होना, जानना, करना
--
ऐसा कहा जा सकता है कि मैं अपने लिए अपने अस्तित्व के तीन पक्षों में, तीन रूपों में हूँ और व्यक्त भी होता हूँ । मुझे इसमें सन्देह नहीं कि मैं हूँ क्योंकि अपने होने ही से मैं अपने आपको या अस्तित्व को, जैसा भी वह हो, जानता हूँ, अर्थात् इस जाननेवाले के अस्तित्व के बारे में और उसके ’जानने’ की स्वाभाविक प्रकृति होने के बारे में । वास्तव में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि यह ’होना’ और ’जानना’ कहने में दो चीज़ें लगती हों, एक ही वस्तु के दो पक्ष / पहलू हैं ।
फिर मैं जानता हूँ कि इसी तरह इस अस्तित्व को पुनः मैं प्रायःदो रूपों में पाता हूँ । मोटे तौर पर, एक को मैं मेरा संसार कहता हूँ और दूसरे को अपने-आप के रूप में स्वीकार करता हूँ । मैंने हालाँकि कभी नहीं पाया कि इनमें से एक के बिना दूसरे का अस्तित्व होता हो । फिर भी मेरे मन (?) में यह विचार दृढ़ हो चुका है कि मैं इस संसार से अलग कुछ हूँ । यद्यपि यह भी विचारणीय है कि यह ’मन’ विचार से भिन्न स्वतन्त्र कुछ है भी या नहीं ?
अभी तो इतना कहा जा सकता है कि कुछ चीज़ें मुझमें / मुझे होती हैं और कुछ मैं करता हूँ । कुछ करने / न करने से पहले मेरा अस्तित्व स्वयंसिद्ध है । मेरे द्वारा कुछ किए जाने में और मुझमें कुछ होने के बीच समानता यह है कि मैं दोनों को जानता हूँ वैसे ही, जैसे कि मैं संसार को और मुझे जानता हूँ न कि जानकारी के रूप में । जो मुझमें / मुझे होता है उस पर शायद मेरा कोई नियंत्रण नहीं है, जैसे नींद आना या नींद समाप्त होकर या खुलने पर जाग उठना, भूख लगना, प्यास लगना, ठंड या गर्मी लगना, जैसी सामान्य बातें । फिर अपेक्षाकृत कुछ असामान्य बातें जैसे डर लगना, इच्छा या जरूरत होना, शरीर के किसी हिस्से में दर्द या खुजली जैसी अनुभूति होना । स्पष्ट है कि ये अनैच्छिक कही जानेवाली क्रियाएँ ’अनुभव’ के रूप में स्मृति बनती हैं और विचार द्वारा मैं इन्हें नाम देकर ’शब्द’ से जोड़ देता हूँ । अर्थात् ’भय’ शब्द जिस अनुभूति के लिए इस्तेमाल किया जाता है वह अनुभूति ’भय’ यह शब्द नहीं इससे बिलकुल भिन्न वस्तु है । ऐसे ही लज्जा / शर्म नामक वस्तु जो मुझमें / मुझे अनुभूति की तरह होती है लज्जा / शर्म शब्द से मेरे अनभिज्ञ होने पर भी मुझे हो सकती है । किसी अनुभूति के लिए कोई एक शब्द किसी भी भाषा में व्यवहार के लिए इस्तेमाल करना उपयोगी हो सकता है, किन्तु इससे वह शब्द अनुभूति का विकल्प नहीं हो सकता । अनुभूतियों की परस्पर तुलना से हम शब्दों के अनावश्यक आधिक्य की समस्या से बच जाते हैं और शुद्ध भौतिक अर्थ में भले ही एक अनुभूति के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं में अलग अलग शब्द प्रयोग करें हमें उसके तात्पर्य के बारे में कोई भ्रम नहीं होता । आप ’भय’ कहें या ’फ़ीयर’ आप इन शब्दों से एक ही भाव / अनुभूति-सूचक अर्थ व्यक्त और ग्रहण करते हैं । किन्तु शब्दों के विशिष्ट क्रम और संयोजन से जब हम किसी ऐसे वाक्य, विचार या ऐसी धारणा को जन्म देते हैं जिसका अपने-आप में अनुभूतिगत कोई तात्पर्य होता ही नहीं, या फिर कहनेवाले के लिए और सुननेवाले के लिए अलग अलग होता है, या उनमें से एक ही के लिए कोई अनुभूतिगत अर्थ होता है, दूसरे के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित अनुभूतिगत अर्थ नहीं होता, तो भ्रम प्रारंभ होता है ।
किसी चीज़ के प्रति मुझे / मुझमें भय या आकर्षण होता है तो मैं उससे दूर होने या बचने का प्रयास करता हूँ, या फिर मुझमें उसके प्रति उत्सुकता पैदा होती है और मैं उसे जानने का यत्न करता हूँ । यह जानना मुझमें प्रिय या अप्रिय अनुभूति पैदा करता है किन्तु ’प्रिय’ और ’अप्रिय’ शब्द उस अनुभूति की विशेषता को इंगित करते हैं । इस प्रकार से हम शब्दों के एक नए समूह को प्रयोग में लाने लगते हैं जिनके वास्तविक अर्थ के बारे में हमें निश्चित तौर पर कुछ नहीं पता होता, किन्तु काम चलाने के लिए वे पर्याप्त होते हैं । ऐसा ही स्वाद, गंध, रंग-रूप, ध्वनि और स्पर्श से ग्रहण की जानेवाली अलग-अलग वस्तुओं के संबंध में होता है । जैसा कि पहले कहा गया, शब्दों के विशिष्ट क्रम और संयोजन से जब हम किसी ऐसे वाक्य, विचार या ऐसी धारणा को जन्म देते हैं जिसका अपने-आप में अनुभूतिगत कोई तात्पर्य होता ही नहीं, या फिर कहनेवाले के लिए और सुननेवाले के लिए अलग अलग होता है, या उनमें से एक ही के लिए कोई अनुभूतिगत अर्थ होता है, दूसरे के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित अनुभूतिगत अर्थ नहीं होता । इस प्रकार से विभिन्न ’मत’ पैदा होते हैं । ठोस भौतिक अर्थ की दृष्टि से ये वैज्ञानिक आधार पर ये सुनिश्चित स्थिति के द्योतक अर्थात् ’तथ्य’ भी होते हैं किन्तु जब हम उन वस्तुओं के स्वरूप के बारे में कोई वक्तव्य देने का प्रयास करते हैं तो भ्रम प्रारंभ होता है । जैसे पदार्थ, स्थान ये स्वयं अनुभूतिगम्य हैं किन्तु उनका वास्तविक स्वरूप क्या है इसे जानना कठिन और कहना और भी कठिन है । क्योंकि उनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि वे बस अनुभूतिगम्य भर हैं । वे बुद्धिगम्य तक नहीं हैं । आप उन्हें परिभाषित कर सकते हैं पर वह एक कामचलाऊ व्यवस्था है । मैं नहीं जानता कि गणितज्ञ इस बारे में क्या कहते हैं किंतु शून्य नामक वस्तु की अवधारणा पर ध्यान दें तो समझा जा सकता है कि अत्यन्त प्राचीन वैदिक गणित की दृष्टि से इस अवधारणा का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है, पहला अभावसूचक व्यञ्जन / वर्ण (क्योंकि ’शून्य’ स्वर नहीं है यह तो स्पष्ट है) के रूप में, इसलिए आकाश को शून्य भी कहा जाता है क्योंकि वह ’रिक्तता’ है । किंतु पुनः आकाश को भी स्थान के अर्थ में चूँकि तत्व माना जाता है इसलिए वह जिस वस्तु के आधार से अस्तित्वमान है वह वस्तु / उसे ’जाननेवाला’ तत्व जो स्वप्रमाणित होना-जानना है, जानने का तत्व क्या है परिभाषित नहीं किया जा सकता । दूसरा गणना की अवधारणा के क्रम में अगली सीढ़ी गणितीय जोड़ने-घटाने की प्रक्रिया को सिद्ध करने के लिए । किन्तु वह भी संख्या 1 से 9 तक के लिए ही । और यदि जोड़ 9 से अधिक हो तो 10 और उससे बड़ी संख्याओं को परिभाषित करने के लिए । इसी प्रकार घटाने की प्रक्रिया में जब किसी संख्या से उसी संख्या को घटाना हो तो प्राप्त होनेवाले परिणाम को व्यक्त करने के लिए । इसे ही और विकसित कर भाग / विभाजन की प्रक्रिया पाई जाती है । किन्तु यह एक सुविधा (कंवेंशन / फैसिलिटी) हुई । इससे हमें शून्य अवधारणा के अतिरिक्त और क्या है, इस बारे में कुछ नहीं पता चलता । जैसे 1 से 9 तक की संख्याएँ अवधारणा हैं वैसे शून्य भी एक अवधारणा है जो भौतिक तथ्यों को किसी हद तक व्यावहारिक स्तर पर समझने के लिए उपयोगी भी है लेकिन ’सत्य’ है यह कैसे प्रमाणित होगा? गणित का पूरा आधार ही इस प्रकार असंदिग्ध, निर्विवाद रूप से ’सत्य’ है ऐसा नहीं कहा जा सकता । हम बस इतना कह सकते हैं कि ’अवधारणा’ के दायरे में अवश्य ही सत्य है । गणना की दृष्टि से ’शून्य’ का न तो कोई अर्थ है, न उपयोगिता । किसी वस्तु का संख्यात्मक परिमाण 1 है या 10 या 100 है इससे उसकी संख्यात्मक मात्रा अंकगत रूप में 1, 10 या 100 है यह तो कहा जा सकता है और इसकी व्यावहारिक सत्यता और उपयोगिता भी सिद्ध ही है, किंतु किसी वस्तु का संख्यात्मक परिमाण 0 है, ऐसा कहने का न तो व्यावहारिक और न उपयोगिता की दृष्टि से कोई अर्थ है । तब हम इतना ही कहते हैं कि वस्तु का अभाव है या वह है ही नहीं ।
इस प्रकार हम एक अवधारणा (कॉन्सेप्ट) को व्यावहारिक तौर पर उपयोगी भले ही पाएँ वह वैज्ञानिक / गणितीय सत्य हो यह आवश्यक नहीं है । गणना की (0,1) की द्विक-विधि (बाइनरी-सिस्टम) से भी वह पूरा गणितीय कार्य किया जा सकता है जो (1,2,3,...9,10...,99,100)) की दाशमिक-विधि (डेसाइल-सिस्टम) से किया जाता है ।
इस प्रकार से किसी भी अवधारणा का जन्म प्रायः भ्रम को ही जन्म देता है जिसमें हमें निरंतर खोज और सुधार करना होता है और जिसे ’प्रगति’ या ’विकास’ कहा जाता है । उपयोगिता की दृष्टि से शायद यह ’प्रगति’, उन्नति या विकासशीलता भले ही हो, मेरा ’होना’ और मेरा ’जानना’ वास्तव में क्या है, इसे समझने में इस ’प्रगति’, उन्नति या विकासशीलता से कोई सहायता मुझे नहीं मिलती ।
अब थोड़ा इस ओर ध्यान दें कि जो कुछ मुझे / मुझमें अनुभव होता है और जो कुछ मैं अनुभव करता हूँ उसमें क्या अंतर है । भौतिक और शारीरिक संवेदनाओं के बारे में तो इनमें कोई विशेष अंतर नहीं होता किन्तु जहाँ भावनात्मक अनुभवों का प्रश्न उठता है, तो मैं गड़बड़ा जाता हूँ । ’अच्छा’, ’बुरा’, ’सुख’, ’दुःख’, ’प्रिय’, ’अप्रिय’, ’प्रेम’, ’घृणा’, ’गुस्सा’, ’क्रोध’, ’डर’, ’लालसा’, ’कामोत्तेजना’ आदि भावनाओं को दिए जानेवाले शब्द व्यावहारिक तल पर किसी हद तक उपयोगी और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति में सहायक भी होते हैं किंतु जब मैं वाक्य में, या कविता (जो किसी के लिए अधूरा वाक्य भी हो सकती है) के रूप में अपनी भावना(ओं) को व्यक्त करता हूँ तो अपनी भावना मैं कहाँ तक व्यक्त कर पाता हूँ और श्रोता किस सीमा तक वही तात्पर्य ग्रहण कर पाते हैं? अर्थात् वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का अंतर ।
इसलिए जो मैं ’करता’ हूँ अनैच्छिक या ऐच्छिक, वस्तुतः समय / काल के अन्तर्गत घटित भर होता है, और ’मैं करता हूँ’ मेरा यह विचार, -इस विचार का मुझमें पैदा होना भी इसी घटनाक्रम का ही अंश है ।
मेरा वह अंश जो ’जानना’ भर है, बस ’जानता’ भर है ।
मेरा वह अंश जो ’है’ भर, इस घटना-क्रम से अप्रभावित रहता है ।
मेरे ये दोनों अंश परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
मेरा संसार और मेरे संसार को जानने-अनुभव-करनेवाला तत्व भी इसी प्रकार परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
यदि मुझे यह स्पष्ट हो जाता है तो और कुछ जानने से मेरा क्या प्रयोजन रह जाता है?
--
--
ऐसा कहा जा सकता है कि मैं अपने लिए अपने अस्तित्व के तीन पक्षों में, तीन रूपों में हूँ और व्यक्त भी होता हूँ । मुझे इसमें सन्देह नहीं कि मैं हूँ क्योंकि अपने होने ही से मैं अपने आपको या अस्तित्व को, जैसा भी वह हो, जानता हूँ, अर्थात् इस जाननेवाले के अस्तित्व के बारे में और उसके ’जानने’ की स्वाभाविक प्रकृति होने के बारे में । वास्तव में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि यह ’होना’ और ’जानना’ कहने में दो चीज़ें लगती हों, एक ही वस्तु के दो पक्ष / पहलू हैं ।
फिर मैं जानता हूँ कि इसी तरह इस अस्तित्व को पुनः मैं प्रायःदो रूपों में पाता हूँ । मोटे तौर पर, एक को मैं मेरा संसार कहता हूँ और दूसरे को अपने-आप के रूप में स्वीकार करता हूँ । मैंने हालाँकि कभी नहीं पाया कि इनमें से एक के बिना दूसरे का अस्तित्व होता हो । फिर भी मेरे मन (?) में यह विचार दृढ़ हो चुका है कि मैं इस संसार से अलग कुछ हूँ । यद्यपि यह भी विचारणीय है कि यह ’मन’ विचार से भिन्न स्वतन्त्र कुछ है भी या नहीं ?
अभी तो इतना कहा जा सकता है कि कुछ चीज़ें मुझमें / मुझे होती हैं और कुछ मैं करता हूँ । कुछ करने / न करने से पहले मेरा अस्तित्व स्वयंसिद्ध है । मेरे द्वारा कुछ किए जाने में और मुझमें कुछ होने के बीच समानता यह है कि मैं दोनों को जानता हूँ वैसे ही, जैसे कि मैं संसार को और मुझे जानता हूँ न कि जानकारी के रूप में । जो मुझमें / मुझे होता है उस पर शायद मेरा कोई नियंत्रण नहीं है, जैसे नींद आना या नींद समाप्त होकर या खुलने पर जाग उठना, भूख लगना, प्यास लगना, ठंड या गर्मी लगना, जैसी सामान्य बातें । फिर अपेक्षाकृत कुछ असामान्य बातें जैसे डर लगना, इच्छा या जरूरत होना, शरीर के किसी हिस्से में दर्द या खुजली जैसी अनुभूति होना । स्पष्ट है कि ये अनैच्छिक कही जानेवाली क्रियाएँ ’अनुभव’ के रूप में स्मृति बनती हैं और विचार द्वारा मैं इन्हें नाम देकर ’शब्द’ से जोड़ देता हूँ । अर्थात् ’भय’ शब्द जिस अनुभूति के लिए इस्तेमाल किया जाता है वह अनुभूति ’भय’ यह शब्द नहीं इससे बिलकुल भिन्न वस्तु है । ऐसे ही लज्जा / शर्म नामक वस्तु जो मुझमें / मुझे अनुभूति की तरह होती है लज्जा / शर्म शब्द से मेरे अनभिज्ञ होने पर भी मुझे हो सकती है । किसी अनुभूति के लिए कोई एक शब्द किसी भी भाषा में व्यवहार के लिए इस्तेमाल करना उपयोगी हो सकता है, किन्तु इससे वह शब्द अनुभूति का विकल्प नहीं हो सकता । अनुभूतियों की परस्पर तुलना से हम शब्दों के अनावश्यक आधिक्य की समस्या से बच जाते हैं और शुद्ध भौतिक अर्थ में भले ही एक अनुभूति के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं में अलग अलग शब्द प्रयोग करें हमें उसके तात्पर्य के बारे में कोई भ्रम नहीं होता । आप ’भय’ कहें या ’फ़ीयर’ आप इन शब्दों से एक ही भाव / अनुभूति-सूचक अर्थ व्यक्त और ग्रहण करते हैं । किन्तु शब्दों के विशिष्ट क्रम और संयोजन से जब हम किसी ऐसे वाक्य, विचार या ऐसी धारणा को जन्म देते हैं जिसका अपने-आप में अनुभूतिगत कोई तात्पर्य होता ही नहीं, या फिर कहनेवाले के लिए और सुननेवाले के लिए अलग अलग होता है, या उनमें से एक ही के लिए कोई अनुभूतिगत अर्थ होता है, दूसरे के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित अनुभूतिगत अर्थ नहीं होता, तो भ्रम प्रारंभ होता है ।
किसी चीज़ के प्रति मुझे / मुझमें भय या आकर्षण होता है तो मैं उससे दूर होने या बचने का प्रयास करता हूँ, या फिर मुझमें उसके प्रति उत्सुकता पैदा होती है और मैं उसे जानने का यत्न करता हूँ । यह जानना मुझमें प्रिय या अप्रिय अनुभूति पैदा करता है किन्तु ’प्रिय’ और ’अप्रिय’ शब्द उस अनुभूति की विशेषता को इंगित करते हैं । इस प्रकार से हम शब्दों के एक नए समूह को प्रयोग में लाने लगते हैं जिनके वास्तविक अर्थ के बारे में हमें निश्चित तौर पर कुछ नहीं पता होता, किन्तु काम चलाने के लिए वे पर्याप्त होते हैं । ऐसा ही स्वाद, गंध, रंग-रूप, ध्वनि और स्पर्श से ग्रहण की जानेवाली अलग-अलग वस्तुओं के संबंध में होता है । जैसा कि पहले कहा गया, शब्दों के विशिष्ट क्रम और संयोजन से जब हम किसी ऐसे वाक्य, विचार या ऐसी धारणा को जन्म देते हैं जिसका अपने-आप में अनुभूतिगत कोई तात्पर्य होता ही नहीं, या फिर कहनेवाले के लिए और सुननेवाले के लिए अलग अलग होता है, या उनमें से एक ही के लिए कोई अनुभूतिगत अर्थ होता है, दूसरे के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित अनुभूतिगत अर्थ नहीं होता । इस प्रकार से विभिन्न ’मत’ पैदा होते हैं । ठोस भौतिक अर्थ की दृष्टि से ये वैज्ञानिक आधार पर ये सुनिश्चित स्थिति के द्योतक अर्थात् ’तथ्य’ भी होते हैं किन्तु जब हम उन वस्तुओं के स्वरूप के बारे में कोई वक्तव्य देने का प्रयास करते हैं तो भ्रम प्रारंभ होता है । जैसे पदार्थ, स्थान ये स्वयं अनुभूतिगम्य हैं किन्तु उनका वास्तविक स्वरूप क्या है इसे जानना कठिन और कहना और भी कठिन है । क्योंकि उनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि वे बस अनुभूतिगम्य भर हैं । वे बुद्धिगम्य तक नहीं हैं । आप उन्हें परिभाषित कर सकते हैं पर वह एक कामचलाऊ व्यवस्था है । मैं नहीं जानता कि गणितज्ञ इस बारे में क्या कहते हैं किंतु शून्य नामक वस्तु की अवधारणा पर ध्यान दें तो समझा जा सकता है कि अत्यन्त प्राचीन वैदिक गणित की दृष्टि से इस अवधारणा का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है, पहला अभावसूचक व्यञ्जन / वर्ण (क्योंकि ’शून्य’ स्वर नहीं है यह तो स्पष्ट है) के रूप में, इसलिए आकाश को शून्य भी कहा जाता है क्योंकि वह ’रिक्तता’ है । किंतु पुनः आकाश को भी स्थान के अर्थ में चूँकि तत्व माना जाता है इसलिए वह जिस वस्तु के आधार से अस्तित्वमान है वह वस्तु / उसे ’जाननेवाला’ तत्व जो स्वप्रमाणित होना-जानना है, जानने का तत्व क्या है परिभाषित नहीं किया जा सकता । दूसरा गणना की अवधारणा के क्रम में अगली सीढ़ी गणितीय जोड़ने-घटाने की प्रक्रिया को सिद्ध करने के लिए । किन्तु वह भी संख्या 1 से 9 तक के लिए ही । और यदि जोड़ 9 से अधिक हो तो 10 और उससे बड़ी संख्याओं को परिभाषित करने के लिए । इसी प्रकार घटाने की प्रक्रिया में जब किसी संख्या से उसी संख्या को घटाना हो तो प्राप्त होनेवाले परिणाम को व्यक्त करने के लिए । इसे ही और विकसित कर भाग / विभाजन की प्रक्रिया पाई जाती है । किन्तु यह एक सुविधा (कंवेंशन / फैसिलिटी) हुई । इससे हमें शून्य अवधारणा के अतिरिक्त और क्या है, इस बारे में कुछ नहीं पता चलता । जैसे 1 से 9 तक की संख्याएँ अवधारणा हैं वैसे शून्य भी एक अवधारणा है जो भौतिक तथ्यों को किसी हद तक व्यावहारिक स्तर पर समझने के लिए उपयोगी भी है लेकिन ’सत्य’ है यह कैसे प्रमाणित होगा? गणित का पूरा आधार ही इस प्रकार असंदिग्ध, निर्विवाद रूप से ’सत्य’ है ऐसा नहीं कहा जा सकता । हम बस इतना कह सकते हैं कि ’अवधारणा’ के दायरे में अवश्य ही सत्य है । गणना की दृष्टि से ’शून्य’ का न तो कोई अर्थ है, न उपयोगिता । किसी वस्तु का संख्यात्मक परिमाण 1 है या 10 या 100 है इससे उसकी संख्यात्मक मात्रा अंकगत रूप में 1, 10 या 100 है यह तो कहा जा सकता है और इसकी व्यावहारिक सत्यता और उपयोगिता भी सिद्ध ही है, किंतु किसी वस्तु का संख्यात्मक परिमाण 0 है, ऐसा कहने का न तो व्यावहारिक और न उपयोगिता की दृष्टि से कोई अर्थ है । तब हम इतना ही कहते हैं कि वस्तु का अभाव है या वह है ही नहीं ।
इस प्रकार हम एक अवधारणा (कॉन्सेप्ट) को व्यावहारिक तौर पर उपयोगी भले ही पाएँ वह वैज्ञानिक / गणितीय सत्य हो यह आवश्यक नहीं है । गणना की (0,1) की द्विक-विधि (बाइनरी-सिस्टम) से भी वह पूरा गणितीय कार्य किया जा सकता है जो (1,2,3,...9,10...,99,100)) की दाशमिक-विधि (डेसाइल-सिस्टम) से किया जाता है ।
इस प्रकार से किसी भी अवधारणा का जन्म प्रायः भ्रम को ही जन्म देता है जिसमें हमें निरंतर खोज और सुधार करना होता है और जिसे ’प्रगति’ या ’विकास’ कहा जाता है । उपयोगिता की दृष्टि से शायद यह ’प्रगति’, उन्नति या विकासशीलता भले ही हो, मेरा ’होना’ और मेरा ’जानना’ वास्तव में क्या है, इसे समझने में इस ’प्रगति’, उन्नति या विकासशीलता से कोई सहायता मुझे नहीं मिलती ।
अब थोड़ा इस ओर ध्यान दें कि जो कुछ मुझे / मुझमें अनुभव होता है और जो कुछ मैं अनुभव करता हूँ उसमें क्या अंतर है । भौतिक और शारीरिक संवेदनाओं के बारे में तो इनमें कोई विशेष अंतर नहीं होता किन्तु जहाँ भावनात्मक अनुभवों का प्रश्न उठता है, तो मैं गड़बड़ा जाता हूँ । ’अच्छा’, ’बुरा’, ’सुख’, ’दुःख’, ’प्रिय’, ’अप्रिय’, ’प्रेम’, ’घृणा’, ’गुस्सा’, ’क्रोध’, ’डर’, ’लालसा’, ’कामोत्तेजना’ आदि भावनाओं को दिए जानेवाले शब्द व्यावहारिक तल पर किसी हद तक उपयोगी और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति में सहायक भी होते हैं किंतु जब मैं वाक्य में, या कविता (जो किसी के लिए अधूरा वाक्य भी हो सकती है) के रूप में अपनी भावना(ओं) को व्यक्त करता हूँ तो अपनी भावना मैं कहाँ तक व्यक्त कर पाता हूँ और श्रोता किस सीमा तक वही तात्पर्य ग्रहण कर पाते हैं? अर्थात् वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का अंतर ।
इसलिए जो मैं ’करता’ हूँ अनैच्छिक या ऐच्छिक, वस्तुतः समय / काल के अन्तर्गत घटित भर होता है, और ’मैं करता हूँ’ मेरा यह विचार, -इस विचार का मुझमें पैदा होना भी इसी घटनाक्रम का ही अंश है ।
मेरा वह अंश जो ’जानना’ भर है, बस ’जानता’ भर है ।
मेरा वह अंश जो ’है’ भर, इस घटना-क्रम से अप्रभावित रहता है ।
मेरे ये दोनों अंश परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
मेरा संसार और मेरे संसार को जानने-अनुभव-करनेवाला तत्व भी इसी प्रकार परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
यदि मुझे यह स्पष्ट हो जाता है तो और कुछ जानने से मेरा क्या प्रयोजन रह जाता है?
--
No comments:
Post a Comment