त्रैविद्या मां
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गिरीश स्थित उस आश्रम में जहाँ पूर्वकाल से महर्षि अङ्गिरा का स्थान था अनाहत यज्ञकर्म होता था।
सभी देवता यज्ञ में आमंत्रित किए जाते थे, आवाहनपूर्वक उन्हें आहुति दी जाती थी। किन्तु यह सतयुग के काल में होता था।
सन्दर्भ के लिए यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि सत का अर्थ ही है सनातन; - जो नित्य में अनित्य तथा अनित्य में नित्य की तरह दिखाई देता है। राजा निमि की कथा में बतलाया गया है कि किस प्रकार राजा निमि ने मनुष्य और इतर पलक झपकने वाले प्राणियों की पलकों के बीच अपना स्थान पाया।
सूत्रदृष्टि से यह सूक्ष्म कालखंड जिसे निमिष कहा जाता है वह आधार / कसौटी है जिस पर भौतिक 'व्यतीत होनेवाले समय' का सत्यापन किया जाता है, और जो घटनाओं के क्रम से परिभाषित होता है। घटनामात्र नित्य और अनित्य इन दो प्रकारों से व्यक्त और अव्यक्त होती है, जिन्हें स्मृति में संजो लिया जाता है।
हर प्राणी का अपना स्मृति-जगत होता है, जो उसके जन्म के समय व्यक्त रूप ग्रहण करता है और मृत्यु होने के समय पुनः अव्यक्त स्वरूप में लौट जाता है। न तो किसी जीव का नाश होता है न पुनः सृजन होता है।
यही नैमिषारण्य है जहाँ किसी समय 88000 ऋषि एकत्र हुए / होते हैं। और ऋषि सूत उन्हें (गरुड़-पुराण) की कथा सुनाते हैं। पृथा (फ़ारस) के समुदाय के लोग उसी गरुड़ को आराध्य मानते हैं।
युग का अर्थ है सन्धि या मिलन, कड़ी। सतयुग से त्रेता हुआ/ होता है । सत निर्विकार होने पर भी उस पर विकार आरोपित किए जाने से उसका विस्तार (सन्तरण) त्रेतायुग के रूप में हुआ / होता है। त्रेता में राम रावण और राक्षस त्रयी हुई / होती है। त्रेता से द्वापर हुआ / होता है। द्वापर अर्थात् द्वा-परक। जहाँ धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, सत्य-असत्य आदि का ध्रुवीकरण हुआ / होता है। द्वापर पुनः 'कलि' के रूप में प्रकट हुआ / होता है। इस प्रकार चारों युग पलक के झपकने-मात्र में होते रहते हैं।
ऋषि अङ्गी से अङ्गिरा हुए जिन्हें अङ्गिरस् भी कहा जाता है। अङ्गिरस् से Angeles का सादृश्य वैसा ही है जैसा अङ्गिरा से Angel का। ऋषि-वत्सल से 'रसूल' का भी ऐसा ही सादृश्य है। इसे पुनः 'ऋषिवत्-सल' से भी प्राप्त किया जा सकता है। (स्पष्ट है कि यहाँ केवल भाषा के इतिहास की दृष्टि से विवेचना की जा रही है, न कि किसी धर्म-विशेष के सन्दर्भ में।)
सतयुग का तात्पर्य है विशुद्ध चेतनता का तत्व। त्रेता का तात्पर्य है सत / सत् / सत्य / चेतना का मन, प्राण तथा जड-जगत के रूप में अभिव्यक्त होना। इसी का रूपान्तर पुनः जड-चेतन है। जड दृश्य है जिसे 'देखा जाता है।' चेतन वह है जिसे दिखाई देता है। यह द्वापर हुआ। पुनः इस द्वापर से कलिरूप अहंकार उत्पन्न होता है जो अंधकार और अँधेरे सा अविद्यमान होते हुए भी प्रबल और दुर्धर्ष रूप से मनुष्य की बुद्धि पर हावी हो जाता है और बुद्धि उसी से निर्देशित होकर मनुष्य को शुभ-अशुभ विविध कर्मों में प्रवृत्त करती है।
इस प्रकार मलिन-बुद्धि के ही कारण मनुष्य अपने-आपको शुभ-अशुभ विविध कर्मों का कर्ता तथा उनका भोग करनेवाला होने की मान्यता से ग्रस्त हो जाता है।
यह बुद्धि ही जो आत्मा के अंग-अंग में व्याप्त है शुद्ध दशा में अङ्गि तथा अङ्गिरा (अंगों में रमनेवाली) है। अर्थात् यही सृष्टिरूपा अखिल विश्व और इस विश्व में जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी भी है।
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पिछले पोस्ट 'ला आदाने' में पाणिनि के अष्टाध्यायी के जिस सूत्र का और जिस पर श्री वरदराज लिखित व्याख्या का उल्लेख किया था, उसी सूत्र की उसी व्याख्या में 'ला आदाने' से पहले 'रा दाने' का वर्णन है।
ऋषि अङ्गिरा इसी का प्रकाश है। अङ्गिरा को 'अङ्गि रा' के रूप में देखने पर अन्य रीति से भी इस शब्द की रूपसिद्धि होती है; -जिसका तात्पर्य है "प्रदान करनेवाला"। वह तत्व, जो मनुष्य को बुद्धि देता है।
जो मनुष्य में मूलतः चेतना की तरह नित्य और सनातन रूप से अवस्थित है।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।22
(गीता अध्याय 10)
इस प्रकार वह 'अस्मि-चेतना' जो बुद्धि से पूर्व होती है उसे ही यहाँ मनुष्य में विद्यमान परब्रह्म / ईश्वर कहा गया है। 'अस्मि' का अर्थ है -- 'हूँ'। प्राणिमात्र में यह सहज प्रत्यभिज्ञा (पहचान) कभी अविद्यमान नहीं होती, इसका अभाव किसी तर्क, अनुभव आदि से कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। मूलतः यह दृष्टा-दृश्य से भी स्वतंत्र है जबकि दृष्टा-दृश्य (subject-object) चेतना का बुद्धि द्वारा किया जानेवाला आभासी विभाजन मात्र।
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गिरीश स्थित उस आश्रम में जहाँ पूर्वकाल से महर्षि अङ्गिरा का स्थान था अनाहत यज्ञकर्म होता था।
सभी देवता यज्ञ में आमंत्रित किए जाते थे, आवाहनपूर्वक उन्हें आहुति दी जाती थी। किन्तु यह सतयुग के काल में होता था।
सन्दर्भ के लिए यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि सत का अर्थ ही है सनातन; - जो नित्य में अनित्य तथा अनित्य में नित्य की तरह दिखाई देता है। राजा निमि की कथा में बतलाया गया है कि किस प्रकार राजा निमि ने मनुष्य और इतर पलक झपकने वाले प्राणियों की पलकों के बीच अपना स्थान पाया।
सूत्रदृष्टि से यह सूक्ष्म कालखंड जिसे निमिष कहा जाता है वह आधार / कसौटी है जिस पर भौतिक 'व्यतीत होनेवाले समय' का सत्यापन किया जाता है, और जो घटनाओं के क्रम से परिभाषित होता है। घटनामात्र नित्य और अनित्य इन दो प्रकारों से व्यक्त और अव्यक्त होती है, जिन्हें स्मृति में संजो लिया जाता है।
हर प्राणी का अपना स्मृति-जगत होता है, जो उसके जन्म के समय व्यक्त रूप ग्रहण करता है और मृत्यु होने के समय पुनः अव्यक्त स्वरूप में लौट जाता है। न तो किसी जीव का नाश होता है न पुनः सृजन होता है।
यही नैमिषारण्य है जहाँ किसी समय 88000 ऋषि एकत्र हुए / होते हैं। और ऋषि सूत उन्हें (गरुड़-पुराण) की कथा सुनाते हैं। पृथा (फ़ारस) के समुदाय के लोग उसी गरुड़ को आराध्य मानते हैं।
युग का अर्थ है सन्धि या मिलन, कड़ी। सतयुग से त्रेता हुआ/ होता है । सत निर्विकार होने पर भी उस पर विकार आरोपित किए जाने से उसका विस्तार (सन्तरण) त्रेतायुग के रूप में हुआ / होता है। त्रेता में राम रावण और राक्षस त्रयी हुई / होती है। त्रेता से द्वापर हुआ / होता है। द्वापर अर्थात् द्वा-परक। जहाँ धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, सत्य-असत्य आदि का ध्रुवीकरण हुआ / होता है। द्वापर पुनः 'कलि' के रूप में प्रकट हुआ / होता है। इस प्रकार चारों युग पलक के झपकने-मात्र में होते रहते हैं।
ऋषि अङ्गी से अङ्गिरा हुए जिन्हें अङ्गिरस् भी कहा जाता है। अङ्गिरस् से Angeles का सादृश्य वैसा ही है जैसा अङ्गिरा से Angel का। ऋषि-वत्सल से 'रसूल' का भी ऐसा ही सादृश्य है। इसे पुनः 'ऋषिवत्-सल' से भी प्राप्त किया जा सकता है। (स्पष्ट है कि यहाँ केवल भाषा के इतिहास की दृष्टि से विवेचना की जा रही है, न कि किसी धर्म-विशेष के सन्दर्भ में।)
सतयुग का तात्पर्य है विशुद्ध चेतनता का तत्व। त्रेता का तात्पर्य है सत / सत् / सत्य / चेतना का मन, प्राण तथा जड-जगत के रूप में अभिव्यक्त होना। इसी का रूपान्तर पुनः जड-चेतन है। जड दृश्य है जिसे 'देखा जाता है।' चेतन वह है जिसे दिखाई देता है। यह द्वापर हुआ। पुनः इस द्वापर से कलिरूप अहंकार उत्पन्न होता है जो अंधकार और अँधेरे सा अविद्यमान होते हुए भी प्रबल और दुर्धर्ष रूप से मनुष्य की बुद्धि पर हावी हो जाता है और बुद्धि उसी से निर्देशित होकर मनुष्य को शुभ-अशुभ विविध कर्मों में प्रवृत्त करती है।
इस प्रकार मलिन-बुद्धि के ही कारण मनुष्य अपने-आपको शुभ-अशुभ विविध कर्मों का कर्ता तथा उनका भोग करनेवाला होने की मान्यता से ग्रस्त हो जाता है।
यह बुद्धि ही जो आत्मा के अंग-अंग में व्याप्त है शुद्ध दशा में अङ्गि तथा अङ्गिरा (अंगों में रमनेवाली) है। अर्थात् यही सृष्टिरूपा अखिल विश्व और इस विश्व में जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी भी है।
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पिछले पोस्ट 'ला आदाने' में पाणिनि के अष्टाध्यायी के जिस सूत्र का और जिस पर श्री वरदराज लिखित व्याख्या का उल्लेख किया था, उसी सूत्र की उसी व्याख्या में 'ला आदाने' से पहले 'रा दाने' का वर्णन है।
ऋषि अङ्गिरा इसी का प्रकाश है। अङ्गिरा को 'अङ्गि रा' के रूप में देखने पर अन्य रीति से भी इस शब्द की रूपसिद्धि होती है; -जिसका तात्पर्य है "प्रदान करनेवाला"। वह तत्व, जो मनुष्य को बुद्धि देता है।
जो मनुष्य में मूलतः चेतना की तरह नित्य और सनातन रूप से अवस्थित है।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।22
(गीता अध्याय 10)
इस प्रकार वह 'अस्मि-चेतना' जो बुद्धि से पूर्व होती है उसे ही यहाँ मनुष्य में विद्यमान परब्रह्म / ईश्वर कहा गया है। 'अस्मि' का अर्थ है -- 'हूँ'। प्राणिमात्र में यह सहज प्रत्यभिज्ञा (पहचान) कभी अविद्यमान नहीं होती, इसका अभाव किसी तर्क, अनुभव आदि से कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। मूलतः यह दृष्टा-दृश्य से भी स्वतंत्र है जबकि दृष्टा-दृश्य (subject-object) चेतना का बुद्धि द्वारा किया जानेवाला आभासी विभाजन मात्र।
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