Wednesday, 24 February 2016

उशन् ह वै वाजश्रवसः ...

उशन् ह वै वाजश्रवसः ...
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आचार्य के उस गुरुकुल में ग्रन्थों के लिए कोई स्थान न था, ऐसा नहीं था । पुराने तालपत्रों पर, ताम्रपत्रों पर, मिट्टी की चर्पटी गुटिकाओं पर उत्कीर्ण और उन्हें सुखा कर पकाई गई लिखित पाण्डुलिपियों के रूप में वहाँ नित्य ही ग्रन्थों का सृजन किया जाता था किन्तु किसी भी ग्रन्थ को जब तक आचार्य का ऐसा स्पष्ट आदेश न हो, वहाँ रखने का निषेध था । इसलिए सभी ग्रन्थों का निर्माण ही इस विषय में उनकी अनुमति और निर्देश के ही अनुसार किया जाता था ।
ऐसा ही एक ग्रन्थ वहाँ पर था पर जिसे शायद / स्यात् मृगचर्म पर लिखा गया था ।
आचार्य ने जब किसी आगन्तुक ब्राह्मण अतिथि के लिए निर्माण करने हेतु कहा तो वह तब तक लिखता ही चला गया जब तक कि उसने कृष्णयजुर्वेद की कठशाखा के द्वितीय अध्याय की तृतीय वल्ली का अंतिम श्लोक लिपिबद्ध नहीं कर दिया ।
आचार्य ने कहना प्रारंभ किया था तो उसे उनके द्वारा कहे जानेवाले इन वचनों की आवृत्ति पुनः एक बार उनके साथ करने के लिए भी कहा था :
"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।"
फिर दोनों ने इसे साथ- साथ कहा :
"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।"
फिर आचार्य बोले :
"अब तुम्हें केवल सुनना और लिखना भर है, ...।"
"आम् तात!"
किञ्चित स्मितपूर्वक आचार्य ने ग्रन्थ-कथन प्रारंभ किया :
"ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः ..."
वे बहुत स्पष्ट उच्चारण सहित रुक-रुककर कहते रहे ताकि वह ठीक से सुखपूर्वक सुनकर लिख सके । इस बीच उसे इन मन्त्रों पर विचार करने का समय नहीं था । उसे यह भी अभ्यास था कि प्रमादवश या अनवधानता से बुद्धि की स्वाभाविक एकाग्रता क्षणमात्र में कैसे खंडित हो जाती है, इसलिए भी उसे पता था कि सुनने और लिखने के बीच संतुलन पर ध्यान देते हुए उसे विचार करने का अवकाश भी नहीं था ।
इस बीच कुछ अन्य सहपाठी और वे ब्राह्मण-अतिथि भी वहाँ उपस्थित थे किन्तु शायद उनमें से किसी-किसी ने ही इसे इतने ध्यानपूर्वक सुना होगा यद्यपि आचार्य के प्रारंभिक वचन / प्रार्थना को शायद सभी ने दोहराया था ।
आज आचार्य के समीप बैठा था तो आचार्य कह रहे थे :
उशन् वे दैत्यगुरु हैं शुक्राचार्य :
(कवीनामुशना कविः गीता 10/37),
अध्याय 10, श्लोक 37,

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।
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(वृष्णीनाम् वासुदेवः अस्मि पाण्डवानाम् धनञ्जयः ।
मुनीनाम् अपि अहम् व्यासः कवीनाम् उशना कविः॥

भावार्थ :
वृष्णिवंशियों में वासुदेव (कृष्ण) हूँ, पाण्डवों में धनंजय (अर्जुन), मुनियों में वेदव्यास, तथा कवियो में उशना (शुक्राचार्य / दैत्य-गुरु) मैं (हूँ) ।
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वाजश्रवा और विश्रवा वे उस परंपरा के ब्राह्मण-वंशोत्पन्न ऋषि हैं जिनके वंशजों में कुबेर तथा रावण उत्पन्न हुए । तमोगुण-प्रधान होने से वे तपस्वियों में उच्च कोटि गिने जाते थे । विश्व पर जय प्राप्ति की कामना से दूषित चित्त वाले होने से वाजश्रवा अपने पुत्र को भी यमराज को देने के लिए उद्यत हो गए थे । क्योंकि उनके पुत्र (उद्दालक) ने जब देखा कि पिता ऐसी गौएँ ब्राह्मणों को दे रहे हैं जो न तो बछड़े दे सकती हैं, न दूध, जो केवल अपनी आयु का शेष अंश व्यतीत करते हुए जी रही हैं, जिन्हें वैसे तो न तो प्यास लगती है, न भूख, किन्तु बस आयु शेष होने तक भूख और प्यास का कष्ट होने पर उपलब्ध होने पर, अन्न-जल का यत्किञ्चित सेवन अवश्य कर लेती हैं ।
उस वंश-परंपरा में वे गाय के माँस का सेवन करते थे और विधिपूर्वक वेद-मंत्रों सहित मेष (भेड़), मृगों, छाग (बकरों) और वृषभ आदि की बलि भी देते थे ।
वेद-मन्त्र-सहित किया जानेवाला पशु-वध अवश्य ही बलि किए जानेवाले पशु को स्वर्ग की प्राप्ति का साधन होता है किन्तु स्वार्थ-बुद्धि से दूषित होने से यह निन्दनीय है और श्रेष्ठ ब्राह्मण के लिए सर्वथा त्याज्य और निषिद्ध भी है । क्योंकि अज्ञानयुक्त / प्रमाद से युक्त या प्रेरित कर्म से कर्म का बंधन और भी दृढ होता है । इसलिए वेदविहित कर्मकाण्ड का अनुष्ठान भी वेदविहित कर्म के लिए किया जाना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है । किसी अन्य प्रयोजन के लिए वेद-विहित कर्म का अनुष्ठान अन्ततः अनिष्टकारी ही होता है । यज्ञ कर्म है और कर्म यज्ञ ही है (गीता 3/15) किन्तु अविधिपूर्वक किया जानेवाला यज्ञ / कर्म मनुष्य को किसी प्रकार से लाभकारी नहीं होता ..."
[अध्याय 3, श्लोक 15,

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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(कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्म-अक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात् सर्वगतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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भावार्थ :
यह जान लो कि कर्म का उद्भव ब्रह्म से होता है, जबकि ब्रह्म का (उद्भव), अक्षर (अविनाशी) परमात्मा से । इसलिए सबमें ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित, ब्रह्म सदैव यज्ञ में प्रतिष्ठित (भली-भाँति अवस्थित) है ।]
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"वस् वस् वत्स्!"
आचार्य ने उस पर प्रशंसा की दृष्टि डालकर उससे कहा ।
दो-तीन दिन बाद जब वे ब्राह्मण अतिथि विदा हो चुके थे, आचार्य ने पुनः उससे कहा :
"वत्स तुम्हारे लेखन-कार्य में कोई भी त्रुटि नहीं है, जैसा मैं कहता गया तुमने अक्षरशः वैसा ही लिखा । तुम्हारा कल्याण हो !"
वह शान्त भाव से प्रसन्नता से सुनता रहा ।
"जब मैं कह रहा था तब यह वेद-वाणी थी जिसे मैंने और तुमने सुना । हम दोनों के लिए यह ’श्रुति’ हुई । उन ब्राह्मण अतिथि के लिए ’स्मृति’ हुई और अनधिकारी विद्वानों के लिए यह परंपरा-मात्र है..."
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