दिवास्वप्न / आकाशकुसुम
--
किसी भी मनुष्य के लिए समय की पहचान दो प्रकार से होती है :
एक वह, जिसे वह (अनुभवों की) स्मृति के माध्यम से जानता है।
इस स्मृति को अत्यंत विकसित, परिष्कृत और व्यवस्थित, तर्कसंगत बनाकर वह कल्पना से भावी समय का विचार भी कर सकता है जो शुद्ध भौतिक स्तर और वैज्ञानिक धरातल पर भी अचूक, बिलकुल सटीक, सत्य भी सिद्ध हो सकता है। किन्तु जब लोगों, वस्तुओं, स्थितियों एवं घटनाओं के सन्दर्भ में कोई अनुमान लगाया जाता है, तो वह अनुमान स्मृतिजनित होने से व्यतीत होनेवाले समय के अंतर्गत होता है। जबकि ऐसा व्यतीत होने वाला समय अटल अचल समय के उस एक अति अल्प अंश की एक व्यक्तिगत स्मृति से अधिक कुछ नहीं है, जिसकी प्रामाणिकता सदा संदिग्ध रहती है। ऐसे किसी स्मृतिगत समय को सार्वत्रिक और सार्वकालिक सत्य कहना मूलतः त्रुटिपूर्ण है।
हातिम ताई के मन में जब ईश्वर के बारे में कौतूहल उठता था तो उसे बस इतना ही स्पष्ट होता था कि ईश्वर 'वह' है, जिसे जानना या संभव हो तो देखना या किसी प्रकार से जिससे वह संपर्क करना चाहता है।
जब वह संसार के लोगों के बारे में सोचता था तो उसके सामने ईश्वर, ऋषि, धर्मपिता और आत्मीयता के बारे में प्रश्न उठता था, और उसे लगता था कि ऋषि 'वह' है जिसे ईश्वर-साक्षात्कार हुआ होता है। किन्तु ऋषि के बारे में भी इस कल्पना से उसे ईश्वर-साक्षात्कार के लिए कोई मदद कहाँ मिलती थी? धर्मपिता के बारे में जब वह सोचता था तो उसे लगता था कि वह ईश्वर है किन्तु प्रच्छन्न ईश्वर, जिससे बात तो की जा सकती है, किन्तु वह भी ईश्वर-प्राप्ति के लिए उसे कोई सहायता नहीं दे सकता। और स्वयं अपने बारे में उसे लगता था कि ईश्वर, ऋषि और धर्मपिता 'आत्मीय' तो हैं, किन्तु बस आत्मा की तरह प्रिय, न कि ईश्वर का परिचय / पहचान ।
व्यतीत हुआ समय उसे आकाशकुसुम सा प्रतीत होता था, जो न व्यतीत होनेवाले आकाश की पृष्ठभूमि में निरंतर खिलता और मुरझाता रहता था।
इस उदाहरण में उसे ईश्वर का एक धुँधला आभास अवश्य होता था।
न व्यतीत होनेवाला समय, जिसे अनादि और अनंत कहा जाता है, वास्तव में वह नहीं है, जिसका आदि / आरम्भ मध्य और अंत न हो, बल्कि वही शायद वह ईश्वर है, जो नित्य और सनातन है, - इसलिए आदि, मध्य और अंत उस पर लागू नहीं होता। आदि, मध्य और अंत तो व्यतीत होनेवाले उस समय पर ही लागू होता है, जो स्मृति का हिस्सा है। और स्मृति की ही तरह भंगुर भी।
तो ईश्वर 'मैं' अथवा 'तुम' से विलक्षण 'वह' है जिसका उल्लेख सदा अन्य-पुरुष एकवचन (third person, singular) के रूप में किया जाता है। और यदि ऐसा है तो क्या वह कभी 'ज्ञात' का हिस्सा हो सकता है?
जो भी ज्ञात होता है वह कभी अज्ञात था, और जो भी अज्ञात है वह कभी ज्ञात हो सकता है, किन्तु ईश्वर ऐसी कोई वस्तु नहीं है।
फिर ईश्वर / आत्मा क्या है?
क्योंकि ईश्वर यदि सिर्फ उसके लिए है तो क्या वह आत्मा से भिन्न हो सकता है?
और यदि हो सकता है तो ऐसा ईश्वर अनात्म होगा।
फिर 'वह' कौन है?
--
तद्युष्मदोरस्मदि संप्रतिष्ठा,
तस्मिन् विनष्टेऽस्मदिमूलबोधात् ।
तद्युष्मदस्मन्मतिवर्जितैका,
स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात् ॥
(महर्षि श्रीरमणरचित सद्दर्शनम् श्लोक १६)
--
तत् (वह) युष्मत् (तुम) दोनों का स्थान अहं (मैं) के अंतर्गत होता है।
किन्तु स्वयं अहं भी अन्य वृत्तियों की तरह आता-जाता होने से स्पष्ट है कि उसका मूलस्थान स्थिर और आने-जाने वाली वस्तु नहीं है। इस प्रकार वह मूल वस्तु तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) से विलक्षण है और इस प्रकार की तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) बुद्धि मन में वहीं से उठती है। तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) बुद्धि से रहित स्वयं मन ही इस प्रकार वह प्रत्यक्ष आत्मा /ईश्वर है जो नित्य प्रकट और प्रत्यक्ष है।
--
tadyuṣmadorasmadi saṃpratiśṭhā,
tasmin vinaṣṭe:'smadi mūlabodhāt |
tadyuṣmadasmanmativarjitaikā,
sthitirjvalantī sahajātmanaḥ syāt ||
(maharṣi śrīramaṇaracita saddarśanam śloka 16)
--
(for details, you may please see my ramanavinay blog.)
--
--
किसी भी मनुष्य के लिए समय की पहचान दो प्रकार से होती है :
एक वह, जिसे वह (अनुभवों की) स्मृति के माध्यम से जानता है।
इस स्मृति को अत्यंत विकसित, परिष्कृत और व्यवस्थित, तर्कसंगत बनाकर वह कल्पना से भावी समय का विचार भी कर सकता है जो शुद्ध भौतिक स्तर और वैज्ञानिक धरातल पर भी अचूक, बिलकुल सटीक, सत्य भी सिद्ध हो सकता है। किन्तु जब लोगों, वस्तुओं, स्थितियों एवं घटनाओं के सन्दर्भ में कोई अनुमान लगाया जाता है, तो वह अनुमान स्मृतिजनित होने से व्यतीत होनेवाले समय के अंतर्गत होता है। जबकि ऐसा व्यतीत होने वाला समय अटल अचल समय के उस एक अति अल्प अंश की एक व्यक्तिगत स्मृति से अधिक कुछ नहीं है, जिसकी प्रामाणिकता सदा संदिग्ध रहती है। ऐसे किसी स्मृतिगत समय को सार्वत्रिक और सार्वकालिक सत्य कहना मूलतः त्रुटिपूर्ण है।
हातिम ताई के मन में जब ईश्वर के बारे में कौतूहल उठता था तो उसे बस इतना ही स्पष्ट होता था कि ईश्वर 'वह' है, जिसे जानना या संभव हो तो देखना या किसी प्रकार से जिससे वह संपर्क करना चाहता है।
जब वह संसार के लोगों के बारे में सोचता था तो उसके सामने ईश्वर, ऋषि, धर्मपिता और आत्मीयता के बारे में प्रश्न उठता था, और उसे लगता था कि ऋषि 'वह' है जिसे ईश्वर-साक्षात्कार हुआ होता है। किन्तु ऋषि के बारे में भी इस कल्पना से उसे ईश्वर-साक्षात्कार के लिए कोई मदद कहाँ मिलती थी? धर्मपिता के बारे में जब वह सोचता था तो उसे लगता था कि वह ईश्वर है किन्तु प्रच्छन्न ईश्वर, जिससे बात तो की जा सकती है, किन्तु वह भी ईश्वर-प्राप्ति के लिए उसे कोई सहायता नहीं दे सकता। और स्वयं अपने बारे में उसे लगता था कि ईश्वर, ऋषि और धर्मपिता 'आत्मीय' तो हैं, किन्तु बस आत्मा की तरह प्रिय, न कि ईश्वर का परिचय / पहचान ।
व्यतीत हुआ समय उसे आकाशकुसुम सा प्रतीत होता था, जो न व्यतीत होनेवाले आकाश की पृष्ठभूमि में निरंतर खिलता और मुरझाता रहता था।
इस उदाहरण में उसे ईश्वर का एक धुँधला आभास अवश्य होता था।
न व्यतीत होनेवाला समय, जिसे अनादि और अनंत कहा जाता है, वास्तव में वह नहीं है, जिसका आदि / आरम्भ मध्य और अंत न हो, बल्कि वही शायद वह ईश्वर है, जो नित्य और सनातन है, - इसलिए आदि, मध्य और अंत उस पर लागू नहीं होता। आदि, मध्य और अंत तो व्यतीत होनेवाले उस समय पर ही लागू होता है, जो स्मृति का हिस्सा है। और स्मृति की ही तरह भंगुर भी।
तो ईश्वर 'मैं' अथवा 'तुम' से विलक्षण 'वह' है जिसका उल्लेख सदा अन्य-पुरुष एकवचन (third person, singular) के रूप में किया जाता है। और यदि ऐसा है तो क्या वह कभी 'ज्ञात' का हिस्सा हो सकता है?
जो भी ज्ञात होता है वह कभी अज्ञात था, और जो भी अज्ञात है वह कभी ज्ञात हो सकता है, किन्तु ईश्वर ऐसी कोई वस्तु नहीं है।
फिर ईश्वर / आत्मा क्या है?
क्योंकि ईश्वर यदि सिर्फ उसके लिए है तो क्या वह आत्मा से भिन्न हो सकता है?
और यदि हो सकता है तो ऐसा ईश्वर अनात्म होगा।
फिर 'वह' कौन है?
--
तद्युष्मदोरस्मदि संप्रतिष्ठा,
तस्मिन् विनष्टेऽस्मदिमूलबोधात् ।
तद्युष्मदस्मन्मतिवर्जितैका,
स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात् ॥
(महर्षि श्रीरमणरचित सद्दर्शनम् श्लोक १६)
--
तत् (वह) युष्मत् (तुम) दोनों का स्थान अहं (मैं) के अंतर्गत होता है।
किन्तु स्वयं अहं भी अन्य वृत्तियों की तरह आता-जाता होने से स्पष्ट है कि उसका मूलस्थान स्थिर और आने-जाने वाली वस्तु नहीं है। इस प्रकार वह मूल वस्तु तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) से विलक्षण है और इस प्रकार की तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) बुद्धि मन में वहीं से उठती है। तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) बुद्धि से रहित स्वयं मन ही इस प्रकार वह प्रत्यक्ष आत्मा /ईश्वर है जो नित्य प्रकट और प्रत्यक्ष है।
--
tadyuṣmadorasmadi saṃpratiśṭhā,
tasmin vinaṣṭe:'smadi mūlabodhāt |
tadyuṣmadasmanmativarjitaikā,
sthitirjvalantī sahajātmanaḥ syāt ||
(maharṣi śrīramaṇaracita saddarśanam śloka 16)
--
(for details, you may please see my ramanavinay blog.)
--
No comments:
Post a Comment