दर्शन दो !
--
पता नहीं यह उसका सौभाग्य था या दुर्भाग्य कि हातिम ताई को जीवन-दर्शन को दो प्रकार से जानने का अवसर मिला था। कापालिकों के नगर में भोग जीवन का सहज दर्शन था जबकि कठोलिकों के नगर में त्याग ही जीवन का दर्शन था। कापालिक जहाँ भोग को तप का ही एक प्रकार मानकर तदनुसार (धर्म का) आचरण करते थे, वहीं कठोलिक त्याग को ही तप का एक प्रकार मानते थे।
आचार्य ने जब हातिम ताई को ईशोपनिषद् का पाठ पढ़ाना प्रारम्भ किया था तो उन्हें कल्पना तक न थी कि उनका शिष्य इतना प्रतिभाशाली होगा, और न हातिम ताई को इसकी कल्पना या अनुमान था कि वह अपनी योग्यता का प्रदर्शन करता।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
के पाठ के उपरान्त आचार्य ने उपनिषद् के प्रथम मन्त्र का उपदेश हातिम ताई (आत्मतया / आत्मीयता) को दिया :
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।
--
हातिम ताई इतना प्रतिभाशाली था कि उसने कापालिकों और कठोलिकों के दो भिन्न, यहाँ तक कि परस्पर विपरीत दिखलाई देनेवाले जीवन-दर्शनों का संतुलित समायोजन इस एक मन्त्र में देख और कर भी लिया।
--
जब उसने ध्यानपूर्वक इन दोनों दर्शनों अर्थात् दृष्टियों की तुलना की तो उसे समझ में आया कि कापालिक जहाँ ईश्वरवादी होकर सम्पूर्ण अस्तित्व को ईश से ओत-प्रोत और ईश को सम्पूर्ण अस्तित्व में समाहित मानते हुए भोग को भी तप जानकर विवेकपूर्वक इस प्रकार जीवन के सुखों दुःखों, सुविधाओं और कष्टों का उपभोग करते थे जिसका केंद्रीय तत्व था प्रेम। इसलिए उनके जीवन में नैतिकता-अनैतिकता का निर्धारण इस विवेक से ही तय होता था।
कठोलिकों की दृष्टि में ईश्वर नामक सत्ता को स्वरूपतः जानने की तुलना में अपने-आपको जानना अधिक सरल और प्रामाणिक भी था।
कठोलिक त्याग करते हुए उपभोग को जीवन की आवश्यकता समझते हुए भोग में प्रवृत्त होते थे, जबकि कापालिक त्याग को भी भोग का ही एक प्रकार मानते हुए जीवन का सहज उल्लास अनुभव करते थे।
दोनों के द्वारा किए जानेवाले (धर्म के) आचरण में स्वरूपतः भेद नहीं था किन्तु इसके मूल में स्थित वह प्रेरणा परस्पर कुछ भिन्न भिन्न थी।
कापालिक ईश / ईश्वर को सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) मानते थे जबकि कठोलिक आत्मा को ही एकमात्र सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) मानते थे।
इस आभासी भिन्नता के अतिरिक्त न तो दोनों के (धर्म के) आचरण में कोई भिन्नता थी, और न ही कोई भिन्नता उस एकमात्र सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) को ग्रहण किए जाने की उनकी दृष्टियों में थी, जिसे कापालिक ईसर, इस्र, ईश्वर या महेश्वर कहते थे और कठोलिक जिसे 'आत्मा' कहते थे।
शायद मिस्र (महेश्वर) में जन्म होने से ही हातिम ताई अनायास ही इस सत्य से भलीभाँति परिचित था।
--
--
पता नहीं यह उसका सौभाग्य था या दुर्भाग्य कि हातिम ताई को जीवन-दर्शन को दो प्रकार से जानने का अवसर मिला था। कापालिकों के नगर में भोग जीवन का सहज दर्शन था जबकि कठोलिकों के नगर में त्याग ही जीवन का दर्शन था। कापालिक जहाँ भोग को तप का ही एक प्रकार मानकर तदनुसार (धर्म का) आचरण करते थे, वहीं कठोलिक त्याग को ही तप का एक प्रकार मानते थे।
आचार्य ने जब हातिम ताई को ईशोपनिषद् का पाठ पढ़ाना प्रारम्भ किया था तो उन्हें कल्पना तक न थी कि उनका शिष्य इतना प्रतिभाशाली होगा, और न हातिम ताई को इसकी कल्पना या अनुमान था कि वह अपनी योग्यता का प्रदर्शन करता।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
के पाठ के उपरान्त आचार्य ने उपनिषद् के प्रथम मन्त्र का उपदेश हातिम ताई (आत्मतया / आत्मीयता) को दिया :
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।
--
हातिम ताई इतना प्रतिभाशाली था कि उसने कापालिकों और कठोलिकों के दो भिन्न, यहाँ तक कि परस्पर विपरीत दिखलाई देनेवाले जीवन-दर्शनों का संतुलित समायोजन इस एक मन्त्र में देख और कर भी लिया।
--
जब उसने ध्यानपूर्वक इन दोनों दर्शनों अर्थात् दृष्टियों की तुलना की तो उसे समझ में आया कि कापालिक जहाँ ईश्वरवादी होकर सम्पूर्ण अस्तित्व को ईश से ओत-प्रोत और ईश को सम्पूर्ण अस्तित्व में समाहित मानते हुए भोग को भी तप जानकर विवेकपूर्वक इस प्रकार जीवन के सुखों दुःखों, सुविधाओं और कष्टों का उपभोग करते थे जिसका केंद्रीय तत्व था प्रेम। इसलिए उनके जीवन में नैतिकता-अनैतिकता का निर्धारण इस विवेक से ही तय होता था।
कठोलिकों की दृष्टि में ईश्वर नामक सत्ता को स्वरूपतः जानने की तुलना में अपने-आपको जानना अधिक सरल और प्रामाणिक भी था।
कठोलिक त्याग करते हुए उपभोग को जीवन की आवश्यकता समझते हुए भोग में प्रवृत्त होते थे, जबकि कापालिक त्याग को भी भोग का ही एक प्रकार मानते हुए जीवन का सहज उल्लास अनुभव करते थे।
दोनों के द्वारा किए जानेवाले (धर्म के) आचरण में स्वरूपतः भेद नहीं था किन्तु इसके मूल में स्थित वह प्रेरणा परस्पर कुछ भिन्न भिन्न थी।
कापालिक ईश / ईश्वर को सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) मानते थे जबकि कठोलिक आत्मा को ही एकमात्र सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) मानते थे।
इस आभासी भिन्नता के अतिरिक्त न तो दोनों के (धर्म के) आचरण में कोई भिन्नता थी, और न ही कोई भिन्नता उस एकमात्र सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) को ग्रहण किए जाने की उनकी दृष्टियों में थी, जिसे कापालिक ईसर, इस्र, ईश्वर या महेश्वर कहते थे और कठोलिक जिसे 'आत्मा' कहते थे।
शायद मिस्र (महेश्वर) में जन्म होने से ही हातिम ताई अनायास ही इस सत्य से भलीभाँति परिचित था।
--
No comments:
Post a Comment