तरङ्गबिन्दुन्याय
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सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत् ...
(श्री आदि शंकराचार्य रचित नर्मदाष्टकम् से)
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मोह, भ्रम, विरोधाभास, विभ्रम
भगवान् शंकर जब समाधि में निमग्न थे उनके वक्ष अर्थात् हृदय-स्थल से एक स्वेद-बिन्दु गिरा ।
पलक झपकते ही वह एक बड़ी तरंग में बदल गया । वह तरंग शीघ्र ही सिन्धु में परिणत हो गई और माता पार्वती को बहा ले गई ।
भगवान् की समाधि भंग हुई और उन्होंने देखा कि माता पार्वती कहीं नहीं दिखाई दे रही ।
तब वे पुनः ध्यान में प्रविष्ट हुए और कुछ समय पश्चात् जब उनका ध्यान पूर्ण हुआ और उन्होंने अपने नेत्र खोले तो माता पार्वती वहीं उनके समीप बैठी हुई मूर्तिमान् बाल-गणेश से खेल रही थीं ।
तब भगवान् शंकर ने उनसे पूछा :
"पार्वती ! तुम इतने लंबे समय तक कहाँ चली गई थी?"
माता पार्वती ने कहा :
"प्रभो ! आप जब ध्यान में डूबे थे तब मैंने आपके वक्ष-स्थल से एक स्वेद-बिन्दु को गिरते देखा था ।
वह बिन्दु अभी गिरा ही था कि तत्काल ही एक विशाल तरंग के रूप में हर दिशा में बढ़ता चला गया ।
जैसे स्फुलिङ्ग से ज्वालाएँ निकलती और बढ़ती हैं जिनमें से पुनः और भी अनेक स्फुलिङ्ग निकलते हैं, ठीक वैसे ही उस स्वेद-बिन्दु से एक तरंग उठी और उसने पूरी सृष्टि के साथ-साथ मुझे भी आत्मसात् कर लिया । पता नहीं कितने समय तक मैं उसमें लीन रही और जब आँखें खुली तो देखा कि मेरे पास यह मूर्तिमान् बाल-गणेश क्रीडारत थे । मैंने सहज स्नेहवश उन्हें उठा लिया और इसी समय आपकी समाधि पूर्ण हुई और अब आप इस समय मुझसे यह प्रश्न पूछ रहे हैं ।"
तब भगवान् शंकर का ध्यान उस शिशु-गणेश की तरफ गया ।
उन्हें भी उस पर पुत्र-प्रेम उत्पन्न हुआ और उन्होंने उससे पूछा :
"वत्स ! देव !! तुम कौन हो?"
तब उस देव-शिशु ने कहा :
"हे महादेव मैं तो आप दोनों की ही सन्तान हूँ ।"
इससे भगवान् महादेव की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई ।
उन्होंने तब शिशु से पूछा :
"मैं नहीं जान पाया ।"
तब माता पार्वती ने उस शिशु से पूछा :
"अच्छा यह बतलाओ कि मुझे दिखलाई देने से पूर्व तुम कहाँ थे?"
तब शिशु गणेश बोले :
"हे माता तब मैं अदृश्य और अमूर्त रूप में माता नर्मदा की जल राशि में अनादि काल से क्रीडारत था ।"
तब भगवान् शंकर और माता पार्वती की जिज्ञासा और कौतूहल और प्रबल हो उठे ।
उन्होंने शिशु से प्रश्न किया ;
’नर्मदा कौन है ?"
तब शिशु ने कहा :
"माता! तुम्हें स्मरण होगा जब भगवान् शंकर समाधिस्थ थे तो उनके वक्षस्थल से एक स्वेद-बिन्दु गिरा था जो शीघ्र ही विशालाकार सिन्धु में रूपान्तरित हो गया था । तब भी मैं अदृश्य होते हुए सब कुछ देख रहा था । वही स्वेद-बिन्दु सृष्टि-रूपा साकार नर्मदा है । वही मेकलसुता पृथ्वी पर जीवों के कल्याण के लिए अवतरित हुई है ।"
तब भगवान् शंकर और माता पार्वती को माता नर्मदा के स्वरूप का ज्ञान हुआ ।
तब शिशु ने माता से कहा :
"मुझे प्यास लगी है ।"
माता पार्वती ने तब चाँदी की एक कटोरी में नर्मदा का जल शिशु के समक्ष प्रस्तुत किया ।
शिशु ने वह कटोरी भगवान् शंकर को देते हुए पूछा :
"इसमें आपको क्या दिखलाई देता है?"
भगवान् शंकर बोले :
"इसमें जल है और जल में सूर्य प्रतिबिम्बित हो रहा है ।"
तब शिशु ने कटोरी को माता पार्वती के सामने रखकर पूछा :
"माता! आपको इसमें क्या दिखलाई देता है ?"
माता बोलीं :
"इसमें वैसे तो सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखलाई दे रहा है किन्तु कटोरी में जल की प्रकाशित गोलाकार सीमा भी दिखलाई दे रही है ।"
तब शिशु ने पिता से पूछा :
"तात ! जब इसमें सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं देखा जाता और केवल जल की गोलाकार सीमा ही देखी जाती है तब क्या उस सीमा में स्थित एक बिन्दु भी तुम्हें दिखाई देता है ?"
भगवान् भोलेनाथ बोले :
"हाँ वत्स ! जैसे चाँदी की किसी अँगूठी में एक रत्न जड़ा होता है, वैसे ही जल की इस प्रकाशित परिधि में सूर्य का एक छोटा सा किन्तु अधिक प्रकाशित बिम्ब भी दिखलाई देता है ।"
"अच्छा ! अब उस कटोरी को धीरे-धीरे उठाकर अपने नेत्रों के पास लाओ ।"
तब भगवान् शंकर ने सावधानी से उस कटोरी को अपने नेत्रों के समीप लाने का उपक्रम किया ।
जब कटोरी उनके नेत्रों के बहुत पास आ गयी तब उन्हें उस अँगूठी में एक के स्थान पर दो रत्न पास पास जड़े हुए दिखाई दिये ।
तब शिशु ने प्रश्न किया :
"तात क्या तुम्हें अँगूठी में दो रत्न जड़े दिखलाई देते हैं ?"
"हाँ वत्स निकट से देखने पर वे दो प्रतीत होते हैं जबकि दूर से देखने पर एक ही बिम्ब एक रत्न जैसा दिखाई देता है ।"
पिता ने चकित होकर कहा ।
"अच्छा ! अब तुम कटोरी को नेत्रों के इतने निकट से इस प्रकार देखो कि तुम्हें दो बिम्ब दिखलाई देने लगें ।"
भगवान् ने बालक के कहे अनुसार जब ऐसा किया तो बालक ने कहा :
"अब तुम कोई भी एक नेत्र बन्द कर दूसरे नेत्र से अँगूठी में दिखाई देनेवाले रत्न देखो ।"
जब भगवान् शंकर ने इस प्रकार से अवलोकन किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि पास से देखने पर वास्तव में दोनों नेत्र एक ही बिम्ब को अलग अलग दो बिम्बों की तरह ग्रहण करते हैं किन्तु दूर से देखने पर उन दोनों बिम्बों में सामञ्जस्य हो जाने से एक ही बिम्ब दिखाई देता है ।
भगवान् शंकर बालक की चतुराई पर विस्मित हुए और पुनः ध्यान में समाधिस्थ हो गए ।
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(कल्पित)
प्रेरणा :
सुबह सुबह चाय पीते हुए यही क्रम मेरी आँखों के सामने प्रतीत हुआ जब मेरे पीछे स्थित बिजली के बल्ब की रोशनी के दो प्रतिबिम्ब मेरे चाय के कप में मुझे दिखलाई दिये । फ़िर कौतूहलवश मैंने उनका कारण जानने का यत्न किया तो यह रहस्य मुझ पर प्रकट हुआ ।
(याद आया भौतिक-शास्त्र की कक्षा में ऑप्टिकल-लेन्स का 'फोकल-लेंथ' ज्ञात करने के प्रयोग में इसी तकनीक का इस्तेमाल होता था।)
सज्ञात : Cognates;
प्रकष् -- Focus प्रकल् -- Focal
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निष्कर्ष एवं फलश्रुति :
From Delusion follow the Illusion, the Paradox, and the Hallucination.
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सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत् ...
(श्री आदि शंकराचार्य रचित नर्मदाष्टकम् से)
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मोह, भ्रम, विरोधाभास, विभ्रम
भगवान् शंकर जब समाधि में निमग्न थे उनके वक्ष अर्थात् हृदय-स्थल से एक स्वेद-बिन्दु गिरा ।
पलक झपकते ही वह एक बड़ी तरंग में बदल गया । वह तरंग शीघ्र ही सिन्धु में परिणत हो गई और माता पार्वती को बहा ले गई ।
भगवान् की समाधि भंग हुई और उन्होंने देखा कि माता पार्वती कहीं नहीं दिखाई दे रही ।
तब वे पुनः ध्यान में प्रविष्ट हुए और कुछ समय पश्चात् जब उनका ध्यान पूर्ण हुआ और उन्होंने अपने नेत्र खोले तो माता पार्वती वहीं उनके समीप बैठी हुई मूर्तिमान् बाल-गणेश से खेल रही थीं ।
तब भगवान् शंकर ने उनसे पूछा :
"पार्वती ! तुम इतने लंबे समय तक कहाँ चली गई थी?"
माता पार्वती ने कहा :
"प्रभो ! आप जब ध्यान में डूबे थे तब मैंने आपके वक्ष-स्थल से एक स्वेद-बिन्दु को गिरते देखा था ।
वह बिन्दु अभी गिरा ही था कि तत्काल ही एक विशाल तरंग के रूप में हर दिशा में बढ़ता चला गया ।
जैसे स्फुलिङ्ग से ज्वालाएँ निकलती और बढ़ती हैं जिनमें से पुनः और भी अनेक स्फुलिङ्ग निकलते हैं, ठीक वैसे ही उस स्वेद-बिन्दु से एक तरंग उठी और उसने पूरी सृष्टि के साथ-साथ मुझे भी आत्मसात् कर लिया । पता नहीं कितने समय तक मैं उसमें लीन रही और जब आँखें खुली तो देखा कि मेरे पास यह मूर्तिमान् बाल-गणेश क्रीडारत थे । मैंने सहज स्नेहवश उन्हें उठा लिया और इसी समय आपकी समाधि पूर्ण हुई और अब आप इस समय मुझसे यह प्रश्न पूछ रहे हैं ।"
तब भगवान् शंकर का ध्यान उस शिशु-गणेश की तरफ गया ।
उन्हें भी उस पर पुत्र-प्रेम उत्पन्न हुआ और उन्होंने उससे पूछा :
"वत्स ! देव !! तुम कौन हो?"
तब उस देव-शिशु ने कहा :
"हे महादेव मैं तो आप दोनों की ही सन्तान हूँ ।"
इससे भगवान् महादेव की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई ।
उन्होंने तब शिशु से पूछा :
"मैं नहीं जान पाया ।"
तब माता पार्वती ने उस शिशु से पूछा :
"अच्छा यह बतलाओ कि मुझे दिखलाई देने से पूर्व तुम कहाँ थे?"
तब शिशु गणेश बोले :
"हे माता तब मैं अदृश्य और अमूर्त रूप में माता नर्मदा की जल राशि में अनादि काल से क्रीडारत था ।"
तब भगवान् शंकर और माता पार्वती की जिज्ञासा और कौतूहल और प्रबल हो उठे ।
उन्होंने शिशु से प्रश्न किया ;
’नर्मदा कौन है ?"
तब शिशु ने कहा :
"माता! तुम्हें स्मरण होगा जब भगवान् शंकर समाधिस्थ थे तो उनके वक्षस्थल से एक स्वेद-बिन्दु गिरा था जो शीघ्र ही विशालाकार सिन्धु में रूपान्तरित हो गया था । तब भी मैं अदृश्य होते हुए सब कुछ देख रहा था । वही स्वेद-बिन्दु सृष्टि-रूपा साकार नर्मदा है । वही मेकलसुता पृथ्वी पर जीवों के कल्याण के लिए अवतरित हुई है ।"
तब भगवान् शंकर और माता पार्वती को माता नर्मदा के स्वरूप का ज्ञान हुआ ।
तब शिशु ने माता से कहा :
"मुझे प्यास लगी है ।"
माता पार्वती ने तब चाँदी की एक कटोरी में नर्मदा का जल शिशु के समक्ष प्रस्तुत किया ।
शिशु ने वह कटोरी भगवान् शंकर को देते हुए पूछा :
"इसमें आपको क्या दिखलाई देता है?"
भगवान् शंकर बोले :
"इसमें जल है और जल में सूर्य प्रतिबिम्बित हो रहा है ।"
तब शिशु ने कटोरी को माता पार्वती के सामने रखकर पूछा :
"माता! आपको इसमें क्या दिखलाई देता है ?"
माता बोलीं :
"इसमें वैसे तो सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखलाई दे रहा है किन्तु कटोरी में जल की प्रकाशित गोलाकार सीमा भी दिखलाई दे रही है ।"
तब शिशु ने पिता से पूछा :
"तात ! जब इसमें सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं देखा जाता और केवल जल की गोलाकार सीमा ही देखी जाती है तब क्या उस सीमा में स्थित एक बिन्दु भी तुम्हें दिखाई देता है ?"
भगवान् भोलेनाथ बोले :
"हाँ वत्स ! जैसे चाँदी की किसी अँगूठी में एक रत्न जड़ा होता है, वैसे ही जल की इस प्रकाशित परिधि में सूर्य का एक छोटा सा किन्तु अधिक प्रकाशित बिम्ब भी दिखलाई देता है ।"
"अच्छा ! अब उस कटोरी को धीरे-धीरे उठाकर अपने नेत्रों के पास लाओ ।"
तब भगवान् शंकर ने सावधानी से उस कटोरी को अपने नेत्रों के समीप लाने का उपक्रम किया ।
जब कटोरी उनके नेत्रों के बहुत पास आ गयी तब उन्हें उस अँगूठी में एक के स्थान पर दो रत्न पास पास जड़े हुए दिखाई दिये ।
तब शिशु ने प्रश्न किया :
"तात क्या तुम्हें अँगूठी में दो रत्न जड़े दिखलाई देते हैं ?"
"हाँ वत्स निकट से देखने पर वे दो प्रतीत होते हैं जबकि दूर से देखने पर एक ही बिम्ब एक रत्न जैसा दिखाई देता है ।"
पिता ने चकित होकर कहा ।
"अच्छा ! अब तुम कटोरी को नेत्रों के इतने निकट से इस प्रकार देखो कि तुम्हें दो बिम्ब दिखलाई देने लगें ।"
भगवान् ने बालक के कहे अनुसार जब ऐसा किया तो बालक ने कहा :
"अब तुम कोई भी एक नेत्र बन्द कर दूसरे नेत्र से अँगूठी में दिखाई देनेवाले रत्न देखो ।"
जब भगवान् शंकर ने इस प्रकार से अवलोकन किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि पास से देखने पर वास्तव में दोनों नेत्र एक ही बिम्ब को अलग अलग दो बिम्बों की तरह ग्रहण करते हैं किन्तु दूर से देखने पर उन दोनों बिम्बों में सामञ्जस्य हो जाने से एक ही बिम्ब दिखाई देता है ।
भगवान् शंकर बालक की चतुराई पर विस्मित हुए और पुनः ध्यान में समाधिस्थ हो गए ।
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(कल्पित)
प्रेरणा :
सुबह सुबह चाय पीते हुए यही क्रम मेरी आँखों के सामने प्रतीत हुआ जब मेरे पीछे स्थित बिजली के बल्ब की रोशनी के दो प्रतिबिम्ब मेरे चाय के कप में मुझे दिखलाई दिये । फ़िर कौतूहलवश मैंने उनका कारण जानने का यत्न किया तो यह रहस्य मुझ पर प्रकट हुआ ।
(याद आया भौतिक-शास्त्र की कक्षा में ऑप्टिकल-लेन्स का 'फोकल-लेंथ' ज्ञात करने के प्रयोग में इसी तकनीक का इस्तेमाल होता था।)
सज्ञात : Cognates;
प्रकष् -- Focus प्रकल् -- Focal
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निष्कर्ष एवं फलश्रुति :
From Delusion follow the Illusion, the Paradox, and the Hallucination.
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