नई वेताल-कथा ...
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घर से कहीं बहुत दूर ऋषि अंगिरा के गिरीश (Greece) स्थित आश्रम में रहते हुए हातिम ताई को उन दिनों की याद आती थी जब वह कापालिकों के संसार में रहता था। क्या वह अब पुनः कभी अपने माता-पिता से मिल पाएगा ? कापालिकों की परंपरा में कुछ लोग अवश्य उसके अपने पैतृक स्थान मिस्र (महेश्वर) देश के भी थे, किन्तु उनसे भी वह यहीं मिला था। मिश्र में रहते हुए वह इतना छोटा था कि वहाँ अगर कोई रहे हों तो भी वह कैसे समझ सकता था?
यह तो उसे यहाँ आने पर पता चला कि मिस्र में प्रेत-विद्या अत्यंत विकसित थी और भूत-विद्या (material-science, chemical and medicine) के भी ज्ञाता अनेक थे।
उनका सिद्धांत कुछ इस प्रकार से था :
पृथ्वी पृथ्वी में प्रवेश करती है, अर्थात् बड़ा भारी (गुरु) पिंड अपने से छोटे को अपनी ओर खींचता है।
आज की भाषा में इसे Law of Gravitation कहते हैं।
संस्कृत में ग्रावा / ग्रावन् का अर्थ होता है - पत्थर।
ग्रावा से ही बना गिरि और गिरीश।
उद्गार, निगीर्ण, उद्गीर्ण आदि शब्द जिस धातु से बनाते हैं उसका प्रथम पुरुष एकवचन लट्-लकार रूप होता है 'गिरति', जिसका अर्थ है : गिरता है। गिर् से गिरीश, ग्रीस, ग्रीक दृष्टव्य हैं ।
जब किसी की मृत्यु हो जाती थी तो सामान्य व्यक्ति की स्थिति में उसे भूमि में दफना कर उसकी क़ब्र पर एक बड़ा भारी पत्थर रख दिया जाता था ताकि उसकी आत्मा (रूप / रूह / शरीर) भूमि में विलीन हो जाए।
किन्तु किसी विशेष धनवान व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके शव के साथ सोना-चांदी, रत्न, बर्तन, प्याले, वस्त्र तक भूमि में रखे जाते थे। यहाँ तक कि किसी पात्र में जल, शराब आदि ऐसी वस्तुएँ भी जो बरसों तक सड़ना तो बहुत दूर, खराब तक नहीं होतीं। और यह माना जाता था कि मृत मनुष्य श्वास ही होता है जो बारम्बार अपनी मृत देह तक तब तक आता-जाता रहता है जब तक कि उसकी आयु होती है। आयु अर्थात् शरीर जब तक पूरी तरह विघटित होकर नष्ट नहीं हो जाता। इसलिए उसे जलाया नहीं जाता था।
न जलाने के पीछे एक कारण यह भी था कि अगर उसकी (शरीर अर्थात् आत्मा / रूप / रूह की) आयु शेष हो तो उस अवस्था में उसकी शेष आयु असह्य पीड़ा में पूरी होगी।
ग्रावा से ही दूसरी भाषाओं में शब्द बना 'grave' !
चाहे उसे दफनाया जाता या ऐसे ही कहीं रखा जाता तो भी उसकी श्वास जो उस स्थिति में इधर-उधर भटक कर पुनः अपने शरीर तक आती शरीर की दुर्दशा देखकर दुःखी होती। इसीलिए शरीर को ऐसे रसायन-द्रव्यों के लेप आदि से सुरक्षित रखा जाता कि आयु बीतने तक उसे कम से कम कष्ट झेलना पड़े।
आयु बीतने पर उसकी श्वास स्थूल शरीर को छोड़कर हवा में उसी प्रकार विलीन हो जाती, जैसे उसका स्थूल शरीर भूमि में विलीन हो जाता था। इसके बाद भी उसका व्यक्तित्व 'वेताल' की तरह शिव-लोक में अहं-रूप में भ्रमण करता रहता।
जिन लोगों का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक नहीं हो पाया हो, उनकी श्वास (वायुरूपी आत्मा) यहाँ-वहाँ भटकती रहती थी और कभी-कभी किसी शव पर ही अधिकार कर लेती। तब कहा जाता की वह जीवित व्यक्ति प्रेताविष्ट (Possessed) हो गया है। इस प्रकार येन-केन-प्रकारेण दूसरे की उम्र चुरा लेती। और विशेष स्थिति में तो किसी दुर्बल-चित्त वाले मनुष्य को जीवित ही पकड़कर उसके माध्यम से जीवन के सुखों को थोड़े समय के लिए भोग लेती। इस प्रकार भूताविष्ट तथा प्रेताविष्ट दो भिन्न प्रकार हैं।
इसलिए 'अंतिम संस्कार' के समय शव के साथ धातु या पत्थर के किसी पात्र में आप-गंगम् (गंगा-जल) रखा जाता, जिससे शेष आयु तक उसे प्यास का कष्ट न उठाना पड़े।
भागीरथी गंगा वैसे तो हिमालय से निकलकर गंगासागर में समुद्र से मिल जाती है, किन्तु पाताल-गंगा के रूप में वह भूमि के दूसरे तलों अर्थात् अतल, तलातल, रसातल तथा पाताल में तथा स्वर्ग एवं अंतरिक्ष में भी नित्य विद्यमान रहती है, क्योंकि वह शिव से अभिन्न है।
जब हातिम ताई वहाँ था उस समय उस नदी का विस्तार क्षीण धारा से शुरू होकर बढ़ते-बढ़ते कभी-कभी उस मंदिर तक पहुँच जाता था जहाँ दो गरुड़-स्तम्भ थे, जिनमें से एक पर गरुड़-प्रतिमा, तो दूसरे पर साक्षात कोई गरुड़ आकर बैठ जाता था। हातिम ताई को याद है उसी मंदिर के प्राकार (परिसर) में वह शिवलिंग भी था जिसे शम्भू कहा जाता था जो स्वयंभू था। 'आप-गंगम्' नदी भी इसी प्रकार स्वयंभू थी, क्योंकि आसपास कोई पर्वत नहीं था। उस नदी के जल से ही शिव का अभिषेक कापालिक करते थे। वर्तमान आबे-ज़मज़म का अवश्य ही कोई संबंध इस 'आप-गंगम्' से होगा। बहुत बाद में महाभारत युद्ध के बाद वह स्थान इतना बदल गया, कि जलस्रोत भूमि के बहुत भीतर चला गया और तब से उसे कुआँ समझा जाने लगा।
जिस व्यक्ति ने जीते जी इस सत्य को समझ लिया है उसके मृत शरीर को चाहे दफनाया या जलाया जाए, या जल में प्रवाहित कर दिया जाए, वह मृत्य के बाद भी वेताल के रूप में शिव-लोक में वास करता है।
दफनाए जाने का दूसरा कारण यह भी है कि अनेक स्थानों पर दाह-संस्कार के लिए पर्याप्त लकड़ी मिलना भी मुश्किल होता है, खासकर रेगिस्तान में और ठंडे देशों में।
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इस पूरी विद्या का अध्ययन वीर-शैव परंपरा में अनादि काल से होता आया है और यद्यपि इसके सूक्ष्म और गूढ़ व्यापक आध्यात्मिक अर्थ भी हैं, साधारण मनुष्य में इतनी जिज्ञासा या रुचि नहीं होती, कि वह उन पर ध्यान दे। साधारण मनुष्य बस विश्वास करता है कि इस प्रकार से उसके प्रियजन 'अमर' हो जाएंगे।
[प्रसंगवश उम्र, उमर, अमर, अम्र, अमीर, अमीरात, Emirates ..... आदि तुल्य हैं। ]
शायद इसका संबंध 'अमरीकः' से होते हुए 'अमरीका' तथा महा-अमरीका / Mesoamerican माया सभ्यता से भी है, जैसे महाप्रथमीय; 'मेसोपोटामिया - Mesopotamia' है, वैसे ही महा-अमरीका / Mesoamerica है, जिसे माया सभ्यता कहा जाता है।
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जैसे पृथ्वी का बड़ा पिंड छोटे को खींचता है, पृथ्वी जल को, जल वायु को, वायु अग्नि को, और अग्नि आकाश को खींचता है। विलोम-क्रम में; - पुनः आकाश अग्नि को (क्योंकि अग्नि आकाश में हर दिशा में फैलती है, और इसी तर्क से), अग्नि वायु को, वायु जल को तथा जल पृथ्वी को खींचता है। यह जगत-देह है जिसमें ये पञ्च-प्राण क्रीडारत हैं। इसी प्रकार प्रत्येक जीव (organism) भी एक पूर्ण जगत है जिसमें ये ही पाँच तत्व और प्राण जब सामञ्जस्य के साथ संतुलित होकर क्रीडारत होते हैं तो उस देह में जीवभाव व्यक्त (manifest) होता है।
किन्तु स्थूल पृथ्वीतत्व के अभाव में भी शेष चार तत्वों के द्वारा एक जीवित सत्ता व्यक्त (manifest) होती है। इस प्रकार चार प्रकार के वेताल पृथ्वी के अभाव में जल, वायु, अग्नि और आकाश के तत्वों की प्रधानता के अनुसार आयु पूर्ण होने तक भ्रमण करते या भटकते रहते हैं।
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प्रेत-विद्या और मृत्यु-विद्या के पंडित उपरोक्त अनुसार उन वेताल-आत्माओं रूपों / रूहों का वर्गीकरण :
क्रमशः जल (आप- आबी), वायु (वात -वातीय-बादी), अग्नि (तेज -तैश-तिश- आतिश-आतिशी) तथा आकाशीय (जैव / ग़ैबी) के रूप में करते हैं। चूँकि वर्ण देवता-स्वरूप हैं, इसलिए शाबर मन्त्रों के माध्यम से मृत व्यक्ति के विशिष्ट रूप से संपर्क किया जा सकता है जो प्रायः व्यक्ति की जीवित अवस्था में ही पहले से खोज लिया जाता है। पृथ्वी-तत्व प्रधान मृत व्यक्ति को ख़ाकी (ज़मीनी) रूप प्राप्त होता है, इसलिए उसे ज़मीन में दफनाया जाता है। 'ख़ाकी' संस्कृत 'खाकीय' का सज्ञात (cognate)प्रतीत होता है क्योंकि 'ख' वर्ण स्थान का द्योतक है। शेष व्यक्तियों को उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार चतुष्फलकीय / tetrahedron आवरण / आवरक / क़ब्र में। इन चार फलकों के अनुपात ही मृतक का मरणोत्तर स्वरूप क्या है यह तय करते थे।
इसी प्रकार 'क़ब्र' भी क-वृ का सज्ञात हो सकता है, ... जो अंग्रेज़ी में स-वृ -- cover हो जाता है।
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कापालिक जानते थे कि आयु पूर्ण हो जाने पर मनुष्य पुनः उस विशिष्ट देवता जल, वायु, अग्नि तथा आकाश के मार्ग से 'नए' शरीर में जन्म लेगा। प्रेत-विद्या की मर्यादा यहीं तक थी। मृत्यु-विद्या के पंडित व्यक्ति को अहम्-वृत्ति (ego-sense) मानकर उस वृत्ति के स्वरूप के आधार पर व्यक्ति के संस्कार तथा संस्कार के आधार पर उसका भावी जन्म तय करते थे।
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इस अहम्-वृत्ति का आगमन जिस ब्रह्माकार-वृत्ति से होता है, उसका संकेत पिछली पोस्ट्स में दिया जा चुका है, -विशेष कर तरंगबिन्दु न्याय कथा में।
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अचानक याद आया द्वादश पञ्जरिका स्तोत्रम का यह श्लोक :
का तेऽष्टादशदेशे चिन्ता वातुल तव किं नास्ति नियन्ता।
यस्त्वां हस्ते सुदृढनिबद्धं बोधयति प्रभवादिविरूद्धम्।।
(भवप्रत्ययो प्रभवः .... 'भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।' .... पातञ्जल योगसूत्र; - समाधिपाद 19)
जैसा कहा गया, व्याकरण के अनुसार भी कोई मूल वर्ण (ह्रस्व, दीर्घ, आदि अचामष्टादश भेद) अधिकतम 18 प्रकार का हो सकता है। संभवतः उपरोक्त श्लोक में 'वातुल' वेताल के ही अर्थ का संकेत करता है।
मरकर वेताल होना 'प्रभव' ही है।
इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूँ।
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घर से कहीं बहुत दूर ऋषि अंगिरा के गिरीश (Greece) स्थित आश्रम में रहते हुए हातिम ताई को उन दिनों की याद आती थी जब वह कापालिकों के संसार में रहता था। क्या वह अब पुनः कभी अपने माता-पिता से मिल पाएगा ? कापालिकों की परंपरा में कुछ लोग अवश्य उसके अपने पैतृक स्थान मिस्र (महेश्वर) देश के भी थे, किन्तु उनसे भी वह यहीं मिला था। मिश्र में रहते हुए वह इतना छोटा था कि वहाँ अगर कोई रहे हों तो भी वह कैसे समझ सकता था?
यह तो उसे यहाँ आने पर पता चला कि मिस्र में प्रेत-विद्या अत्यंत विकसित थी और भूत-विद्या (material-science, chemical and medicine) के भी ज्ञाता अनेक थे।
उनका सिद्धांत कुछ इस प्रकार से था :
पृथ्वी पृथ्वी में प्रवेश करती है, अर्थात् बड़ा भारी (गुरु) पिंड अपने से छोटे को अपनी ओर खींचता है।
आज की भाषा में इसे Law of Gravitation कहते हैं।
संस्कृत में ग्रावा / ग्रावन् का अर्थ होता है - पत्थर।
ग्रावा से ही बना गिरि और गिरीश।
उद्गार, निगीर्ण, उद्गीर्ण आदि शब्द जिस धातु से बनाते हैं उसका प्रथम पुरुष एकवचन लट्-लकार रूप होता है 'गिरति', जिसका अर्थ है : गिरता है। गिर् से गिरीश, ग्रीस, ग्रीक दृष्टव्य हैं ।
जब किसी की मृत्यु हो जाती थी तो सामान्य व्यक्ति की स्थिति में उसे भूमि में दफना कर उसकी क़ब्र पर एक बड़ा भारी पत्थर रख दिया जाता था ताकि उसकी आत्मा (रूप / रूह / शरीर) भूमि में विलीन हो जाए।
किन्तु किसी विशेष धनवान व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके शव के साथ सोना-चांदी, रत्न, बर्तन, प्याले, वस्त्र तक भूमि में रखे जाते थे। यहाँ तक कि किसी पात्र में जल, शराब आदि ऐसी वस्तुएँ भी जो बरसों तक सड़ना तो बहुत दूर, खराब तक नहीं होतीं। और यह माना जाता था कि मृत मनुष्य श्वास ही होता है जो बारम्बार अपनी मृत देह तक तब तक आता-जाता रहता है जब तक कि उसकी आयु होती है। आयु अर्थात् शरीर जब तक पूरी तरह विघटित होकर नष्ट नहीं हो जाता। इसलिए उसे जलाया नहीं जाता था।
न जलाने के पीछे एक कारण यह भी था कि अगर उसकी (शरीर अर्थात् आत्मा / रूप / रूह की) आयु शेष हो तो उस अवस्था में उसकी शेष आयु असह्य पीड़ा में पूरी होगी।
ग्रावा से ही दूसरी भाषाओं में शब्द बना 'grave' !
चाहे उसे दफनाया जाता या ऐसे ही कहीं रखा जाता तो भी उसकी श्वास जो उस स्थिति में इधर-उधर भटक कर पुनः अपने शरीर तक आती शरीर की दुर्दशा देखकर दुःखी होती। इसीलिए शरीर को ऐसे रसायन-द्रव्यों के लेप आदि से सुरक्षित रखा जाता कि आयु बीतने तक उसे कम से कम कष्ट झेलना पड़े।
आयु बीतने पर उसकी श्वास स्थूल शरीर को छोड़कर हवा में उसी प्रकार विलीन हो जाती, जैसे उसका स्थूल शरीर भूमि में विलीन हो जाता था। इसके बाद भी उसका व्यक्तित्व 'वेताल' की तरह शिव-लोक में अहं-रूप में भ्रमण करता रहता।
जिन लोगों का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक नहीं हो पाया हो, उनकी श्वास (वायुरूपी आत्मा) यहाँ-वहाँ भटकती रहती थी और कभी-कभी किसी शव पर ही अधिकार कर लेती। तब कहा जाता की वह जीवित व्यक्ति प्रेताविष्ट (Possessed) हो गया है। इस प्रकार येन-केन-प्रकारेण दूसरे की उम्र चुरा लेती। और विशेष स्थिति में तो किसी दुर्बल-चित्त वाले मनुष्य को जीवित ही पकड़कर उसके माध्यम से जीवन के सुखों को थोड़े समय के लिए भोग लेती। इस प्रकार भूताविष्ट तथा प्रेताविष्ट दो भिन्न प्रकार हैं।
इसलिए 'अंतिम संस्कार' के समय शव के साथ धातु या पत्थर के किसी पात्र में आप-गंगम् (गंगा-जल) रखा जाता, जिससे शेष आयु तक उसे प्यास का कष्ट न उठाना पड़े।
भागीरथी गंगा वैसे तो हिमालय से निकलकर गंगासागर में समुद्र से मिल जाती है, किन्तु पाताल-गंगा के रूप में वह भूमि के दूसरे तलों अर्थात् अतल, तलातल, रसातल तथा पाताल में तथा स्वर्ग एवं अंतरिक्ष में भी नित्य विद्यमान रहती है, क्योंकि वह शिव से अभिन्न है।
जब हातिम ताई वहाँ था उस समय उस नदी का विस्तार क्षीण धारा से शुरू होकर बढ़ते-बढ़ते कभी-कभी उस मंदिर तक पहुँच जाता था जहाँ दो गरुड़-स्तम्भ थे, जिनमें से एक पर गरुड़-प्रतिमा, तो दूसरे पर साक्षात कोई गरुड़ आकर बैठ जाता था। हातिम ताई को याद है उसी मंदिर के प्राकार (परिसर) में वह शिवलिंग भी था जिसे शम्भू कहा जाता था जो स्वयंभू था। 'आप-गंगम्' नदी भी इसी प्रकार स्वयंभू थी, क्योंकि आसपास कोई पर्वत नहीं था। उस नदी के जल से ही शिव का अभिषेक कापालिक करते थे। वर्तमान आबे-ज़मज़म का अवश्य ही कोई संबंध इस 'आप-गंगम्' से होगा। बहुत बाद में महाभारत युद्ध के बाद वह स्थान इतना बदल गया, कि जलस्रोत भूमि के बहुत भीतर चला गया और तब से उसे कुआँ समझा जाने लगा।
जिस व्यक्ति ने जीते जी इस सत्य को समझ लिया है उसके मृत शरीर को चाहे दफनाया या जलाया जाए, या जल में प्रवाहित कर दिया जाए, वह मृत्य के बाद भी वेताल के रूप में शिव-लोक में वास करता है।
दफनाए जाने का दूसरा कारण यह भी है कि अनेक स्थानों पर दाह-संस्कार के लिए पर्याप्त लकड़ी मिलना भी मुश्किल होता है, खासकर रेगिस्तान में और ठंडे देशों में।
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इस पूरी विद्या का अध्ययन वीर-शैव परंपरा में अनादि काल से होता आया है और यद्यपि इसके सूक्ष्म और गूढ़ व्यापक आध्यात्मिक अर्थ भी हैं, साधारण मनुष्य में इतनी जिज्ञासा या रुचि नहीं होती, कि वह उन पर ध्यान दे। साधारण मनुष्य बस विश्वास करता है कि इस प्रकार से उसके प्रियजन 'अमर' हो जाएंगे।
[प्रसंगवश उम्र, उमर, अमर, अम्र, अमीर, अमीरात, Emirates ..... आदि तुल्य हैं। ]
शायद इसका संबंध 'अमरीकः' से होते हुए 'अमरीका' तथा महा-अमरीका / Mesoamerican माया सभ्यता से भी है, जैसे महाप्रथमीय; 'मेसोपोटामिया - Mesopotamia' है, वैसे ही महा-अमरीका / Mesoamerica है, जिसे माया सभ्यता कहा जाता है।
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जैसे पृथ्वी का बड़ा पिंड छोटे को खींचता है, पृथ्वी जल को, जल वायु को, वायु अग्नि को, और अग्नि आकाश को खींचता है। विलोम-क्रम में; - पुनः आकाश अग्नि को (क्योंकि अग्नि आकाश में हर दिशा में फैलती है, और इसी तर्क से), अग्नि वायु को, वायु जल को तथा जल पृथ्वी को खींचता है। यह जगत-देह है जिसमें ये पञ्च-प्राण क्रीडारत हैं। इसी प्रकार प्रत्येक जीव (organism) भी एक पूर्ण जगत है जिसमें ये ही पाँच तत्व और प्राण जब सामञ्जस्य के साथ संतुलित होकर क्रीडारत होते हैं तो उस देह में जीवभाव व्यक्त (manifest) होता है।
किन्तु स्थूल पृथ्वीतत्व के अभाव में भी शेष चार तत्वों के द्वारा एक जीवित सत्ता व्यक्त (manifest) होती है। इस प्रकार चार प्रकार के वेताल पृथ्वी के अभाव में जल, वायु, अग्नि और आकाश के तत्वों की प्रधानता के अनुसार आयु पूर्ण होने तक भ्रमण करते या भटकते रहते हैं।
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प्रेत-विद्या और मृत्यु-विद्या के पंडित उपरोक्त अनुसार उन वेताल-आत्माओं रूपों / रूहों का वर्गीकरण :
क्रमशः जल (आप- आबी), वायु (वात -वातीय-बादी), अग्नि (तेज -तैश-तिश- आतिश-आतिशी) तथा आकाशीय (जैव / ग़ैबी) के रूप में करते हैं। चूँकि वर्ण देवता-स्वरूप हैं, इसलिए शाबर मन्त्रों के माध्यम से मृत व्यक्ति के विशिष्ट रूप से संपर्क किया जा सकता है जो प्रायः व्यक्ति की जीवित अवस्था में ही पहले से खोज लिया जाता है। पृथ्वी-तत्व प्रधान मृत व्यक्ति को ख़ाकी (ज़मीनी) रूप प्राप्त होता है, इसलिए उसे ज़मीन में दफनाया जाता है। 'ख़ाकी' संस्कृत 'खाकीय' का सज्ञात (cognate)प्रतीत होता है क्योंकि 'ख' वर्ण स्थान का द्योतक है। शेष व्यक्तियों को उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार चतुष्फलकीय / tetrahedron आवरण / आवरक / क़ब्र में। इन चार फलकों के अनुपात ही मृतक का मरणोत्तर स्वरूप क्या है यह तय करते थे।
इसी प्रकार 'क़ब्र' भी क-वृ का सज्ञात हो सकता है, ... जो अंग्रेज़ी में स-वृ -- cover हो जाता है।
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कापालिक जानते थे कि आयु पूर्ण हो जाने पर मनुष्य पुनः उस विशिष्ट देवता जल, वायु, अग्नि तथा आकाश के मार्ग से 'नए' शरीर में जन्म लेगा। प्रेत-विद्या की मर्यादा यहीं तक थी। मृत्यु-विद्या के पंडित व्यक्ति को अहम्-वृत्ति (ego-sense) मानकर उस वृत्ति के स्वरूप के आधार पर व्यक्ति के संस्कार तथा संस्कार के आधार पर उसका भावी जन्म तय करते थे।
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इस अहम्-वृत्ति का आगमन जिस ब्रह्माकार-वृत्ति से होता है, उसका संकेत पिछली पोस्ट्स में दिया जा चुका है, -विशेष कर तरंगबिन्दु न्याय कथा में।
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अचानक याद आया द्वादश पञ्जरिका स्तोत्रम का यह श्लोक :
का तेऽष्टादशदेशे चिन्ता वातुल तव किं नास्ति नियन्ता।
यस्त्वां हस्ते सुदृढनिबद्धं बोधयति प्रभवादिविरूद्धम्।।
(भवप्रत्ययो प्रभवः .... 'भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।' .... पातञ्जल योगसूत्र; - समाधिपाद 19)
जैसा कहा गया, व्याकरण के अनुसार भी कोई मूल वर्ण (ह्रस्व, दीर्घ, आदि अचामष्टादश भेद) अधिकतम 18 प्रकार का हो सकता है। संभवतः उपरोक्त श्लोक में 'वातुल' वेताल के ही अर्थ का संकेत करता है।
मरकर वेताल होना 'प्रभव' ही है।
इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूँ।
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