Entities Phenomenal.
भौतिक काल-स्थान का उद्भव
The Physical-Material Time-Space with reference to and in comparison to the Time-Space of the Celestial entities phenomena like Sages, and devata / देवता .
--
वाल्मीकि-रामायण, उत्तरकाण्ड,
--
सर्ग ५३, ५४
राजा नृग मनुष्यों के राजा (नृप) थे :
नारायणो नरेषु यो नृपो भूत्वा नृगो ततः ।
शप्तो द्विजाभ्याम् तदा बभूव सः कृकलासो॥
--
राजा निमि और वशिष्ठ का एक दूसरे के शाप से देहत्याग
सर्ग ५३ तथा ५४ में राजा नृग की कथा का वर्णन है । किस प्रकार नरेश अर्थात् मनुष्यों के राजा नृग ने उपेक्षापूर्वक यज्ञ और दान करने में प्रमादवश शास्त्र-अवहेलना की, जिसके फलस्वरूप उसे द्वापरयुग में भगवान् श्रीकृष्ण के अवतार लिये जाने तक शाप का फल भोगना पड़ा ।
राजा नृग मनुष्य का उदाहरण है । यह कथा इस प्रकार उस मनुष्य का चित्रण है जो अत्यंत पुण्य करते हुए भी शास्त्रविधि की अवहेलना करने से गिरगिट जैसे जन्म को प्राप्त होता है और एक गड्ढे में जहाँ यद्यपि सुख-पूर्वक जीने के समस्त साधन उसे उपलब्ध होते हैं जीवन बिताते हुए शाप से मुक्ति की प्रतीक्षा करता रहता है ।
--
वाल्मीकि रामायण, उतरकाण्ड,
सर्ग ५५
एष ते नृगशापस्य विस्तरतोऽभिहितो मया ।
यद्यस्ति श्रवणे श्रद्धा श्रुणुष्वेहापरां कथाम् ॥१
एवमुक्तस्तु रामेण सौमित्रिः पुनरब्रवीत् ।
तृप्तिराश्चर्यभूतानां कथानां नास्ति मे नृप ।२
लक्ष्मणेनैवमुक्तस्तु राम इक्ष्वाकुनन्दनः ।
कथां परमधर्मिष्ठां व्याहर्तुमुपचक्रमे ॥३
आसीद् राजा निमिर्नाम इक्ष्वाकूणां महात्मनाम् ।
पुत्रो द्वादशमो वीर्ये धर्मे च परिनिष्ठितः ॥४
स राजा वीर्यसम्पन्नः पुरं देवपुरोपमम् ।
निवेशयामास तदा अभ्याशे गौतमस्य तु ॥५
पुरस्य सुकृतं नाम वैजयन्तमिति श्रुतम् ।
निवेशं यत्र राजर्षिर्निमिश्चक्रे महायशाः ॥६
तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना निवेश्य सुमहापुरम् ।
यजेयं दीर्घसत्रेण पितुः प्रह्लादयन् मनः ॥७
ततः पितरमान्त्र्य इक्ष्वाकुं हि मनोः सुतम् ।
वसिष्ठं वरयामास पूर्वं ब्रह्मर्षिसत्तमम् ॥८
अनन्तरं स राजर्षिर्निमिरिक्ष्वाकु-नन्दनः ।
अत्रिमङ्गिरसं चैव भृगुं चैव तपोनिधिम् ॥९
तमुवाच वसिष्ठस्तु निमिं राजर्षिसत्तमम् ।
वृतोऽहं पूर्वमिन्द्रेण अन्तरं प्रतिपालय ॥१०
अनन्तरं महाविप्रो गौतमः प्रत्यपूरयत् ।
वसिष्ठोऽपि महातेजा इन्द्रयज्ञमथाकरोत् ॥११
निमिस्तु राजा विप्रांस्तान् समानीय नराधिपः ।
पञ्चवर्षसहस्राणि राजा दीक्षामथाकरोत् ॥१२
इन्द्रयज्ञावसाने तु वसिष्ठो भगवानृषिः ।
सकाशमागतो राज्ञो हौत्रं कर्तुमनिन्दितः ॥१३
तदन्तरमथापश्यद् गौतमेनाभिपूरितम् ।
कोपेन महाविष्टो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः ॥१४
तस्मिन्नहनि राजर्षिर्निद्रयापहृतो भृशम् ।
ततो मन्युर्वसिष्ठस्य प्रादुरासीन्महात्मनः ।
अदर्शनेन राजर्षेर्व्याहर्तुमुपचक्रमे ॥१६
यस्मात् त्वमन्य वृतवान् मामवज्ञाय पार्थिव ।
चेतनेन विनाभूतो देहस्ते पार्थिवैष्यति ॥१७
ततः प्रबुद्धो राजा तु श्रुत्वा शापमुदाहृतम् ।
ब्रह्मयोनिमथोवाच स राजा क्रोधमूर्च्छितः ॥१८
अजानतः शयानस्य क्रोधेन कलुषीकृतः ।
उक्तवान् मम शापाग्निं यमदण्डमिवापरम् ॥१९
तस्मात् तवापि ब्रह्मर्षे चेतनेन विनाकृतः ।
देहः स सुचिरप्रख्यो भविष्यति न संशयः ॥२०
इति रोषवशादुभौ तदानीमन्योन्यं शापितौ नृपद्विजेन्द्रौ ।
सहसैव बभूवतुर्विदेहौ तत्तुल्याधिगतप्रभाववन्तौ ॥२१
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे पञ्चपञ्चाशः सर्गः ।
--
अर्थ :
(श्रीराम ने कहा --)
’लक्ष्मण! इस तरह मैंने तुम्हें राजा नृग के शाप का प्रसङ्ग विस्तारपूर्वक बताया है । यदि सुनने की इच्छा हो तो दूसरी कथा भी सुनो !’
श्रीराम के ऐसा कहने पर सुमित्राकुमार फिर बोले :
’नरेश्वर ! इन आश्चर्यजनक कथाओं के सुनने से मुझे कभी तृप्ति नहीं होती है ।’
लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर इक्ष्वाकु-कुलनन्दन श्रीराम ने,
पुनः उत्तम धर्म से युक्त कथा कहनी आरम्भ की :
’सुमित्रानन्दन ! महात्मा इक्ष्वाकु के पुत्रों में निमि नामक एक राजा हो गए हैं, जो इक्ष्वाकु के बारहवें *पुत्र थे । वे पराक्रम में और धर्म में पूर्णतः स्थिर रहनेवाले थे । *श्रीमद्भाग्वत (नवम स्कन्ध ६/४) में, विष्णुपुराण (४/२/११) में तथा महाभारत (अनुशासन-पर्व २/५) में इक्ष्वाकु के सौ पुत्र बताए गए हैं । इनमें प्रधान थे -- विकुक्षि, निमि और दण्ड । इस दृष्टि से निमि द्वितीय पुत्र सिद्ध होते हैं; परंतु यहाँ मूल में इनको बारहवाँ बताया गया है । सम्भव है, गुण-विशेष के कारण ये तीन प्रधान कहे गए हों और अवस्था-क्रम से बारहवें ही हों ।
’उन पराक्रमसम्पन्न नरेश ने उन दिनों गौतम-आश्रम के निकट देवपुरी के समान एक नगर बसाया ।
’महायशस्वी राजर्षि निमि ने जिस नगर में अपना निवास-स्थान बनाया, उसका सुन्दर नाम रखा गया वैजयन्त । इसी नाम से उस नगर की प्रसिद्धि हुई (देवराज इन्द्र के प्रासाद का नाम वैजयन्त है, उसी की समता से निमि के नगर का भी यही नाम रखा गया था ।)
’उस महान् नगर को बसाकर राजा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पिता के हृदय को आह्लाद प्रदान करने के लिए एक ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करूँ, जो दीर्घकाल तक चालू रहनेवाला हो ।
’तदनन्तर इक्ष्वाकु-नन्दन राजर्षि निमि ने अपने पिता मनुपुत्र इक्ष्वाकु से पूछकर अपना यज्ञ कराने के लिए सबसे पहले ब्रह्मर्षिशिरोमणि वसिष्ठजी का वरण किया । उसके बाद अत्रि, अङ्गिरा तथा तपोनिधि भृगु को भी आमन्त्रित किया ।
’उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने राजर्षियों में श्रेष्ठ निमि से कहा -- ’देवराज इन्द्र ने एक यज्ञ के लिए पहले ही से मेरा वरण कर लिया है; अतः वह यज्ञ जब तक समाप्त न हो जाए तब तक तुम मेरे आगमन की प्रतीक्षा करो ।’
’वसिष्ठजी के चले जाने के बाद महान् ब्राह्मण महर्षि गौतम ने आकर उनके काम को पूरा कर दिया । उधर महातेजस्वी वसिष्ठ भी इन्द्र का यज्ञ पूरा कराने लगे ।
नरेश्वर राजा निमि ने उन ब्राह्मणों को बुलाकर हिमालय के पास अपने नगर के निकट ही यज्ञ आरम्भ कर दिया, राजा निमि ने पाँच हजार वर्षों तक के लिए यज्ञ की दीक्षा ली ।
उधर इन्द्र-यज्ञ की समाप्ति होने पर अनिन्द्य भगवान् वसिष्ठ ऋषि राजा निमि के पास होतृकर्म करने के लिए आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि जो समय प्रतीक्षा के लिए दिया था, उसे गौतम ने आकर पूरा कर दिया ।
’यह देख ब्रह्मकुमार वसिष्ठ महान् क्रोध से भर गये और राजा से मिलने दो घड़ी वहाँ बैठे रहे । (एक मुहूर्त = दो घड़ी) । परंतु उस दिन राजर्षि निमि अत्यन्त निद्रा के वशीभूत हो सो गये थे ।
’राजा मिले नहीं इस कारण महात्मा वसिष्ठ मुनि को बड़ा क्रोध हुआ। वे राजर्षि को लक्ष्य करके बोलने लगे :
'भूपाल निमे ! तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरे पुरोहित का वरण कर लिया है, इसलिये तुम्हारा यह शरीर अचेतन होकर गिर जायगा। '
'तदनन्तर राजा की नींद खुली। वे उनके दिये हुए शाप की बात सुनकर क्रोध से मूर्च्छित हो गये और ब्रह्मयोनि वसिष्ठ से बोले :
'मुझे आपके आगमन की बात मालूम नहीं थी, इसलिये सो रहा था। परंतु आपने क्रोध से कलुषित होकर मेरे ऊपर दूसरे यमदण्ड की भाँति शापाग्नि का प्रहार किया है।
'अतः ब्रह्मर्षे ! चिरन्तन शोभा से युक्त जो आपका शरीर है, वह भी असतं होकर गिर जायगा -- इसमें संशय नहीं है।
'इस प्रकार उस समय रोष के वशीभूत हुए वे दोनों नृपेंद्र और द्विजेन्द्र परस्पर शाप दे सहसा विदेह हो गये। उन दोनों के प्रभाव ब्रह्माजी के समान थे। '
(इस प्रकार श्री वाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में पचपनवाँ सर्ग पूरा हुआ।)
--
टिप्पणी :
ऋषि वसिष्ठ स्थान (Space) का पर्याय है और राजा निमि काल (Time) का।
दोनों का ही स्वरूपतः ब्रह्मा की ही तरह आत्मा में ही नित्य वास है।
उपरोक्त कथा में उन्हें चेतनायुक्त सशरीर सत्ताओं (व्यक्तियों) की तरह प्रस्तुत किया गया, जो बहुत बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करते थे। चूँकि ऋषि वसिष्ठ को इन्द्र के यज्ञ को पूरा कराने में देवलोक के समय के पैमाने पर 5000 वर्ष लग गए और इस बीच राजा ने गौतम ऋषि की सहायता से भूलोक के समय के पैमाने पर यज्ञ पूरा कर लिया, इसलिए उनके समय परस्पर टकरा गए। जैसे एक ही स्थान पर दूसरा स्थान नहीं हो सकता (क्योंकि एक ही स्थान पर समान आयतन आकार-विशेष की दो वस्तुएँ एक साथ नहीं राखी जा सकतीं, उसी तरह दो 'समय' भी एक ही काल में नहीं हो सकते।
इस कथा में आगे चलकर ज्ञात होगा कि किस प्रकार देहरहित होने के बाद वे वरुण तथा मित्र के अंश रूप से उर्वशी के माध्यम से स्थूल भौतिक रूप में क्रमशः स्थान तथा काल के रूप में अभिव्यक्त हुए।
इस प्रकार इस कथा में गूढ संकेत हैं जिन्हें decode करने पर हमें कथा का बिलकुल भिन्न अर्थ प्राप्त होता है।
आगे चलकर ययाति, आयु, पुरु, देवयानी, शर्मिष्ठा, उर्वशी आदि के सन्दर्भ में इन अर्थों को और अच्छी तरह ग्रहण कर सकेंगे।
--
भौतिक काल-स्थान का उद्भव
The Physical-Material Time-Space with reference to and in comparison to the Time-Space of the Celestial entities phenomena like Sages, and devata / देवता .
--
वाल्मीकि-रामायण, उत्तरकाण्ड,
--
सर्ग ५३, ५४
राजा नृग मनुष्यों के राजा (नृप) थे :
नारायणो नरेषु यो नृपो भूत्वा नृगो ततः ।
शप्तो द्विजाभ्याम् तदा बभूव सः कृकलासो॥
--
राजा निमि और वशिष्ठ का एक दूसरे के शाप से देहत्याग
सर्ग ५३ तथा ५४ में राजा नृग की कथा का वर्णन है । किस प्रकार नरेश अर्थात् मनुष्यों के राजा नृग ने उपेक्षापूर्वक यज्ञ और दान करने में प्रमादवश शास्त्र-अवहेलना की, जिसके फलस्वरूप उसे द्वापरयुग में भगवान् श्रीकृष्ण के अवतार लिये जाने तक शाप का फल भोगना पड़ा ।
राजा नृग मनुष्य का उदाहरण है । यह कथा इस प्रकार उस मनुष्य का चित्रण है जो अत्यंत पुण्य करते हुए भी शास्त्रविधि की अवहेलना करने से गिरगिट जैसे जन्म को प्राप्त होता है और एक गड्ढे में जहाँ यद्यपि सुख-पूर्वक जीने के समस्त साधन उसे उपलब्ध होते हैं जीवन बिताते हुए शाप से मुक्ति की प्रतीक्षा करता रहता है ।
--
वाल्मीकि रामायण, उतरकाण्ड,
सर्ग ५५
एष ते नृगशापस्य विस्तरतोऽभिहितो मया ।
यद्यस्ति श्रवणे श्रद्धा श्रुणुष्वेहापरां कथाम् ॥१
एवमुक्तस्तु रामेण सौमित्रिः पुनरब्रवीत् ।
तृप्तिराश्चर्यभूतानां कथानां नास्ति मे नृप ।२
लक्ष्मणेनैवमुक्तस्तु राम इक्ष्वाकुनन्दनः ।
कथां परमधर्मिष्ठां व्याहर्तुमुपचक्रमे ॥३
आसीद् राजा निमिर्नाम इक्ष्वाकूणां महात्मनाम् ।
पुत्रो द्वादशमो वीर्ये धर्मे च परिनिष्ठितः ॥४
स राजा वीर्यसम्पन्नः पुरं देवपुरोपमम् ।
निवेशयामास तदा अभ्याशे गौतमस्य तु ॥५
पुरस्य सुकृतं नाम वैजयन्तमिति श्रुतम् ।
निवेशं यत्र राजर्षिर्निमिश्चक्रे महायशाः ॥६
तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना निवेश्य सुमहापुरम् ।
यजेयं दीर्घसत्रेण पितुः प्रह्लादयन् मनः ॥७
ततः पितरमान्त्र्य इक्ष्वाकुं हि मनोः सुतम् ।
वसिष्ठं वरयामास पूर्वं ब्रह्मर्षिसत्तमम् ॥८
अनन्तरं स राजर्षिर्निमिरिक्ष्वाकु-नन्दनः ।
अत्रिमङ्गिरसं चैव भृगुं चैव तपोनिधिम् ॥९
तमुवाच वसिष्ठस्तु निमिं राजर्षिसत्तमम् ।
वृतोऽहं पूर्वमिन्द्रेण अन्तरं प्रतिपालय ॥१०
अनन्तरं महाविप्रो गौतमः प्रत्यपूरयत् ।
वसिष्ठोऽपि महातेजा इन्द्रयज्ञमथाकरोत् ॥११
निमिस्तु राजा विप्रांस्तान् समानीय नराधिपः ।
पञ्चवर्षसहस्राणि राजा दीक्षामथाकरोत् ॥१२
इन्द्रयज्ञावसाने तु वसिष्ठो भगवानृषिः ।
सकाशमागतो राज्ञो हौत्रं कर्तुमनिन्दितः ॥१३
तदन्तरमथापश्यद् गौतमेनाभिपूरितम् ।
कोपेन महाविष्टो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः ॥१४
तस्मिन्नहनि राजर्षिर्निद्रयापहृतो भृशम् ।
ततो मन्युर्वसिष्ठस्य प्रादुरासीन्महात्मनः ।
अदर्शनेन राजर्षेर्व्याहर्तुमुपचक्रमे ॥१६
यस्मात् त्वमन्य वृतवान् मामवज्ञाय पार्थिव ।
चेतनेन विनाभूतो देहस्ते पार्थिवैष्यति ॥१७
ततः प्रबुद्धो राजा तु श्रुत्वा शापमुदाहृतम् ।
ब्रह्मयोनिमथोवाच स राजा क्रोधमूर्च्छितः ॥१८
अजानतः शयानस्य क्रोधेन कलुषीकृतः ।
उक्तवान् मम शापाग्निं यमदण्डमिवापरम् ॥१९
तस्मात् तवापि ब्रह्मर्षे चेतनेन विनाकृतः ।
देहः स सुचिरप्रख्यो भविष्यति न संशयः ॥२०
इति रोषवशादुभौ तदानीमन्योन्यं शापितौ नृपद्विजेन्द्रौ ।
सहसैव बभूवतुर्विदेहौ तत्तुल्याधिगतप्रभाववन्तौ ॥२१
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे पञ्चपञ्चाशः सर्गः ।
--
अर्थ :
(श्रीराम ने कहा --)
’लक्ष्मण! इस तरह मैंने तुम्हें राजा नृग के शाप का प्रसङ्ग विस्तारपूर्वक बताया है । यदि सुनने की इच्छा हो तो दूसरी कथा भी सुनो !’
श्रीराम के ऐसा कहने पर सुमित्राकुमार फिर बोले :
’नरेश्वर ! इन आश्चर्यजनक कथाओं के सुनने से मुझे कभी तृप्ति नहीं होती है ।’
लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर इक्ष्वाकु-कुलनन्दन श्रीराम ने,
पुनः उत्तम धर्म से युक्त कथा कहनी आरम्भ की :
’सुमित्रानन्दन ! महात्मा इक्ष्वाकु के पुत्रों में निमि नामक एक राजा हो गए हैं, जो इक्ष्वाकु के बारहवें *पुत्र थे । वे पराक्रम में और धर्म में पूर्णतः स्थिर रहनेवाले थे । *श्रीमद्भाग्वत (नवम स्कन्ध ६/४) में, विष्णुपुराण (४/२/११) में तथा महाभारत (अनुशासन-पर्व २/५) में इक्ष्वाकु के सौ पुत्र बताए गए हैं । इनमें प्रधान थे -- विकुक्षि, निमि और दण्ड । इस दृष्टि से निमि द्वितीय पुत्र सिद्ध होते हैं; परंतु यहाँ मूल में इनको बारहवाँ बताया गया है । सम्भव है, गुण-विशेष के कारण ये तीन प्रधान कहे गए हों और अवस्था-क्रम से बारहवें ही हों ।
’उन पराक्रमसम्पन्न नरेश ने उन दिनों गौतम-आश्रम के निकट देवपुरी के समान एक नगर बसाया ।
’महायशस्वी राजर्षि निमि ने जिस नगर में अपना निवास-स्थान बनाया, उसका सुन्दर नाम रखा गया वैजयन्त । इसी नाम से उस नगर की प्रसिद्धि हुई (देवराज इन्द्र के प्रासाद का नाम वैजयन्त है, उसी की समता से निमि के नगर का भी यही नाम रखा गया था ।)
’उस महान् नगर को बसाकर राजा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पिता के हृदय को आह्लाद प्रदान करने के लिए एक ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करूँ, जो दीर्घकाल तक चालू रहनेवाला हो ।
’तदनन्तर इक्ष्वाकु-नन्दन राजर्षि निमि ने अपने पिता मनुपुत्र इक्ष्वाकु से पूछकर अपना यज्ञ कराने के लिए सबसे पहले ब्रह्मर्षिशिरोमणि वसिष्ठजी का वरण किया । उसके बाद अत्रि, अङ्गिरा तथा तपोनिधि भृगु को भी आमन्त्रित किया ।
’उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने राजर्षियों में श्रेष्ठ निमि से कहा -- ’देवराज इन्द्र ने एक यज्ञ के लिए पहले ही से मेरा वरण कर लिया है; अतः वह यज्ञ जब तक समाप्त न हो जाए तब तक तुम मेरे आगमन की प्रतीक्षा करो ।’
’वसिष्ठजी के चले जाने के बाद महान् ब्राह्मण महर्षि गौतम ने आकर उनके काम को पूरा कर दिया । उधर महातेजस्वी वसिष्ठ भी इन्द्र का यज्ञ पूरा कराने लगे ।
नरेश्वर राजा निमि ने उन ब्राह्मणों को बुलाकर हिमालय के पास अपने नगर के निकट ही यज्ञ आरम्भ कर दिया, राजा निमि ने पाँच हजार वर्षों तक के लिए यज्ञ की दीक्षा ली ।
उधर इन्द्र-यज्ञ की समाप्ति होने पर अनिन्द्य भगवान् वसिष्ठ ऋषि राजा निमि के पास होतृकर्म करने के लिए आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि जो समय प्रतीक्षा के लिए दिया था, उसे गौतम ने आकर पूरा कर दिया ।
’यह देख ब्रह्मकुमार वसिष्ठ महान् क्रोध से भर गये और राजा से मिलने दो घड़ी वहाँ बैठे रहे । (एक मुहूर्त = दो घड़ी) । परंतु उस दिन राजर्षि निमि अत्यन्त निद्रा के वशीभूत हो सो गये थे ।
’राजा मिले नहीं इस कारण महात्मा वसिष्ठ मुनि को बड़ा क्रोध हुआ। वे राजर्षि को लक्ष्य करके बोलने लगे :
'भूपाल निमे ! तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरे पुरोहित का वरण कर लिया है, इसलिये तुम्हारा यह शरीर अचेतन होकर गिर जायगा। '
'तदनन्तर राजा की नींद खुली। वे उनके दिये हुए शाप की बात सुनकर क्रोध से मूर्च्छित हो गये और ब्रह्मयोनि वसिष्ठ से बोले :
'मुझे आपके आगमन की बात मालूम नहीं थी, इसलिये सो रहा था। परंतु आपने क्रोध से कलुषित होकर मेरे ऊपर दूसरे यमदण्ड की भाँति शापाग्नि का प्रहार किया है।
'अतः ब्रह्मर्षे ! चिरन्तन शोभा से युक्त जो आपका शरीर है, वह भी असतं होकर गिर जायगा -- इसमें संशय नहीं है।
'इस प्रकार उस समय रोष के वशीभूत हुए वे दोनों नृपेंद्र और द्विजेन्द्र परस्पर शाप दे सहसा विदेह हो गये। उन दोनों के प्रभाव ब्रह्माजी के समान थे। '
(इस प्रकार श्री वाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में पचपनवाँ सर्ग पूरा हुआ।)
--
टिप्पणी :
ऋषि वसिष्ठ स्थान (Space) का पर्याय है और राजा निमि काल (Time) का।
दोनों का ही स्वरूपतः ब्रह्मा की ही तरह आत्मा में ही नित्य वास है।
उपरोक्त कथा में उन्हें चेतनायुक्त सशरीर सत्ताओं (व्यक्तियों) की तरह प्रस्तुत किया गया, जो बहुत बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करते थे। चूँकि ऋषि वसिष्ठ को इन्द्र के यज्ञ को पूरा कराने में देवलोक के समय के पैमाने पर 5000 वर्ष लग गए और इस बीच राजा ने गौतम ऋषि की सहायता से भूलोक के समय के पैमाने पर यज्ञ पूरा कर लिया, इसलिए उनके समय परस्पर टकरा गए। जैसे एक ही स्थान पर दूसरा स्थान नहीं हो सकता (क्योंकि एक ही स्थान पर समान आयतन आकार-विशेष की दो वस्तुएँ एक साथ नहीं राखी जा सकतीं, उसी तरह दो 'समय' भी एक ही काल में नहीं हो सकते।
इस कथा में आगे चलकर ज्ञात होगा कि किस प्रकार देहरहित होने के बाद वे वरुण तथा मित्र के अंश रूप से उर्वशी के माध्यम से स्थूल भौतिक रूप में क्रमशः स्थान तथा काल के रूप में अभिव्यक्त हुए।
इस प्रकार इस कथा में गूढ संकेत हैं जिन्हें decode करने पर हमें कथा का बिलकुल भिन्न अर्थ प्राप्त होता है।
आगे चलकर ययाति, आयु, पुरु, देवयानी, शर्मिष्ठा, उर्वशी आदि के सन्दर्भ में इन अर्थों को और अच्छी तरह ग्रहण कर सकेंगे।
--
No comments:
Post a Comment