'जहि' और 'जहाति'
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हातिम ताई के पूर्व-वृत्तान्त में कहा गया कि किस प्रकार गरुड़ उसे महेश्वर (मिस्र) से कापालिकों के राज्य में ले आया था, और पुनः वहाँ से गिरीश (ग्रीस) स्थित महर्षि भृगु के आश्रम के समीप छोड़ गया।
महर्षि भृगु के आश्रम में प्रधानतः कठोपनिषद् की शिक्षा दी जाती थी, और वहाँ कठोलिकों के साथ-साथ प्रायः कापालिक व जाबालिक परंपराओं के ऋषियों तथा उनके शिष्यों का आगमन भी होता रहता था। स्वयं महर्षि भृगु के आश्रम से भी ऋषि एवं आचार्य पूरी पृथ्वी पर ब्रह्मकर्म के अनुष्ठान और यज्ञों के निमित्त भ्रमण करते रहते थे। विभिन्न नरेश उनके लिए प्रायः रथों और वाहनों का प्रबंध भी उत्साहपूर्वक करते थे। गज (पीलु) और उष्ट्र तथा रथों में युक्त द्रुतगामी अश्व (अर्व) त्वरापूर्वक उन्हें सुदूर स्थानों तक ले जाते थे। और यह तभी संभव हो पाता था जब कोई नरेश, कोई राजा, नृप या पृथ्वीपति किसी बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान कर रहा होता।
ऋषि प्रायः केवल उनके कर्तव्य के निर्वाह हेतु ही ऐसे यज्ञों में सम्मिलित होते थे न कि स्वर्ण, रत्नों या गौ आदि की कामना से। वेद-विधान से किए जानेवाले यज्ञों के अनुष्ठान के लिए उन्हें निमंत्रित किए जाने पर यह उन का दायित्व भी होता था।
ऐसा ही एक स्थान था पीलुस्थान (वर्तमान Palestine / गजा पट्टी ?); -जिसे गज-स्थान भी कहा जाता था क्योंकि वहाँ के उस नरेश के पास असंख्य हाथी (पीलु) और उष्ट्र (ऊँट) एवं अश्व भी थे। हाथियों के साथ रहने से पर्याय से ऊँटों को भी पीलु कहा जाता था जिससे उस स्थान का नाम गजा और पीलु प्रसिद्ध हो गया। शतरंज खेलनेवालों को पता है कि जिस मोहरे को अंग्रेज़ी में rook कहा जाता है, उसे ही हिंदी / उर्दू में 'फ़ील' कहा जाता है, जो 'पीलु' का ही अपभ्रंश (aberration) या सज्ञात (cognate) है।
आज भी गजा-पट्टी उसी जगह का नाम है जो फलस्तीन के नाम से मशहूर है।
आज भी यहूदी अपने 'ईश्वर के स्थान' - अल-इस्र / ईश्वरालय / इसरायल की तलाश में हैं।
पैग़म्बर मूसा द्वारा मिस्र छोड़कर जाने से बहुत पहले की कथा है यह।
अतिग्रस् (Tigris) और उपरेतस् (Euphrates) नदियों के संगम के स्थान पर उससे उत्तर में 200 योजन दूर महाप्रथमीय (Mesopotamia) क्षेत्र में महर्षि भृगु और अङ्गिरा की परंपरा में 'उणादि-पाठ' पढ़ने अनेक शिष्य चारों ओर से आते थे।
ऐसे ही समय आचार्य धातुपाठ की कक्षा में 'हन्' और 'हा' धातुओं के प्रयोग का वर्णन कर रहे थे।
उत्कर्ष, उच्छेद, उड्डीय, उत्पात, उद्भ्रांत, उन्मूलन, उद्यम, उद्रेक, उल्लास, उद्वमन, उच्छोष, उत्साह, उद्धार, आदि उदाहरण देते हुए उन्होंने शिष्यों को अक्षर समाम्नाय के 14 माहेश्वर-सूत्रों में से प्रथम
'अ इ उ ण्' को स्मरण करने के लिए कहा।
[संक्षेप में 'अ', 'इ' तथा 'उ' ये तीनों वर्ण परस्पर एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त किए जा सकते हैं।
'इल' का 'अल' या 'उल'; 'अल' का 'इल' या 'उल'; या 'उल' का 'इल' या 'अल' व्यवहार पर निर्भर है।]
तब उन्होंने शिष्यों से ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र का उच्चारण कराते हुए 'अग्निमीडे' से 'ईडे' की पुनरुक्ति की।
तब उन्होंने अजा एका लोहितकृष्णशुक्ला से उणादि प्रत्यय द्वारा :
ईद-उत्-अज-हा की सिद्धि की ।
तत्पश्चात् पुनः 'हन्' और 'हा' धातुओं के प्रयोग का वर्णन करते हुए कहा :
"इनमें से प्रथम 'हन्' धातु अदादिगणीय परस्मैपदीय है, जिसका लोट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन रूप होता है : 'जहि' ... जिसका तात्पर्य है 'मारो'।
इनमें से द्वितीय 'हा' धातु जुहोत्यादिगणीय परस्मैपदीय है, जिसका लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन रूप होता है 'जहाति' ... जिसका तात्पर्य है 'छोड़ता' या 'त्यागता' है।
[टिप्पणी गीता अध्याय 2 श्लोक 50 में 'जहाति', एवं अध्याय 3 श्लोक 43 तथा अध्याय 11 श्लोक 34 में
'जहि' का प्रयोग इन्हीं अर्थों में है।]
आचार्य ने तब शिष्यों से कहा :
अजा प्रकृति भी अजर अमर और नित्य अवध्य है,
प्रकृति यद्यपि त्रिगुण युक्त सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी भी है,
और अज / पुरुष (आत्मा) भी अजर अमर और निर्गुण अर्थात् गुणमात्र से रहित और प्रकृति की ही तरह नित्य अवध्य है, इस प्रकार जानकर इसे उत्सव (ईद) जानो।
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मेरे मन में एक सवाल उठा :
अरबी और संस्कृत में बोले जानेवाले ये शब्द यदि एक ही तात्पर्य के द्योतक हैं, तो क्या यह आकस्मिक संयोग, महज़ एक इत्तफ़ाक़ ही है?
या यह इस ओर भी संकेत करता है कि जैसे PIE (Proto-Indo-European) भाषा की कल्पना की गयी उससे अधिक महत्वपूर्ण है यह जानना और इस पर ध्यान देना कि PIA (Proto-Indo-Arabic) उससे भी पहले और उससे भी अधिक प्रामाणिक है।
केवल लिपि की भिन्नता के आधार पर भारतीय भाषाओं को PIE (Proto-Indo-European) से सम्बद्ध करना और इस प्रकार PIA (Proto-Indo-Arabic) की जानबूझकर उपेक्षा करने से हमारा ध्यान ही इस तथ्य पर नहीं जाता कि अंग्रेज़ी और दूसरी यूरोपीय भाषाएँ जिस तरह संस्कृत से व्यत्पन्न (अपभ्रंश या सज्ञात) हैं, अरबी उनकी तुलना में संस्कृत से कहीं अधिक निकट है।
निश्चित ही इस ब्लॉग में लिखे जाने वाले अरबी के उद्धरण धर्म के सन्दर्भ से नहीं बल्कि भाषाशास्त्र के सन्दर्भ से देखे जाने चाहिए।
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हातिम ताई के पूर्व-वृत्तान्त में कहा गया कि किस प्रकार गरुड़ उसे महेश्वर (मिस्र) से कापालिकों के राज्य में ले आया था, और पुनः वहाँ से गिरीश (ग्रीस) स्थित महर्षि भृगु के आश्रम के समीप छोड़ गया।
महर्षि भृगु के आश्रम में प्रधानतः कठोपनिषद् की शिक्षा दी जाती थी, और वहाँ कठोलिकों के साथ-साथ प्रायः कापालिक व जाबालिक परंपराओं के ऋषियों तथा उनके शिष्यों का आगमन भी होता रहता था। स्वयं महर्षि भृगु के आश्रम से भी ऋषि एवं आचार्य पूरी पृथ्वी पर ब्रह्मकर्म के अनुष्ठान और यज्ञों के निमित्त भ्रमण करते रहते थे। विभिन्न नरेश उनके लिए प्रायः रथों और वाहनों का प्रबंध भी उत्साहपूर्वक करते थे। गज (पीलु) और उष्ट्र तथा रथों में युक्त द्रुतगामी अश्व (अर्व) त्वरापूर्वक उन्हें सुदूर स्थानों तक ले जाते थे। और यह तभी संभव हो पाता था जब कोई नरेश, कोई राजा, नृप या पृथ्वीपति किसी बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान कर रहा होता।
ऋषि प्रायः केवल उनके कर्तव्य के निर्वाह हेतु ही ऐसे यज्ञों में सम्मिलित होते थे न कि स्वर्ण, रत्नों या गौ आदि की कामना से। वेद-विधान से किए जानेवाले यज्ञों के अनुष्ठान के लिए उन्हें निमंत्रित किए जाने पर यह उन का दायित्व भी होता था।
ऐसा ही एक स्थान था पीलुस्थान (वर्तमान Palestine / गजा पट्टी ?); -जिसे गज-स्थान भी कहा जाता था क्योंकि वहाँ के उस नरेश के पास असंख्य हाथी (पीलु) और उष्ट्र (ऊँट) एवं अश्व भी थे। हाथियों के साथ रहने से पर्याय से ऊँटों को भी पीलु कहा जाता था जिससे उस स्थान का नाम गजा और पीलु प्रसिद्ध हो गया। शतरंज खेलनेवालों को पता है कि जिस मोहरे को अंग्रेज़ी में rook कहा जाता है, उसे ही हिंदी / उर्दू में 'फ़ील' कहा जाता है, जो 'पीलु' का ही अपभ्रंश (aberration) या सज्ञात (cognate) है।
आज भी गजा-पट्टी उसी जगह का नाम है जो फलस्तीन के नाम से मशहूर है।
आज भी यहूदी अपने 'ईश्वर के स्थान' - अल-इस्र / ईश्वरालय / इसरायल की तलाश में हैं।
पैग़म्बर मूसा द्वारा मिस्र छोड़कर जाने से बहुत पहले की कथा है यह।
अतिग्रस् (Tigris) और उपरेतस् (Euphrates) नदियों के संगम के स्थान पर उससे उत्तर में 200 योजन दूर महाप्रथमीय (Mesopotamia) क्षेत्र में महर्षि भृगु और अङ्गिरा की परंपरा में 'उणादि-पाठ' पढ़ने अनेक शिष्य चारों ओर से आते थे।
ऐसे ही समय आचार्य धातुपाठ की कक्षा में 'हन्' और 'हा' धातुओं के प्रयोग का वर्णन कर रहे थे।
उत्कर्ष, उच्छेद, उड्डीय, उत्पात, उद्भ्रांत, उन्मूलन, उद्यम, उद्रेक, उल्लास, उद्वमन, उच्छोष, उत्साह, उद्धार, आदि उदाहरण देते हुए उन्होंने शिष्यों को अक्षर समाम्नाय के 14 माहेश्वर-सूत्रों में से प्रथम
'अ इ उ ण्' को स्मरण करने के लिए कहा।
[संक्षेप में 'अ', 'इ' तथा 'उ' ये तीनों वर्ण परस्पर एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त किए जा सकते हैं।
'इल' का 'अल' या 'उल'; 'अल' का 'इल' या 'उल'; या 'उल' का 'इल' या 'अल' व्यवहार पर निर्भर है।]
तब उन्होंने शिष्यों से ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र का उच्चारण कराते हुए 'अग्निमीडे' से 'ईडे' की पुनरुक्ति की।
तब उन्होंने अजा एका लोहितकृष्णशुक्ला से उणादि प्रत्यय द्वारा :
ईद-उत्-अज-हा की सिद्धि की ।
तत्पश्चात् पुनः 'हन्' और 'हा' धातुओं के प्रयोग का वर्णन करते हुए कहा :
"इनमें से प्रथम 'हन्' धातु अदादिगणीय परस्मैपदीय है, जिसका लोट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन रूप होता है : 'जहि' ... जिसका तात्पर्य है 'मारो'।
इनमें से द्वितीय 'हा' धातु जुहोत्यादिगणीय परस्मैपदीय है, जिसका लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन रूप होता है 'जहाति' ... जिसका तात्पर्य है 'छोड़ता' या 'त्यागता' है।
[टिप्पणी गीता अध्याय 2 श्लोक 50 में 'जहाति', एवं अध्याय 3 श्लोक 43 तथा अध्याय 11 श्लोक 34 में
'जहि' का प्रयोग इन्हीं अर्थों में है।]
आचार्य ने तब शिष्यों से कहा :
अजा प्रकृति भी अजर अमर और नित्य अवध्य है,
प्रकृति यद्यपि त्रिगुण युक्त सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी भी है,
और अज / पुरुष (आत्मा) भी अजर अमर और निर्गुण अर्थात् गुणमात्र से रहित और प्रकृति की ही तरह नित्य अवध्य है, इस प्रकार जानकर इसे उत्सव (ईद) जानो।
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मेरे मन में एक सवाल उठा :
अरबी और संस्कृत में बोले जानेवाले ये शब्द यदि एक ही तात्पर्य के द्योतक हैं, तो क्या यह आकस्मिक संयोग, महज़ एक इत्तफ़ाक़ ही है?
या यह इस ओर भी संकेत करता है कि जैसे PIE (Proto-Indo-European) भाषा की कल्पना की गयी उससे अधिक महत्वपूर्ण है यह जानना और इस पर ध्यान देना कि PIA (Proto-Indo-Arabic) उससे भी पहले और उससे भी अधिक प्रामाणिक है।
केवल लिपि की भिन्नता के आधार पर भारतीय भाषाओं को PIE (Proto-Indo-European) से सम्बद्ध करना और इस प्रकार PIA (Proto-Indo-Arabic) की जानबूझकर उपेक्षा करने से हमारा ध्यान ही इस तथ्य पर नहीं जाता कि अंग्रेज़ी और दूसरी यूरोपीय भाषाएँ जिस तरह संस्कृत से व्यत्पन्न (अपभ्रंश या सज्ञात) हैं, अरबी उनकी तुलना में संस्कृत से कहीं अधिक निकट है।
निश्चित ही इस ब्लॉग में लिखे जाने वाले अरबी के उद्धरण धर्म के सन्दर्भ से नहीं बल्कि भाषाशास्त्र के सन्दर्भ से देखे जाने चाहिए।
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