नाडी-सूत्र
(Gravitational-Vibrations / Waves).
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गुरुकुल में रहते हुए उसे आश्चर्य होता था कि कोई भी छात्र किसी भी कक्षा में कभी भी जाकर बैठ सकता था, कितु इसके लिए उसे आचार्य से आज्ञा लेनी होती थी और कक्षा प्रारंभ होने से संपन्न हो जाने तक वह कक्षा छोड़ नहीं सकता था ।
हाँ आचार्य ही अगर कह दें तो उसे न चाहते हुए भी कक्षा छोडनी होती थी । ऐसे ही एक दिन उसने उस कक्षा में बैठना चाहा जिसमें नाडी-विज्ञान (Science of Pulse) की शिक्षा दी जाती थी ।
"नाड्यः तिस्रः।
आद्या मध्या अन्त्या च ।"
आचार्य ने प्रारंभ किया ।
"यथा हि पुरुषे तथा हि जीवे, यथा हि जीवे तथा च स्थूले, सूक्ष्मे वा कारणेऽपि ॥"
नाडियाँ तीन होती हैं, आदि, मध्य और अन्त्य ।
जैसे मनुष्य में वैसे ही अन्य सभी जीवों में, जैसे अन्य सभी जीवों में वैसे ही स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत् में ।
"कारणे ब्रह्मा विष्णु शङ्कररूपाः ।
सूक्ष्मे सत्व-रज-तमसा गुणरूपा ।
स्थूले व्यक्ते जगति स्पन्दरूपाः ।"
कारणरूप जगत् में वे ब्रह्मा विष्णु तथा शङ्करात्मक हैं ।
सूक्ष्मजगत् में मनो-चित्त-बुद्धि-अहं के जगत् में गुणरूप में, तथा व्यक्त स्थूल जगत् में स्पन्दन के रूप में होती हैं ।
यह स्पन्दन पुनः द्रव्य-रूप (material), आवेश-रूप (electric-charge)तथा बलरूप (force) में होता है ।
द्रव्य-रूप में यह इन्द्रियगम्य है, आवेश-रूप में बुद्धिगम्य है और बलरूप में कार्यगम्य है ।
आकाश द्रव्य होने से इन्द्रियगम्य है, विद्युत् आवेश-रूप होने से बुद्धिगम्य तथा कार्य बलरूप होने से प्रभावगम्य है ।
काल का निश्चय परिणाम से होता है इसलिए काल अनुमेय / अनुमानगम्य है ।
नाडी के तीनों प्रकार इन विभिन्न रूपों में व्यक्त-अव्यक्त, अव्यक्त-व्यक्त होकर स्पन्द में रहते हैं ।
काल के अन्तर्गत उनका आदि और अन्त नहीं जाना जा सकता किंतु मध्य अर्थात् वर्तमान क्षण जिसे मापा भी नहीं जा सकता उस बल-युग्म की तरह व्यक्त हो रहे स्पन्द का संतुलन-केन्द्र (fulcrum) और घूर्णन-अक्ष होता है ।
यह चूँकि एक ही ज्यामितीय समतल तल पर अवस्थित होता है इसलिए नाडी-यन्त्र / घटिका-यन्त्र (clock) के संतुलन-चक्र (balancing-wheel) की तरह अपने लोक की संपूर्ण गतिविधि को प्रारंभ, नियंत्रित, संचालित, और गतिशील या स्थिर करता है ।
व्यक्त तारा, सूर्य, चंद्र तथा नक्षत्र मंडल में इसी से आवृत्ति / अनुवृत्ति निर्धारित होते हैं । भूमि पर स्थित किसी स्थान से देखने पर अन्य ग्रह जो दृक्-ज्योतिष में भ-चक्र या राशि-चक्र में परिभ्रमण करते दिखाई देते हैं, इसी स्पन्द की मूल आवृत्ति के अनुसार आदि मध्य और अन्त्य नाडी की गति से भिन्न-भिन्न गतियाँ प्राप्त करते हैं ।
आज का अध्याय पूर्ण हुआ ।
जैसा कि पूर्वनिर्धारित क्रम था, सभी छात्रों ने मिलकर परस्पर एक-दूसरे की सहायता से संपूर्ण अध्याय को यथावत् अपनी अपनी पञ्जिका में यथावत् लिख लिया ।
उस दिन इसके बाद कक्षा समाप्त हो गई ।
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रात्रि में वह आकाश में देखकर विभिन्न राशियों को पहचानने का यत्न कर रहा था । अब उसे स्पष्ट हो गया था कि भ-चक्र में चंद्र का उसकी गति से एक परिभ्रमण लगभग चार सप्ताह में पूर्ण होता है । कुछ दिनों बाद उसे कुछ ऐसे आकाशीय पिण्ड दृष्टिगोचर हुए जो चंद्र की ही तरह भचक्र में तारों की राशि के समूह को एक-एक कर क्रमशः पार करते हुए अन्ततः पुनः पहले राशि-समूह पर आ जाते थे । उसे ऐसा भी प्रतीत हुआ कि तारों की राशि-समूह में स्थित ज्योति-पुञ्ज उस एक ही आकृति-विशेष में स्थिर थे जिससे न तो आकृति में और न उनकी स्थिति में ही कोई परिवर्तन होता हुआ दिखाई देता था । लगभग प्रतिदिन ही वह इस प्रकार से रात्रि के आकाश का निरीक्षण करने लगा था । सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय भी वह संध्योपासन के पूर्व या पश्चात् सूर्य किस राशि-समूह में है इसका अनुमान लगाने लगा था । चंद्र के बारह परिभ्रमण हो जाने के बाद उसने देखा कि सूर्य पुनः उस राशि पर आ गया है । किन्तु अब उसने अनुमान लगाया कि चन्द्र के भ-चक्र के एक पूर्ण परिभ्रमण में सूर्य केवल एक ही राशि को लाँघता है । क्या इसका अर्थ यह हुआ कि उन राशि समूहों की कुल गणना बारह ही है? और क्या चन्द्र, सूर्य और राशियाँ सदा इसी क्रम से गतिशील रहते हैं ? तब उसने यह पता लगाने का यत्न किया कि क्या राशियाँ भी चन्द्र और सूर्य की तरह उदित और अस्त होती हैं ऐसा कहा जा सकता है?
कुछ मास बीत जाने पर उसे अनुभव हुआ कि समूचा भ-चक्र वस्तुतः उस बल-युग्म से स्पन्दित है जिसके कारण भ-चक्र (Zodiac) एक अक्ष के दोनों ओर दोलायमान (oscillating) रहता है । जब सूर्य उस अक्ष के उत्तर में एक सीमा तक जाकर लौट आता है और इसके पश्चात् उस अक्ष के दक्षिण में एक सीमा तक जाकर इसी प्रकार लौट आता है । जैसा कि स्वाभाविक भी था, उसे यह समझने में वर्षों लग गए कि यह सारा क्रम इतना सुनिश्चित है कि इसके बारे में गणना द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और उसकी सत्यता की परीक्षा भी की जा सकती है ।
इस सारे अन्तराल में उसने अनेक सूर्य-ग्रहण और चंद्र-ग्रहण भी आकाश में देखे और उस ’अक्ष’ का स्थान आकाश में कल्पित किया जिसके दोनों ओर भ-चक्र दोलायमान रहता है । किन्तु उसे चंद्र-ग्रहण और सूर्य-ग्रहण क्या है, क्यों और कैसे होता है इस बारे में बतलानेवाला कोई न था ।
आचार्य ने इसके बाद इस ज्ञान की शिक्षा कभी न दी ।
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नाडी-सूत्र-2.
(Gravitational-Vibrations / Waves)
भयात् और भभोग
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(Gravitational-Vibrations / Waves).
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गुरुकुल में रहते हुए उसे आश्चर्य होता था कि कोई भी छात्र किसी भी कक्षा में कभी भी जाकर बैठ सकता था, कितु इसके लिए उसे आचार्य से आज्ञा लेनी होती थी और कक्षा प्रारंभ होने से संपन्न हो जाने तक वह कक्षा छोड़ नहीं सकता था ।
हाँ आचार्य ही अगर कह दें तो उसे न चाहते हुए भी कक्षा छोडनी होती थी । ऐसे ही एक दिन उसने उस कक्षा में बैठना चाहा जिसमें नाडी-विज्ञान (Science of Pulse) की शिक्षा दी जाती थी ।
"नाड्यः तिस्रः।
आद्या मध्या अन्त्या च ।"
आचार्य ने प्रारंभ किया ।
"यथा हि पुरुषे तथा हि जीवे, यथा हि जीवे तथा च स्थूले, सूक्ष्मे वा कारणेऽपि ॥"
नाडियाँ तीन होती हैं, आदि, मध्य और अन्त्य ।
जैसे मनुष्य में वैसे ही अन्य सभी जीवों में, जैसे अन्य सभी जीवों में वैसे ही स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत् में ।
"कारणे ब्रह्मा विष्णु शङ्कररूपाः ।
सूक्ष्मे सत्व-रज-तमसा गुणरूपा ।
स्थूले व्यक्ते जगति स्पन्दरूपाः ।"
कारणरूप जगत् में वे ब्रह्मा विष्णु तथा शङ्करात्मक हैं ।
सूक्ष्मजगत् में मनो-चित्त-बुद्धि-अहं के जगत् में गुणरूप में, तथा व्यक्त स्थूल जगत् में स्पन्दन के रूप में होती हैं ।
यह स्पन्दन पुनः द्रव्य-रूप (material), आवेश-रूप (electric-charge)तथा बलरूप (force) में होता है ।
द्रव्य-रूप में यह इन्द्रियगम्य है, आवेश-रूप में बुद्धिगम्य है और बलरूप में कार्यगम्य है ।
आकाश द्रव्य होने से इन्द्रियगम्य है, विद्युत् आवेश-रूप होने से बुद्धिगम्य तथा कार्य बलरूप होने से प्रभावगम्य है ।
काल का निश्चय परिणाम से होता है इसलिए काल अनुमेय / अनुमानगम्य है ।
नाडी के तीनों प्रकार इन विभिन्न रूपों में व्यक्त-अव्यक्त, अव्यक्त-व्यक्त होकर स्पन्द में रहते हैं ।
काल के अन्तर्गत उनका आदि और अन्त नहीं जाना जा सकता किंतु मध्य अर्थात् वर्तमान क्षण जिसे मापा भी नहीं जा सकता उस बल-युग्म की तरह व्यक्त हो रहे स्पन्द का संतुलन-केन्द्र (fulcrum) और घूर्णन-अक्ष होता है ।
यह चूँकि एक ही ज्यामितीय समतल तल पर अवस्थित होता है इसलिए नाडी-यन्त्र / घटिका-यन्त्र (clock) के संतुलन-चक्र (balancing-wheel) की तरह अपने लोक की संपूर्ण गतिविधि को प्रारंभ, नियंत्रित, संचालित, और गतिशील या स्थिर करता है ।
व्यक्त तारा, सूर्य, चंद्र तथा नक्षत्र मंडल में इसी से आवृत्ति / अनुवृत्ति निर्धारित होते हैं । भूमि पर स्थित किसी स्थान से देखने पर अन्य ग्रह जो दृक्-ज्योतिष में भ-चक्र या राशि-चक्र में परिभ्रमण करते दिखाई देते हैं, इसी स्पन्द की मूल आवृत्ति के अनुसार आदि मध्य और अन्त्य नाडी की गति से भिन्न-भिन्न गतियाँ प्राप्त करते हैं ।
आज का अध्याय पूर्ण हुआ ।
जैसा कि पूर्वनिर्धारित क्रम था, सभी छात्रों ने मिलकर परस्पर एक-दूसरे की सहायता से संपूर्ण अध्याय को यथावत् अपनी अपनी पञ्जिका में यथावत् लिख लिया ।
उस दिन इसके बाद कक्षा समाप्त हो गई ।
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रात्रि में वह आकाश में देखकर विभिन्न राशियों को पहचानने का यत्न कर रहा था । अब उसे स्पष्ट हो गया था कि भ-चक्र में चंद्र का उसकी गति से एक परिभ्रमण लगभग चार सप्ताह में पूर्ण होता है । कुछ दिनों बाद उसे कुछ ऐसे आकाशीय पिण्ड दृष्टिगोचर हुए जो चंद्र की ही तरह भचक्र में तारों की राशि के समूह को एक-एक कर क्रमशः पार करते हुए अन्ततः पुनः पहले राशि-समूह पर आ जाते थे । उसे ऐसा भी प्रतीत हुआ कि तारों की राशि-समूह में स्थित ज्योति-पुञ्ज उस एक ही आकृति-विशेष में स्थिर थे जिससे न तो आकृति में और न उनकी स्थिति में ही कोई परिवर्तन होता हुआ दिखाई देता था । लगभग प्रतिदिन ही वह इस प्रकार से रात्रि के आकाश का निरीक्षण करने लगा था । सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय भी वह संध्योपासन के पूर्व या पश्चात् सूर्य किस राशि-समूह में है इसका अनुमान लगाने लगा था । चंद्र के बारह परिभ्रमण हो जाने के बाद उसने देखा कि सूर्य पुनः उस राशि पर आ गया है । किन्तु अब उसने अनुमान लगाया कि चन्द्र के भ-चक्र के एक पूर्ण परिभ्रमण में सूर्य केवल एक ही राशि को लाँघता है । क्या इसका अर्थ यह हुआ कि उन राशि समूहों की कुल गणना बारह ही है? और क्या चन्द्र, सूर्य और राशियाँ सदा इसी क्रम से गतिशील रहते हैं ? तब उसने यह पता लगाने का यत्न किया कि क्या राशियाँ भी चन्द्र और सूर्य की तरह उदित और अस्त होती हैं ऐसा कहा जा सकता है?
कुछ मास बीत जाने पर उसे अनुभव हुआ कि समूचा भ-चक्र वस्तुतः उस बल-युग्म से स्पन्दित है जिसके कारण भ-चक्र (Zodiac) एक अक्ष के दोनों ओर दोलायमान (oscillating) रहता है । जब सूर्य उस अक्ष के उत्तर में एक सीमा तक जाकर लौट आता है और इसके पश्चात् उस अक्ष के दक्षिण में एक सीमा तक जाकर इसी प्रकार लौट आता है । जैसा कि स्वाभाविक भी था, उसे यह समझने में वर्षों लग गए कि यह सारा क्रम इतना सुनिश्चित है कि इसके बारे में गणना द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और उसकी सत्यता की परीक्षा भी की जा सकती है ।
इस सारे अन्तराल में उसने अनेक सूर्य-ग्रहण और चंद्र-ग्रहण भी आकाश में देखे और उस ’अक्ष’ का स्थान आकाश में कल्पित किया जिसके दोनों ओर भ-चक्र दोलायमान रहता है । किन्तु उसे चंद्र-ग्रहण और सूर्य-ग्रहण क्या है, क्यों और कैसे होता है इस बारे में बतलानेवाला कोई न था ।
आचार्य ने इसके बाद इस ज्ञान की शिक्षा कभी न दी ।
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(Gravitational-Vibrations / Waves)
भयात् और भभोग
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