Thursday, 29 August 2019

शिव की ध्यान-समाधि

शिव-परिवार 
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जब भगवान् शिव ध्यान-समाधि से बाहर आए तो पुनः पार्वती और बालक गणेश को उसी प्रकार एक-दूसरे से खेलते देखा। उन्हें याद आया कि ध्यान-समाधि में प्रविष्ट होने से पहले भी वे दोनों उसी प्रकार खेल रहे थे।
"प्रभो ! आप कितने समय तक ध्यान-मग्न रहे ?"
पार्वती ने पूछा।
"तुम लोग जितने समय तक खेलते रहे, उतने ही समय तक !"
 भगवान् शिव ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
"हमें तो समय का तब भान ही कहाँ था?"
पार्वती बोलीं।
"मुझे भी नहीं था !"
 भगवान् शिव ने कहा।
"यह कैसा रहस्य है ! क्या समय अनुभव नहीं है? या समय एक प्रतीति और वैचारिक अनुमान मात्र है?"
"अनुभव की दृष्टि से तो प्रत्येक प्राणी के लिए समय का अस्तित्व अलग-अलग प्रकार से होता है किन्तु अनुभव स्वयं ही क्षण-क्षण घटित और विलीन होता है।  फिर यह 'क्षण-क्षण' भी केवल अनुमान ही तो होता है जिसे स्मृति के सूत्र में पिरो लिया जाता है। इस प्रकार स्मृति और अनुभव के संयोग को ही एक अनादि और अनंत समय की प्रतीति के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है। अब यदि मैं कहूँ कि समाधि के समय न तो कोई अनुभव था, न कोई समय तो इससे क्या यही सिद्ध नहीं होता, कि अनुभव और समय समाधि की अनुपस्थिति में ही प्रकट और विलीन होते हैं?"
"मेरा वाला तरंग-बिंदु न्याय !"
 भगवान् गणेश प्रसन्नता से उत्साह से बोले !
"तुम्हारा वाला?"
 भगवान् शिव और पार्वती दोनों ने एक साथ पूछा।
"हाँ वही, जिसे मैंने पिछली बार आप दोनों के लिए स्पष्ट किया था। "
लीला के ही लिए, दोनों ही बालक को चकित भाव से देखने लगे।
"देखो ! एक ही देहस्थ आत्मा से अनेक दिशाओं में अनेक इन्द्रियाँ प्रकट होती हैं। दो नेत्रों से प्रकाश-रूपी अनुभव-रूपी तरंग प्रकट होती है, जिसके माध्यम से समय-रूपी कल्पना प्रकट होती है।  इन दोनों को भूल से भिन्न-भिन्न समझ लिया जाता है। और इस प्रकार समय में अनुभव, तथा अनुभव में समय की तरह दो भिन्न और स्वतंत्र सत्ताओं का आभास होने लगता है।"
माता-पिता आश्चर्यचकित और मुग्ध होकर बालक के बोल सुन रहे थे।
"और यह देहस्थ आत्मा?"
 पार्वती ने प्रश्न किया।
"हाँ, अनुभव और समय की ही तरह यह देह और यह देहस्थ आत्मा भी परस्पर दो भिन्न और स्वतंत्र सत्ताओं की तरह प्रतीत होने लगते हैं। "
"और यह संसार?"
भगवान् शिव ने कौतूहल से पूछा। 
"देह और संसार भी इसी तरह एक ही उपादान से निर्मित होते हैं और एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता।"
भगवान् शिव ने तब बालक को उठाकर गले से लगा लिया और पार्वती पिता-पुत्र के स्नेह के दृश्य से अभिभूत होकर प्रसन्नता-विभोर हो उठीं ।
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