Thursday, 8 August 2019

त्रैविद्या मां

Mesopotamia
महाप्रथमीय (मेसोपोटेमिया)
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शमन धर्म के मूल पीठ महेश्वर स्थित महाप्रथमीय क्षेत्र में सनातन धर्म का प्रचलन शमन धर्म के रूप में था ।
यह वही महेश्वर (मिस्र) है जहाँ हातिम ताई का जन्म हुआ था और जहाँ वह एक-दो वर्ष की आयु का होने तक माता-पिता के साथ रहा । जहाँ से गरुड़ उसे उठाकर कापालिकों के नगर से कुछ दूर खजूर के एक वृक्ष पर रख गया था । वास्तव में गरुड़ से ही उसे प्रथम दीक्षा प्राप्त हुई थी । कापालिकों के राज्य में कापालिकों के दो समुदाय थे, एक थे प्रधानतः कापालिक दूसरे थे जाबालिक । दोनों ही आर्ष-अङ्गिरा ऋषि Arch-Angel अर्थात् जाबालऋषि (Gabriel) की ही परंपरा को मानते थे जिसका उद्गम्-स्थल महेश्वर (मिस्र) था ।
पात्रता और अधिकारिता के आधार पर महेश्वर (मिस्र) में स्थित प्रधान मठ में जिस त्रैविद्या की शिक्षा दी जाती थी उस आधार पर बाद में परंपरा के विस्मरण (विचार -'Vicar' एवं विशप्त / विशप् - 'Bishop') होने से केवल औपचारिक रूप से ही त्रैविद्या का अनुष्ठान किया जाने लगा और उसका मूल तत्व धेरे-धीरे विलुप्तप्राय हो गया ।
महेश्वर (मिस्र) में भूतभावन भगवान् शंकर के गण श्मशान-साधना में निष्णात और पारंगत थे और प्रेत-विद्या का लौकिक रूप और प्रकार वहीं से प्रारंभ हुआ ।
कापालिकों के राज्य / नगर में भूतभावन भगवान् शंकर (ईश्वर / इस्र)  की आराधना लिङ्ग अर्थात् कपाल के रूप में होती थी :
किरीट, केश, कपाल, कर्ण,
कपोल, केयूर, कर, कफोणि। 
कटि कटिबन्ध च कमण्डलं
क-वाचक काया अंगन्यास ।। 
भृगु जाबालि यः अङ्गिरसः।
उशनाकृत कल्पनाविलास।।   
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’क’ वर्णमाला में प्रथम वर्ण है जो ’चारों ओर’ का पर्याय है । उपरोक्त श्लोक में इसी रहस्य का वर्णन है ।
त्रैविद्या का वर्णन गीता अध्याय ९ में इस प्रकार प्राप्त होता है :
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥२०
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रैधर्म्यमनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥२१
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥२२
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥२३
अहं हि सर्व यज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥२४
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥२५
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traividyā māṃ somapāḥ pūtapāpā yajñairiṣṭvā svargatiṃ prārthayante |
te puṇyamāsādya surendralokamaśnanti divyāndivi devabhogān ||20
te taṃ bhuktvā svargalokaṃ viśālaṃ kṣīṇe puṇye martyalokaṃ viśanti |
evaṃ traidharmyamanuprapannā gatāgataṃ kāmakāmā labhante ||21
ananyāścintayanto māṃ ye janāḥ paryupāsate |
teṣāṃ nityābhiyuktānāṃ yogakṣemaṃ vahāmyaham ||22
ye:'pyanyadevatābhaktā yajante śraddhayānvitāḥ |
te:'pi māmeva kaunteya yajantyavidhipūrvakam ||23
ahaṃ hi sarva yajñānāṃ bhoktā ca prabhureva ca |
na tu māmabhijānanti tattvenātaścyavanti te ||24
yānti devavratā devānpitr̥̄nyānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā yānti madyājino:'pi mām ||25
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इस कथा का नायक हातिम ताई अवश्य ही महाभारत युद्ध होने से पूर्व से ही हुआ था, क्योंकि मिस्र के पिरामिड्स का निर्माण महाभारत युद्ध के बहुत बाद में हुआ था | श्री नागेश नीलकण्ठ ओक के अनुसार महाभारत का युद्ध ईसा से 5661 वर्ष पहले हुआ था।  जबकि पिरामिडों का निर्माण ईसा से 3000 वर्ष पहले।
यह उल्लेख इसलिए भी ज़रूरी है ताकि पश्चिम के तीन religions के सन्दर्भ से इसे न जोड़ा जाए।
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इस कथा को और आगे लिखने से पहले हमें तीन ऐतिहासिक प्रसंगों पर विचार करना होगा :
1 पिरामिडों का निर्माण जिस प्रेत-विद्या के आधार पर किया गया, वह 'शमन धर्म' ।
2 कापालिकों / जाबालिकों का 'शमन-धर्म'
3 कठोलिकों का 'शमन-धर्म'
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इसी 'त्रैविद्या' को 'शमन-धर्म' के सन्दर्भ से और भिन्न तरीके से समझा जा सकता है।
यद्यपि यहाँ यह देखा जाना भी उतना ही ज़रूरी है कि भगवान् श्री आदि शंकराचार्य ने अपने गीता-भाष्य में  इसका अर्थ 'ऋक् -यजु -साम' किया है। किन्तु 'शमन-धर्म' के सन्दर्भ में इसे उपरोक्त 3 रूपों में देखा जा सकता है। मां / mām से 'mummy' का सादृश्य उल्लेखनीय है। पिरामिडों में जिन राजा-रानियों को दफ़्नाया जाता था, उनके शरीर को 'मोम' (a preservative used in embalming) के लेप और मसालों के प्रयोग से सुरक्षित रखा जाता था।
'मिस्र' से mason / mission / मिस्री / मिशनरी की उत्पत्ति तो स्पष्ट ही है, इसे संस्कृत शब्द श्मशान के भी सज्ञात / सजात / cognate शब्द की तरह देखा जा सकता है।
संक्षेप में पश्चिम के तीनों religions में अंतिम संस्कार के रूप में दफ़न किया जाना प्रचलित है ही, जबकि पूर्व की परंपराओं में किसी विशेष स्थिति में ही मृतक को दफ़्नाया जाता या समाधि दी जाती है।
यहाँ यह स्पष्ट किया जाना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि संस्कृत भाषा में 'शव' को ही 'प्रेत' कहा जाता है न कि मृतक की रूह, soul या जीव को। इसलिए 'प्रेत्य' का अर्थ हुआ -मरणोत्तर होनेवाला, किया जानेवाला कार्य।
यहाँ गीता से जो श्लोक उद्धृत किए गए हैं उनकी विस्तार से विवेचना मेरे गीता से संबंधित ब्लॉग में हिंदी तथा अंग्रेज़ी में देखी जा सकती है।
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इसलिए इस कथा में आगे चलकर जाबाल्युपनिषद् तथा कठोपनिषद् के माध्यम से कापालिकों / जाबालिकों एवं कठोलिकों के 'शमन-धर्म' की परंपरा का वर्णन करने का विचार है।
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