गुरुकुल में आए उसे पाँच वर्ष हो चुके थे । उसे कभी ऐसा नहीं लगा कि वह माता-पिता से कहीं दूर वन के दुर्गम क्षेत्र में रह रहा हो । आचार्य और दूसरे पितृजन जो उसे अनौपचारिक शिक्षा देते थे प्रायः व्यवहार और कर्म के बारे में ही उसे निर्देश देते थे । पहले कुछ दिन प्रातःकाल के शौच स्नानादि के लिए वह दूसरे विद्यार्थियों के साथ जाया करता था किन्तु बाद में प्रायः अकेले भी चला जाता था । आचार्य का निर्देश था कि वन में कभी अकेले मत जाओ और यदि जाना ही हो तो दण्ड अथवा कुल्हाड़ी साथ रखो । विभिन्न जीव-जन्तुओं के स्वभाव के बारे में भी उसने पर्याप्त सीख लिया था और कुछ तो उसके मित्र भी बन गए थे । पक्षी, छोटे बड़े पशु जैसे मृग या शशक (खरगोश), कपोत और नेवले तथा सर्प भी । उसे पता था कि जिस क्षेत्र में नेवले होते हैं वहाँ सर्प प्रायः कम होते हैं । जिस भौगोलिक क्षेत्र में उसका गुरुकुल था वहाँ घोर जंगल नहीं था किन्तु कभी-कभी कोई हिंस्र पशु संयोगवश दिन में भी दिखलाई देते थे । उसे आश्चर्य होता था कि वे मनुष्यों से प्रायः दूर ही रहते थे, और मनुष्य से प्रायः उदासीन रहते थे । वानर और पक्षी गिलहरियाँ तथा मछलियाँ अवश्य ही उसके हाथ से अन्न के कण उठ लिया करते थे, किन्तु वे बहुत समय बाद ही उससे घुल-मिल पाए थे और फिर भी सचेत रहते थे । बहुत समय बाद उसे यह देखकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता होने लगी थी कि इन वानरों, पक्षियों गिलहरियों और मछलियों के शिशु अपेक्षाकृत उससे निर्भय थे और कभी कभी उसे दुलारते भी थे । गुरुकुल में गौएँ और बकरियाँ भी थीं और वे भी उसे स्नेह से चाटती थीं, किन्तु वन्य पशु ऐसा करेंगे ऐसी उसने कभी कल्पना तक न की थी । कभी-कभी सर्प भी उससे सटते हुए अपनी राह चले जाते थे और उसे कौतूहल होता था कि वे उसकी ओर ध्यान तक नहीं देते थे, मानों वह कोई वृक्ष या पत्थर हो ।
बहुत काल तक वह गुरुकुल के आश्रम में निवास करता रहा, पर उसे यह समझने में कठिनाई अनुभव होती थी कि वह भी आचार्य के दूसरे शिष्यों की भाँति भूमि पर ही चटाई बिछाकर और कम्बल ओढ़कर सोता था, वन से समिधा लाता था, कभी कभी आचार्य या आचार्यानी की आज्ञा होने पर विशिष्ट नक्षत्र, तिथि, योग, मुहूर्त या दिन में वन में जाकर वहाँ से कोई वनौषधि या वनस्पति भी लाता था, किन्तु उसे अन्य शिष्यों की अपेक्षा अधिक महत्व क्यों प्राप्त था । उससे ज्येष्ठ और उससे अधिक समय तक गुरुकुल में रहनेवाले अन्य छात्र भी आचार्यों द्वारा उससे अधिक स्नेह का व्यवहार किया जाना देखकर किञ्चित ईर्ष्या रखते थे किन्तु अपनी ईर्ष्या की इस भावना को व्यक्त करने का साहस नहीं जुटा पाते थे । शायद इसका एक कारण उसका उनके प्रति स्वाभाविक विनम्रतापूर्ण व्यवहार भी रहा होगा ।
ऐसे ही एक बार आचार्य ने उसे अमावास्या के दिन दोपहर में वन से गुञ्जा का क्षुप लाने भेजा । आचार्य ने उसे एक लाल और एक काला कपड़ा दिया जिसमें उसे उस क्षुप को रखकर लाना था । वह जानता था कि गुञ्जा के क्षुप कहाँ होंगे । प्रायः ही वह और उसके सहपाठी गुञ्जा के बीजों को एकत्र कर गुरुकुल में लाते थे ।
जब वह उस पूर्व-निश्चित स्थान पर पहुँचा तो उसे दूर-दूर तक कोई क्षुप नहीं दिखलाई दिया । तब आचार्य के निर्देश के अनुसार उसने गुञ्जा का स्मरण किया और उसे तत्काल ही अनेक क्षुप दृष्टिगत हुए । आचार्य के निर्देश के अनुसार उसने उस विशिष्ट दिशा की ओर जाकर उसे प्रणाम कर मूलसहित भूमि से उखाड़ा और पहले उस काले तथा फिर लाल कपड़े से ढाँककर ले आया । आचार्य ने उसे दूसरे वृक्षों के बीच नई खोदी भूमि में रोप दिया । उसी रात्रि में स्वप्न में उसने देखा कि वह पुनः गुञ्जा के क्षुप को लेने वन में गया है और वहाँ उसे अनेक वन्य पशु दिखलाई दे रहे थे । बहुत दूर उसे एक विशाल विकराल राक्षस जैसी एक आकृति भी दिखलाई दे रही थी किन्तु शायद वह उसे नहीं देख पा रही थी । उस राक्षस-आकृति की दो बड़ी-बड़ी भुजाएँ और बहुत बड़ा धड तथा पैर थे, किन्तु उसका सिर नहीं था । अर्थात् वह केवल मानव-कबंध ही था । अपने पूर्व अनुभवों से वह तत्क्षण समझ गया कि वह स्वप्न देख रहा है जबकि उसका शरीर भूमि पर कहीं सोयी हुई स्थिति में है । किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी वह अपनी उस स्थिति को नहीं स्मरण कर पा रहा था ।
"हाँ, यह मेरा कबंध ही तो है जो मुझे मेरे स्वप्न में दिखलाई दे रहा है और मैं अपने उस मुख को नहीं देख पा रहा जो कहीं किसी और स्थान पर आँखें बंदकर ’सोया’ हुआ है । "
-उसने सोचा ।
स्वप्न में ही वह उस कबंध की ओर दौड़ा और उसके पास पहुँचते-पहुँचते स्वप्न भंग हो जाने से वह जाग उठा था । अभी रात्रि शेष थी इसलिए वह करवट बदलकर पुनः सो गया ।
प्रातःकाल में सन्ध्योपासन के उपरांत आचार्य ने उससे पूछा :
"वत्स, तुम्हें निद्रा ठीक से आई?"
"हाँ आचार्य, बस एक स्वप्न आया था जिससे बीच में टूट गई थी किन्तु बाद में पूरी हो गई ।"
"कैसा स्वप्न?"
तब उसने आचार्य से अपना स्वप्न कह सुनाया ।
इसके बहुत दिनों बाद आचार्य ने उसे रामायण-काल की कबंध राक्षस की कथा पढ़ने के लिए उसे कहा ।
"तुमने जिसे देखा था वह वही था जिसका वर्णन तुम पढ़ रहे हो ।"
-आचार्य ने उससे कहा ।
"क्या तुम्हारे स्वप्न के उस राक्षस से तुम भयभीत नहीं हुए?"
"नहीं आचार्य ! तब मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं अपने जागृत-अवस्था की स्थिति को क्यों स्मरण नहीं कर पा रहा था ।"
"तुम्हें पता है तुम्हारा जन्म यज्ञ से हुआ था?"
आचार्य ने उससे पूछा।
"हाँ आचार्य! तात ने मुझे बतलाया था किन्तु मैं इसका अभिप्राय ठीक से नहीं समझ सका था ।"
आचार्य जानते थे कि अभी उसके लिए यह सब समझना तथा समझाया जाना अनावश्यक था ।
किन्तु आचार्य को तत्काल ही इसका प्रमाण मिल गया था कि जिस देवता का आवाहन बालक के पिता ने पुत्रेष्टि-यज्ञ के माध्यम से किया था वही उन्हें उनकी शारीरिक संतान के रूप में प्राप्त हुआ था ।
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गुरुकुल में आचार्य के आवास से लौटते और अपने कक्ष की ओर जाते समय उसके कानों में आचार्य के द्वारा उच्चारित किए जा रहे ये शब्द सुनाई दिए :
सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरंगभङ्गरञ्जितं
द्विषत्सु पापजात-जातकारिवारिसंयुतम् ।
कृतान्तदूत कालभूत भीतिहारि वर्मदे,
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ! ॥
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बहुत काल तक वह गुरुकुल के आश्रम में निवास करता रहा, पर उसे यह समझने में कठिनाई अनुभव होती थी कि वह भी आचार्य के दूसरे शिष्यों की भाँति भूमि पर ही चटाई बिछाकर और कम्बल ओढ़कर सोता था, वन से समिधा लाता था, कभी कभी आचार्य या आचार्यानी की आज्ञा होने पर विशिष्ट नक्षत्र, तिथि, योग, मुहूर्त या दिन में वन में जाकर वहाँ से कोई वनौषधि या वनस्पति भी लाता था, किन्तु उसे अन्य शिष्यों की अपेक्षा अधिक महत्व क्यों प्राप्त था । उससे ज्येष्ठ और उससे अधिक समय तक गुरुकुल में रहनेवाले अन्य छात्र भी आचार्यों द्वारा उससे अधिक स्नेह का व्यवहार किया जाना देखकर किञ्चित ईर्ष्या रखते थे किन्तु अपनी ईर्ष्या की इस भावना को व्यक्त करने का साहस नहीं जुटा पाते थे । शायद इसका एक कारण उसका उनके प्रति स्वाभाविक विनम्रतापूर्ण व्यवहार भी रहा होगा ।
ऐसे ही एक बार आचार्य ने उसे अमावास्या के दिन दोपहर में वन से गुञ्जा का क्षुप लाने भेजा । आचार्य ने उसे एक लाल और एक काला कपड़ा दिया जिसमें उसे उस क्षुप को रखकर लाना था । वह जानता था कि गुञ्जा के क्षुप कहाँ होंगे । प्रायः ही वह और उसके सहपाठी गुञ्जा के बीजों को एकत्र कर गुरुकुल में लाते थे ।
जब वह उस पूर्व-निश्चित स्थान पर पहुँचा तो उसे दूर-दूर तक कोई क्षुप नहीं दिखलाई दिया । तब आचार्य के निर्देश के अनुसार उसने गुञ्जा का स्मरण किया और उसे तत्काल ही अनेक क्षुप दृष्टिगत हुए । आचार्य के निर्देश के अनुसार उसने उस विशिष्ट दिशा की ओर जाकर उसे प्रणाम कर मूलसहित भूमि से उखाड़ा और पहले उस काले तथा फिर लाल कपड़े से ढाँककर ले आया । आचार्य ने उसे दूसरे वृक्षों के बीच नई खोदी भूमि में रोप दिया । उसी रात्रि में स्वप्न में उसने देखा कि वह पुनः गुञ्जा के क्षुप को लेने वन में गया है और वहाँ उसे अनेक वन्य पशु दिखलाई दे रहे थे । बहुत दूर उसे एक विशाल विकराल राक्षस जैसी एक आकृति भी दिखलाई दे रही थी किन्तु शायद वह उसे नहीं देख पा रही थी । उस राक्षस-आकृति की दो बड़ी-बड़ी भुजाएँ और बहुत बड़ा धड तथा पैर थे, किन्तु उसका सिर नहीं था । अर्थात् वह केवल मानव-कबंध ही था । अपने पूर्व अनुभवों से वह तत्क्षण समझ गया कि वह स्वप्न देख रहा है जबकि उसका शरीर भूमि पर कहीं सोयी हुई स्थिति में है । किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी वह अपनी उस स्थिति को नहीं स्मरण कर पा रहा था ।
"हाँ, यह मेरा कबंध ही तो है जो मुझे मेरे स्वप्न में दिखलाई दे रहा है और मैं अपने उस मुख को नहीं देख पा रहा जो कहीं किसी और स्थान पर आँखें बंदकर ’सोया’ हुआ है । "
-उसने सोचा ।
स्वप्न में ही वह उस कबंध की ओर दौड़ा और उसके पास पहुँचते-पहुँचते स्वप्न भंग हो जाने से वह जाग उठा था । अभी रात्रि शेष थी इसलिए वह करवट बदलकर पुनः सो गया ।
प्रातःकाल में सन्ध्योपासन के उपरांत आचार्य ने उससे पूछा :
"वत्स, तुम्हें निद्रा ठीक से आई?"
"हाँ आचार्य, बस एक स्वप्न आया था जिससे बीच में टूट गई थी किन्तु बाद में पूरी हो गई ।"
"कैसा स्वप्न?"
तब उसने आचार्य से अपना स्वप्न कह सुनाया ।
इसके बहुत दिनों बाद आचार्य ने उसे रामायण-काल की कबंध राक्षस की कथा पढ़ने के लिए उसे कहा ।
"तुमने जिसे देखा था वह वही था जिसका वर्णन तुम पढ़ रहे हो ।"
-आचार्य ने उससे कहा ।
"क्या तुम्हारे स्वप्न के उस राक्षस से तुम भयभीत नहीं हुए?"
"नहीं आचार्य ! तब मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं अपने जागृत-अवस्था की स्थिति को क्यों स्मरण नहीं कर पा रहा था ।"
"तुम्हें पता है तुम्हारा जन्म यज्ञ से हुआ था?"
आचार्य ने उससे पूछा।
"हाँ आचार्य! तात ने मुझे बतलाया था किन्तु मैं इसका अभिप्राय ठीक से नहीं समझ सका था ।"
आचार्य जानते थे कि अभी उसके लिए यह सब समझना तथा समझाया जाना अनावश्यक था ।
किन्तु आचार्य को तत्काल ही इसका प्रमाण मिल गया था कि जिस देवता का आवाहन बालक के पिता ने पुत्रेष्टि-यज्ञ के माध्यम से किया था वही उन्हें उनकी शारीरिक संतान के रूप में प्राप्त हुआ था ।
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गुरुकुल में आचार्य के आवास से लौटते और अपने कक्ष की ओर जाते समय उसके कानों में आचार्य के द्वारा उच्चारित किए जा रहे ये शब्द सुनाई दिए :
सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरंगभङ्गरञ्जितं
द्विषत्सु पापजात-जातकारिवारिसंयुतम् ।
कृतान्तदूत कालभूत भीतिहारि वर्मदे,
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ! ॥
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