ।।19
यस्माद् विदेहात् सम्भूतो वैदेहस्तु ततः स्मृतः।
एवं विदेहराजश्च जनकः पूर्वकोऽभवत् ।
मिथिर्नाम महातेजास्तेनायं मैथिलोऽभवत् ।।20
(त्रिपदीय श्लोक)
इति सर्वमशेषतो मया
कथितं सम्भवकारणं तु सौम्य ।
नृपपुङ्गवशापजं द्विजस्य
द्विजशापाच्च यदद्भुतं नृपस्य ।।21
--
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः।।
--
अर्थ :
उस दिव्य एवं अद्भुत् कथा को सुनकर लक्ष्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे श्रीरघुनाथजी से बोले --
’काकुत्स्थ ! वे ब्रह्मर्षि वसिष्ठ तथा राजर्षि निमि जो देवताओं द्वारा भी सम्मानित थे, अपने-अपने शरीर को छोड़कर फिर नूतन शरीर से किस प्रकार संयुक्त हुए ?’
उनका यह प्रश्न सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीराम ने महात्मा वसिष्ठ के शरीर-ग्रहण से सम्बन्ध रखनेवाली उस कथा को पुनः कहना आरम्भ किया --
’रघुश्रेष्ठ ! महामना मित्र और वरुणदेवता के तेज (वीर्य) से युक्त जो वह प्रसिद्ध कुम्भ था, उससे दो तेजस्वी ब्राह्मण प्रकट हुए । वे दोनों ही ऋषियों में श्रेष्ठ थे ।
’पहले उस घट से महर्षि भगवान् अगस्त्य उत्पन्न हुए और मित्र से यह कहकर कि ’मैं आपका पुत्र नहीं हूँ’ वहाँ से अन्यत्र चले गये ।
(इस प्रकार, क्या ऋषि अगस्त्य वरुण के पुत्र हुए?)
’वह मित्र का तेज था, जो उर्वशी के निमित्त से पहले ही उस कुम्भ में स्थापित किया गया था । तत्पश्चात् उस कुम्भ में वरुणदेवता का तेज भी सम्मिलित हो गया था ।
’तत्पश्चात् कुछ काल के बाद मित्रावरुण (मित्रावरुण) के उस वीर्य से तेजस्वी वसिष्ठमुनि का प्रादुर्भाव हुआ ।जो इक्ष्वाकुकुल के देवता (गुरु या पुरोहित थे)
(इस प्रकार ऋषि वसिष्ठ यद्यपि वरुण के औरस पुत्र हुए किन्तु उन्हें मित्र का संस्पर्श भी प्राप्त हुआ था, इसलिए ऋषि वसिष्ठ ’द्वैमुष्यायन’ अर्थात् दो पिताओं के पुत्र हुए ।)
’सौम्य लक्ष्मण ! महातेजस्वी राजा इक्ष्वाकु ने उनके वहाँ जन्म ग्रहण करते ही उन अनिन्द्य वसिष्ठ का हमारे इस कुल के हित के लिए पुरोहित के पद पर वरण कर लिया ।
सौम्य ! इस प्रकार नूतन शरीर से युक्त वसिष्ठमुनि की उत्पत्ति का प्रकार बताया गया । अब निमि का जैसा वृत्तान्त है वह सुनो --
’राजा निमि को देह से पृथक् हुआ देख उन सभी मनीषी ऋषियों ने स्वयं ही यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करके उस यज्ञ को पूरा किया (-जिसे निमि के देह के ऋषि वसिष्ठ के शाप से अचेतन होकर गिर जाने से पूर्व निमि ने दीक्षा लेकर प्रारम्भ किया था) ।
’उन श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों ने पुरवासियों और सेवकों के साथ रहकर गन्ध, पुष्प और वस्त्रोंसहित राजा निमि के उस शरीर को तेल के कड़ाह आदि में सुरक्षित रखा ।
’तदनन्तर जब यज्ञ समाप्त हुआ, तब वहाँ भृगु ने कहा --
’राजन् ! (राजा के शरीर के अभिमानी जीवात्मन् !) मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूँ, अतः यदि तुम चाहो तो तुम्हारे जीव-चैतन्य को मैं पुनः इस शरीर में ला दूँगा ।’
’भृगु के साथ ही अन्य सब देवताओं ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर निमि के जीवात्मा से कहा --
’राजर्षे ! वर माँगो । तुम्हारे जीव-चैतन्य को कहाँ स्थापित किया जाय’
’समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर निमि के जीवात्मा ने उस समय उनसे कहा --
’सुरश्रेष्ठ ! मैं समस्त प्राणियों के नेत्रों में निवास करना चाहता हूँ’
तब देवताओं ने निमि के जीवात्मा से कहा --
’बहुत अच्छा, तुम वायुरूप होकर समस्त प्राणियों के नेत्रों में विचरते रहोगे ।
"पृथ्वीनाथ ! वायुरूप (अर्थात् प्राणरूप) से विचरते हुए आप्कए सम्बन्ध से जो थकावट होगी, उसका निवारण करके विश्राम पाने के लिए प्राणियों के नेत्र बारंबार बंद हो जाया करेंगे ।’
’ऐसा कहकर सब देवता (यज्ञ होने के समय) जैसे आये थे, वैसे चले गये; फिर ऋषियों ने निमि के शरीर को पकड़ा और उस पर अरणि रखकर उसे बलपूर्वक मथना आरम्भ किया ।
’पूर्ववत् मन्त्रोच्चारणपूर्वक होम करते हुए उन महात्माओं ने जब निमि के पुत्र की उत्पत्ति के लिए अरणि-मन्थन आरम्भ किया, तब उस मन्थन से महातपस्वी मिथि उत्पन्न हुए । इस अद्भुत् जन्म का हेतु होने के कारण वे जनक कहलाये तथा विदेह (जीव रहित शरीर) से प्रकट होने के कारण उन्हें वैदेह भी कहा गया । इस प्रकार पहले (प्रथम) विदेहराज जनक का नाम महातेजस्वी मिथि हुआ, जिससे यह जनकवंश मैथिल कहलाया ।
’सौम्य लक्ष्मण ! राजाओं में श्रेष्ठ निमि के शाप से ब्राह्मण वसिष्ठ का और ब्राह्मण वसिष्ठ के शाप से राजा निमि का जो अद्भुत् जन्म घटित हुआ, उसका साआ कारण मैंने तुम्हें कह सुनाया ।’
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
--
( टिप्पणी :
इस दृष्टि से मिथि, इक्ष्वाकु के पुत्र निमि के पुत्र हुए, और राजा जनक बाद में इक्ष्वाकु-कुल में उत्पन्न हुए, ऐसा कहना अनुचित न होगा । जानकी अर्थात् सीताजी उन्हीं राजा जनक की मुँहबोली पुत्री हुई जिसे उन्होंने धरती पर हल चलाते समय धरती से निकली स्वर्ण-मञ्जूषा के भीतर कन्या-शिशु की तरह प्राप्त किया था ।)
व्यक्तिगत और वैश्विक;
व्यतीत होनेवाला समय,
और न व्यतीत होनेवाला काल,
जो व्यतीत होनेवाले समय की तरह से हर मनुष्य को,
अपनी निज प्रतीति की तरह स्मृति में,
अपने-आपको एक पृथक् जीव की तरह,
अपने एक कल्पित पृथक् संसार में अनुभव होता है ।
ब्रह्मा, वसिष्ठ और निमि भी ऐसे ही विशिष्ट व्यक्ति हैं ।
--
श्री वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड,
सर्ग ५७
--
वसिष्ठ का नूतन शरीर धारण और निमि का प्राणियों के नयनों में मिवास
--
तां श्रुत्वा दिव्यसंकाशां कथामद्भुतदर्शनाम् ।
लक्ष्मणः परमप्रीतो राघवं वाक्यमब्रवीत् ॥1
निक्षिप्तदेहौ काकुत्स्थ कथं तौ द्विजपार्थिवौ ।
पुनर्देहेन संयोगं जग्मतुर्देवसम्मतौ ॥2
तस्य तद्भाषितं श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः ।
तां कथां कथयामास वसिष्ठस्य महात्मनः ॥3
यः स कुम्भो रघुश्रेष्ठ तेजःपूर्णो महात्मनः।
तस्मिंस्तेजोमयौ विप्रौ सम्भूतावृषिसत्तमौ।।4
पूर्वं समभवत् तत्र अगस्त्यो भगवानृषिः।
नाहं सुतस्तवेत्युक्त्वा मित्रं तस्मादपाक्रमत् ।।5
तद्धि तेजस्तु मित्रस्य उर्वश्याः पूर्वमाहितम्।
तस्मिन् समभवत् कुम्भे तत्तेजो यत्र वारुणम् ।।6
कस्यचित् त्वथ कालस्य मित्रावरुणसम्भवः।
वसिष्ठतेजसा युक्तो जज्ञे इक्ष्वाकुदैवतम् ।।7
तमिक्ष्वाकुर्महातेजा जातमात्रमनिन्दितम्।
वव्रे पुरोधसं सौम्य वंशस्यास्य हिताय नः ।।8
एवं त्वपूर्वदेहस्य वसिष्ठस्य महात्मनः।
कथितो निर्गमः सौम्य निमेः शृणु यथाभवत् ।।9
दृष्ट्वा विदेहं राजानामृषयः सर्व एव ते।
तं च ते याजयामासुर्यज्ञदीक्षां मनीषिणः ।।10
तं च देहं नरेन्द्रस्य रक्षन्ति स्म द्विजोत्तमाः।
गन्धैर्माल्यैश्च वस्त्रैश्च पौरभृत्यसमन्विताः ।।11
ततो यज्ञे समाप्ते तु भृगुस्तत्रेदमब्रवीत्।
आनयिष्यामि ते चेतस्तुष्टोऽस्मि तव पार्थिवः ।।12
सुप्रीताश्च सुराः सर्वे निमेश्चेतस्तदाब्रुवन्।
वरं वरय राजर्षे क्व ते चेतो निरूप्यताम्।। 13
एवमुक्तः सुरैः सर्वैर्निमेश्चेतस्तदाब्रवीत्।
नेत्रेषु सर्वभूतानां वसेयं सुरसत्तमाः ।।14
बाढमित्येव विबुधा निमेश्चेतस्तदाब्रुवन्।
नेत्रेषु सर्वभूतानां वायुभूतश्चरिष्यसि ।।15
त्वत्कृते च निमिष्यन्ति चक्षूंषि पृथिवीपते।
वायुभूतेन चरता विश्रामार्थं मुहुर्मुहुः ।।16
एवमुक्त्वा तु विबुधाः सर्वे जग्मुर्यथागतम्।
ऋषयोऽपि महात्मानो निमेर्देहं समाहरन् ।।17
अरणिं तत्र निक्षिप्य मथनं चक्रुरोजसा।
मन्त्रहोमैर्महात्मानः पुत्रहेतोर्निमेस्तदा ।।18
अरण्यां मथ्यमानायां प्रादुर्भूतो महातपाः।
मथनान्मिथिरित्याहुर्जननाज्जनकोऽभवत् ।।19
यस्माद् विदेहात् सम्भूतो वैदेहस्तु ततः स्मृतः।
एवं विदेहराजश्च जनकः पूर्वकोऽभवत् ।
मिथिर्नाम महातेजास्तेनायं मैथिलोऽभवत् ।।20
(त्रिपदीय श्लोक)
इति सर्वमशेषतो मया
कथितं सम्भवकारणं तु सौम्य ।
नृपपुङ्गवशापजं द्विजस्य
द्विजशापाच्च यदद्भुतं नृपस्य ।।21
--
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः।।
--
अर्थ :
उस दिव्य एवं अद्भुत् कथा को सुनकर लक्ष्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे श्रीरघुनाथजी से बोले --
’काकुत्स्थ ! वे ब्रह्मर्षि वसिष्ठ तथा राजर्षि निमि जो देवताओं द्वारा भी सम्मानित थे, अपने-अपने शरीर को छोड़कर फिर नूतन शरीर से किस प्रकार संयुक्त हुए ?’
उनका यह प्रश्न सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीराम ने महात्मा वसिष्ठ के शरीर-ग्रहण से सम्बन्ध रखनेवाली उस कथा को पुनः कहना आरम्भ किया --
’रघुश्रेष्ठ ! महामना मित्र और वरुणदेवता के तेज (वीर्य) से युक्त जो वह प्रसिद्ध कुम्भ था, उससे दो तेजस्वी ब्राह्मण प्रकट हुए । वे दोनों ही ऋषियों में श्रेष्ठ थे ।
’पहले उस घट से महर्षि भगवान् अगस्त्य उत्पन्न हुए और मित्र से यह कहकर कि ’मैं आपका पुत्र नहीं हूँ’ वहाँ से अन्यत्र चले गये ।
(इस प्रकार, क्या ऋषि अगस्त्य वरुण के पुत्र हुए?)
’वह मित्र का तेज था, जो उर्वशी के निमित्त से पहले ही उस कुम्भ में स्थापित किया गया था । तत्पश्चात् उस कुम्भ में वरुणदेवता का तेज भी सम्मिलित हो गया था ।
’तत्पश्चात् कुछ काल के बाद मित्रावरुण (मित्रावरुण) के उस वीर्य से तेजस्वी वसिष्ठमुनि का प्रादुर्भाव हुआ ।जो इक्ष्वाकुकुल के देवता (गुरु या पुरोहित थे)
(इस प्रकार ऋषि वसिष्ठ यद्यपि वरुण के औरस पुत्र हुए किन्तु उन्हें मित्र का संस्पर्श भी प्राप्त हुआ था, इसलिए ऋषि वसिष्ठ ’द्वैमुष्यायन’ अर्थात् दो पिताओं के पुत्र हुए ।)
’सौम्य लक्ष्मण ! महातेजस्वी राजा इक्ष्वाकु ने उनके वहाँ जन्म ग्रहण करते ही उन अनिन्द्य वसिष्ठ का हमारे इस कुल के हित के लिए पुरोहित के पद पर वरण कर लिया ।
सौम्य ! इस प्रकार नूतन शरीर से युक्त वसिष्ठमुनि की उत्पत्ति का प्रकार बताया गया । अब निमि का जैसा वृत्तान्त है वह सुनो --
’राजा निमि को देह से पृथक् हुआ देख उन सभी मनीषी ऋषियों ने स्वयं ही यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करके उस यज्ञ को पूरा किया (-जिसे निमि के देह के ऋषि वसिष्ठ के शाप से अचेतन होकर गिर जाने से पूर्व निमि ने दीक्षा लेकर प्रारम्भ किया था) ।
’उन श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों ने पुरवासियों और सेवकों के साथ रहकर गन्ध, पुष्प और वस्त्रोंसहित राजा निमि के उस शरीर को तेल के कड़ाह आदि में सुरक्षित रखा ।
’तदनन्तर जब यज्ञ समाप्त हुआ, तब वहाँ भृगु ने कहा --
’राजन् ! (राजा के शरीर के अभिमानी जीवात्मन् !) मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूँ, अतः यदि तुम चाहो तो तुम्हारे जीव-चैतन्य को मैं पुनः इस शरीर में ला दूँगा ।’
’भृगु के साथ ही अन्य सब देवताओं ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर निमि के जीवात्मा से कहा --
’राजर्षे ! वर माँगो । तुम्हारे जीव-चैतन्य को कहाँ स्थापित किया जाय’
’समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर निमि के जीवात्मा ने उस समय उनसे कहा --
’सुरश्रेष्ठ ! मैं समस्त प्राणियों के नेत्रों में निवास करना चाहता हूँ’
तब देवताओं ने निमि के जीवात्मा से कहा --
’बहुत अच्छा, तुम वायुरूप होकर समस्त प्राणियों के नेत्रों में विचरते रहोगे ।
"पृथ्वीनाथ ! वायुरूप (अर्थात् प्राणरूप) से विचरते हुए आप्कए सम्बन्ध से जो थकावट होगी, उसका निवारण करके विश्राम पाने के लिए प्राणियों के नेत्र बारंबार बंद हो जाया करेंगे ।’
’ऐसा कहकर सब देवता (यज्ञ होने के समय) जैसे आये थे, वैसे चले गये; फिर ऋषियों ने निमि के शरीर को पकड़ा और उस पर अरणि रखकर उसे बलपूर्वक मथना आरम्भ किया ।
’पूर्ववत् मन्त्रोच्चारणपूर्वक होम करते हुए उन महात्माओं ने जब निमि के पुत्र की उत्पत्ति के लिए अरणि-मन्थन आरम्भ किया, तब उस मन्थन से महातपस्वी मिथि उत्पन्न हुए । इस अद्भुत् जन्म का हेतु होने के कारण वे जनक कहलाये तथा विदेह (जीव रहित शरीर) से प्रकट होने के कारण उन्हें वैदेह भी कहा गया । इस प्रकार पहले (प्रथम) विदेहराज जनक का नाम महातेजस्वी मिथि हुआ, जिससे यह जनकवंश मैथिल कहलाया ।
’सौम्य लक्ष्मण ! राजाओं में श्रेष्ठ निमि के शाप से ब्राह्मण वसिष्ठ का और ब्राह्मण वसिष्ठ के शाप से राजा निमि का जो अद्भुत् जन्म घटित हुआ, उसका साआ कारण मैंने तुम्हें कह सुनाया ।’
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
--
( टिप्पणी :
इस दृष्टि से मिथि, इक्ष्वाकु के पुत्र निमि के पुत्र हुए, और राजा जनक बाद में इक्ष्वाकु-कुल में उत्पन्न हुए, ऐसा कहना अनुचित न होगा । जानकी अर्थात् सीताजी उन्हीं राजा जनक की मुँहबोली पुत्री हुई जिसे उन्होंने धरती पर हल चलाते समय धरती से निकली स्वर्ण-मञ्जूषा के भीतर कन्या-शिशु की तरह प्राप्त किया था ।)
No comments:
Post a Comment