प्रगुणितंभ्रमं
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मूलं
अलक्षणासितो भावः मनसि भृशमागतः ।
अहंकर धृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥*
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(*tweet by Marcello_Meli @marcello_meli Mar.15, 2016)
परिष्कृतेन मया विवेचनार्थं,
अलक्षणासितो भावः मनसि भृशमागतः ।
अहङ्कार धृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥
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अलक्षण असितः भावः मनसि भृशं आगतः ।
अहङ्कारधृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥
व्याख्या / विवेचना :
मेरे मन में लक्षणरहित यह तमोगुणयुक्त भाव /अहङ्कारधृति (मैं-वृत्ति) व्यर्थ ही व्याप्त हो उठा है ।
अलक्षण इसलिए क्योंकि यह वृत्ति किसी अन्य वृत्ति के आश्रय से ही अस्तित्व पाती है, इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता इसलिए इसका कोई ’लक्षण’ / चिह्न नहीं होता ।
यह अहङ्कारधृति विनष्ट होने से पूर्व या पश्चात् ’किसकी’ है, मुझे स्पष्ट नहीं हो रहा ।
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My Interpretation :
In (my) mind emerges this dark (inexplicable, evil) absurd feeling, which should not be there.
inexplicable, because this has no express sign that could help recognizing / identifying it, this feeling exists only when is associated with some other feeling. This feeling has no independent existence of its own without being supported by another feeling of any kind. I can't understand 'who' is there that gives rise to this feeling, 'who' is exactly that causes this feeling.
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praguṇitaṃbhramaṃ
[Confusion multiplied]
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mūlaṃ
alakṣaṇāsito bhāvaḥ manasi bhṛśamāgataḥ |
ahaṃkara dhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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pariṣkṛtena mayā vivecanārthaṃ,
alakṣaṇāsito bhāvaḥ manasi bhṛśamāgataḥ |
ahaṅkāra dhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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alakṣaṇa asitaḥ bhāvaḥ manasi bhṛśaṃ āgataḥ |
ahaṅkāradhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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मूलं
इन्द्रियाणां मनो भागः स्वभोधेर्भृदहंकृतिः ।
असति यद्यहंकारे को मतिकृन्न विद्यते ॥*
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(*tweet by Marcello_Meli @marcello_meli Mar.15, 2016)
परिष्कृतेन मया विवेचनार्थं,
इन्द्रियाणां मनो भागः स्वबोधेर्भृदहङ्कृतिः ।
असति यद्यहङ्कारे को मतिकृन्न विद्यते ॥
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इन्द्रियाणां मनः भागः स्व-बोधे: भृत्-अहङ्कृतिः ।
असति यदि-अहङ्कारे कः मतिकृत् न विद्यते ॥
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व्याख्या / विवेचना :
[’स्व-बोधे:’ संभवतः त्रुटियुक्त है । ’स्व-बोधे’ होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है ।]
’मन’ इन्द्रियों का परिणाम है, अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति अपने (होने के तथ्य का भान) की उत्पत्ति है ।
अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति के अभाव / अनुपस्थिति में इस अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति जिसकी उत्पत्ति है वह कौन (है?), अर्थात् इस मति को उत्पन्न करनेवाला भी नहीं पाया जाता ।
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यह विवेचना उक्त श्लोकों के रचयिता की भावना है, और मैं केवल संभावित अर्थ समझने का यत्न कर रहा हूँ ।
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mūlaṃ
indriyāṇāṃ mano bhāgaḥ svabhodherbhṛdahaṃkṛtiḥ |
asati yadyahaṃkāre ko matikṛnna vidyate ||
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pariṣkṛtena mayā vivecanārthaṃ,
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indriyāṇāṃ mano bhāgaḥ svabodherbhṛdahaṅkṛtiḥ |
asati yadyahaṅkāre ko matikṛnna vidyate ||
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indriyāṇāṃ manaḥ bhāgaḥ sva-bodhe: bhṛt-ahaṅkṛtiḥ |
asati yadi-ahaṅkāre kaḥ matikṛt na vidyate ||
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My Interpretation :
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'the mind' is because of the senses, 'the I-sense' is because of the 'Self'.
Who is the one that causes the 'I-sense'? Because the one that causes I-sense, is not found.
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मूलं
अलक्षणासितो भावः मनसि भृशमागतः ।
अहंकर धृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥*
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(*tweet by Marcello_Meli @marcello_meli Mar.15, 2016)
परिष्कृतेन मया विवेचनार्थं,
अलक्षणासितो भावः मनसि भृशमागतः ।
अहङ्कार धृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥
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अलक्षण असितः भावः मनसि भृशं आगतः ।
अहङ्कारधृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥
व्याख्या / विवेचना :
मेरे मन में लक्षणरहित यह तमोगुणयुक्त भाव /अहङ्कारधृति (मैं-वृत्ति) व्यर्थ ही व्याप्त हो उठा है ।
अलक्षण इसलिए क्योंकि यह वृत्ति किसी अन्य वृत्ति के आश्रय से ही अस्तित्व पाती है, इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता इसलिए इसका कोई ’लक्षण’ / चिह्न नहीं होता ।
यह अहङ्कारधृति विनष्ट होने से पूर्व या पश्चात् ’किसकी’ है, मुझे स्पष्ट नहीं हो रहा ।
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My Interpretation :
In (my) mind emerges this dark (inexplicable, evil) absurd feeling, which should not be there.
inexplicable, because this has no express sign that could help recognizing / identifying it, this feeling exists only when is associated with some other feeling. This feeling has no independent existence of its own without being supported by another feeling of any kind. I can't understand 'who' is there that gives rise to this feeling, 'who' is exactly that causes this feeling.
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praguṇitaṃbhramaṃ
[Confusion multiplied]
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mūlaṃ
alakṣaṇāsito bhāvaḥ manasi bhṛśamāgataḥ |
ahaṃkara dhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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pariṣkṛtena mayā vivecanārthaṃ,
alakṣaṇāsito bhāvaḥ manasi bhṛśamāgataḥ |
ahaṅkāra dhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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alakṣaṇa asitaḥ bhāvaḥ manasi bhṛśaṃ āgataḥ |
ahaṅkāradhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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मूलं
इन्द्रियाणां मनो भागः स्वभोधेर्भृदहंकृतिः ।
असति यद्यहंकारे को मतिकृन्न विद्यते ॥*
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(*tweet by Marcello_Meli @marcello_meli Mar.15, 2016)
परिष्कृतेन मया विवेचनार्थं,
इन्द्रियाणां मनो भागः स्वबोधेर्भृदहङ्कृतिः ।
असति यद्यहङ्कारे को मतिकृन्न विद्यते ॥
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इन्द्रियाणां मनः भागः स्व-बोधे: भृत्-अहङ्कृतिः ।
असति यदि-अहङ्कारे कः मतिकृत् न विद्यते ॥
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व्याख्या / विवेचना :
[’स्व-बोधे:’ संभवतः त्रुटियुक्त है । ’स्व-बोधे’ होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है ।]
’मन’ इन्द्रियों का परिणाम है, अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति अपने (होने के तथ्य का भान) की उत्पत्ति है ।
अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति के अभाव / अनुपस्थिति में इस अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति जिसकी उत्पत्ति है वह कौन (है?), अर्थात् इस मति को उत्पन्न करनेवाला भी नहीं पाया जाता ।
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यह विवेचना उक्त श्लोकों के रचयिता की भावना है, और मैं केवल संभावित अर्थ समझने का यत्न कर रहा हूँ ।
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mūlaṃ
indriyāṇāṃ mano bhāgaḥ svabhodherbhṛdahaṃkṛtiḥ |
asati yadyahaṃkāre ko matikṛnna vidyate ||
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pariṣkṛtena mayā vivecanārthaṃ,
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indriyāṇāṃ mano bhāgaḥ svabodherbhṛdahaṅkṛtiḥ |
asati yadyahaṅkāre ko matikṛnna vidyate ||
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indriyāṇāṃ manaḥ bhāgaḥ sva-bodhe: bhṛt-ahaṅkṛtiḥ |
asati yadi-ahaṅkāre kaḥ matikṛt na vidyate ||
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My Interpretation :
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'the mind' is because of the senses, 'the I-sense' is because of the 'Self'.
Who is the one that causes the 'I-sense'? Because the one that causes I-sense, is not found.
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Brave effort bro
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