लघुसिद्धान्तकौमुद्याम्
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अच्सन्धिप्रकरणम्
25. अदेङ्गुणसंज्ञः ।
(अष्टाध्यायी 1/1/2 ॥)
अत् एङ् च गुणसंज्ञः स्यात् ।
तपरवर्णानां यथोक्तग्राहकत्वनियामकं सूत्रम्
26. तत्परस्तत्कालस्य ।
(अष्टाध्यायी 1/1/70 ॥)
तः परो यस्मात्स च, तात्परश्चोच्चर्यमणसमकालस्यैव संज्ञा स्यात् ।
गुणविधायकसूत्रम्
27. आद् गुणः ।
अवर्णादचि परे पूर्वपरयोरेको गुण आदेशः स्यात् ।
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laghusiddhāntakaumudyām
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acsandhiprakaraṇam
25. adeṅ-guṇasaṃjñaḥ |
(aṣṭādhyāyī 1/1/2 ||)
at eṅ ca guṇasaṃjñaḥ syāt |
taparavarṇānāṃ yathoktagrāhakatvaniyāmakaṃ sūtram
26. tatparastatkālasya |
(aṣṭādhyāyī 1/1/70 ||)
taḥ paro yasmātsa ca, tātparaścoccaryamaṇasamakālasyaiva saṃjñā syāt |
guṇavidhāyakasūtram
27. ād guṇaḥ |
avarṇādaci pare pūrvaparayoreko guṇa ādeśaḥ syāt |
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Notes :
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These three aphorisms in Laghu-Siddhāntakaumudī explain How Prakrit and Arabic, Roman and Greek evolved from the same Grammatical rules that aṣṭādhyāyī enumerates.
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'Alef' > Arabic turns into 'ye', 'u' in 'o' or even 'v', u-u into w (double-u),
क्रमसाम > chromosome > सोम > Soma (Moon) is the Governing Spirit that helps ओषधी / oShadhI .
thereby helping evolve Prakrit, Pali, and other spoken languages.
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क़ ख़ इति कखाभ्याम् प्रागर्द्धविसर्गसदृशो जिह्वामूलीय ।
प / प’ फ / फ’ इति पफाभ्याम् प्रागर्द्धविसर्गसदृशो उपध्मानीय ।
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यहाँ ध्यातव्य है कि क तथा ख के दो रूपों क़ तथा ख़ तथा प और के दो रूपों का उल्लेख पाया जाता है ।
सँस्कृत में ’ध्वनि-शास्त्र’ यही स्पष्ट करता है कि जहाँ क, ख, ग, के कण्ठ्य और जिह्वामूलीय रूप पाये जाते हैं (यद्यपि जिह्वामूलीय क़ , ख़ का प्रयोग प्रचलन में नहीं है), वहीं मुख बंद हो और खोलते समय, या खुला हो तो बंद करते हुए, इस प्रकार से प तथा फ का उच्चारण दो प्रकार से संभव है । तात्पर्य यह कि क, ख, प तथा फ, प्रत्येक के दो रूप हुए ।
लैटिन भाषा में फ़ 'f' का कोई स्थान नहीं है । इसी प्रकार अरबी भाषा में (तथा संभवतः फ़ारसी में भी) ’प’ / 'p' का स्थान नहीं है ।
पार्षदः > फ़रिश्तः जिसका अर्थ वही है जो सँस्कृत में और सँस्कृत-व्याकरण से व्युत्पत्ति से भी अवगम्य है ।
इसका एक कारण यह है कि उक्त भाषाओं का उद्गम्, प्रचलन और व्याकरण क्रमशः व्यावहारिक आधार पर तय हुए ।
किन्तु उपसर्ग तथा प्रत्यय का चलन उन्हीं नियमों से समझाया जा सकता है जिनसे संस्कृत में उनका व्याकरण-सम्मत प्रयोग है ।
अंग्रेज़ी और जर्मन भाषा के प्रत्यय तथा उपसर्ग स्पष्ट रूप से सँस्कृत के प्रत्ययों तथा उपसर्गों के अपभ्रंश हैं ।
तात्पर्य यह, कि भाषा कोई भी हो, ध्वनि-शास्त्र और परिस्थितियाँ ’व्याकरण’ सुनिश्चित करती हैं ।
संस्कृत का व्याकरण चूँकि मूलतः ध्वनि-शास्त्र का ही विकास और विस्तार है इसलिए संस्कृत एक ओर जहाँ साहित्य तथा व्यवहार की ’भाषा’ है, वहीं ’भाषा-शास्त्र’ / Philology भी है ।
’भार्या’> ’बाई’> ’बीवी’> वाइफ़ > wife, वाइब्लिश (जर्मन) weib-lish > ’त-वाइफ़ / ’त’वायफ़’ के क्रम से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कैसे उन सबका आधार ’ध्वनि-शास्त्र’ / ’फ़ोनेटिक्स’ है ।
इसे विलोम-क्रम से नहीं समझाया जा सकता क्योंकि ’भार्या’ शब्द की व्युत्पत्ति की संस्कृत के व्याकरण से पुष्टि की जा सकती है ।
संक्षेप में यही कि पी.आय.ई. / PIE नामक भाषा के प्रायोजित काल्पनिक सिद्धान्त की स्थापना / ’निर्माण’ इसी ध्येय से किया गया कि सँस्कृत को प्राचीन / मृत भाषा कहकर उसे मिटा ही दिया जाए ।
दुर्भाग्य या प्रमाद से हमारे सँस्कृत के अनेक विद्वान भी इस सिद्धान्त से अभिभूत हैं ।
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अच्सन्धिप्रकरणम्
25. अदेङ्गुणसंज्ञः ।
(अष्टाध्यायी 1/1/2 ॥)
अत् एङ् च गुणसंज्ञः स्यात् ।
तपरवर्णानां यथोक्तग्राहकत्वनियामकं सूत्रम्
26. तत्परस्तत्कालस्य ।
(अष्टाध्यायी 1/1/70 ॥)
तः परो यस्मात्स च, तात्परश्चोच्चर्यमणसमकालस्यैव संज्ञा स्यात् ।
गुणविधायकसूत्रम्
27. आद् गुणः ।
अवर्णादचि परे पूर्वपरयोरेको गुण आदेशः स्यात् ।
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laghusiddhāntakaumudyām
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acsandhiprakaraṇam
25. adeṅ-guṇasaṃjñaḥ |
(aṣṭādhyāyī 1/1/2 ||)
at eṅ ca guṇasaṃjñaḥ syāt |
taparavarṇānāṃ yathoktagrāhakatvaniyāmakaṃ sūtram
26. tatparastatkālasya |
(aṣṭādhyāyī 1/1/70 ||)
taḥ paro yasmātsa ca, tātparaścoccaryamaṇasamakālasyaiva saṃjñā syāt |
guṇavidhāyakasūtram
27. ād guṇaḥ |
avarṇādaci pare pūrvaparayoreko guṇa ādeśaḥ syāt |
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Notes :
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These three aphorisms in Laghu-Siddhāntakaumudī explain How Prakrit and Arabic, Roman and Greek evolved from the same Grammatical rules that aṣṭādhyāyī enumerates.
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'Alef' > Arabic turns into 'ye', 'u' in 'o' or even 'v', u-u into w (double-u),
क्रमसाम > chromosome > सोम > Soma (Moon) is the Governing Spirit that helps ओषधी / oShadhI .
thereby helping evolve Prakrit, Pali, and other spoken languages.
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क़ ख़ इति कखाभ्याम् प्रागर्द्धविसर्गसदृशो जिह्वामूलीय ।
प / प’ फ / फ’ इति पफाभ्याम् प्रागर्द्धविसर्गसदृशो उपध्मानीय ।
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यहाँ ध्यातव्य है कि क तथा ख के दो रूपों क़ तथा ख़ तथा प और के दो रूपों का उल्लेख पाया जाता है ।
सँस्कृत में ’ध्वनि-शास्त्र’ यही स्पष्ट करता है कि जहाँ क, ख, ग, के कण्ठ्य और जिह्वामूलीय रूप पाये जाते हैं (यद्यपि जिह्वामूलीय क़ , ख़ का प्रयोग प्रचलन में नहीं है), वहीं मुख बंद हो और खोलते समय, या खुला हो तो बंद करते हुए, इस प्रकार से प तथा फ का उच्चारण दो प्रकार से संभव है । तात्पर्य यह कि क, ख, प तथा फ, प्रत्येक के दो रूप हुए ।
लैटिन भाषा में फ़ 'f' का कोई स्थान नहीं है । इसी प्रकार अरबी भाषा में (तथा संभवतः फ़ारसी में भी) ’प’ / 'p' का स्थान नहीं है ।
पार्षदः > फ़रिश्तः जिसका अर्थ वही है जो सँस्कृत में और सँस्कृत-व्याकरण से व्युत्पत्ति से भी अवगम्य है ।
इसका एक कारण यह है कि उक्त भाषाओं का उद्गम्, प्रचलन और व्याकरण क्रमशः व्यावहारिक आधार पर तय हुए ।
किन्तु उपसर्ग तथा प्रत्यय का चलन उन्हीं नियमों से समझाया जा सकता है जिनसे संस्कृत में उनका व्याकरण-सम्मत प्रयोग है ।
अंग्रेज़ी और जर्मन भाषा के प्रत्यय तथा उपसर्ग स्पष्ट रूप से सँस्कृत के प्रत्ययों तथा उपसर्गों के अपभ्रंश हैं ।
तात्पर्य यह, कि भाषा कोई भी हो, ध्वनि-शास्त्र और परिस्थितियाँ ’व्याकरण’ सुनिश्चित करती हैं ।
संस्कृत का व्याकरण चूँकि मूलतः ध्वनि-शास्त्र का ही विकास और विस्तार है इसलिए संस्कृत एक ओर जहाँ साहित्य तथा व्यवहार की ’भाषा’ है, वहीं ’भाषा-शास्त्र’ / Philology भी है ।
’भार्या’> ’बाई’> ’बीवी’> वाइफ़ > wife, वाइब्लिश (जर्मन) weib-lish > ’त-वाइफ़ / ’त’वायफ़’ के क्रम से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कैसे उन सबका आधार ’ध्वनि-शास्त्र’ / ’फ़ोनेटिक्स’ है ।
इसे विलोम-क्रम से नहीं समझाया जा सकता क्योंकि ’भार्या’ शब्द की व्युत्पत्ति की संस्कृत के व्याकरण से पुष्टि की जा सकती है ।
संक्षेप में यही कि पी.आय.ई. / PIE नामक भाषा के प्रायोजित काल्पनिक सिद्धान्त की स्थापना / ’निर्माण’ इसी ध्येय से किया गया कि सँस्कृत को प्राचीन / मृत भाषा कहकर उसे मिटा ही दिया जाए ।
दुर्भाग्य या प्रमाद से हमारे सँस्कृत के अनेक विद्वान भी इस सिद्धान्त से अभिभूत हैं ।
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