Thursday, 22 August 2019

Dedicated to Sri Bharadwaj Muni.

श्री भारद्वाज मुनिविरचितम्
आरुरुक्षोर्मुनेरभ्यासम् संस्कार-निग्रहणञ्च :
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चित्तैः वायवश्चैव वायुभिः तानि चित्तानि ।
वायुभिः प्राणाश्चैव प्राणैः वायवः अपि ॥१
चित्तैः भावाश्चैव भावैश्च चित्तैरपि ।
भावैश्च भावनाः तद्वत् भावनाभिः भावाश्च ॥२
सूर्यचन्द्रनाडीभ्यां गतिश्चित्तप्राणयोः ।
ऊष्णशीतप्रदातारौ तथा तन्नाडीद्वयम् ॥३
एकेनापि कुरु तस्मात्संयमनं सर्वान् हि तान् ।
विभिन्न दशायं  तु अवधानं कुर्वात्मनि ॥४
यदा यदा हि निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥५
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श्री भारद्वाज ऋषि की प्रेरणा से लिखित यह रचना उन्हें ही समर्पित है।
अर्थ और संक्षिप्त व्याख्या :
चित्त, वायु (श्वास), प्राण, भाव, भावनाएँ, तथा मन एवं बुद्धि भी) ये सभी चंद्र-सूर्य नाड़ियों की गति के कारण गतिशील होते हैं और ये दोनों नाड़ियाँ भी उनके कारण। चूँकि सभी परस्पर अत्यंत निर्भर हैं, इसलिए उनमें से किसी भी एक को भी संयमित कर लेने से दूसरों को नियंत्रित किया जा सकता है।
इस प्रकार मनुष्य जिस किसी भी मनःस्थिति में हो, उस मनःस्थिति से तत्काल मुक्ति के लिए उनमें से किसी एक उपाय का अवलम्बन ले। इस प्रकार संस्कार-प्रेरित बाध्यकारी अभ्यासों को वश में करता हुआ अवधान (attention) को पुनः पुनः आत्मा पर लाकर वहीं स्थिर रहे।
अंतिम श्लोक गीता अध्याय 6/26 से लिया गया है।  

ārurukṣormunerabhyāsam saṃskāra-nigrahaṇañca :
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cittaiḥ vāyavaścaiva vāyubhiḥ tāni cittāni |
vāyubhiḥ prāṇāścaiva prāṇaiḥ vāyavaḥ api ||1
cittaiḥ bhāvāścaiva bhāvaiśca cittairapi |
bhāvaiśca bhāvanāḥ tadvat bhāvanābhiḥ  bhāvāśca ||2
sūryacandranāḍībhyāṃ gatiścittaprāṇayoḥ |
ūṣṇaśītapradātārau tathā tannāḍīdvayam ||3
ekenāpi kuru tasmātsaṃyamanaṃ sarvān hi tān |
vibhinna daśāyaṃ  tu avadhānaṃ kurvātmani ||4
yadā yadā hi niścarati manaścañcalamasthiram |
tato tato niyamyaitadātmanyeva vaśaṃ nayet ||5
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Meaning and a brief Commentary
Various aspects like citta / the momentum, vāyu / breath, prāṇa / the subtle invisible life-force that triggers the visible breath, bhāva / thought, bhāvanā / sentiments, feelings and emotions -- the response, along-with the nerves (and the whole nervous system) all constitute one whole activity that is the Mind.
(The two major nerves are the Sun and the Moon which are the pathways of prāṇa, while the breath is the vehicle of the same -- the subtle, visible Life-force).
As these all aspects are closely interrelated, controlling any one of them results in controlling the whole state of the Mind. So by such means, which-ever is possible at the moment one can gain control over the Mind. (Because no one can struggle with the mind.)
Bringing out thus at once a change in the state of Mind, one should always bring the attention to the 'Self' the simple, spontaneous of just 'Being' and should not identify with the 'becoming' -- which is the state of Mind. Mind is always an unending activity of 'becoming'.
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This gradually brings to end the latent tendencies (saṃskāra) which ever so keep one away from the 'Self'.
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The last stanza is a verbatim rendering of the shloka 26 chapter 6, -from The Gita.
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