Thursday, 8 August 2019

कठ-धर्म, हठ-धर्म और मठ-धर्म,

पिछ्ला बाकी 
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काया से संबंधित कल लिखे श्लोकों में 'कण्ठ' का उल्लेख छूट गया जो अब प्रस्तुत है :
क-वर्णं कस्मिन् स्थितं कं स्थितं वा कण्ठं तत्।
तत्र स्थितं हि कण्ठे यत् कण्ठस्थमिति उच्यते।।
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शमन धर्म के पूर्ववर्णित प्रकारों को मठ-धर्म, हठ-धर्म एवं कठ-धर्म भी कहा जाता था।
शमन-धर्म के साथ संयुक्तरूप से इसे 'शठ-धर्म' भी कहा जाने लगा जो विभ्रम पैदा करता है,
इसलिए उसका प्रयोग केवल साहित्यिक अलंकारयुक्त भाषा तक ही सीमित रह गया।
हठ-धर्म का विशिष्ट अभ्यास करनेवाले योगी भी थे जिन्होंने इसकी परिभाषा 'ह' और 'ठ' वर्णाक्षरों के संयोग से बने शब्द 'हठ' की विवेचना से की।  'ह' वैसे भी महाप्राण वर्ण है और विसर्ग के रूप में भी प्रयुक्त होता है।
'ठ', 'टवर्ग' का वर्ण है जो स्थितिवाचक है।  जैसे 'घट-पट' आदि में 'ट' शब्द को दृढ़ता प्रदान करता है, वैसे ही 'मठ', 'कठ' आदि में 'ठ' वर्ण भी यही कार्य करता है। किन्तु 'शठ' में यह अर्थ का अनर्थ कर देता है।
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अनुभूति मात्र हृदयस्थ, कण्ठस्थ और मुखस्थ हो सकती है।
कठ-धर्म, हठ-धर्म और मठ-धर्म का आचरण भी इसी प्रकार क्रमशः कारण, सूक्ष्म और व्यक्त रूप में होता है।
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