Saturday, 13 February 2016

धर्म का प्रयोजन :

धर्म का प्रयोजन :   
"तात! क्या मेरा भी यज्ञोपवीत होना है ?
"नहीं वत्स, तुम्हारा जन्म ही यज्ञ से हुआ है इसलिए पुनः यज्ञोपवीत किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । फिर भी लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए तुम्हारा यह संस्कार शीघ्र ही होने जा रहा है । विद्याध्ययन के लिए तुम्हें गुरुकुल जाना होगा जहाँ तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार किया जायेगा और तुम ब्रह्मचर्य-आश्रम में रहते हुए शिक्षा पूर्ण करोगे ।"
"मेरा जन्म यज्ञ से कैसे हुआ ? क्या आपका जन्म भी यज्ञ से हुआ था ? और मेरी माता का जन्म ?"
"वत्स जब मेरा विवाह हुआ और मैंने तुम्हारी माता का पाणिग्रहण किया और वह उसके पिता के घर को छोड़कर मेरे साथ दांपत्य में बँध गई, तो गृहस्थ आश्रम के धर्म का पालन करने हेतु संतान की प्राप्ति कर कुल-परंपरा का निर्वाह करना हमारा दायित्व था । तुम्हें पता ही है कि किस प्रकार स्त्री-पुरुष के पारस्परिक शारीरिक संबंध से संतान का जन्म होता है । इस प्रक्रिया के अंतर्गत पुरुष या तो काम-भावना के वशीभूत होकर स्त्री-संसर्ग करता है, या विधिपूर्वक पुत्र की कामना से भोग-बुद्धि से रहित होकर ऐसा करता है । तुम्हारे जन्म से कुछ काल पहले तुम्हारी माता नैमित्तिक प्रसंग से नगर के कामदेव के मन्दिर में आयोजित मदनोत्सव में गई थी । मदनोत्सव में कामदेव की पूजा स्त्रियाँ इसलिए करती हैं कि कामदेव उनके पति को संतानोत्पत्ति के लिए यह कार्य करने हेतु प्रेरित करें । चूँकि मुझे कामोपभोग में विशेष रुचि नहीं थी इसलिए मैंने पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान किया, तुम्हारा आवाहन और तुमसे मेरे पुत्र-रूप से जन्म लेने का निवेदन किया । फिर तुम्हारी माता के साथ कुछ काल तक मैंने कर्तव्य-बुद्धि से अनिच्छापूर्वक रमण किया जिससे तुम्हारा जन्म हुआ । हाँ, मेरा भी जन्म यज्ञ से हुआ था किन्तु तुम्हारी माता के विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता । स्त्री प्रकृतिस्वरूपा होने से अनिच्छया ही सृष्टि का विस्तार करती है । पुरुष स्वेच्छया भोग-बुद्धि से, कर्तव्य बुद्धि से या विधाता के सङ्कल्प से इस कार्य में प्रवृत्त होता है । इसलिए पुरुष के लिये ही यज्ञोपवीत का विधान है । स्त्री नित्य पवित्र है, पुरुष जन्म से ही दोषों से युक्त हो सकता है । जिसकी निवृत्ति के लिए यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है ।"
"तात! मेरे इस शरीर को धारण करने से पूर्व मैं कहाँ और किस रूप में था ?"
"पुत्र, तुम संस्कार-समष्टि के व्यक्तिगत सूक्ष्मतम अंश की तरह से दिव्य-लोक में अपने पूर्व-जन्म के पुण्यों का उपभोग कर रहे थे, और वे पुण्य क्षीण होने पर तुम्हें पुनः इस मृत्युलोक में लौटना था, क्योंकि वह विधाता का सङ्कल्प था ।"
"तात विधाता का क्या स्वरूप है?"
"हे वत्स! वेद में विधाता को पुरुष कहा जाता है और उसका स्वरूप इन्द्रियों मन बुद्धि और निश्चय का विषय नहीं है क्योंकि वही इन सब रूपों में प्रकट होता है ।"
"किसके लिए?"
"दृष्टिर्वै चक्षुः । दृष्टादृश्ययोः दृणाति दृणातीति दृष्टिः । दृष्टि ही नेत्र / नेतृ है, वह एक ही अविभाज्य सत् का दो में आभासी विभाजन करती है । यही पुरुष का यथार्थ स्वरूप है ।"
"तात! ब्रह्मचर्य आश्रम क्या होता है और किसे प्राप्त होता है?"
"पुत्र! वैसे तो प्राणिमात्र को जन्म से ही प्राप्त होता है किन्तु मनुष्य को यह विधि द्वारा भी प्राप्त होता है, वह भी पात्र अर्थात् अधिकारी को ही । जो मनुष्य ब्राह्मणत्व के संस्कार लेकर जन्म लेता है उसे यज्ञोपवीत संस्कार के द्वारा विद्याध्ययन में प्रवृत्त किया जाता है, ताकि वह जीवन के चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सके । "
"तात जो मनुष्य ब्राह्मणत्व के संस्कार लेकर नहीं उत्पन्न होते क्या वे ब्रह्मचर्य-आश्रम को पाने की पात्रता या अधिकार से रहित होते हैं ?"
"वत्स, जो मनुष्य ब्राह्मणत्व के संस्कार लेकर नहीं उत्पन्न होता उसकी स्वाभाविक रुचि ही ऐसे विषयों और कार्यों के प्रति होती है जिन्हें शास्त्रों ने ब्राह्मण के लिए निषिद्ध कहा है ।"
"अर्थात् ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश प्राप्त करना मनुष्य की अपनी अभिरुचि पर निर्भर करता है ।"
"हाँ, क्योंकि कोई मनुष्य एक ही समय में दो मार्गों पर नहीं चल सकता ।"
"हे पिता, क्या मुझे गुरुकुल जाना ही होगा? आपकी क्या आज्ञा है?"
"यदि तुम घर पर ही रहना चाहते हो तो भी माता-पिता और घर में आने-जानेवाले अतिथि गुरुजनों की सेवा करते हुए भी ब्रह्मचर्य-आश्रम का जीवन व्यतीत कर सकते हो । किन्तु तब शिक्षा का नियमित सुचारु अध्ययन गुरुकुल में हो पायेगा ।"
"तात तब तो मैं गुरुकुल ही जाना चाहूँगा ।"
"अवश्य, ..."
"तात! क्या गृहस्थ आश्रम प्राप्त होने पर ब्रह्मचर्य-आश्रम को त्याग दिया जाता है?"
"नहीं वत्स, ब्रह्मचर्य-आश्रम की शिक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर ही गृहस्थ-आश्रम के लिए पात्रता होती है । यदि कोई ब्रह्मचर्य-आश्रम में रहते हुए ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कुशलता से करता है तो गृहस्थ-आश्रम के कर्तव्यों का निर्वाह और अच्छी तरह और सरलता से कर सकता है ।"
"तात ! यदि कोई गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश का पात्र होने पर भी इसे अपने लिए अनुकूल नहीं पाता तो उसे क्या करना चाहिए?"
"वत्स, यदि कोई पुरुष इतना वैराग्यवान है कि उसे गृहस्थ-धर्म एक अनावश्यक बोझ प्रतीत होता है तो वह सीधे वानप्रस्थ और परिपक्व होने पर संन्यास आश्रम को भी प्राप्त कर लेता है ।"
"कैसे प्राप्त कर लेता है तात!"
"क्योंकि उसे सांसारिक भोगों की व्यर्थता स्पष्ट हो जाती है, वह समझ लेता है कि जब तक देह नीरोग है तभी तक मर्यादित भोग उसके लिए ग्राह्य हैं और देह-रक्षण के लिए आवश्यक भी हैं किन्तु कभी-न-कभी तो वृद्ध और दुर्बल होकर देह का समाप्त होना अटल सत्य है इसलिए देह के नष्ट होने से पहले ही उस तत्व  को जान लिया जाए जिसमें संपूर्ण जगत प्रतीत होता है, किन्तु वह तत्व स्वयं जगत से अप्रभावित अनश्वर है ।"
"मर्यादित भोग का क्या अर्थ है तात!"
"उतना ही भोग जिससे देह, मन, बुद्धि स्वस्थ और सुचारु रूप से अपना कार्य कुशलता से कर सकें । जैसे उचित अन्न, जल और वायु का सेवन, समुचित शारीरिक श्रम, और निद्रा आदि ।"
"क्या ये धर्म / निर्देश केवल ब्राह्मण के द्वारा ही आचरित करने के लिए हैं, या सभी वर्णों के लिये समान रूप से पालन किये जाने योग्य हैं?"
"पुत्र, वैसे तो ये सभी के लिए उपादेय हैं किन्तु अपने अपने कुल, वंश और सामाजिक स्थिति से प्राप्त रीतियों और परंपराओं से इनमें परिवर्तन हो जाता है और तब उचित आचरण क्या है इस विषय में चित्त में संशय, आग्रह और द्वंद्व उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु धर्म की इस मूल भावना को यथासंभव बनाए रखना चाहिए ।"
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"तात ! स्त्रियों और पुरुषों की स्थिति के अनुसार इस धर्म का स्वरूप कितना और कैसे समान अथवा भिन्न होता है ?"
"वत्स, पुरुष और स्त्री सभी के लिए अपने जातिगत वर्ण-आश्रम का पालन करना जीवन में और मृत्यु के बाद के लिए भी श्रेयस्कर है, किन्तु गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त करना सभी पुरुषों के लिए कर्तव्य है । यहाँ कर्तव्य का अर्थ है परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर । स्त्रियों के लिये घर में ही रहना और गृहस्थ-धर्म के अपने कर्तव्यों की शिक्षा पाना पर्याप्त है ।"
"तात क्या स्त्रियों के लिए लिखना-पढ़ना निषिद्ध है?"
"वत्स ’निषिद्ध’ वह होता है जिससे कोई प्रयोजन सिद्ध न होता हो, अर्थात् व्यर्थ या निरर्थक । ’वर्जित’ वह होता है जो अभीष्ट की प्राप्ति में बाधक हो । इसलिए कला और कौशल की दृष्टि से पुरुष हो या स्त्री लिखने-पढ़ने में जिसकी अभिरुचि है, उसे अवश्य ही इस कौशल का संवर्धन करना चाहिए । इससे बुद्धि का विकास भी होता है ।"
"क्या स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन निषिद्ध या वर्जित है?"
"हाँ वर्जित है..."
"और पुरुषों के लिए ?"
"वेदाध्ययन केवल उन्हीं पुरुषों के लिए विहित है जिन्हें ब्रह्म को जानने में रुचि हो, या जो आजीविका के लिए ब्राह्मण-कर्म करने में कुशल हों ।"
"आजीविका के लिए?"
"हाँ धन के लोभ से किया जानेवाला किसी भी प्रकार का कर्म निषिद्ध होता है । किन्तु आश्रम-धर्म के रूप में जो कर्म प्राप्त हुआ है उसे कुशलता से करना सदैव श्रेयस्कर होता है । और उस कर्म के लिए उचित पारिश्रमिक ग्रहण करना आजीविका की पूर्ति करता है । पुरोहित को यजमान से उसकी क्षमता के अनुसार ही पारिश्रमिक प्राप्त करने की आशा रखना चाहिए और यजमान को भी अपनी क्षमता के अनुसार पुरोहित को उसके कार्य के लिए श्रद्धापूर्वक अधिकतम प्रतिदान देना चाहिए । इस विषय में मनुष्य का मन ही जानता है कि वह लोभ से ग्रस्त है या नहीं ।"
"स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन वर्जित क्यों है?"
"क्योंकि वेदों का संबंध देवताओं से है । वेद का आधार देवता-तत्व का सिद्धान्त है । स्त्री चन्द्रमा के समान 16 कलाओं अर्थात् 16 चान्द्र-वर्षों (या 12 से 13 वर्ष के सौर वर्षों) में ऋतुमती होती है । और उस आयु में प्रकृति के अनुसार गर्भ-धारण करने के लिए सक्षम होती है । इसी प्रकार पुरुष सूर्य प्रतिदिन होनेवाले उदय अस्त के समान जीवन में एक ही बार युवा होता है और आयु बीतते हुए वृद्ध हो जाता है । चंद्र का संबंध सोम से है जो पृथ्वी पर ओषधि और अन्न तथा वनस्पति की वृद्धि का कारण है । इस प्रकार अग्नि, सोम, वरुण, सूर्य, यम, इन्द्र, वायु, आदि देवता जीवन की प्रेरक और संचालक शक्तियां हैं । वेद के अनुसार ये जड भौतिक वस्तुएँ न होकर चेतन सत्ताएँ हैं जिनका आवाहन यज्ञ के माध्यम से किया जाता है । ये सभी परमात्मा के ही विभिन्न रूप हैं किन्तु इनमें से कोई अकेला ही परमात्मा नहीं हो सकता । साँख्य-दर्शन परमात्मा को एकमेव सत्ता के रूप में स्वीकार तो करता है किन्तु उसके स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कहता क्योंकि तब वह वाणी / विचार का विषय हो जाता है और तब उसके बारे में जो कुछ कहा जाता है वह उसका अपर्याप्त वर्णन होता है । किन्तु देवता तत्व उसी परमात्मा की भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ हैं जिनके माध्यम से सृष्टि का संचालन और जगत का व्यवहार संभव होता है । इन देवताओं को यज्ञ द्वारा संतुष्ट कर मनुष्य अभीष्ट प्राप्त कर सकता है यह लौकिक धर्म है । व्यावहारिक धर्म के रूप में परस्पर सम्मान और प्रेम एकमात्र धर्म है । स्त्री के लिए कोई भी देवता या उसका पौराणिक स्वरूप इष्ट हो सकता है क्योंकि पुराण वेद का ही सरलीकरण है जो स्त्री की बुद्धि और स्वभाव से अधिक अनुकूल है । किन्तु पुराण के ही अनुसार मनुष्य स्त्री हो या पुरुष, उसे अपनी प्रकृति के अनुकूल प्रकृति वाले देवता की ही उपासना करनी चाहिए । क्योंकि जैसे अनुकूल उपासना से इन देवताओं को प्रसन्न किया जाता है, वैसे ही उनके प्रति उनकी प्रकृति से किया जानेवाला प्रतिकूल व्यवहार उनके कोप का कारण भी हो सकता है ।"
"तात, स्त्रियों के और पुरुषों के धर्म एक दूसरे से कितने समान और भिन्न होते हैं ?"
"यदि मनुष्य वेद-धर्म को स्वीकार करता है तो उसे वेद-विहित स्त्री-धर्म और पुरुष-धर्म का पालन करना चाहिए । इसका अर्थ यह हुआ कि वह देवता-तत्व को स्वीकार करता है और वर्णाश्रम-धर्म को भी । किन्तु यदि कोई वेद-धर्म के प्रति संशय-युक्त है तो उसे चाहिए कि रुचि होने पर वह शैव-सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर की भक्ति करे । यदि उसे यह भी स्वीकार नहीं है तो उसे स्वयं ही खोजना चाहिए कि उसका स्वाभाविक धर्म क्या है । किन्तु यदि उसे इसमें भी रुचि नहीं है और वह जीवन के भोगों को ही एकमात्र ध्येय मानता है तो उसे कोई कैसे रोक सकता है? किन्तु तब वह समाज से सामञ्जस्य नहीं रख सकेगा और सुख भी नहीं पा सकेगा । क्योंकि उसकी प्रकृति ही उसे सुख से वंचित रखेगी ।"
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