आत्मतया : आत्मीयता,
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कापालिकों ने हातिम ताई का नाम बदलकर उसे ’आत्मतया’ कर दिया था । उसके धर्मपिता कहते थे कि सब कुछ आत्मतया है । उसे यद्यपि यह सब समझ में नहीं आता था, पर वह सोचता था कि यदि सब कुछ आत्मतया है तो क्या ईश्वर और महेश्वर भी आत्मतया है? तब धर्मपिता कहते थे :
"जो महेश्वर है, वही ईश्वर है, जो ईश्वर है, वही महेश्वर है ।
आत्मतया का अर्थ है दोनों एक दूसरे के ही दो रूप हैं ।"
शायद उस समय हातिम ताई इतनी परिपक्व बुद्धि का नहीं था, कि इन बातों का गूढ किंतु प्रकट तात्पर्य ग्रहण कर सके ।
तब उसके धर्मपिता ने उससे प्रश्न किया :
’क्या हर व्यक्ति अपने-आपको ’मैं’ के रूप में ही नहीं जानता है?
और क्या हर व्यक्ति अपने-आपको ’मैं’ कहकर ही अपना परिचय दूसरों को नहीं देता ?"
हातिम ताई चुपचाप सुनता रहा ।
"अब मान लो, महेश्वर या ईश्वर तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए,
तो क्या वे भी अपने-आपको ’मैं’ ही कहकर अपना परिचय नहीं देंगे ?"
"हाँ, मुझे गरुड़ ने जब खजूर के पेड़ पर ला छोड़ा था तो उसने भी स्वयं को ’मैं’ ही कहा था ।
लेकिन इसके बाद पता नहीं कैसे और कितने समय में मैं दो-तीन साल की आयु से बढ़कर सत्रह-अठारह साल का हो गया, लेकिन इस बीच उसी पेड़ पर जब मुझे भूख-प्यास लग रही थी, और मुझे मेरे माता-पिता की याद आ रही थी, और मैं रो रहा था, जब मैंने ईश्वर या परमेश्वर दोनों से प्रार्थना की थी कि मुझे बचाओ; मेरी रक्षा करो, तो मुझसे किसी आवाज ने कहा था :
"अगर तुम्हारा यकीन सच्चा है तो 'मैं' तुम्हारी रक्षा करूँगा ।"
और तभी उस खजूर पर बेमौसम ही फल आ गये थे । और फिर जब मैंने उन्हें तोड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो वे अचानक अदृश्य हो गये थे । तब मैंने ईश्वर / महेश्वर / परमेश्वर से कहा था :
"जैसी तुम्हारी मरजी !"
और तभी वे फल पुनः दिखलाए दिये,
और जब मैंने उन्हें तोड़ा, तो मुझे अपने यकीन की सच्चाई पर भरोसा हुआ ।
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जब गरुड़ ने दूसरी बार हातिम ताई को कापालिकों के नगर से उठाकर कठोलिकों के बीच छोड़ दिया था, तो हातिम ताई को न तो डर लगा था, न चिन्ता हुई थी । उसे कुछ वैसा ही लगा था, -जैसे कोई बिल्ली अपने किसी बच्चे को मुँह में दबाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है ।
जब कठोलिकों (कठोलिक आचार्यों) ने उससे उसका नाम पूछा था, तो उसने उन्हें कभी तो अपना नाम 'हातिम ताई' बतलाया था, और कभी-कभी ’आत्मतया’ भी ।
जब उसे यज्ञोपवीत और दीक्षा दी गई थी, और जब पुनः उसके आचार्यों ने उसका नाम बदलकर ’आत्मीयता’ कर दिया था तो उसे आश्चर्य हुआ था कि क्या मेरे नाम के इतने प्रकार हो सकते हैं ?
तब आचार्य ने उसे स्पष्ट किया था :
"सभी का एक ही नाम है : ’मैं’ । यह नाम सबका होने से हर कोई इससे अपने-आपको तो जानता है किन्तु अपने-आपका नाम दूसरों के लिए कुछ और होना ज़रूरी है, ताकि सब एक-दूसरे को पहचान सकें । हर पहचान हमेशा बनती-मिटती रहती है, जबकि ’मैं’ की पहचान बनती-मिटती नहीं । इसलिए अपने को जाना जाता है, दूसरों को पहचाना जाता है।
इसलिए (दूसरों की) पहचान तात्कालिक होती है, जबकि ’मैं’ को जानना; - 'मैं' की पहचान बिना नाम के भी स्थायी, हमेशा बनी रहती है । फिर एक ही मनुष्य में क्या ऐसे दो ’मैं’ होते हैं ? अगर दो ’मैं’ नहीं होते, तो एक भी अपने-आपको कैसे पहचान सकेगा ? इसलिए ’मैं’ न तो एक है, न दो या अनेक । फिर यह ’नहीं है’ ऐसा कहना भी गलत होगा ।
इसलिए ’मैं’, ’ईश्वर, ’महेश्वर’ ’परमेश्वर’ 'सच्चाई', 'यकीन' एक-दूसरे के ही अलग-अलग नाम हैं ।"
"और हातिम ताई ? ... ’आत्मतया’? ... ’आत्मीयता’, ...'यकीन', ...'सच्चाई'?"
"सभी नाम हैं भाई ! नाम न हो तो क्या तुम नहीं होते?"
हातिम ताई को फिर भी अपना यह नया नाम ’आत्मीयता’, -’आत्मतया’से अधिक अच्छा लगा था ।
इसकी एक वजह यह भी थी कि इससे उसे अपने माता-पिता याद आते थे,
जिन्होंने उसका नाम हातिम (ताई) रखा था।
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कापालिकों ने हातिम ताई का नाम बदलकर उसे ’आत्मतया’ कर दिया था । उसके धर्मपिता कहते थे कि सब कुछ आत्मतया है । उसे यद्यपि यह सब समझ में नहीं आता था, पर वह सोचता था कि यदि सब कुछ आत्मतया है तो क्या ईश्वर और महेश्वर भी आत्मतया है? तब धर्मपिता कहते थे :
"जो महेश्वर है, वही ईश्वर है, जो ईश्वर है, वही महेश्वर है ।
आत्मतया का अर्थ है दोनों एक दूसरे के ही दो रूप हैं ।"
शायद उस समय हातिम ताई इतनी परिपक्व बुद्धि का नहीं था, कि इन बातों का गूढ किंतु प्रकट तात्पर्य ग्रहण कर सके ।
तब उसके धर्मपिता ने उससे प्रश्न किया :
’क्या हर व्यक्ति अपने-आपको ’मैं’ के रूप में ही नहीं जानता है?
और क्या हर व्यक्ति अपने-आपको ’मैं’ कहकर ही अपना परिचय दूसरों को नहीं देता ?"
हातिम ताई चुपचाप सुनता रहा ।
"अब मान लो, महेश्वर या ईश्वर तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए,
तो क्या वे भी अपने-आपको ’मैं’ ही कहकर अपना परिचय नहीं देंगे ?"
"हाँ, मुझे गरुड़ ने जब खजूर के पेड़ पर ला छोड़ा था तो उसने भी स्वयं को ’मैं’ ही कहा था ।
लेकिन इसके बाद पता नहीं कैसे और कितने समय में मैं दो-तीन साल की आयु से बढ़कर सत्रह-अठारह साल का हो गया, लेकिन इस बीच उसी पेड़ पर जब मुझे भूख-प्यास लग रही थी, और मुझे मेरे माता-पिता की याद आ रही थी, और मैं रो रहा था, जब मैंने ईश्वर या परमेश्वर दोनों से प्रार्थना की थी कि मुझे बचाओ; मेरी रक्षा करो, तो मुझसे किसी आवाज ने कहा था :
"अगर तुम्हारा यकीन सच्चा है तो 'मैं' तुम्हारी रक्षा करूँगा ।"
और तभी उस खजूर पर बेमौसम ही फल आ गये थे । और फिर जब मैंने उन्हें तोड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो वे अचानक अदृश्य हो गये थे । तब मैंने ईश्वर / महेश्वर / परमेश्वर से कहा था :
"जैसी तुम्हारी मरजी !"
और तभी वे फल पुनः दिखलाए दिये,
और जब मैंने उन्हें तोड़ा, तो मुझे अपने यकीन की सच्चाई पर भरोसा हुआ ।
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जब गरुड़ ने दूसरी बार हातिम ताई को कापालिकों के नगर से उठाकर कठोलिकों के बीच छोड़ दिया था, तो हातिम ताई को न तो डर लगा था, न चिन्ता हुई थी । उसे कुछ वैसा ही लगा था, -जैसे कोई बिल्ली अपने किसी बच्चे को मुँह में दबाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है ।
जब कठोलिकों (कठोलिक आचार्यों) ने उससे उसका नाम पूछा था, तो उसने उन्हें कभी तो अपना नाम 'हातिम ताई' बतलाया था, और कभी-कभी ’आत्मतया’ भी ।
जब उसे यज्ञोपवीत और दीक्षा दी गई थी, और जब पुनः उसके आचार्यों ने उसका नाम बदलकर ’आत्मीयता’ कर दिया था तो उसे आश्चर्य हुआ था कि क्या मेरे नाम के इतने प्रकार हो सकते हैं ?
तब आचार्य ने उसे स्पष्ट किया था :
"सभी का एक ही नाम है : ’मैं’ । यह नाम सबका होने से हर कोई इससे अपने-आपको तो जानता है किन्तु अपने-आपका नाम दूसरों के लिए कुछ और होना ज़रूरी है, ताकि सब एक-दूसरे को पहचान सकें । हर पहचान हमेशा बनती-मिटती रहती है, जबकि ’मैं’ की पहचान बनती-मिटती नहीं । इसलिए अपने को जाना जाता है, दूसरों को पहचाना जाता है।
इसलिए (दूसरों की) पहचान तात्कालिक होती है, जबकि ’मैं’ को जानना; - 'मैं' की पहचान बिना नाम के भी स्थायी, हमेशा बनी रहती है । फिर एक ही मनुष्य में क्या ऐसे दो ’मैं’ होते हैं ? अगर दो ’मैं’ नहीं होते, तो एक भी अपने-आपको कैसे पहचान सकेगा ? इसलिए ’मैं’ न तो एक है, न दो या अनेक । फिर यह ’नहीं है’ ऐसा कहना भी गलत होगा ।
इसलिए ’मैं’, ’ईश्वर, ’महेश्वर’ ’परमेश्वर’ 'सच्चाई', 'यकीन' एक-दूसरे के ही अलग-अलग नाम हैं ।"
"और हातिम ताई ? ... ’आत्मतया’? ... ’आत्मीयता’, ...'यकीन', ...'सच्चाई'?"
"सभी नाम हैं भाई ! नाम न हो तो क्या तुम नहीं होते?"
हातिम ताई को फिर भी अपना यह नया नाम ’आत्मीयता’, -’आत्मतया’से अधिक अच्छा लगा था ।
इसकी एक वजह यह भी थी कि इससे उसे अपने माता-पिता याद आते थे,
जिन्होंने उसका नाम हातिम (ताई) रखा था।
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