नाडी-सूत्र -6.
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द्युम्न, आम्न, हव्य और कव्य
(धौम्यदेव / द्युम्न देव, / Duamotef , आम्नदेव, Amset, हव्यदेव, Hapi, कव्यदेव Kebhsenuf)
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गुरुकुल में कुछ सहपाठी लौकिक-धर्म के पालन के लिए सहायक वेद-विहित कर्म-काण्ड की शिक्षा भी ग्रहण करते थे और प्रायः आचार्य की आज्ञा / आदेश होने पर उसे गुरुकुल से शिक्षा पूर्ण कर घर जाने के बाद कुल परंपरा के अनुसार प्राप्त पौरोहित्य कर्म करते हुए गृहस्थ-धर्म का सुचारु निर्वाह के लिए सहायक आजीविका के रूप में भी करते थे । गुरुकुल में उनके पिता उन्हें इसी उद्देश्य से भेजते थे कि श्रुति और स्मृति में कुछ विशिष्ट यज्ञों आदि का अनुष्ठान विधिपूर्वक कैसे किया जाए इस विषय में वे दक्ष और प्रवीण हो जाएँ । उनमें से भी जब कोई देवताओं के आह्वान में पर्याप्त कुशल हो जाता था तो आचार्य प्रायः उसे गृहस्थ आश्रम से उसके शीघ्र निवृत्त हो जाने की संभावना पर विचार करते थे । और तब वे उसके जन्म-समय का चक्र निर्माण कर उसके चंद्र के उस चक्र में राशि तथा नक्षत्र के भयात् और भभोग का निर्धारण कर उसके भावी जीवन (प्रारब्ध) को देखकर उसए पिता को इस विषय में अनुकूल संमति देते थे । प्रायः उसके पिता आचार्य की संमति को मान्य कर लेते थे, किंतु कुछ ऐसे भी थे जो विनम्रतापूर्वक आचार्य की संमति को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता अनुभव करते थे । तब आचार्य किसी दूसरे आचार्य से मंत्रणा कर इस बारे में अपना अंतिम विचार उस पिता के समक्ष रखते ।
इस कर्म-काण्ड की शिक्षा में उन सभी आवश्यक वेद-मंत्रों के सस्वर शुद्ध पाठ सहित सिद्धान्त का भी अध्ययन किया जाता था ।
जब वह किसी ऐसी कक्षा को संचालित होते देखता तो उसके मनोनेत्रों के समक्ष अपने उस पूर्व जन्म की स्मृति साकार हो उठती जब वह इसी या शायद किसी अन्य भू-लोक (भव्यलोकं / Babylon ) में रहा करता था । किसी राजा के परिवार में किसी की मृत्यु होनेवाली हो तो कुछ पुरोहित वहाँ जाते ताकि राजा के परिवार के उस व्यक्ति के सुखी मरणोत्तर जीवन के लिए अनुष्ठान कर सकें । अब उसे लगता था कि वे सब यद्यपि तंत्रसंमत स्थूल से सूक्ष्म तक के मार्ग को प्रकाशित करनेवाले कर्म-काण्ड थे, किंतु ’उस’ लोक में रहनेवालों के लिए यही वेद-विहित भी था । उन अवर्णों के लिए संभव नहीं था कि वे वेद-भाषा को सुन-समझ सकें किंतु मरणोत्तर जीवन और स्वर्ग की कामना से वे अपने मृतकों के लिए ऐसे कर्म-काण्ड का यथाशक्ति अनुष्ठान करते थे । वे विभिन्न वैदिक देवताओं से अविधिपूर्वक भी इस हेतु पुरोहितों द्वारा की जानेवाली प्रार्थना आदि के लिए उन्हें पर्याप्त द्रव्य-दक्षिणा देते थे । पुरोहित भी प्रायः लोभरहित होकर निष्काम भाव से इन कर्म-काण्डों का अनुष्ठान करते थे, क्योंकि उन्हें इस बारे में कोई संदेह नहीं होता था ।
मृतक की देह को स्वच्छ कर उसकी देह से नासिका के छिद्रों से नली के द्वारा उसके मस्तिष्क का वह अंश जो मृत्यु के बाद सड़-गल जाता है, निकाल लिया जाता था । उसके फ़ुफ़्फ़ुसों, यकृत, आंत्र-तंत्र, प्लीहा, इन चारों को सावधानीपूर्वक बाहर निकालकर अलग अलग मृद्भाण्डों (मर्तबान) में रखा जाता था, जिस पर मिट्टी का ही ढक्कन होता था । उस पात्र पर मनुष्य (Human), कपि (Baboon), शृगाल (jackal) या गरुड (Falcon) का चिह्न या आकृति उत्कीर्ण होती थी । ये उन चार सुरपुत्रों के नाम थे जिन्हें वे ’होरुस’ के पुत्र कहते थे । ये चार सुरपुत्र क्रमशः द्युम्नदेव, आम्नदेव, हव्यदेव और कव्यदेव के नाम से जाने जाते थे । उनकी शक्तियाँ भी चार थीं और इस प्रकार वे ’उस’ लोक की आठ दिशाओं के लोकपाल थे । यह सब उन लोगों को विस्तार से नहीं ज्ञात था इसलिए उस लोक को अवज्ञप्ति (Egypt) भी कहा जाता था ।
उसे यह सब सोचकर आश्चर्य होता था कि यह सब उसकी कल्पना है, या वास्तव में ऐसा किसी काल में कहीं होता है?
पुरा-कथा और पुराणकथाएँ असंख्य हैं उसे इस बारे में संशय न था । असंख्य जीवों का अपना एक ’लोक’, एक पुरा-कथा और एक पुराण कथा होती है । कोई अपने ही अस्तित्व के किसी काल-खण्ड में किसी भी दूसरे काल-खण्ड का, उसमें स्थित अनंत लोक-व्यवहार, घटनाओं का विस्तार से अवलोकन कर सकता है किंतु कोई यह कभी नहीं जान सकता कि उन काल-खण्डों में जिन्हें वह देख रहा है, उनकी अपनी पुरा या पुराण-कथा क्या है ! वह निश्चयपूर्वक इस जगत् के किसी भी काल-खण्ड का ऐसा चित्र नहीं बना सकता जो ’सबके लिए’ समान रूप से उनका अपना अनुभव हो ।
यह सब सोचकर उसे विस्मय तो होता था किंतु वह इनसे मोहित या प्रभावित कदापि नहीं होता था ।
वे उस मृतक के शरीर को पूरी तरह सुखाकर उसमें नृप्त्र-सार (नाइटर-कार्ब / niter-carbonate ) भर देते, देह पर मोम की परतें चढ़ा देते और मुख पर एक मुखावरण ताकि उसकी उस वैयक्तिक पहचान को सुरक्षित रखा जा सके, जिसकी स्मृति उसके मस्तिष्क-सार के साथ बाहर यथासंभव बहुत दूर फेंक दी गई थी, -प्रायः समुद्र में जहाँ से अन्ततः वह नृप्त्र-सार (नाइटर-कार्ब / niter -carbonate ) लाया गया था । इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाता था कि वे देवता उसे स्वर्गारोहण में सहायक होंगे । इसके बाद बहुत से शकुन-चिह्न, मृतक के शव के साथ रख दिये जाते थे । कुछ राजा यद्यपि अपने मृतक के साथ दास-दासियों को भी उस पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid) में उसके साथ बंद कर देते थे जो संभवतः उन दास-दासियों के लिए भी एक सर्वोत्तम विकल्प होता था ।
अंतिम समय में पुरोहित अभिमंत्रित कज्जल अपनी आँखों में आँजता और फिर शेष सब भी क्रमशः अपनी-अपनी आँखों में । तब वह होरुसपुत्र (Son of Horus) उस देवता का आवाहन करता और देवता अपने वाहन पर दृश्य-रूप में अवतरित होते दिखलाई देते । एक सीढ़ी धरती से उठती हुई ऊपर आकाश में जाकर अदृश्य होती हुई दिखलाई देती, जिस पर मृतक एक-एक कदम चढ़ता हुआ अन्ततः अदृश्य हो जाता, उसके आगे-पीछे वे दास-दासी भी । वह देवता, वह सीढ़ी, वे दास-दासी, वह मृतक सब किसी स्वप्न से विलीन हो जाते । तब पुरोहित और सभी अन्य उस पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid ) के एकमात्र द्वार से बाहर आ जाते, पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid ) का द्वार दृढ शिला से बंद कर दिया जाता । हाँ वे दास-दासी अवश्य ही मृतक के साथ वहाँ रह जाते, जिन्होंने इससे पहले कितनी ही बार दूसरे मृतकों के अंतिम संस्कार को देखा था और यह भी देखा था कि साथ जानेवाले दास-दासी सीढ़ी चढ़ते समय कितने असहाय किंतु सहज दिखलाई देते थे ।
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द्युम्न, आम्न, हव्य और कव्य
(धौम्यदेव / द्युम्न देव, / Duamotef , आम्नदेव, Amset, हव्यदेव, Hapi, कव्यदेव Kebhsenuf)
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गुरुकुल में कुछ सहपाठी लौकिक-धर्म के पालन के लिए सहायक वेद-विहित कर्म-काण्ड की शिक्षा भी ग्रहण करते थे और प्रायः आचार्य की आज्ञा / आदेश होने पर उसे गुरुकुल से शिक्षा पूर्ण कर घर जाने के बाद कुल परंपरा के अनुसार प्राप्त पौरोहित्य कर्म करते हुए गृहस्थ-धर्म का सुचारु निर्वाह के लिए सहायक आजीविका के रूप में भी करते थे । गुरुकुल में उनके पिता उन्हें इसी उद्देश्य से भेजते थे कि श्रुति और स्मृति में कुछ विशिष्ट यज्ञों आदि का अनुष्ठान विधिपूर्वक कैसे किया जाए इस विषय में वे दक्ष और प्रवीण हो जाएँ । उनमें से भी जब कोई देवताओं के आह्वान में पर्याप्त कुशल हो जाता था तो आचार्य प्रायः उसे गृहस्थ आश्रम से उसके शीघ्र निवृत्त हो जाने की संभावना पर विचार करते थे । और तब वे उसके जन्म-समय का चक्र निर्माण कर उसके चंद्र के उस चक्र में राशि तथा नक्षत्र के भयात् और भभोग का निर्धारण कर उसके भावी जीवन (प्रारब्ध) को देखकर उसए पिता को इस विषय में अनुकूल संमति देते थे । प्रायः उसके पिता आचार्य की संमति को मान्य कर लेते थे, किंतु कुछ ऐसे भी थे जो विनम्रतापूर्वक आचार्य की संमति को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता अनुभव करते थे । तब आचार्य किसी दूसरे आचार्य से मंत्रणा कर इस बारे में अपना अंतिम विचार उस पिता के समक्ष रखते ।
इस कर्म-काण्ड की शिक्षा में उन सभी आवश्यक वेद-मंत्रों के सस्वर शुद्ध पाठ सहित सिद्धान्त का भी अध्ययन किया जाता था ।
जब वह किसी ऐसी कक्षा को संचालित होते देखता तो उसके मनोनेत्रों के समक्ष अपने उस पूर्व जन्म की स्मृति साकार हो उठती जब वह इसी या शायद किसी अन्य भू-लोक (भव्यलोकं / Babylon ) में रहा करता था । किसी राजा के परिवार में किसी की मृत्यु होनेवाली हो तो कुछ पुरोहित वहाँ जाते ताकि राजा के परिवार के उस व्यक्ति के सुखी मरणोत्तर जीवन के लिए अनुष्ठान कर सकें । अब उसे लगता था कि वे सब यद्यपि तंत्रसंमत स्थूल से सूक्ष्म तक के मार्ग को प्रकाशित करनेवाले कर्म-काण्ड थे, किंतु ’उस’ लोक में रहनेवालों के लिए यही वेद-विहित भी था । उन अवर्णों के लिए संभव नहीं था कि वे वेद-भाषा को सुन-समझ सकें किंतु मरणोत्तर जीवन और स्वर्ग की कामना से वे अपने मृतकों के लिए ऐसे कर्म-काण्ड का यथाशक्ति अनुष्ठान करते थे । वे विभिन्न वैदिक देवताओं से अविधिपूर्वक भी इस हेतु पुरोहितों द्वारा की जानेवाली प्रार्थना आदि के लिए उन्हें पर्याप्त द्रव्य-दक्षिणा देते थे । पुरोहित भी प्रायः लोभरहित होकर निष्काम भाव से इन कर्म-काण्डों का अनुष्ठान करते थे, क्योंकि उन्हें इस बारे में कोई संदेह नहीं होता था ।
मृतक की देह को स्वच्छ कर उसकी देह से नासिका के छिद्रों से नली के द्वारा उसके मस्तिष्क का वह अंश जो मृत्यु के बाद सड़-गल जाता है, निकाल लिया जाता था । उसके फ़ुफ़्फ़ुसों, यकृत, आंत्र-तंत्र, प्लीहा, इन चारों को सावधानीपूर्वक बाहर निकालकर अलग अलग मृद्भाण्डों (मर्तबान) में रखा जाता था, जिस पर मिट्टी का ही ढक्कन होता था । उस पात्र पर मनुष्य (Human), कपि (Baboon), शृगाल (jackal) या गरुड (Falcon) का चिह्न या आकृति उत्कीर्ण होती थी । ये उन चार सुरपुत्रों के नाम थे जिन्हें वे ’होरुस’ के पुत्र कहते थे । ये चार सुरपुत्र क्रमशः द्युम्नदेव, आम्नदेव, हव्यदेव और कव्यदेव के नाम से जाने जाते थे । उनकी शक्तियाँ भी चार थीं और इस प्रकार वे ’उस’ लोक की आठ दिशाओं के लोकपाल थे । यह सब उन लोगों को विस्तार से नहीं ज्ञात था इसलिए उस लोक को अवज्ञप्ति (Egypt) भी कहा जाता था ।
उसे यह सब सोचकर आश्चर्य होता था कि यह सब उसकी कल्पना है, या वास्तव में ऐसा किसी काल में कहीं होता है?
पुरा-कथा और पुराणकथाएँ असंख्य हैं उसे इस बारे में संशय न था । असंख्य जीवों का अपना एक ’लोक’, एक पुरा-कथा और एक पुराण कथा होती है । कोई अपने ही अस्तित्व के किसी काल-खण्ड में किसी भी दूसरे काल-खण्ड का, उसमें स्थित अनंत लोक-व्यवहार, घटनाओं का विस्तार से अवलोकन कर सकता है किंतु कोई यह कभी नहीं जान सकता कि उन काल-खण्डों में जिन्हें वह देख रहा है, उनकी अपनी पुरा या पुराण-कथा क्या है ! वह निश्चयपूर्वक इस जगत् के किसी भी काल-खण्ड का ऐसा चित्र नहीं बना सकता जो ’सबके लिए’ समान रूप से उनका अपना अनुभव हो ।
यह सब सोचकर उसे विस्मय तो होता था किंतु वह इनसे मोहित या प्रभावित कदापि नहीं होता था ।
वे उस मृतक के शरीर को पूरी तरह सुखाकर उसमें नृप्त्र-सार (नाइटर-कार्ब / niter-carbonate ) भर देते, देह पर मोम की परतें चढ़ा देते और मुख पर एक मुखावरण ताकि उसकी उस वैयक्तिक पहचान को सुरक्षित रखा जा सके, जिसकी स्मृति उसके मस्तिष्क-सार के साथ बाहर यथासंभव बहुत दूर फेंक दी गई थी, -प्रायः समुद्र में जहाँ से अन्ततः वह नृप्त्र-सार (नाइटर-कार्ब / niter -carbonate ) लाया गया था । इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाता था कि वे देवता उसे स्वर्गारोहण में सहायक होंगे । इसके बाद बहुत से शकुन-चिह्न, मृतक के शव के साथ रख दिये जाते थे । कुछ राजा यद्यपि अपने मृतक के साथ दास-दासियों को भी उस पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid) में उसके साथ बंद कर देते थे जो संभवतः उन दास-दासियों के लिए भी एक सर्वोत्तम विकल्प होता था ।
अंतिम समय में पुरोहित अभिमंत्रित कज्जल अपनी आँखों में आँजता और फिर शेष सब भी क्रमशः अपनी-अपनी आँखों में । तब वह होरुसपुत्र (Son of Horus) उस देवता का आवाहन करता और देवता अपने वाहन पर दृश्य-रूप में अवतरित होते दिखलाई देते । एक सीढ़ी धरती से उठती हुई ऊपर आकाश में जाकर अदृश्य होती हुई दिखलाई देती, जिस पर मृतक एक-एक कदम चढ़ता हुआ अन्ततः अदृश्य हो जाता, उसके आगे-पीछे वे दास-दासी भी । वह देवता, वह सीढ़ी, वे दास-दासी, वह मृतक सब किसी स्वप्न से विलीन हो जाते । तब पुरोहित और सभी अन्य उस पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid ) के एकमात्र द्वार से बाहर आ जाते, पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid ) का द्वार दृढ शिला से बंद कर दिया जाता । हाँ वे दास-दासी अवश्य ही मृतक के साथ वहाँ रह जाते, जिन्होंने इससे पहले कितनी ही बार दूसरे मृतकों के अंतिम संस्कार को देखा था और यह भी देखा था कि साथ जानेवाले दास-दासी सीढ़ी चढ़ते समय कितने असहाय किंतु सहज दिखलाई देते थे ।
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