स्थितप्रज्ञ-दशा
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बचपन में ही माता-पिता से बिछुड़कर हातिमताई जब से उनसे दूर हो गया था, और दूसरे अनुभवों की तरह ही यद्यपि यह पहचान भी अनित्य थी, किन्तु मानों उसकी एक अमिट छाप उसके मन पर थी । दूसरे तमाम अनुभवों, उनकी पहचान और उनकी स्मृति के बनने-मिटते रहने पर भी यह स्मृति उनकी तरह बनती-मिटती नहीं थी । और बचपन की कुछ बहुत छोटी-छोटी वे घटनाएँ थीं, जो किसी भी शिशु-मन में स्वप्न सी अंकित हो जाया करती हैं । वे पुनः पुनः बरसों बाद भी स्वप्न में या अचानक अनायास मन में उभर आती हैं । शायद इसे भावावेग, भावातिरेक या nostalgia कह सकते हैं ।
वह स्थिति,
जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ,
जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ ।
यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि हम सभी की तरह हातिमताई भी अपनी पहचान को भूलकर,
उनकी पहचान में ही अपना अस्तित्व देखता था ।
कठोलिकों के गिरीश (ग्रीस) स्थित) आश्रम में आने से पहले वह केवल ईश्वर का विचार किया करता था । क्या ईश्वर उसके पिता की तरह है? या ईश्वर उसकी माता की तरह है? अर्थात् ईश्वर पुरुष है, अथवा स्त्री है? हातिम ताई को इस बारे में सन्देह नहीं था, कि वह स्वयं अपने पिता की तरह पुरुष है, किन्तु ईश्वर के बारे में विचार करते समय उसके मन में प्रायः यह प्रश्न उठता था कि कहीं ईश्वर उसकी माता की तरह स्त्री तो नहीं है?
महेश्वर (मिस्र) में ईश्वर को लिङ्ग-स्वरूप में देखकर तो उसे यही लगा था कि ईश्वर पुरुष होगा, और इसी दृष्टि से उसकी पूजा लिङ्ग के रूप में की जाती है । वैसे भी लिङ्ग का अर्थ है लक्षण, संकेत या चिह्न । फिर उसे यह भी लगता था कि ईश्वर किसी माता-पिता की सन्तान नहीं है, क्योंकि तब उसके माता-पिता के भी पूर्वजों के प्रश्न पर विचार करना होगा और इस निरर्थक श्रंखला का प्रारंभ कहाँ है, इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता ।
हातिम ताई बस इतना ही जानता था कि ईश्वर ’वह’ है : अन्य पुरुष ।
जैसे उसे यह भी नहीं पता था कि ’वह’ स्त्री है या ’पुरुष’, वैसे ही हातिम ताई इससे भी अनभिज्ञ था,
कि ईश्वर ’एक’ है या ’अनेक’ ।
हातिम ताई यह अवश्य जानता था कि ईश्वर अद्भुत्, अनिर्वचनीय और अद्वितीय-अप्रतिम (unique) है, और उसके और समस्त अन्य जीवों की तरह चेतन भी है ।
किन्तु हातिम ताई यह नहीं समझ पाता था कि ईश्वर बुद्धिगम्य है या नहीं, इन्द्रियगम्य है या नहीं, मनोगम्य है या नहीं । यदि ईश्वर ईशिता है तो क्या वही बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राणियों का तथा उनके माध्यम से संपूर्ण जगत का ही नियंता नहीं है? क्योंकि बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण आदि स्वयं चेतन नहीं हैं, तथा किसी अहं-भावना के सक्रिय होने पर ही विषयों की तरह जाने जाते हैं । समस्त विषय दृश्य हैं जबकि अहं-भावना भी इसी प्रकार दृश्य है । किन्तु एक भेद यह है कि अहं-भावना पुनः बुद्धिगम्य है, या बुद्धि से ही ’विषय’ की तरह उसका अनुमान किया जाता है । यही पेंच है जो उसे ईश्वर को प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः (परोक्षतः किसी माध्यम या युक्ति की सहायता से) जानने में बाधक था । अपनी बुद्धि के इस प्रकार से कुंठित हो जाने पर वह ईश्वर के बारे में सोचना बन्द कर देता था, या कहें कि उसे रुक जाना पड़ता था ।
किन्तु कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ भी उसके साथ हुआ करती थीं जब भाव-विभोर अवस्था में वह उस सत्ता से इतना एकीभूत होकर उसमें निमग्न हो जाता था, जब उसे संसार, जगत् और देह-मन-प्राण तथा इन्द्रियों की सुध-बुध नहीं रह जाती थी। तो उस समय अहं-भावना ही कैसे रह सकती थी ? बुद्धि ठिठक जाती थी, किन्तु चित्त समाहित होकर ’न व्यतीत होनेवाले समय’ में खोया / लीन रहता था ।
वह स्थिति,
जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ,
जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ ।
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बचपन में ही माता-पिता से बिछुड़कर हातिमताई जब से उनसे दूर हो गया था, और दूसरे अनुभवों की तरह ही यद्यपि यह पहचान भी अनित्य थी, किन्तु मानों उसकी एक अमिट छाप उसके मन पर थी । दूसरे तमाम अनुभवों, उनकी पहचान और उनकी स्मृति के बनने-मिटते रहने पर भी यह स्मृति उनकी तरह बनती-मिटती नहीं थी । और बचपन की कुछ बहुत छोटी-छोटी वे घटनाएँ थीं, जो किसी भी शिशु-मन में स्वप्न सी अंकित हो जाया करती हैं । वे पुनः पुनः बरसों बाद भी स्वप्न में या अचानक अनायास मन में उभर आती हैं । शायद इसे भावावेग, भावातिरेक या nostalgia कह सकते हैं ।
वह स्थिति,
जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ,
जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ ।
यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि हम सभी की तरह हातिमताई भी अपनी पहचान को भूलकर,
उनकी पहचान में ही अपना अस्तित्व देखता था ।
कठोलिकों के गिरीश (ग्रीस) स्थित) आश्रम में आने से पहले वह केवल ईश्वर का विचार किया करता था । क्या ईश्वर उसके पिता की तरह है? या ईश्वर उसकी माता की तरह है? अर्थात् ईश्वर पुरुष है, अथवा स्त्री है? हातिम ताई को इस बारे में सन्देह नहीं था, कि वह स्वयं अपने पिता की तरह पुरुष है, किन्तु ईश्वर के बारे में विचार करते समय उसके मन में प्रायः यह प्रश्न उठता था कि कहीं ईश्वर उसकी माता की तरह स्त्री तो नहीं है?
महेश्वर (मिस्र) में ईश्वर को लिङ्ग-स्वरूप में देखकर तो उसे यही लगा था कि ईश्वर पुरुष होगा, और इसी दृष्टि से उसकी पूजा लिङ्ग के रूप में की जाती है । वैसे भी लिङ्ग का अर्थ है लक्षण, संकेत या चिह्न । फिर उसे यह भी लगता था कि ईश्वर किसी माता-पिता की सन्तान नहीं है, क्योंकि तब उसके माता-पिता के भी पूर्वजों के प्रश्न पर विचार करना होगा और इस निरर्थक श्रंखला का प्रारंभ कहाँ है, इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता ।
हातिम ताई बस इतना ही जानता था कि ईश्वर ’वह’ है : अन्य पुरुष ।
जैसे उसे यह भी नहीं पता था कि ’वह’ स्त्री है या ’पुरुष’, वैसे ही हातिम ताई इससे भी अनभिज्ञ था,
कि ईश्वर ’एक’ है या ’अनेक’ ।
हातिम ताई यह अवश्य जानता था कि ईश्वर अद्भुत्, अनिर्वचनीय और अद्वितीय-अप्रतिम (unique) है, और उसके और समस्त अन्य जीवों की तरह चेतन भी है ।
किन्तु हातिम ताई यह नहीं समझ पाता था कि ईश्वर बुद्धिगम्य है या नहीं, इन्द्रियगम्य है या नहीं, मनोगम्य है या नहीं । यदि ईश्वर ईशिता है तो क्या वही बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राणियों का तथा उनके माध्यम से संपूर्ण जगत का ही नियंता नहीं है? क्योंकि बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण आदि स्वयं चेतन नहीं हैं, तथा किसी अहं-भावना के सक्रिय होने पर ही विषयों की तरह जाने जाते हैं । समस्त विषय दृश्य हैं जबकि अहं-भावना भी इसी प्रकार दृश्य है । किन्तु एक भेद यह है कि अहं-भावना पुनः बुद्धिगम्य है, या बुद्धि से ही ’विषय’ की तरह उसका अनुमान किया जाता है । यही पेंच है जो उसे ईश्वर को प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः (परोक्षतः किसी माध्यम या युक्ति की सहायता से) जानने में बाधक था । अपनी बुद्धि के इस प्रकार से कुंठित हो जाने पर वह ईश्वर के बारे में सोचना बन्द कर देता था, या कहें कि उसे रुक जाना पड़ता था ।
किन्तु कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ भी उसके साथ हुआ करती थीं जब भाव-विभोर अवस्था में वह उस सत्ता से इतना एकीभूत होकर उसमें निमग्न हो जाता था, जब उसे संसार, जगत् और देह-मन-प्राण तथा इन्द्रियों की सुध-बुध नहीं रह जाती थी। तो उस समय अहं-भावना ही कैसे रह सकती थी ? बुद्धि ठिठक जाती थी, किन्तु चित्त समाहित होकर ’न व्यतीत होनेवाले समय’ में खोया / लीन रहता था ।
वह स्थिति,
जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ,
जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ ।
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यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52
(गीता अध्याय 2, 2/52)
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उस समय उसकी बुद्धि कुण्ठित नहीं, निश्चल और स्तब्ध रहती थी :
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53
(गीता अध्याय 2, 2/53)
तात्पर्य यह कि हातिम ताई योगारूढ स्थिति में था।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।3
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगरूढस्तदोच्यते।।4
(गीता अध्याय 6, 6/3, 6/4)
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कापालिकों के नगर में हातिम ताई की स्थिति 'आरुरुक्ष' मुनि की थी,
तो कठोलिकों के नगर में 'योगारूढ' की !
दोनों ही स्थितियाँ शमः / शं शमन-धर्म के दो सोपान थे जिनका स्थान उसके जीवन में था ।
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