Saturday, 5 March 2016

नाडी-सूत्र -5.

नाडी-सूत्र -5.
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चतुष्टयः
आज की कक्षा में आचार्य किस विषय का पाठ देंगे, उसे कल्पना न थी । किंतु उसे ऐसी अन्तःप्रेरणा हुई कि वह कक्षा में प्रविष्ट हो । आचार्य की कक्षाएँ ऐसी ही हुआ करती थीं । जिस दिन कक्षा होती, कक्षा से दो घडी पहले उसका सहपाठी तीन बार शंखनाद करता जिससे आसपास इधर-उधर गोत्र (गव्यूति) के क्षेत्र में जो भी छात्र हों जान सकें । शंखनाद के आह्वान को सुनकर उसे लगा कि उसे जाना होगा ।
जब वह पहुँचा तो आचार्य उसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे । चरण-स्पर्श कर वह अपने लिए स्थिर किए गए स्थान पर शान्तिपूर्वक सावधान बैठ गया ।
"नाड्याः तिस्रः ।... यथा हि पञ्चीकरणे पञ्चमहाभूतानि पञ्चसूक्ष्मभूतानि जनयन्ति तथा च तिस्रः ताः चत्वारि वर्णान्, प्रवृत्तीन्, पुरुषार्थान् च ।"
"नाडियाँ तीन होती हैं । जैसे पञ्चीकरण के प्रसंग में पाँच महाभूत पाँच स्थूल / सूक्ष्म भूतों की सृष्टि करते हैं अर्थात् जैसे प्रत्येक का एकार्ध अन्य चार के चतुर्थाँश से युक्त होकर क्रमशः स्थूल-सूक्ष्म जगत् की सृष्टि करता है, वैसे ही तीन (आदि, मध्य और अन्त्य) नाडी के स्पन्दन प्रत्येक का अर्ध शेष दो के चतुर्थाँश से युक्त होकर तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य) की सृष्टि करता है । पर्याय से इन तीन वर्णों के विषम संयोजन से ही मनुष्य पूर्व जन्म के अर्जित संस्कारों से अवर्ण तथा शूद्र वर्ण लेकर जन्म लेता है । किंतु जन्मान्तर में जहाँ कोई मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों और संस्कारों से किसी अन्य वर्ण में जन्म ले सकता है, वहीं इस जन्म में अवर्ण अथा शूद्र माता-पिता से जिसका जन्म हुआ हो वह भी अपने प्रारब्ध से द्विज वर्ण प्राप्त कर सकता है किंतु ऐसा द्विवर्ण द्विज वैदिक-धर्म से अनभिज्ञ होने से न तो उसके आचरण का अधिकारी होता है, न उसके लिए यह कर्तव्य या उत्तरदायित्व होता है ।...वास्तव में वेद उसके लिए इस विषय में कोई निर्देश नहीं देते ।"
मनुष्य की तीन मूल प्रवृत्तियाँ आहार, निद्रा तथा भय भी क्रमशः इसी प्रकार उत्पन्न होते हैं और आत्म-रक्षा रूपी प्रवृत्ति, - मृत्युभय के पुनः दो रूप होते हैं जो मूलतः तो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए होता है किंतु व्यवहार में धन, यश तथा पुत्र की कामना का रूप ले लेता है । अपने अस्तित्व को मनुष्य प्रत्यक्षतः भोग, निद्रा तथा नाम अर्थात् यश के रूप में अनुभव करता है और उनकी प्राप्ति और संवर्धन के लिए प्राण तक देने के लिए प्रवृत्त हो जाता है । किंतु शरीर जिस प्रक्रिया से अस्तित्व में आता है, अर्थात् माता-पिता के कामोपभोग के परिणाम से वह भी वस्तुतः संतानोत्पत्ति का कारक होने से अपने अस्तित्व की रक्षा और उसके विस्तार की एक अप्रत्यक्ष चेष्टा ही है जो मूलतः शरीर में ही नियोजित है । इस प्रकार प्रत्यक्षतः जीव / मनुष्य को आभास तो नहीं होता कि किस वास्तविक प्रयोजन के लिए उसका शरीर विपरीतलिंगीय सजातीय अपने जैसे किसी स्त्री या पुरुष की ओर आकर्षित होता है ।
इस तरह आहार (भोग), निद्रा तथा भय तीन ही शक्तियाँ मनुष्य को जीवन के लिए पर्याप्त होती हैं ।
किंतु किसी किसी मनुष्य में यह विचार होता है कि क्या मनुष्य जीवन का यही एकमात्र अर्थ है?
दूसरे शब्दों में वह ’पुरुषार्थ’ जिज्ञासु होता है । पुनः ’पुरुषार्थ’ चार होते हैं :
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ।
धर्म वह स्वाभाविक प्रवृत्ति है जिससे जीवन असंख्य रूपों आकृतियों में संचालित और गतिशील रहता है । अर्थात् वह ’बल’ आदि-नाडी जिससे सृष्टि का व्यापार प्रारंभ होता है ।
अर्थ और काम वह प्रवृत्ति है जो मध्य-नाडी से उद्भूत होती है ।
मोक्ष वह मुमुक्षा की प्रवृत्ति है जो आहार, निद्रा तथा भय की वृत्ति की व्यर्थता अनुभव होने पर, उनसे मन उचट जने पर किसी किसी में जागृत होती है । प्रायः आत्म-रक्षा अर्थात् पर्याय से काम-सुख या संतान के प्रति मोह का रूप ले लेने से अधिकाँश मनुष्य इतने परिपक्व नहीं होते और उनमें ऐसी मुमुक्षा की कल्पना तक नहीं होती । तीसरी अन्त्या नामक नाडी मनुष्य का इस अशाश्वत दुःखमय रोग-शोक-जरा-चिन्ता से पूर्ण व्यक्तिगत जीवन से उद्धार करती है और (संभवतः) वह एक नई यात्रा पर प्रस्थान करता है ।
प्रारब्धवश मनुष्य का जन्म यद्यपि किसी भी वर्ण में हुआ हो, माता-पिता के कुल से प्राप्त वर्ण एक औपचारिक प्राथमिकता होती है किंतु यदि मनुष्य के (सत्व, रज तथा तम) गुण तथा कर्म उस वर्ण के अनुकूल न हों या विपरीत हों तो भी उसमें विवेक, वैराग्य की न्यूनता होने से मुमुक्षा नहीं उठती ।    
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