Thursday, 3 March 2016

नाडी-सूत्र -2.

नाडी-सूत्र -2.
Gravitational-Vibrations  / Waves, 
String-Theory,  Vector,

भयात् और भभोग
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उसने बहुत यत्न किया स्मरण करने का किंतु विगत कई जन्मों की स्मृति जैसे धुल चुकी थी ।
"अवगन्तव्यं त्रिकालदर्शिभिः ।"
एक सूत्र उसे याद आया और वह उसे दुहराता रहा ।
जिनके लिए तीनों काल दृश्य हैं वे समझ सकते हैं ।
उसने अपनी नाडी की परीक्षा की यद्यपि नाडी-परीक्षा के सिद्धान्त के अनुसार इससे उसका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था । क्योंकि अपनी नाडी का परीक्षण प्रत्यक्षतः किया जाना असंभव ही तो है ।और वह इस यत्न में असफल ही रहा ।
वह पुनः ’बल’ के तत्व को समझने का यत्न कर रहा था ।
’बल’ अर्थात् ’वल्’ अर्थात् ’वलय’ । ’वल्’ से ’वलय’ और ’वलय’ से तरंग की उत्पत्ति उसे दृष्टिगत हुई । उसने देखा कि आकाशीय पिण्ड इसी प्रकार से परस्पर बँधे हुए हैं । वह ’बल’ जो उन्हें परस्पर ’स्थानगत’ दूरी में नियमित कक्षा में बाँधे रखता है,  ’बल’ अर्थात् गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटेशनल-फ़ोर्स / Gravitational Force) है जो दो पिण्डों के अपने अपने द्रव्यमान के अनुसार परस्पर एक दूसरे को बाँधे रखता है । यह ’बल’ वास्तव में ’वल्’ अर्थात् व्याप्ति के लक्षणयुक्त तरंगस्वरूप है । (व्याप्तिलक्षणं बलं) क्योंकि यदि यह रज्जुवत् दूसरे को नहीं बाँधता तो आकाशीय पिण्डों की पारस्परिक अवस्थिति सुस्थिर नहीं रह सकती । उसे अपने चिंतन पर आश्चर्य हुआ । उसका निष्कर्ष था कि ’बल’ / गुरुत्वाकर्षण बल इसी प्रकार के रज्जु-सूत्रों के स्वरूप का है । जैसे एक रज्जु (फ़ैब्रिक / fabric) मूलतः कई महीन रज्जुओं (स्ट्रिंग्स / strings) के संयुक्त होने से बनती है और प्रत्येक महीन रज्जु और भी अधिक सूक्ष्मतर रज्जुओं से, वैसे ही आकाशीय गुरुत्वाकर्षण बल  (कॉस्मिक-फ़ोर्स / Cosmic Force) मूलतः वलयाकार गतिविधि (वेक्टर / vector) है जो पदार्थ / शक्ति की ही स्थान तथा काल से सीमित अभिव्यक्ति है ।
तब उसे याद आया कि कभी बचपन में उसने एक प्रयोग किया था । उसने एक रज्जु में कुछ पत्थर उनके बीच कम-अधिक दूरी पर बाँधे थे और वह रज्जु को घुमाने लगा । उसने देखा कि चूँकि सब एक ही रज्जु में बँधे हैं इसलिए रज्जु को गोल गोल घुमाने पर उसके एक निश्चित वेग प्राप्त कर लेने पर सभी पत्थर एक ही सीध में और एक ही ज्यामितीय समतल पर गति करते हैं ।
उसे जब यह स्मरण हुआ तो उसे तुरंत ही स्पष्ट हो गया कि (चंद्र तथा सूर्य सहित) जो आकाशीय पिण्ड राशियों का परिभ्रमण करते हैं वे उन तारकों से विलक्षण हैं जो किसी राशि-समूह में अपने सापेक्ष स्थान पर अत्यन्त स्थिर होते हैं अर्थात् राशि-परिभ्रमण नहीं करते । तब उसे प्रतीत हुआ कि सूर्य और चंद्र जो यद्यपि उदित और अस्त होते दिखलाई पड़ते हैं वस्तुतः बहुत दूर होने के कारण बहुत छोटे जान पड़ते हैं । क्षितिज के गोल होने से उसे बहुत पहले से ज्ञात ही था कि भूमि भी एक गोलाकार आकाशीय पिण्ड है ।
सूर्य-ग्रहण और चंद्र ग्रहण का अवलोकन करने पर उसने अनुमान लगाया कि भ-चक्र के उस अक्ष पर, सूर्य जिसके उत्तर की ओर जाने लगता है और लौटकर दक्षिण की ओर, और इस प्रकार दोलायमान रहता है, एक आकाशीय पिण्ड अवस्थित है जो दिखलाई नहीं देता किन्तु जब सूर्य उस अक्ष पर आता है तो सूर्य के उस पिण्ड के पीछे चले जाने से ही सूर्य-ग्रहण घटित होता है । गणना के द्वारा उसने आगामी सूर्य-ग्रहण की तिथि का अनुमान किया किंतु ऐसे कई अनुमान विभिन्न कारणों से सत्य / असत्य सिद्ध न कर पाया । किंतु जब उसने आगामी चंद्र-ग्रहण कब होगा इसका अनुमान लगाया तो उसे शीघ्र ही सफलता मिली । कई वर्षों के निरंतर परिश्रम से उसे स्पष्ट हुआ कि ऋग्वेद-वर्णित अनेक मंत्र इन सब खगोलीय घटनाओं को अधिक अच्छी तरह वर्णित करते हैं ।
इसलिए राशि-चक्र में या नक्षत्र में चन्द्र के आँशिक परिक्रमण को भ-यात् तथा शेष भावी को भ-भोग कहा जाता है ।
क्या इसका कोई संबंध मनुष्य के जन्म के समय आकाशीय पिण्डों की खगोलीय स्थिति से होता है?
आदि मध्य और अन्त्य नाडी का महत्व उसे तत्क्षण स्पष्ट हुआ और यह भी कि जैसे चंद्र का भ-यात् और भ-भोग उसका प्रारब्ध है, वैसे ही नाडी के आदि, मध्य और अन्त्य होने का संबंध मनुष्य के जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं से ।
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