ईशिता और आत्मीयता
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हातिम ताई को दूर दूर तक इसका आभास तक नहीं था कि आचार्य ने उसे जो नाम प्रदान किया था वह नाम मनुष्यता के ज्ञात इतिहास में भविष्य में वैसा ही अमर हो जाएगा जैसा कि मनु का नाम मनुज से पहले से है।
कापालिकों के नगर में रहने तक वह ईश्वर को एक व्यक्ति-विशेष की तरह जानना-समझना और अनुभव करना चाहता था। किन्तु कठोलिकों के नगर में आने पर उसकी दृष्टि आमूलतः इस प्रकार बदल गयी जिसकी कि उसे कभी कल्पना तक न थी। उसे स्पष्ट हुआ कि यद्यपि कापालिक-दर्शन किसी को ईश्वर होने के लिए सहायक हो सकता है, किन्तु ईश्वर-साक्षात्कार के लिए किसी और के लिए, वह एक बहुत बड़ी रुकावट और बाधा भी हो सकता है।
उसे समझ में आया कि ईश्वर को व्यक्ति-विशेष के रूप में स्वीकार करना ही मूलतः भ्रामक और त्रुटिपूर्ण है। क्योंकि तब यह जानने का प्रश्न उठता है कि 'व्यक्ति क्या है?' क्या इस बारे में हम सुनिश्चित कुछ जानते हैं? किन्तु जब ईश्वर को व्यक्ति-विशेष की तरह संज्ञा या सर्वनाम, क्रिया, विशेषण या क्रिया-विशेषण के रूप में नहीं, बल्कि उस नियामक सत्ता के रूप में समझने का यत्न किया जाता है जो सर्वत्र और सदा विद्यमान है तो उसे ईशिता (Governance), नियंता कहा जा सकता है। इसलिए उसे 'एक' या 'अनेक' कहना भी इसी प्रकार से अधूरा और अपर्याप्त है। क्योंकि वह सत्ता 'एक' तथा 'अनेक' होते हुए भी इन शब्दों (विशेषणों) की आवश्यकता से रहित है। 'एक' अथवा 'अनेक' भी शून्य की तरह संख्या के रूप में विशेषण ही तो हैं ! जो किसी वस्तु की विशेषता का वर्णन न की उसके स्वरूपा का। उस सत्ता को एक, अनेक अथवा शून्य में बाँटना बुद्धि के दायरे में ही संभव होता है, जबकि बुद्धि स्वयं भी हमेशा ही अपने ही दायरे में बँधी होने से कभी मुक्त नहीं हो सकती।
शून्य का एक अर्थ है अभाव। उस अर्थ में भी वह सत्ता शून्य नहीं है।
इसलिए बुद्धि की सीमा में ईश्वर या आत्मा की विवेचना कर पाना लगभग असंभव ही है।
हातिम ताई को यह दृष्टि इसलिए प्राप्त हो सकी, क्योंकि उसने अपने स्वयं को आचार्य द्वारा दिए गए नाम 'आत्मीयता' / 'आत्मतया' (as and like the pure self only) के अर्थ में समझने का प्रयास किया। उसे अनायास स्पष्ट हुआ कि ईशिता या ईश्वर को जानने-समझने से पहले उसे स्वयं अपने-आपको जानना समझना होगा। और तब उसे यह भी स्पष्ट हुआ कि जैसे 'व्यक्ति' एक कल्पना और स्मृति है, उसी तरह व्यक्ति-विशेष के रूप में 'ईश्वर' भी केवल कल्पना और स्मृति है, जबकि सच्चाई यह है कि जैसे 'स्वयं' होना कल्पना और स्मृति नहीं बल्कि ठोस अकाट्य सत्य है, उसी तरह ईशिता भी ऐसा और यही सत्य है। इसलिए बुद्धि की सहायता से ईश्वर या अपने-आपको जानना असंभव न भी हो तो भी कठिन अवश्य है। वास्तव में ईश्वर या अपने-आप (आत्मा) को जानने-समझने का तात्पर्य है वह होना। और यह तभी संभव है जब बुद्धि निश्चल और जिज्ञासा प्रबल हो। बुद्धि कुण्ठित नहीं बल्कि स्तब्ध हो।
यह आकस्मिक संयोग नहीं था कि हातिम ताई का नाम अदम / आदम (Adam) के रूप में अमर हो गया। यहाँ तक कि उसे 'प्रथम प्रवक्ता' (The First Prophet) भी कहा गया।
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हातिम ताई को दूर दूर तक इसका आभास तक नहीं था कि आचार्य ने उसे जो नाम प्रदान किया था वह नाम मनुष्यता के ज्ञात इतिहास में भविष्य में वैसा ही अमर हो जाएगा जैसा कि मनु का नाम मनुज से पहले से है।
कापालिकों के नगर में रहने तक वह ईश्वर को एक व्यक्ति-विशेष की तरह जानना-समझना और अनुभव करना चाहता था। किन्तु कठोलिकों के नगर में आने पर उसकी दृष्टि आमूलतः इस प्रकार बदल गयी जिसकी कि उसे कभी कल्पना तक न थी। उसे स्पष्ट हुआ कि यद्यपि कापालिक-दर्शन किसी को ईश्वर होने के लिए सहायक हो सकता है, किन्तु ईश्वर-साक्षात्कार के लिए किसी और के लिए, वह एक बहुत बड़ी रुकावट और बाधा भी हो सकता है।
उसे समझ में आया कि ईश्वर को व्यक्ति-विशेष के रूप में स्वीकार करना ही मूलतः भ्रामक और त्रुटिपूर्ण है। क्योंकि तब यह जानने का प्रश्न उठता है कि 'व्यक्ति क्या है?' क्या इस बारे में हम सुनिश्चित कुछ जानते हैं? किन्तु जब ईश्वर को व्यक्ति-विशेष की तरह संज्ञा या सर्वनाम, क्रिया, विशेषण या क्रिया-विशेषण के रूप में नहीं, बल्कि उस नियामक सत्ता के रूप में समझने का यत्न किया जाता है जो सर्वत्र और सदा विद्यमान है तो उसे ईशिता (Governance), नियंता कहा जा सकता है। इसलिए उसे 'एक' या 'अनेक' कहना भी इसी प्रकार से अधूरा और अपर्याप्त है। क्योंकि वह सत्ता 'एक' तथा 'अनेक' होते हुए भी इन शब्दों (विशेषणों) की आवश्यकता से रहित है। 'एक' अथवा 'अनेक' भी शून्य की तरह संख्या के रूप में विशेषण ही तो हैं ! जो किसी वस्तु की विशेषता का वर्णन न की उसके स्वरूपा का। उस सत्ता को एक, अनेक अथवा शून्य में बाँटना बुद्धि के दायरे में ही संभव होता है, जबकि बुद्धि स्वयं भी हमेशा ही अपने ही दायरे में बँधी होने से कभी मुक्त नहीं हो सकती।
शून्य का एक अर्थ है अभाव। उस अर्थ में भी वह सत्ता शून्य नहीं है।
इसलिए बुद्धि की सीमा में ईश्वर या आत्मा की विवेचना कर पाना लगभग असंभव ही है।
हातिम ताई को यह दृष्टि इसलिए प्राप्त हो सकी, क्योंकि उसने अपने स्वयं को आचार्य द्वारा दिए गए नाम 'आत्मीयता' / 'आत्मतया' (as and like the pure self only) के अर्थ में समझने का प्रयास किया। उसे अनायास स्पष्ट हुआ कि ईशिता या ईश्वर को जानने-समझने से पहले उसे स्वयं अपने-आपको जानना समझना होगा। और तब उसे यह भी स्पष्ट हुआ कि जैसे 'व्यक्ति' एक कल्पना और स्मृति है, उसी तरह व्यक्ति-विशेष के रूप में 'ईश्वर' भी केवल कल्पना और स्मृति है, जबकि सच्चाई यह है कि जैसे 'स्वयं' होना कल्पना और स्मृति नहीं बल्कि ठोस अकाट्य सत्य है, उसी तरह ईशिता भी ऐसा और यही सत्य है। इसलिए बुद्धि की सहायता से ईश्वर या अपने-आपको जानना असंभव न भी हो तो भी कठिन अवश्य है। वास्तव में ईश्वर या अपने-आप (आत्मा) को जानने-समझने का तात्पर्य है वह होना। और यह तभी संभव है जब बुद्धि निश्चल और जिज्ञासा प्रबल हो। बुद्धि कुण्ठित नहीं बल्कि स्तब्ध हो।
यह आकस्मिक संयोग नहीं था कि हातिम ताई का नाम अदम / आदम (Adam) के रूप में अमर हो गया। यहाँ तक कि उसे 'प्रथम प्रवक्ता' (The First Prophet) भी कहा गया।
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