विचार की मर्यादा : विचार और सजगता
क्या अतीत त्याज्य है?
अतीत त्याज्य नहीं है। अतीत से सबसे अच्छा सबक यह मिलता है कि हमें क्या नहीं करना है। इससे चिपक जाना ठीक नहीं लेकिन बीच-बीच में इसका स्मरण होते रहना एक ही गलती को दोहराए जाने से बचाता है।
अति-इतः अतीतः > जो अत्यन्त दूर जा चुका वह अतीत है, या जिसे हम पार कर चुके वह अतीत है उसे वैसे भी त्यागा नहीं जा सकता क्योंकि वह तो छूट ही चुका ! फ़िर वह क्या है जो हम समझते हैं कि ’अतीत’ है? वह है ’स्मृति’, - अतीत का विचार, जो अतीत नहीं, वर्तमान में है, किन्तु वर्तमान को उस चश्मे से देखना वर्तमान का विरूपण है ।
शुद्ध तकनीकी / भौतिक अर्थों में ’अतीत’ एक ’भौतिक समय’ है जिसे ’नापा’ भी जा सकता है क्योंकि हमने ’नाप’ को परिभाषित कर रखा है और उसे ’सत्य’ समझते हैं, जबकि वह परिभाषा स्वयं भी अप्रमाणित है । किन्तु हम उसके अभ्यस्त हो जाते हैं इसलिए कल्पना नहीं कर सकते कि जीवन को देखने-जानने के लिए ’विचार’ (thought / Philosophy) नहीं, ’दर्शन’ (vision / insight) की आवश्यकता होती है ।
हमारी तमाम औपचारिक या पारंपरिक शिक्षा हमें ’विचार’ / कल्पित ’समय’ के कारागृह में क़ैद कर देती है हम हर कार्य / गतिविधि को ’ज्ञान’ के आधार पर ’तौलते’ हैं । इस प्रकार हमारी उस स्वतंत्र दृष्टि पर क्रमशः ’विचार’ और विचार-जनित ’ज्ञान’ की धूल चढ़ती रहती है । ’विचार’ सीख लेना तो अनजाने में भी होता रहता है, जबकि ’अतीत’ का सन्दर्भ न लाते हुए दृष्टि को सजग रखना जीवन को जानने-समझने की हमारी जिज्ञासा, उत्साह पर निर्भर करता है ।
जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि गाँधीजी की हत्या गोडसे ने क्यों की? तो हमारे मन में अनेक विचार सक्रिय हो उठते हैं किन्तु अन्त तक हमें सन्तोषजनक ’उत्तर’ नहीं मिल पाता । किन्तु जब हम देख लेते हैं कि जिन्हें हम ’गाँधी’ और ’गोडसे’ कहते हैं वे केवल नाम नहीं, ऐसे मनुष्य थे जिनके बारे में हम वस्तुतः जो भी ’जानते’ हैं वह सदैव संदिग्ध रहेगा, तो यह प्रश्न ही व्यर्थ हो जाता है, और हम ’वर्तमान’ में हमारे समक्ष जो ’मानवीय-मन के तथ्य’ हैं, जैसे परस्पर-अविश्वास, हिंसा, घृणा, संस्कृति, राजनीति, पूर्वाग्रह, भय, लोभ, क्रोध, शोक और विषाद, अवसाद और उन्माद, जो आतंक का कारण और परिणाम भी है, ... ’सुख’, ’अन्तर्द्वन्द्व’/ दुविधाएँ... ये अधिक प्रासंगिक अनुभव होने लगते हैं, क्या ये सब विचार के ही उप-उत्पाद / by-product नहीं होते ? -जिनका सामना करने के लिए न तो ’गाँधी’ न ’गोडसे’, न गीता, न बाइबिल या कोई दूसरा तथाकथित धार्मिक ग्रन्थ हमारी कोई सहायता कर सकता है । विचार तो एक catalyst / उत्प्रेरक की भाँति इन्हें गति देकर स्वयं अलग हो जाता है, किन्तु ये प्रक्रियाएँ हमारे वर्तमान को गहराई से प्रभावित करती रहती हैं। इन प्रक्रियाओं के प्रति सजगता ही, उनसे रू-ब -रू होना अधिक ज़रूरी है, क्योंकि ’गाँधी’ और ’गोडसे’ को बीच में लाना ’वर्तमान’ का विरूपण होगा । उस ’चश्मे’ से वर्तमान को देखने के कारण तमाम विरोधाभास, मतभेद आदि पैदा हुए हैं । किन्तु ’समाज’ की चिन्ता हमें सजग नहीं होने देती । जबकि जीवन को देखने-जानने के लिए सजगता ही पर्याप्त है ।
विचार ’तकनीक’ या उपाय के रूप में अतीत के अनुभव की स्मृति का शोधन recycling है और इसलिए उसका क्षेत्र अतीत, कल्पित वर्तमान तथा इनकी तुलना के माध्यम से प्रक्षेपित / अनुमानित ’भविष्य’ तक सीमित है । किसी भी तकनीक के आविष्कार, प्रयोग, उपयोग की सीमा होती है जिसे पार करते ही ’तकनीक’ पुरानी, अनुपयोगी, redundant, obsolete, out-dated यहाँ तक कि नुक़सानदेह तक हो जाती है । तब उसे त्याग देना ही एकमात्र समुचित विकल्प शेष रहता है ।
इसलिए जीवन, परमात्मा, धर्म आदि को समझने के लिए विचार न केवल अनावश्यक बल्कि बाधक भी है, क्योंकि जीवन, परमात्मा धर्म आदि न तो विचार से सीमित हो सकते हैं न विचार उन्हें अपने नियंत्रण में रख सकता है । विचार शुद्धतः Entropy है जिसका अवसान / विसर्जन ही एकमात्र उपाय है और विचार के स्वरूप / प्रकृति के प्रति सजगता होने पर यह ही संभव है ? शायद हम कह सकते हैं कि सजगता विचार का विकल्प तो है किन्तु किसी बौद्धिक तकनीक की तरह न तो उसे सीखा जा सकता है न आग्रहपूर्वक सिखलाया जा सकता है, यह सजगता ही प्रत्येक जीवित वस्तु में जीवन का संचार करती है और विचार उसे ’मैं’ तक सीमित कर देता है । जैसे यह सत्य है कि सजगता से सजगता परिवर्धित होती है, वैसे ही यह भी सत्य है कि विचार से विचार फैलता / बढ़ता है, जीवन पर आच्छादित होने लगता है, उसे कुंठित कर देता है और सजगता क्रमशः खोने लगती है ।
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क्या अतीत त्याज्य है?
अतीत त्याज्य नहीं है। अतीत से सबसे अच्छा सबक यह मिलता है कि हमें क्या नहीं करना है। इससे चिपक जाना ठीक नहीं लेकिन बीच-बीच में इसका स्मरण होते रहना एक ही गलती को दोहराए जाने से बचाता है।
अति-इतः अतीतः > जो अत्यन्त दूर जा चुका वह अतीत है, या जिसे हम पार कर चुके वह अतीत है उसे वैसे भी त्यागा नहीं जा सकता क्योंकि वह तो छूट ही चुका ! फ़िर वह क्या है जो हम समझते हैं कि ’अतीत’ है? वह है ’स्मृति’, - अतीत का विचार, जो अतीत नहीं, वर्तमान में है, किन्तु वर्तमान को उस चश्मे से देखना वर्तमान का विरूपण है ।
शुद्ध तकनीकी / भौतिक अर्थों में ’अतीत’ एक ’भौतिक समय’ है जिसे ’नापा’ भी जा सकता है क्योंकि हमने ’नाप’ को परिभाषित कर रखा है और उसे ’सत्य’ समझते हैं, जबकि वह परिभाषा स्वयं भी अप्रमाणित है । किन्तु हम उसके अभ्यस्त हो जाते हैं इसलिए कल्पना नहीं कर सकते कि जीवन को देखने-जानने के लिए ’विचार’ (thought / Philosophy) नहीं, ’दर्शन’ (vision / insight) की आवश्यकता होती है ।
हमारी तमाम औपचारिक या पारंपरिक शिक्षा हमें ’विचार’ / कल्पित ’समय’ के कारागृह में क़ैद कर देती है हम हर कार्य / गतिविधि को ’ज्ञान’ के आधार पर ’तौलते’ हैं । इस प्रकार हमारी उस स्वतंत्र दृष्टि पर क्रमशः ’विचार’ और विचार-जनित ’ज्ञान’ की धूल चढ़ती रहती है । ’विचार’ सीख लेना तो अनजाने में भी होता रहता है, जबकि ’अतीत’ का सन्दर्भ न लाते हुए दृष्टि को सजग रखना जीवन को जानने-समझने की हमारी जिज्ञासा, उत्साह पर निर्भर करता है ।
जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि गाँधीजी की हत्या गोडसे ने क्यों की? तो हमारे मन में अनेक विचार सक्रिय हो उठते हैं किन्तु अन्त तक हमें सन्तोषजनक ’उत्तर’ नहीं मिल पाता । किन्तु जब हम देख लेते हैं कि जिन्हें हम ’गाँधी’ और ’गोडसे’ कहते हैं वे केवल नाम नहीं, ऐसे मनुष्य थे जिनके बारे में हम वस्तुतः जो भी ’जानते’ हैं वह सदैव संदिग्ध रहेगा, तो यह प्रश्न ही व्यर्थ हो जाता है, और हम ’वर्तमान’ में हमारे समक्ष जो ’मानवीय-मन के तथ्य’ हैं, जैसे परस्पर-अविश्वास, हिंसा, घृणा, संस्कृति, राजनीति, पूर्वाग्रह, भय, लोभ, क्रोध, शोक और विषाद, अवसाद और उन्माद, जो आतंक का कारण और परिणाम भी है, ... ’सुख’, ’अन्तर्द्वन्द्व’/ दुविधाएँ... ये अधिक प्रासंगिक अनुभव होने लगते हैं, क्या ये सब विचार के ही उप-उत्पाद / by-product नहीं होते ? -जिनका सामना करने के लिए न तो ’गाँधी’ न ’गोडसे’, न गीता, न बाइबिल या कोई दूसरा तथाकथित धार्मिक ग्रन्थ हमारी कोई सहायता कर सकता है । विचार तो एक catalyst / उत्प्रेरक की भाँति इन्हें गति देकर स्वयं अलग हो जाता है, किन्तु ये प्रक्रियाएँ हमारे वर्तमान को गहराई से प्रभावित करती रहती हैं। इन प्रक्रियाओं के प्रति सजगता ही, उनसे रू-ब -रू होना अधिक ज़रूरी है, क्योंकि ’गाँधी’ और ’गोडसे’ को बीच में लाना ’वर्तमान’ का विरूपण होगा । उस ’चश्मे’ से वर्तमान को देखने के कारण तमाम विरोधाभास, मतभेद आदि पैदा हुए हैं । किन्तु ’समाज’ की चिन्ता हमें सजग नहीं होने देती । जबकि जीवन को देखने-जानने के लिए सजगता ही पर्याप्त है ।
विचार ’तकनीक’ या उपाय के रूप में अतीत के अनुभव की स्मृति का शोधन recycling है और इसलिए उसका क्षेत्र अतीत, कल्पित वर्तमान तथा इनकी तुलना के माध्यम से प्रक्षेपित / अनुमानित ’भविष्य’ तक सीमित है । किसी भी तकनीक के आविष्कार, प्रयोग, उपयोग की सीमा होती है जिसे पार करते ही ’तकनीक’ पुरानी, अनुपयोगी, redundant, obsolete, out-dated यहाँ तक कि नुक़सानदेह तक हो जाती है । तब उसे त्याग देना ही एकमात्र समुचित विकल्प शेष रहता है ।
इसलिए जीवन, परमात्मा, धर्म आदि को समझने के लिए विचार न केवल अनावश्यक बल्कि बाधक भी है, क्योंकि जीवन, परमात्मा धर्म आदि न तो विचार से सीमित हो सकते हैं न विचार उन्हें अपने नियंत्रण में रख सकता है । विचार शुद्धतः Entropy है जिसका अवसान / विसर्जन ही एकमात्र उपाय है और विचार के स्वरूप / प्रकृति के प्रति सजगता होने पर यह ही संभव है ? शायद हम कह सकते हैं कि सजगता विचार का विकल्प तो है किन्तु किसी बौद्धिक तकनीक की तरह न तो उसे सीखा जा सकता है न आग्रहपूर्वक सिखलाया जा सकता है, यह सजगता ही प्रत्येक जीवित वस्तु में जीवन का संचार करती है और विचार उसे ’मैं’ तक सीमित कर देता है । जैसे यह सत्य है कि सजगता से सजगता परिवर्धित होती है, वैसे ही यह भी सत्य है कि विचार से विचार फैलता / बढ़ता है, जीवन पर आच्छादित होने लगता है, उसे कुंठित कर देता है और सजगता क्रमशः खोने लगती है ।
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