होना, जानना, करना -2
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अपने इस होने को जानने और जानने (’जानना’ स्वरूपतः क्या है?) को ठीक से समझने के बीच जो चीज़ बाधा बनती है वह है, -इस बारे में मेरी अस्पष्टता की ओर मेरा ध्यान न जाना ।
उदाहरण के लिए शरीर है, शरीर की गतिविधियाँ हैं । इसी प्रकार मस्तिष्क और हृदय भी हैं । शरीर के दूसरे भी अन्य अंग और उनके क्रियाकलाप हैं । इस होने को मैं किसी प्रकार से प्रभावित नहीं कर सकता । क्योंकि प्रभावित करने का विचार मस्तिष्क में उठता और सक्रिय या शिथिल होता है । यह विचार स्मृति से ही आता है जो मस्तिष्क में ही किसी पैटर्न (Pattern) / क्रम-संयोजन के अन्तर्गत रैम (RAM) / रोम (ROM) की प्रणाली से बँधी, मेरे सामने क्षण क्षण प्रस्तुत होती रहती है । अगर मुझे लगता है कि मैं परिस्थितियों को बदल सकता हूँ, तो यह विचार भी स्मृति का ही उद्गार है । यह सब मेरे ’होने’ के अन्तर्गत किसी व्यवस्था में है । इस 'होने' को 'जानने' के लिए मुझे किसी दूसरे उपकरण की सहायता नहीं लेनी होती ।
दूसरी ओर मेरी भावनाएँ, चिन्ताएँ, लोभ, भय, क्रोध, शारीरिक कष्ट जैसे दर्द या कोई रोग, काम का आवेश उठना, लालसाएँ भी हैं, जो मुझे / मुझमें उठती हैं और थोड़े या कुछ अधिक समय तक सक्रिय रहकर विदा हो जाती हैं । वे एक ओर तो बाह्य परिस्थितियों के द्वारा प्रेरित होने से मुझमें पैदा होती हैं तो दूसरी ओर मेरे पहले के अनुभवों के दुःखद या सुखद होने की मेरी प्रतीति और उसे प्रतीति भर न समझकर वास्तविकता की तरह ग्रहण किए जाने से मुझमें प्रतिक्रिया के रूप में जाग उठती हैं । उन प्रतीतियों के पुनः उत्पन्न होने की आशा या आशंका से मुझे / मुझमें उनसे जुड़ी चिन्ताएँ, लोभ, भय, क्रोध, आदि सक्रिय हो उठते हैं । ये भी मेरे ’होने’ के ही अन्तर्गत हैं ।
किन्तु इन सब के साथ, इस सब के दौरान मैं इन्हें (इनके ’होने’) को जानता हूँ यह तो स्पष्ट ही है ।
यह ’होना’ न तो मेरे द्वारा ’किया’ जानेवाला कोई कृत्य / कार्य होता है और न मैं 'उसे' प्रत्यक्षतः जानता हूँ जो इसे कार्य का रूप दे रहा है । अर्थात् मैं इसके वास्तविक ’कर्ता’ के बारे में बिलकुल नहीं जानता ।
इसलिए जब मैं, "मैं लिखता हूँ", "मैं खाता हूँ", "मैं जागता हूँ" जैसे वाक्य कहता हूँ तब वह व्यावहारिक दृष्टि से तो सुसंगत, आवश्यक तथा उपयोगी भी है ही, किंतु जब मैं "मैं सोचता हूँ", "मैं प्रेम / घृणा / चिन्ता / लोभ / इच्छा / क्रोध करता हूँ " जैसे वाक्य कहता हूँ तो एक बुनियादी भूल की ओर मेरा ध्यान नहीं जाता । वह यह कि ये चीज़ें मुझे / मुझमें ’होती’ हैं और मैं बस 'जानता' भर हूँ कि वे 'वहाँ' / मेरे ’मन-मस्तिष्क-हृदय’ के अन्तर्गत एक गतिविधि के रूप में व्यक्त और विलीन हो रही हैं । किंतु मेरा इस बुनियादी भूल की ओर ध्यान नहीं जाता । इसका एक कारण है ’मैं’ शब्द का प्रयोग अलग अलग समय पर अलग अलग चीज़ों के लिए किए जाने का मेरा अभ्यास जो आदत बन जाता है । व्यावहारिक धरातल पर अपने शरीर और उससे संबंधित गतिविधियों के लिए संकेत-रूप में ’मैं’ कहा जाना व्यवहार को आसान और सुचारु बनाता है, किंतु इस शरीर से संबद्ध ’मन-मस्तिष्क-हृदय’ के अन्तर्गत ’होनेवाली’ गतिविधियों को ’मैं’ पर आरोपित कर बैठना एक भूल / भ्रम है ।
अब प्रश्न यह है कि क्या मेरा ’जानना’ ही वह एकमात्र आधार नहीं जो इस सब को प्रमाणित करता है? क्या वह ’जानना’ इनमें से कोई वस्तु या इनका कुल जोड़ है? इस ’जानने’ को ’जाननेवाला’ ही क्या मैं नहीं ? क्या वह ’जानना’ कल्पना या विचार भर है ? कल्पना तथा विचार तो आते-जाते हैं । क्या जानना आता-जाता है ?
स्पष्ट है कि यह ’होना’ तथा ’जानना’ दोनों परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
’विचार’ ही उनके परस्पर भिन्न होने की कल्पना जगाता है ।
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अपने इस होने को जानने और जानने (’जानना’ स्वरूपतः क्या है?) को ठीक से समझने के बीच जो चीज़ बाधा बनती है वह है, -इस बारे में मेरी अस्पष्टता की ओर मेरा ध्यान न जाना ।
उदाहरण के लिए शरीर है, शरीर की गतिविधियाँ हैं । इसी प्रकार मस्तिष्क और हृदय भी हैं । शरीर के दूसरे भी अन्य अंग और उनके क्रियाकलाप हैं । इस होने को मैं किसी प्रकार से प्रभावित नहीं कर सकता । क्योंकि प्रभावित करने का विचार मस्तिष्क में उठता और सक्रिय या शिथिल होता है । यह विचार स्मृति से ही आता है जो मस्तिष्क में ही किसी पैटर्न (Pattern) / क्रम-संयोजन के अन्तर्गत रैम (RAM) / रोम (ROM) की प्रणाली से बँधी, मेरे सामने क्षण क्षण प्रस्तुत होती रहती है । अगर मुझे लगता है कि मैं परिस्थितियों को बदल सकता हूँ, तो यह विचार भी स्मृति का ही उद्गार है । यह सब मेरे ’होने’ के अन्तर्गत किसी व्यवस्था में है । इस 'होने' को 'जानने' के लिए मुझे किसी दूसरे उपकरण की सहायता नहीं लेनी होती ।
दूसरी ओर मेरी भावनाएँ, चिन्ताएँ, लोभ, भय, क्रोध, शारीरिक कष्ट जैसे दर्द या कोई रोग, काम का आवेश उठना, लालसाएँ भी हैं, जो मुझे / मुझमें उठती हैं और थोड़े या कुछ अधिक समय तक सक्रिय रहकर विदा हो जाती हैं । वे एक ओर तो बाह्य परिस्थितियों के द्वारा प्रेरित होने से मुझमें पैदा होती हैं तो दूसरी ओर मेरे पहले के अनुभवों के दुःखद या सुखद होने की मेरी प्रतीति और उसे प्रतीति भर न समझकर वास्तविकता की तरह ग्रहण किए जाने से मुझमें प्रतिक्रिया के रूप में जाग उठती हैं । उन प्रतीतियों के पुनः उत्पन्न होने की आशा या आशंका से मुझे / मुझमें उनसे जुड़ी चिन्ताएँ, लोभ, भय, क्रोध, आदि सक्रिय हो उठते हैं । ये भी मेरे ’होने’ के ही अन्तर्गत हैं ।
किन्तु इन सब के साथ, इस सब के दौरान मैं इन्हें (इनके ’होने’) को जानता हूँ यह तो स्पष्ट ही है ।
यह ’होना’ न तो मेरे द्वारा ’किया’ जानेवाला कोई कृत्य / कार्य होता है और न मैं 'उसे' प्रत्यक्षतः जानता हूँ जो इसे कार्य का रूप दे रहा है । अर्थात् मैं इसके वास्तविक ’कर्ता’ के बारे में बिलकुल नहीं जानता ।
इसलिए जब मैं, "मैं लिखता हूँ", "मैं खाता हूँ", "मैं जागता हूँ" जैसे वाक्य कहता हूँ तब वह व्यावहारिक दृष्टि से तो सुसंगत, आवश्यक तथा उपयोगी भी है ही, किंतु जब मैं "मैं सोचता हूँ", "मैं प्रेम / घृणा / चिन्ता / लोभ / इच्छा / क्रोध करता हूँ " जैसे वाक्य कहता हूँ तो एक बुनियादी भूल की ओर मेरा ध्यान नहीं जाता । वह यह कि ये चीज़ें मुझे / मुझमें ’होती’ हैं और मैं बस 'जानता' भर हूँ कि वे 'वहाँ' / मेरे ’मन-मस्तिष्क-हृदय’ के अन्तर्गत एक गतिविधि के रूप में व्यक्त और विलीन हो रही हैं । किंतु मेरा इस बुनियादी भूल की ओर ध्यान नहीं जाता । इसका एक कारण है ’मैं’ शब्द का प्रयोग अलग अलग समय पर अलग अलग चीज़ों के लिए किए जाने का मेरा अभ्यास जो आदत बन जाता है । व्यावहारिक धरातल पर अपने शरीर और उससे संबंधित गतिविधियों के लिए संकेत-रूप में ’मैं’ कहा जाना व्यवहार को आसान और सुचारु बनाता है, किंतु इस शरीर से संबद्ध ’मन-मस्तिष्क-हृदय’ के अन्तर्गत ’होनेवाली’ गतिविधियों को ’मैं’ पर आरोपित कर बैठना एक भूल / भ्रम है ।
अब प्रश्न यह है कि क्या मेरा ’जानना’ ही वह एकमात्र आधार नहीं जो इस सब को प्रमाणित करता है? क्या वह ’जानना’ इनमें से कोई वस्तु या इनका कुल जोड़ है? इस ’जानने’ को ’जाननेवाला’ ही क्या मैं नहीं ? क्या वह ’जानना’ कल्पना या विचार भर है ? कल्पना तथा विचार तो आते-जाते हैं । क्या जानना आता-जाता है ?
स्पष्ट है कि यह ’होना’ तथा ’जानना’ दोनों परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
’विचार’ ही उनके परस्पर भिन्न होने की कल्पना जगाता है ।
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