Monday, 15 February 2016

कल की कविता और समीक्षा

कल की कविता 
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क़लम का सर क़लम हो तो,
घिसती तो नहीं, रिसती तो है,
और बिखर जाती है बीज बनकर,
बनती है जड़ें नई, बुनियाद नये पौधों की,
खेतियाँ उग आती हैं कलमों की,
उग आती हैं तलवारें शर और तीक्ष्ण,
खड्ग शूल कृपाण कई!
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समीक्षा :
अभी कल ही इसे लिखा था और इसकी प्रशंसा बटोरकर दुष्ट-बिन (अर्थात् dust-bin) में फेंक दी । जिन्होंने प्रशंसा की उनका अनादर करने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैं स्वयं अपनी इस रचना को प्रशंसनीय नहीं मानता । हालाँकि इस रचना को ’समीक्षा’ के लिए एक उपयोगी केस-स्टडी-मॉडल की तरह पेश करना और उस तरह से ’समीक्षा’ करने के विचार से उत्साहित अवश्य हूँ ।
कुछ दिनों पहले प्रसंगवश मनुस्मृति के संभवतः सर्वाधिक प्रसिद्ध श्लोक के बारे में चिन्तन कर रहा था :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः ॥
(अध्याय 4, श्लोक 138)
यहाँ इस ओर ध्यान देना आवश्यक है कि मनु-स्मृति या दूसरी अन्य स्मृतियाँ गौण महत्व के दिशा-निर्देश हेतु उपयोगी ग्रन्थ हैं और उन्हें शास्त्र के आदेश की तरह ग्रहण करने का कोई आग्रह नहीं होता । स्मृतियाँ परस्पर विरोधाभासी या भिन्न दृष्टियों तथा प्रसंगों में ही व्यवहार्य हो सकती हैं । इसलिए यह उनकी मर्यादा हुई । वैसे प्रामाणिक मूल-ग्रन्थ वेद स्वयं भी नित्य-वाणी के ही रूप में सर्वाधिक और सदा ग्राह्य हैं, किन्तु उसी के लिये जो उसे सुनने का अधिकारी / पात्र है, न कि उसके लिए जिसने उसे ’लिपिबद्ध’ किया है या लिपिबद्ध ग्रन्थ का पाठ करता है । चूँकि यह ’नित्य-वाणी’ है इसलिए इसकी सत्यता वैसी ही अकाट्य है जैसे विज्ञान के नियम ’नित्य-सत्य’ होते हैं किन्तु किसी उचित प्रसंग और परिस्थितियों में उनकी परीक्षा और सत्यता की पुष्टि होती है । वेद-वाणी चेतना का सत्य है जो इस प्रकार चेतना के रूप में नित्य प्रकट है ।  ’वैज्ञानिक’ सत्य भी हम तक उन ’नियमों’ और ’सिद्धान्तों’ के रूप में पहुँचता है जिन्हें वैज्ञानिक हमारी / अपनी भाषा में शब्दबद्ध करता है, किन्तु स्वयं उस तक वह ’सत्य’ क्या किसी शाब्दिक भाषा में पहुँचता है? हम कह सकते हैं कि वह प्रातिभ अर्थात् प्रतिभा से उत्पन्न ज्ञान है किन्तु उस प्रतिभा को क्या कहेंगे? जैसे भूमि पर सूर्य का प्रकाश दिन के समय  सर्वत्र प्रकट होता है, और कोई अपने बंद घर में रहता हुआ उस प्रकाश का चिन्तन करता हुआ उसके बारे में अनुमान, तर्क-वितर्क और व्याख्या आदि करे तो क्या उसे सूर्य के प्रकाश की सच्चाई का सही सही ज्ञान हो जाएगा?
किसी राजनीतिक ’महापुरुष’ की उक्ति सुनी / पढ़ी थी :
"Be yourself the change you want to bring-out in your world"
गीता 
अध्याय 7 श्लोक 27
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
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(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम्  सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
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के सन्दर्भ में यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि जिन्हें हम महापुरुष मान बैठे हैं वे भले ही अपनी बुद्धि के कौशल और वाक्-चातुर्य से सफल और महान बन बैठे हों, उनके वचनों को आँख मूँदकर आदर्श-वाक्य मान बैठना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण भी हो सकता है । और ’वाद’ के नाम पर उनके अनुयायी होना तो और भी हानिकारक विनाशकारी भी । केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि पूरे संसार के लिए भी ।
अब इस ’कविता’ को भिन्न भिन्न कोणों से अवलोकन करें :
1 व्याजोक्ति : वह जो व्याजनिन्दा अथवा व्याजस्तुति हो । अपनी रचना की तीक्ष्ण शैली से कुछ पाठक इसे पढ़कर चकित और प्रभावित हो सकते हैं । यदि कविता लिखनेवाला इतना ही चाहता है तो वह प्रशंसा के लिए लालायित हुआ । क्योंकि शब्दों का जादू जगाना अभ्यास और कौशलमात्र भी हो सकता है, यह आवश्यक नहीं कि रचना में कोई सार हो भी । कालिदास या दूसरे कवियों की रचनाएँ या उर्दू का अधिकाँश साहित्य इसी का एक उदाहरण हो सकता है । तब बह बौद्धिक-मनोविलास  मात्र बनकर रह जाता है ।
2 व्यंग्योक्ति : अर्थात् कथ्य कुछ तथा उससे इंगित किया गया कुछ और ही ।
3 वक्रोक्ति : जिसे भिन्न-भिन्न श्रोता भिन्न-भिन्न दिशा में मोड़ देकर विवाद तर्क-वितर्क का आधार बना सकें । इसमें एक छल यह भी होता है कि लक्ष्यार्थ और यथार्थ को किसी के लिए अनुकूल बनाया जा सके । इसका एक उदाहरण होगा :
"सब धर्म एक ही शिक्षा देते हैं ।"
इससे अनायास ही सहमत हो जाता है क्योंकि वह डरता है कि उसे ’असहिष्णु’ न समझा जाए । और कोई इस विचार (की सत्यता) पर गहराई से खोज-बीन करने के बारे में सोचता तक नहीं । वास्तव में यह एक ऐसा असत्य है जिसे केवल बार बार कहे जाने से स्वाभाविक / सहज ’सत्य’ जैसा समझा जाने लगा है ।
4 कूटोक्ति : जिसके मूल में कुछ निहित उद्देश्य छिपे होते हैं, जैसे ’सर्वहारा’ का सिद्धान्त
5 कटूक्ति : जो वैमनस्य उत्पन्न करने, पक्ष या विपक्ष के लोगों को उत्तेजित करने और अपनी शक्ति-प्रदर्शन के लिए की जाती है ।
6 सूक्ति : जो प्रायः सबके सामान्य हितों को सिद्ध करने के लिए सुझाव के रूप में होती है ।
वेद ’धर्म’ क्या है और ’अधर्म’ क्या, इस बारे में कहता है और यह ’धर्म’ विवेकशील मनुष्य के लिए जीवन में सिद्ध किए जानेवाले चार ’पुरुषार्थों’ में से सिर्फ़ एक है । इसलिए इस ’धर्म’ का शाश्वत सत्य तो अटल है, जबकि सनातन सत्य निरंतर प्रवाहशील, और नित्य सत्य उसका व्यावहारिक आचरण, जिसे करना मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है । भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में संभवतः वह कभी कभी कष्टप्रद भी हो सकता है किन्तु तब कष्ट सहकर भी उसका आचरण किया जाना तितिक्षा कहलाता है ।
’संसार’ को बदलने का विचार ही प्रथम भूल है, किन्तु अपने-आपको बदलने का विचार इससे भी अधिक गहरी भूल है ।
वास्तव में अपने-आपको जानना-समझना अधिक महत्वपूर्ण और सर्वाधिक, मूलतः आवश्यक है क्योंकि जानने-समझने के बाद ही उसे बदलने या न बदलने का प्रश्न उत्पन्न होगा । शायद हम सोच सकते हैं कि संदर्भित महापुरुष का अभिप्राय अपने-आपका सुधार करने से है । उस स्थिति में भी पहले यह जानना तो आवश्यक है ही कि हममें क्या दोष हैं, दोषों को जाने बिना ही उन्हें दूर नहीं किया जा सकता । तब हमें ज्ञात होगा कि ’संसार’ का सुधार करने की इच्छा भी दृष्टिदोष है क्योंकि ऐसा कोई स्थायी नित्य संसार कहीं है या नहीं इसका भी हमारे पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है । है भी त्तो किस रूप में है यह भी अत्यन्त अस्पष्ट है, जबकि अपने होने के बारे में संदेह करने का कोई कारण नहीं हो सकता । किन्तु अपने होने का यथार्थ तत्व क्या है इसे न समझ पाना ही हमारी एकमात्र विडम्बना है ।
7 ऋजूक्ति > ऋजु-उक्ति : किसी तथ्य की सरल सहज अभिव्यक्ति जैसे
"सुबह हो गई ।" / "भूख लग रही है ।"
8 ऋजुक्ति > ऋक् / ऋत् / ऋच् / ऋज् उक्ति : सत्य की याथातथ्यतः अभिव्यक्ति जिसे केवल ऋषि ही जानते हैं ।
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