Tuesday, 20 August 2019

स्मृति और पहचान / व्यतीत होने वाला समय

पुराण तथा इतिहास 
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हातिमताई बचपन में ही अपने माता-पिता से बिछुड़ गया था, इसलिए उसके मन में अपने माता-पिता की छवि / पहचान (की स्मृति) एक नारी-मूर्ति तथा एक पुरुष-मूर्ति जैसी थी । यह पहचान ही स्मृति थी क्योंकि स्मृति ही तो वह मानसिक प्रतिमा होती है, जो किसी चीज़ की पहचान होती है । पहचान और स्मृति अन्योन्याश्रित होने से एक ही मनःस्थिति के दो नाम हैं । पहचान हो तो स्मृति होती है, और स्मृति हो तो पहचान । दोनों एक-दूसरे को पुनर्जीवित करती हैं और भूल से, प्रमादवश ही मन उन्हें दो भिन्न वस्तुएँ समझ बैठता है । यही भूल राजा निमि ने की थी, इसलिए उसे मनुष्य के पलक झपकने-मात्र के स्थान में अमरत्व की तरह पुनर्जन्म प्राप्त हुआ था । यही नित्य पर अनित्यता तथा अनित्य पर नित्यता के भाव के रूप में संसार के परिवर्तनशील होने का आभास जगाता है । स्मृति तथा पहचान के रूप में इस प्रकार राजा निमि अनादि काल से मनुष्य की पलकों के बीच विद्यमान रहता है । आयु, निमि (व्यतीत होने वाला समय), वसिष्ठ, ययाति, शर्मिष्ठा, देवयानी, पूरु तथा यदुवंश की कथा विस्तार से वाल्मीकि-रामायण, उत्तरकाण्ड के सर्ग 56 तथा अगले सर्गों नें पढ़ी जा सकती है, जो न तो ’मिथ’ / Myth है, न साहित्यिक कौशल । यह किसी दूसरे, अधिक व्यापक आधिदैविक अस्तित्व के तल पर होनेवाली घटनाओं का वर्णन है, जिसके एक अंश को ही एक समय में समझा जा सकता है । तथापि इसमें किसी दूसरे समय में हो रही घटनाओं का भी तदनुसार यथावत् उल्लेख किया गया है । ’मिथ’ शब्द की व्युत्पत्ति भी दो भिन्न अर्थों में की जाती है : मिथ्या के अर्थ में जो प्रतीति (अनित्य) और यथार्थ (नित्य) का एक दूसरे पर आरोपण है । दूसरा अर्थ है -द्वैतयुक्त । चूँकि नित्य-अनित्य भी द्वैत है जो सनातन रूप से अस्तित्व का द्योतक है इसलिए नित्य-अनित्य के जोड़े (मिथुन) / युगल को ही ’मिथ’ कहा जाता है । यह आधिदैविक तथा आधिभौतिक सत्यों का समन्वय और समसामयिक सन्दर्भों में किया जानेवाला व्यापक वर्णन है । चूँकि इनका प्रयोजन भिन्न-भिन्न मनसिकता एवं बुद्धियुक्त मनुष्यों को शिक्षा प्रदान करना मात्र होता है, न कि कोरा मनोरंजन, इसलिए मूलतः तो इनका आध्यात्मिक आधार ही उन्हें एक सूत्र में बाँधता है । 
इसलिए पुराण तथा रामायण एवं महाभारत जैसे ग्रन्थ अस्तित्व के भिन्न-भिन्न तलों पर एक साथ हो रही घटनाओं का वर्णन है । और वह कल्पना-विलास कदापि नहीं है ।
महाकवि भवभूति तथा कालिदास रचित ग्रंथों में भी इसी प्रकार से विभिन्न आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक स्थितियों तत्वों का अनायास सुंदर मेल देखा जा सकता है।  इसलिए उनकी प्रामाणिकता पर संदेह करना स्वयं हमारे अपने अज्ञान का ही द्योतक है। 
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