Wednesday, 24 February 2016

न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं...

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और ’परंपरा’ और ’धर्म’
--
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ’न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्’ से मर्यादित होती है । पूरा ग्रीक कल्चर (परंपरा और संस्कृति, न कि धर्म, क्योंकि वैदिक और पौराणिक अर्थों में जिसे धर्म कहते हैं वैसी अवधारणा ग्रीक कल्चर (परंपरा और संस्कृति) में कभी रही नहीं । ज्यू / यहूदी परंपरा के पहले विश्व-संस्कृति में या तो सनातन-धर्म प्रचलित था या लौकिक धर्म जो भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थानीय देवताओं की परंपरा से अलग अलग रूपों में पनपा । ’देवता’ या उन उच्चतर अलौकिक शक्तियों की धारणा ने, जो लौकिक जीवन को संचालित और प्रभावित करती हैं अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप ग्रहण किये और इसके आधार-रूप में मूलतः मनुष्य की आत्मा के अनश्वर होने की संकल्पना ही जाने-अनजाने मनुष्य को ऐसा करने के लिए प्रेरित करती रही । मनुष्य अनश्वर है या नहीं, है तो किस रूप में यह जानना समझना तो (आध्यात्मिक) खोज और अनुसंधान का विषय हो सकता है किन्तु मृत-आत्माओं / मृत पूर्वजों से उनकी मृत्यु के बाद भी सम्पर्क, (चाहे वह स्वप्न जैसी दशा में होता हो या जागृति के समय कल्पना की तरह) से मनुष्य के मन में यह विचार आया होगा कि लोकोत्तर मरणोत्तर जीवन जैसी कोई चीज़ होती है । कबीलों (कपिल) ने इस प्रकार एक परंपरा को बनाए रखा जिसमें उन्होंने पूर्वजों या स्थानीय देवी / देवता को उस अलौकिक शक्ति का प्रतिनिधि तत्व समझा जिससे वे अपने सुख-दुःख की बातें कर सकें । यदि कोई दिवंगत ’आत्मा’ उन्हें स्वप्न या स्वप्न जैसी आवेशयुक्त जागृत अवस्था में किसी औषधि का ज्ञान देती प्रतीत हुई हो, और उस औषधि या उपाय से उन्हें तत्काल लाभ हुआ हो तो उनमें स्वाभाविक आस्था ने जन्म लिया होगा । यह पूरी गतिविधि एक ओर कुछ स्थानों पर ’ऋषि-धर्म’ के रूप में एक अनुशासनबद्ध प्रक्रिया के रूप में हुई वहीं दूसरे अधिकाँश स्थानों पर ’ग्राम-देवता’ की स्वीकृति और आस्था के रूप में लोक-मानस में स्थापित हुई ।
ज्यू परंपरा इसी लौकिक धर्म का नया संस्करण था । ज्यू परंपरा ने मूर्ति-पूजा की घोर-निन्दा की जिसके फलस्वरूप लौकिक धर्म का स्थापित ’बहुदेववाद’ तहस-नहस हो गया किन्तु उसका विकल्प ज्यू परंपरा के पास नहीं था । रोमन कैथोलिक ने यहूदी माता और कैथोलिक कैटेशिज़्म (catechism) के द्वारा एक मानस-पुत्र को जन्म दिया और उसे (वाजश्रवा की परंपरा के अनुसार) उन्होंने सूली पर टाँग दिया जिससे आज की कैथोलिक और क्रिश्चियन परंपरा ने जन्म लिया ।
वाजश्रवा की ही परंपरा में एक और असुरनृप हुए जिनका नाम था हिरण्यकशिपु । विश्व के एकमात्र ईश्वर होने की आशा से उन्होंने भी अपने पुत्र (प्रह्लाद) की बलि देने का प्रयास किया किन्तु वे इसमें सफल न हुए ! उनकी भगिनी थी होलिका । ’हेलि’ नाम है सूर्य का । ग्रीक साम्राज्य के विस्तार से पहले सूर्य की पूजा ही प्रचलित थी ।
इसके बाद आगमन हुआ एक और नई परंपरा का जिसमें पुनः एक पिता ’परमेश्वर’ या उसके ’दूत’/ ’फ़रिश्ते’ की आज्ञा से अपने पुत्र की बलि देता है, किन्तु परमेश्वर / फ़रिश्ता उसे इस परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित कर उसके पुत्र के स्थान पर एक ’दुम्बा’ रख देता है । यह ’फ़रिश्ता’ जो एक फ़ारसी शब्द है, मूलतः संस्कृत ’पार्षद’ का अपभ्रंश है ।
आज दुर्भाग्य से हम ’परंपरा’ और ’धर्म’ के भेद को समझे बिना ही विभिन्न परंपराओं को धर्म का नाम देकर अनेक भिन्न-भिन्न आग्रहों, दुराग्रहों,  समुदायों और ’संस्कृतियों’ की टकराहट से त्रस्त हैं और किसी को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा ।
न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं’ / (मनुस्मृति 4 / 138) की यही शिक्षा है कि अप्रिय सत्य मत कहो क्योंकि उससे वैमनस्य केवल और अधिक बढ़ता है । और वैमनस्य के बढ़ने से संवाद की संभावनाएँ ही समाप्त हो जाती हैं !
--                        

No comments:

Post a Comment