Tuesday, 23 February 2016

सु औ जस् / अस्...

सु औ जस् / अस्...
उस दिन वह अभी प्रातः के संध्योपासन से निवृत्त हुआ ही था कि उसे विवाद करते हुए उसके दो सहपाठी दिखाई दिये ।
गोशाला से थोड़ी दूर खड़े उनमें से एक ने दाहिना हाथ उठाते हुए कहा :
"सु औ जस् ...!"
"अम् औट् शस्...!"
दूसरे ने भी अपना हाथ उठाते हुए प्रत्युत्तर में कहा ।
"टा भ्याम् भिस्...!"
पहले ने उत्तर दिया  ।
"ङे भ्याम् भ्यस्...!"
दूसरे ने प्रत्युत्तर में कहा ।
"ङसि भ्याम् भ्यस्...!"
पहले की प्रतिक्रिया थी ।
"ङस् ओस् आम् ...!
दूसरे ने विकल्प प्रस्तुत किया ।
"ङि ओस् सुप्...!"
पहले ने हार न मानते हुए आग्रह किया ।
"हे!.. हे!...हे!!!"
दूसरे ने हाथ उठाकर उल्लासपूर्वक कहा ।
यह समझने में आने पर उसे आश्चर्य हुआ कि वे विवाद नहीं कर रहे थे, वे सूत्रपाठ कर रहे थे !
किन्तु इसके साथ उसे क्षण भर को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह कुछ सहस्र वर्षों पूर्व की उस स्मृति में पहुँच गया था, जिसे वह अपनी स्मृति कह भी सकता है और नहीं भी कह सकता ।
उसे ’प्रत्यक्ष’ हुआ कि कोई स्मृति अपनी नहीं होती और न कोई मति / विचार अपना होता है ।
उस एक क्षण में जो काल के लोचकता के गुण का दर्शन था, व्यक्तिगत रूप में उसे अपने उस पूर्व जन्म की घटना का स्मरण हुआ जब यह पूरा सूत्र उसे एक बार पढ़ते ही कण्ठस्थ हो गया था ।
"सु-औ-जस्-अम्-औट्-शस्-टा-भ्यां-भिस्-ङे-भ्यां-भ्यस्-ङसि-भ्यां-भ्यस्-ङस्-ओस्-आम्-ङि-ओस्-सुप्"
(सुप्-प्रत्ययाःनिदर्शनं : अष्टाध्यायी 4/1/2 ॥)
उसने मन ही मन दोहराया ।
"हाँ, यह ठीक है ।"
उसे संशय न था ।
किन्तु यह तो मन्त्र हुआ !
"हाँ वेद-मन्त्र..."
"तो क्या यह ऋचा भी है?"
"ऋचा के रूप में वेद है, मंत्र के रूप में व्याकरण..."
"वेद और व्याकरण में क्या भेद हुआ?"
"वेद ऋचा के रूप में प्राप्त भाषा है, मंत्र अर्थात् सूत्र उसका सीमित संदर्भ में प्रयोग ।"
"ऋचा सूक्त होती है, यत्किं (जबकि) सूत्र व्यवहार से उसका संबंध सुनिश्चित होता है ।"
"अर्थात् ?
"लक्षण ।"
"अर्थात् चिह्न, लिङ्ग ?"
"हाँ !"
वह प्रसन्नता पूर्वक आगे बढ़ गया था ।
भोजन के पश्चात् घड़ी-भर (घटिकां-विश्रान्तिक्षणे) उसे पुनः विचार आया कि न तो मंत्र को और न ऋचा को वह किसी भी भाषा में व्यक्त में कर सकता है । यह वेद-वाणी है जो नित्य है और  उसे ध्वनि-रूप के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में उसे रूपान्तरित करते ही उसका वास्तविक अर्थ अर्थात् उद्देश्य एवं प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है । अन्य सभी भाषाएँ जो कि मनुष्यनिर्मित हैं, व्यावहारिक रूप से तो उपयोगी हैं किन्तु मनुष्य के अपने जातिगत संस्कारों के स्पर्श से वेद-भाषा के ध्वनि-रूप की शुद्धता को नष्ट कर देती हैं । यह वेद-वाणी पात्र और अधिकारी के द्वारा ही कही और सुनी जाती है, अपने ही हृदय में या केवल ऐसे ही दूसरे पात्र और अधिकारी के समक्ष । सामान्यजन मलिन संस्कारों से युक्त बुद्धि होने तक तो इसका श्रवण तक नहीं कर सकता, स्मरण और उसे लिपिबद्ध करना तो और भी कठिन है । और लिपिबद्ध को भी केवल वही समझ सकता है जिसने सम्यक् श्रवण किया हो, जो अधिकारी हो । और यह तो वेद-वाणी की करुणा है, जिससे कि अनधिकारी इसे श्रवण कर अपना और जगत् का अहित न कर बैठे । इसका अपनी भाषा में अनुवाद करने का विचार ही उसे अत्यन्त अनिष्टकारी प्रतीत हुआ ।
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अहं-ममश्च वृत्तयः सन् उद्भवन्ति प्रलीयन्ति ।
एकनैके चित्स्वरूपे आत्मनि तद्द्वयविलक्षणे ॥
जागरितायाः अवस्थायाम् प्रतीतिरूपेण भासन्ति ।
तथा स्वप्नसुषुप्तिभ्याम् अपि दृष्टरि-अद्वये ॥
(अर्थ :
’मैं’ तथा ’मेरा’ ये दोनों विचार / कल्पनाएँ भी चित्त में उसी चित्-स्वरूप आत्मा से तरंगों सी उठती और उसी में पुनः विलीन होती रहती हैं जो उन दोनों से सर्वथा विलक्षण-स्वरूप है । ये तरंगे जागृत स्वप्न तथा सुषुप्ति में भी इसी प्रकार से उनके दृष्टास्वरूप उनके अधिष्ठान अद्वय आत्मा से अपृथक् हैं ।)
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अपने हृदय में ये शब्द अनायास जैसे झँकृत हो रहे हों उसे ऐसा लगा ।
इन शब्दों को वैसे तो कुछ सहस्र वर्ष पहले उसने ही रचना में बाँधा था, किन्तु उसे लगा मानों वह इन्हें पहली बार सुन रहा हो । नितांत नए, उस एक क्षण में जो काल के लोचकता के गुण का दर्शन था, व्यक्तिगत रूप में उसे अपने उस पूर्व जन्म की घटना का पुनः स्मरण हुआ ।
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काल के स्वरूप के बारे में उसे भ्रम नहीं था । सौर, सावन, चान्द्र तथा नाक्षत्र इन चार प्रकार से मनुष्य का जीवन व्यतीत होता है । सौर मान से एक (सौर-)वर्ष तीन सौ पैंसठ दिनोंका होता है अर्थात् इतने सूर्योदय जम्बूद्वीप में काशी, काञ्ची, जगन्नाथ-पुरी या उज्जैन आदि स्थानों पर होते हैं । सावन मान से तीन सौ चौवन दिनों का और नाक्षत्र मान से तीन सौ पैंतीस दिनों का वर्ष होता है । सर्दी, गर्मी और वर्षा सौरमान से होती है । अग्निष्टोम आदि यज्ञ, उत्सव और विवाह - ये सावनमान से किए जाते हैं, व्याज आदि व्यवहार मलमासयुक्त चान्द्रमान से किए जाते हैं । नाक्षत्रमान से ग्रहों की चाल होती है । पृथ्वी पर इन चारों के सिवा दूसरा कोई मान नहीं होता ।
(स्कन्द-पुराण, नागर खण्ड, 229)
लौकिक मनुष्य पृथ्वी-तत्व का ही शरीर लेकर जन्म लेता है और मृत्यु के बाद अपने जीवन में किए गए कर्मों के अनुसार जिन शुभ-अशुभ लोकों को प्राप्त होता है वे सभी नितान्त वैयक्तिक होते हैं । ऐसे असंख्य लोक हैं किन्तु मनुष्य जीवन में किए कर्मों से फलित प्रारब्धवश वहाँ मनुष्य अपने शुभ-अशुभ फलों को भोगता है । देवता भी पुण्यकर्मों के भोग के पश्चात् भूलोक पर मनुष्य या अन्य जीव के रूप में जन्म लेते हैं किन्तु मनुष्यों के अतिरिक्त किसी को इतनी स्वतंत्रता नहीं होती कि वेदोक्त कर्म का विवेकपूर्वक अनुष्ठान करता हुआ उस धाम को प्राप्त हो सके जिसे न सूर्य प्रकाशित करता है, न चंद्र, न भौतिक प्रकाश, जबके उसके ही प्रकाश से इन समस्त लोकों का उद्भव और विलय होता है ।
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