नाडी-सूत्र -4.
umbra / penumbra.
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प्रातः के सूर्य को अर्घ्य देते समय उसने सुना :
"सूर्यो आत्मा जगतस्थः ॥"
क्षितिज पर उदित हो रहे सूर्य का अरुणाभ सिंदूरी प्रकाश पूर्व में संचरित हो रहा था ।
पूर्व दिशा भी है, काल भी है अर्थात् समग्र ’दिक्काल’ ।
सूर्य से पूर्व है । पूर्व से दिवस, रात्रि, याम और यामिनी / यमुना ।
याम दिवस का तथा रात्रि के कालमान का अष्टमांश अर्थात् प्रहर हुआ ।
यह अनुमेय ’काल’ है जो स्थान की तरह सापेक्ष है ।
यह उस चेतना के सन्दर्भ में है जो किसी देहधारी में प्राणों के संचरित होने पर व्यक्त हो उठती है ।
यह भी उतना ही सत्य है जितना कि इस चेतना के स्फुरण से ही प्राणों का संचार देह में होता है ।
जैसे दीपक के समक्ष रखी वस्तु की दीवाल पर पड़ रही छाया वस्तु और दीपक के आकार के अनुपात के अनुसार केवल छाया अथवा छाया और उपच्छाया इन दो रूपों में दिखाई देती है, वैसे ही चंद्र पर पड़नेवाला सूर्य का प्रकाश भूमि द्वारा बाधित किए जाने से चंद्र-ग्रहण होने के समय ग्रहण के दिखाई देनेवाले ’स्पर्श’ से पहले ही उपच्छाया (पेनम्ब्रा) चंद्र को ग्रस चुकी होती है । और छाया के द्वारा चंद्र को ’स्पर्श’ से छोड़े जाने के समय के बाद भी उसे ग्रस्त किए रहती है, वैसे ही मनुष्य के भीतर संचरित चेतना / प्राण उपच्छाया की भाँति मनुष्य को पूरे जीवन भर ग्रस्त रखते हैं ।
यदि सूर्य (आत्मा) बहुत बड़ा दीपक है, पृथ्वी (देह) उसके समक्ष रखी वस्तु और चंद्र (मन / बुद्धि/ चित्त / अहं) वह भित्ति / पर्दा है जिस पर प्रकाश (संज्ञा) और छाया (स्मृति) चंद्र-ग्रहण के द्योतक समझे जाएँ तो मनुष्य स्वरूपतः वही है जो सूर्य है ।
(योऽसावसौ पुरुषो सोऽहमस्मि... -ईशावास्य उपनिषद् )
उसे यह तुलना रुचिकर प्रतीत हुई । हाँ कवित्वपूर्ण भी अवश्य थी किंतु कल्पना मात्र न थी ।
गुरुत्वाकर्षण-तरंगों के संदर्भ में उसके चिंतन के अगले क्रम का सूत्र था वह रज्जु जिसमें उसने कुछ पत्थर बाँधकर कोई प्रयोग बचपन में कभी किया था ।
वे तो बस पत्थर थे । अगर (अग्रे) यदि सूर्य जगदात्मा है, और पृथ्वी की तरह गोलाकार खगोलीय आकाशीय पिण्ड है, तो अवश्य ही सारे अन्य पिण्ड सूर्य के चतुर्दिक् वैसे ही परिमण करते होंगे जैसे उस रज्जु में बँधे पत्थर रज्जु को घुमाने से करते हैं । तात्पर्यतः भ-चक्र में ऐसे अनेक सौर-मंडल होंगे. -शायद असंख्य!
अर्थात् यह भूमि अवश्य ही इस सूर्य के चारों ओर गोलीय कक्षा में परिभ्रमण करती है । यही कारण है कि ऋतुएँ क्रमशः सूर्य की भ-चक्रीय गति के साथ-साथ परिवर्तित होती हैं । और दिन-रात्रि तो इसलिए होते हैं क्योंकि पृथ्वी स्वयं भी अपने अक्ष के चारों ओर परिक्रमण कर रही है । उसे आश्चर्य हो रहा था कि क्या यह सब उसकी कल्पना-मात्र है? किंतु उसने इस विषय में कभी किसी से कुछ नहीं कहा ।
वह फिर छाया-उपछाच्या अम्बर / प्र-अम्बर (umbra / penumbra) के बारे में चिंतन करता हुआ इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वे सभी ग्रह-पिण्ड जो गुरुत्वाकर्षण रूपी रज्जु में बँधे सूर्य के चारों ओर प्रदक्षिणा / परिक्रमा करते हैं अपने प्रभाव से जिन तरंगों को आकाश में फैलाते होंगे वे समस्त चर-अचर जगत के प्राणिमात्र की मन-बुद्धि को अनेक रीतियों से अवश्य ही प्रभावित करते होंगे !
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umbra / penumbra.
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प्रातः के सूर्य को अर्घ्य देते समय उसने सुना :
"सूर्यो आत्मा जगतस्थः ॥"
क्षितिज पर उदित हो रहे सूर्य का अरुणाभ सिंदूरी प्रकाश पूर्व में संचरित हो रहा था ।
पूर्व दिशा भी है, काल भी है अर्थात् समग्र ’दिक्काल’ ।
सूर्य से पूर्व है । पूर्व से दिवस, रात्रि, याम और यामिनी / यमुना ।
याम दिवस का तथा रात्रि के कालमान का अष्टमांश अर्थात् प्रहर हुआ ।
यह अनुमेय ’काल’ है जो स्थान की तरह सापेक्ष है ।
यह उस चेतना के सन्दर्भ में है जो किसी देहधारी में प्राणों के संचरित होने पर व्यक्त हो उठती है ।
यह भी उतना ही सत्य है जितना कि इस चेतना के स्फुरण से ही प्राणों का संचार देह में होता है ।
जैसे दीपक के समक्ष रखी वस्तु की दीवाल पर पड़ रही छाया वस्तु और दीपक के आकार के अनुपात के अनुसार केवल छाया अथवा छाया और उपच्छाया इन दो रूपों में दिखाई देती है, वैसे ही चंद्र पर पड़नेवाला सूर्य का प्रकाश भूमि द्वारा बाधित किए जाने से चंद्र-ग्रहण होने के समय ग्रहण के दिखाई देनेवाले ’स्पर्श’ से पहले ही उपच्छाया (पेनम्ब्रा) चंद्र को ग्रस चुकी होती है । और छाया के द्वारा चंद्र को ’स्पर्श’ से छोड़े जाने के समय के बाद भी उसे ग्रस्त किए रहती है, वैसे ही मनुष्य के भीतर संचरित चेतना / प्राण उपच्छाया की भाँति मनुष्य को पूरे जीवन भर ग्रस्त रखते हैं ।
यदि सूर्य (आत्मा) बहुत बड़ा दीपक है, पृथ्वी (देह) उसके समक्ष रखी वस्तु और चंद्र (मन / बुद्धि/ चित्त / अहं) वह भित्ति / पर्दा है जिस पर प्रकाश (संज्ञा) और छाया (स्मृति) चंद्र-ग्रहण के द्योतक समझे जाएँ तो मनुष्य स्वरूपतः वही है जो सूर्य है ।
(योऽसावसौ पुरुषो सोऽहमस्मि... -ईशावास्य उपनिषद् )
उसे यह तुलना रुचिकर प्रतीत हुई । हाँ कवित्वपूर्ण भी अवश्य थी किंतु कल्पना मात्र न थी ।
गुरुत्वाकर्षण-तरंगों के संदर्भ में उसके चिंतन के अगले क्रम का सूत्र था वह रज्जु जिसमें उसने कुछ पत्थर बाँधकर कोई प्रयोग बचपन में कभी किया था ।
वे तो बस पत्थर थे । अगर (अग्रे) यदि सूर्य जगदात्मा है, और पृथ्वी की तरह गोलाकार खगोलीय आकाशीय पिण्ड है, तो अवश्य ही सारे अन्य पिण्ड सूर्य के चतुर्दिक् वैसे ही परिमण करते होंगे जैसे उस रज्जु में बँधे पत्थर रज्जु को घुमाने से करते हैं । तात्पर्यतः भ-चक्र में ऐसे अनेक सौर-मंडल होंगे. -शायद असंख्य!
अर्थात् यह भूमि अवश्य ही इस सूर्य के चारों ओर गोलीय कक्षा में परिभ्रमण करती है । यही कारण है कि ऋतुएँ क्रमशः सूर्य की भ-चक्रीय गति के साथ-साथ परिवर्तित होती हैं । और दिन-रात्रि तो इसलिए होते हैं क्योंकि पृथ्वी स्वयं भी अपने अक्ष के चारों ओर परिक्रमण कर रही है । उसे आश्चर्य हो रहा था कि क्या यह सब उसकी कल्पना-मात्र है? किंतु उसने इस विषय में कभी किसी से कुछ नहीं कहा ।
वह फिर छाया-उपछाच्या अम्बर / प्र-अम्बर (umbra / penumbra) के बारे में चिंतन करता हुआ इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वे सभी ग्रह-पिण्ड जो गुरुत्वाकर्षण रूपी रज्जु में बँधे सूर्य के चारों ओर प्रदक्षिणा / परिक्रमा करते हैं अपने प्रभाव से जिन तरंगों को आकाश में फैलाते होंगे वे समस्त चर-अचर जगत के प्राणिमात्र की मन-बुद्धि को अनेक रीतियों से अवश्य ही प्रभावित करते होंगे !
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