Tuesday, 9 February 2016

यथावत् / As is.

यथावत्
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224 - सिद्धरुद्रेश्वर तीर्थ से दो मील आगे मांटियर नामक ग्राम  के समीप वैद्यनाथ तीर्थ है । पिछले स्थानों से तो नर्मदा दूर पड़ जाती हैं किन्तु वैद्यनाथजी के तो प्रायः समीप ही है । यहाँ से पास ही एक प्रसिद्ध तीर्थ  47- सूर्यकुण्ड है । उसकी भी कथा सुन लीजिये- महर्षि कश्यप की दिति नामक पत्नी से दैत्य हुए और अदिति नामक पत्नी से आदित्य - सूर्य हुए । सूर्य का नाम विवस्वान् था (गीता अध्याय 4, श्लोक 1) । उनका विवाह विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के साथ हुआ । विवस्वान् से संज्ञा में तीन संतानें हुईं । एक वैवस्वत् मनु, दूसरे यम और तीसरी यमिना नाम्नी कन्या । सूर्यनारायण का तेज अत्यधिक था, उसे संज्ञा सहन न कर सकी । उसने सूर्यदेव से प्रार्थना की-
"आपका तेज असीम है, मैं उसे अधिक सहन करने में असमर्था हूँ, अतः मुझे आज्ञा दीजिये मैं अपने पिताजी के यहाँ जाकर रहूँ ।"
यह सुनकर सूर्यदेव ने कहा -
"यह कैसे हो सकता है । बच्चों की देख-रेख कौन करेगा ?"
यह सुनकर सझ्ञा उस समय तो शान्त हो गयी किन्तु उसके लिये सूर्य का तेज सहन करना असह्य हो गया । एक दिन उसने सूर्य से छिपकर अपनी छाया को सजीव बना लिया । और छाया से कहा-
"देख, तू यहीं रहना, सूर्यनारायण को यह मत बताना कि यथार्थ संज्ञा नहीं उसकी छाया हूँ ।"
छाया ने कहा-
"जब तक मृत्यु संकट नहीं आवेगा, तब तक तो बताऊँगी नहीं । जब मेरे सिर पर मृत्युसंकट आ जायेगा तब तो मुझे बताना ही पड़ेगा ।"
संज्ञा ने कहा-
"अच्छी बात है,.."
यह कहकर वह अपने पिता विश्वकर्मा के घर चली गयी । विश्वकर्मा ने पूछा-
"तू अकेली कैसे चली आयी ?"
तब इसने बताया उनका तेज मैं सहन नहीं कर सकती ।
विश्वकर्मा ने कहा-
"सयानी लड़की को अधिक दिनों तक पिता के घर में नहीं रहना चाहिये । तू वहीं चली जा ।"
पिता की बात सुनकर वह चली तो गयी किन्तु सूर्यनारायण के यहाँ न जाकर घोर वन में चली गयी । अपने पतिव्रत की रक्षा के निमित्त उसने घोड़ी का रूप रख लिया । घोड़ी बनकर वन में चरती रहती समय को बिताती रहती । इधर सूर्यनारायण संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझ रहे थे । उसके भी तीन सन्तानें हो गयीं । पहिला सावर्णी मनु, दूसरे शनिश्चरदेव और तीसरी तापी नदी ।
संज्ञा के पुत्र यमराज क्रोधी स्वभाव के थे । छाया अपनी सन्तानों को तो बहुत अधिक प्यार करे, अच्छी-अच्छी वस्तुएँ खाने को दे । संज्ञा के पुत्रों की उपेक्षा कर दे । इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण वर्ताव देखकर यमराज को क्रोध आ गया । उन्होंने क्रोध में भरकर छाया को मारने के लिए पैर उठाया । इस पर छाया ने यमराज को शाप दे दिया ।
तब यमराज ने पिता से सब व्त्तान्त बताकर कहा-
"पिताजी ! प्रतीत होता है यह हमारी यथार्थ माता नहीं ! माता अपने पुत्र को कभी शाप नहीं देती ।"
तब सूर्यदेव ने उसे धमकाकर डाँटते हुए पूछा- तब उसने सब समाचार सत्य-सत्य बता दिये ।
अब सूर्यदेव को संज्ञा की चिन्ता हुई । वे अपनी ससुराल विश्वकर्मा के यहाँ गये । और जाकर संज्ञा के संबंध के सभी समाचार पूछे ।
विश्वकर्मा ने कहा-
"हाँ वह आयी तो थी किन्तु मैंने फिर उसे तुम्हारे ही पास भेज दिया था ।"
सूर्यनारायण ने कहा-
"अच्छी बात है, मैं उसे खोजता हूँ ।"
यह कहकर वे संज्ञा को खोजने गये । देखा वह घोर अरण्य में घोड़ी बनी घूम रही है, तब सूर्यनारायण ने भी घोड़ा का रूप रख लिया । वहीं अश्विनीकुमारों का जन्म हुआ । तब सूर्यनारायण संज्ञा को लेकर विश्वकर्मा के समीप आये । विश्वकर्मा ने एक आदित्य के बारह आदित्य बना दिये और सूर्यनारायण का तेज भी कम कर दिया । इससे सूर्यनारायण को ग्लानि हुई, उन्होंने यहाँ नर्मदा किनारे आकर दस सहस्र वर्षों तक तप किया ।
(स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे...)
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व्याख्या :
जगत् और जीव के रूपों में एक ही आत्मतत्व के अनेक नाम-रूपों से व्यक्त होकर सृष्टि की लीला का यह याथातथ्यतो वर्णन है । इसके सभी पात्र वही एकमात्र आत्मतत्व है जो देवताओं,  जीवों और मनुष्यों का रूप धारण कर यह नाटक खेलता है । संक्षेप में देखें कि कौन क्या है-
सूर्य - (The Sun) इस सृष्टि का एकमात्र कारण और इसे जीवन देनेवाला कारक । भौतिक रूप से अग्निपिण्ड, आध्यात्मिक दृष्टि से शुद्ध प्रकाश (बोध / ज्ञानाग्नि) जिसमें कोई अन्य नहीं रह पाता ।
(Pure Knowledge)
संज्ञा- इस बोध का प्रतिबिंबित प्रकाश जो जीवों में ’संज्ञा’ अर्थात् लौकिक पहचान / शुद्ध बुद्धि के रूप में व्यक्त होता है । यह संज्ञा भी अत्यन्त पावनी है किन्तु वह भी सूर्य के तेज को नहीं सह पाती । यह मनुष्य में उत्पन्न ’संशय’ आत्म-स्वरूप से अपरिचय है ।
Cognizance / Impure knowledge,
विश्वकर्मा- वह तत्व जो जगत् की समस्त कर्म-समष्टि का अधिष्ठान / विधाता है ।
The Cosmic Energy as Potential that facilitates all actions and deeds.
महर्षि कश्यप - मनुष्य और बहुत से अन्य जीवों के पितृ-पुरुष, जीव-सृष्टि का विधान,
Sage Kashyapa > Caspian Sea.
विवस्वान् - वह सूर्य जो हमारी वर्तमान सृष्टि का अधिष्ठाता है । ऐसी असंख्य सृष्टियाँ (अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड) हैं, सभी सहवर्ती हैं ।
श्रीमद्भग्वद्गीता 
अध्याय 4, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
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(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
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भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप  मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
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विवस्वान् से संज्ञा में तीन सन्तानें -
वैवस्वत् मनु (मानव का प्रथम पितृ-पुरुष)
Manu > Noah
यम- सृष्टि जिन वैज्ञानिक नियमों से संचालित होती है वे अटल नियम / Law as Time, Death, Law,
(यम से याम अर्थात् समय का एक अंश बनता है, अरबी भाषा में ’दिन’ को ’यौम’ कहा जाता है, काल अर्थात् मृत्यु, क्योंकि वह भी अनिश्चित किन्तु अटल सत्य है ।)
यमुना / यामिनी / यामुन / / जामुनी /जमुना - River Yamuna ; Law as Space/ Earth, The land of Mortals.
रात्रि, अंधकार,
अश्विनीकुमार / अश्विनौ / Equinox
The Whole Zodiac beginning with अश्विनी /Ashvinee Constellation
छाया- Shadow Knowledge,
इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला भौतिक-ज्ञान (बुद्धि-आधारित प्रयोग के द्वारा परीक्षित जानकारी जो काल-स्थान-सापेक्ष है ।)
छाया से उत्पन्न सूर्य की तीन सन्तानें :
सावर्णी मनु : जो मनु से सवर्ण तो हैं किन्तु जिनकी प्रकृति मनु से बहुत भिन्न है ।
A look-alike of Noah > Emmanuel

शनैश्चर - Saturn,
मंथर गति से चलनेवाली बुद्धि । यही शनैश्चर एक चरण के विकल होने से लंगडाकर चलते हैं । ज्योतिष में वे अपने स्थान से तीसरे सातवें और दसवें स्थान को देखते हैं और यह भी उनके चरित्र का अंग है । यम के स्वभाव की तुलना में उनका स्वभाव । दोनों सूर्यपुत्र हैं । दोनों को प्रसन्न करने पर मनुष्य उनके कोप से दूर रहता है ।
तापी नदी :
River Tapi : जो मनुष्य के त्रिविध तापों का कारण है, किन्तु उसकी विधिपूर्वक उपासना करने पर त्रिविध तापों से मुक्ति भी हो जाती है ।
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