सत्यसंधान / Truth Revealed
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आकाश के असंख्य पिंडों का निरीक्षण करते हुए ऋषि के पुत्र ने अपने पिता से पूछा :
"पृथ्वी गोल है या चपटी?"
तब ऋषि ने कहा :
"वत्स! व्यावहारिक सत्य और यथार्थ सत्य में विरोधाभास होता है ।"
"विरोधाभास ? कैसे ?"
"व्यावहारिक सत्य नित्य होते हुए भी अस्थायी होता है, क्योंकि वह अनुमान पर आधारित होता है, यथार्थ सत्य अनुमान की अपेक्षा नहीं रखता ।"
"क्या यथार्थ सत्य नित्य होता है?"
"हाँ वह इसलिए नित्य होता है कि हर बार उसकी पुष्टि हो जाती है जबकि व्यावहारिक सत्य को सिद्ध तक नहीं किया जा सकता, और पुष्टि तो असंभव ही है ।"
"सिद्ध होने / करने और पुष्टि होने में क्या भेद है?"
"तुमने पूछा था :
’पृथ्वी गोल है या चपटी?’
पृथ्वी व्यावहारिक रूप से कभी गोल है कभी चपटी इसलिए इसे गोल या चपटी सिद्ध करना मूलतः दृष्टिदोष है । यह तो देखनेवाले की अवस्थिति के अनुसार गोल या चपटी प्रतीत होती है । यदि तुम कहोगे कि यह गोल है तो व्यावहारिक रूप से तुम्हें कठिनाई होगी क्योंकि व्यवहार में इसे चपटी की तरह ग्रहण करना ही उपादेय है । किन्तु तुम आकाश के असंख्य पिंडों की तरह जैसे इसे भी यदि दूर से देखोगे तो यह एक पिंड जैसी दिखाई देगी । तब तुम कह सकते हो कि यह गोल है, चपटी नहीं । वह भी एक व्यावहारिक सत्य है ।"
"क्या नित्य भी स्थायी और अस्थायी दो प्रकार का होता है?"
"देखो नित्य या तो सनातन होता है या शाश्वत, अनित्य सदैव अनुमान पर आश्रित / आधारित विचार या शाब्दिक निष्कर्ष होता है । जब नित्य पुनरावृत्तिपरक होता है और अपनी पुष्टि स्वयं ही करता है तो उसे चिरंतन या सनातन कहते हैं वह सतत गतिशील होते हुए भी अपने विधान / धर्म से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता । और जब उस अटल विधान / स्थिर धर्म को नित्य के रूप में देखा / कहा जाता है, तो वही शाश्वत अनादि और अंतरहित यथार्थ सत्य होता है ।"
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"वेद क्या है ?"
"वत्स, वेद वही शाश्वत अनादि और अंतरहित यथार्थ सत्य है जो नित्य वाणी है ।"
"यदि यह नित्य है तो हमें सुनाई क्यों नहीं देती?"
"जैसे नगर के कोलाहल भरे वातावरण में हमें अपनी श्वास और हृदय के स्पन्दन की ध्वनि नहीं सुनाई देती, वैसे ही जब तक हमारे चित्त पर दूसरों से सीखी ग्रहण की हुई जानकारी आवरित होती है तब तक हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम इसे नहीं सुन पा रहे ।"
"क्या ये भूर्जपत्र पर लिखे हस्तलिखित ग्रन्थ वेद नहीं हैं?"
"यह व्यावहारिक सत्य है, जिसे सिद्ध नहीं किया जा सकता किन्तु फिर भी हम समझ सकते हैं कि जिसने इन्हें लिखा होगा उसने अवश्य ही उन ग्रन्थों में उसे ही लिखा होगा जिसे उसने वेद-वाणी की तरह से अपने हृदय में सुना होगा ।"
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"हे तात, इसे मैंने सुना है,... यह संस्कृत भाषा से मिलती जुलती क्यों है?"
"वत्स! क्योंकि यह जिस भाषा में कही-सुनी जाती है वह हमारी दृष्टि से सर्वाधिक परिमार्जित भाषा अर्थात् संस्कृत का भी उद्गम है .... ।
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आकाश के असंख्य पिंडों का निरीक्षण करते हुए ऋषि के पुत्र ने अपने पिता से पूछा :
"पृथ्वी गोल है या चपटी?"
तब ऋषि ने कहा :
"वत्स! व्यावहारिक सत्य और यथार्थ सत्य में विरोधाभास होता है ।"
"विरोधाभास ? कैसे ?"
"व्यावहारिक सत्य नित्य होते हुए भी अस्थायी होता है, क्योंकि वह अनुमान पर आधारित होता है, यथार्थ सत्य अनुमान की अपेक्षा नहीं रखता ।"
"क्या यथार्थ सत्य नित्य होता है?"
"हाँ वह इसलिए नित्य होता है कि हर बार उसकी पुष्टि हो जाती है जबकि व्यावहारिक सत्य को सिद्ध तक नहीं किया जा सकता, और पुष्टि तो असंभव ही है ।"
"सिद्ध होने / करने और पुष्टि होने में क्या भेद है?"
"तुमने पूछा था :
’पृथ्वी गोल है या चपटी?’
पृथ्वी व्यावहारिक रूप से कभी गोल है कभी चपटी इसलिए इसे गोल या चपटी सिद्ध करना मूलतः दृष्टिदोष है । यह तो देखनेवाले की अवस्थिति के अनुसार गोल या चपटी प्रतीत होती है । यदि तुम कहोगे कि यह गोल है तो व्यावहारिक रूप से तुम्हें कठिनाई होगी क्योंकि व्यवहार में इसे चपटी की तरह ग्रहण करना ही उपादेय है । किन्तु तुम आकाश के असंख्य पिंडों की तरह जैसे इसे भी यदि दूर से देखोगे तो यह एक पिंड जैसी दिखाई देगी । तब तुम कह सकते हो कि यह गोल है, चपटी नहीं । वह भी एक व्यावहारिक सत्य है ।"
"क्या नित्य भी स्थायी और अस्थायी दो प्रकार का होता है?"
"देखो नित्य या तो सनातन होता है या शाश्वत, अनित्य सदैव अनुमान पर आश्रित / आधारित विचार या शाब्दिक निष्कर्ष होता है । जब नित्य पुनरावृत्तिपरक होता है और अपनी पुष्टि स्वयं ही करता है तो उसे चिरंतन या सनातन कहते हैं वह सतत गतिशील होते हुए भी अपने विधान / धर्म से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता । और जब उस अटल विधान / स्थिर धर्म को नित्य के रूप में देखा / कहा जाता है, तो वही शाश्वत अनादि और अंतरहित यथार्थ सत्य होता है ।"
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"वेद क्या है ?"
"वत्स, वेद वही शाश्वत अनादि और अंतरहित यथार्थ सत्य है जो नित्य वाणी है ।"
"यदि यह नित्य है तो हमें सुनाई क्यों नहीं देती?"
"जैसे नगर के कोलाहल भरे वातावरण में हमें अपनी श्वास और हृदय के स्पन्दन की ध्वनि नहीं सुनाई देती, वैसे ही जब तक हमारे चित्त पर दूसरों से सीखी ग्रहण की हुई जानकारी आवरित होती है तब तक हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम इसे नहीं सुन पा रहे ।"
"क्या ये भूर्जपत्र पर लिखे हस्तलिखित ग्रन्थ वेद नहीं हैं?"
"यह व्यावहारिक सत्य है, जिसे सिद्ध नहीं किया जा सकता किन्तु फिर भी हम समझ सकते हैं कि जिसने इन्हें लिखा होगा उसने अवश्य ही उन ग्रन्थों में उसे ही लिखा होगा जिसे उसने वेद-वाणी की तरह से अपने हृदय में सुना होगा ।"
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"हे तात, इसे मैंने सुना है,... यह संस्कृत भाषा से मिलती जुलती क्यों है?"
"वत्स! क्योंकि यह जिस भाषा में कही-सुनी जाती है वह हमारी दृष्टि से सर्वाधिक परिमार्जित भाषा अर्थात् संस्कृत का भी उद्गम है .... ।
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