शब्द, अर्थ और भाषा
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"तात! मुझे शब्द, अर्थ और भाषा के पारस्परिक संबंध के बारे में शिक्षा दें ।"
"वत्स शब्द अर्थ में व्यक्त होता है और अर्थ शब्द में प्रच्छन्न । भाषा शब्द और अर्थ का सामञ्जस्य और संतुलन से भास्या होती है ।
इसलिए माहेश्वर-सूत्रों से प्रत्येक शब्द में अनेक अर्थ प्रच्छन्न होते हैं और प्रत्येक अर्थ को भाषा या विभाषा के माध्यम से विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) से सर्वत्र अनेक रूपों में कहा, सुना और समझा जाता है । माहेश्वर-सूत्र शब्द, अर्थ तथा भाषा के अनुशासन के प्रबन्ध के ईश्वर हैं द्रविड / द्राविड और संस्कृत इन दो भाषाओं का विधान करते हैं । द्रविड उच्चारित शब्द अर्थात् ध्वनि का अनुकरण करती है, लिपि गौण है । संस्कृत ध्वनि का अनुकरण करती है लिपि गौण है ।"
" हे तात! यदि लिपि दोनों ही भाषाओं में लिपि गौण महत्व रखती है, तो इसका उल्लेख करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?"
"वत्स, दोनों ही भाषाएँ भगवान् शिव के मुख से निःसृत शब्दानुशासन है । किन्तु उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है । उन्हें लिपिबद्ध करने की वस्तुतः आवश्यकता ही नहीं है । किन्तु सहायक साधन और अर्थ-प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न निष्ठा के अनुसार भिन्न-भिन्न इन दो लिपियों का अवतरण हुआ । वे सरस्वती ही हैं अर्थात् वाक् का व्यक्त रूप । और यह शब्द और अर्थ के पारस्परिक संबंध की ही याथातथ्यवत् उसी तरह है, जैसा मैंने तुम्हें बतलाया ।"
"हे तात! फिर अन्य असंख्य भाषाओं का क्या प्रयोजन है?"
"पुत्र! द्रविड तथा संस्कृत का प्रयोजन वेद-भाषा के उद्देश्य की सिद्धि हेतु है । लोक में वेद-भाषा केवल ब्राह्मण-वर्ण के ही लिए प्रासंगिक है । ब्राह्मणेतर मनुष्यों के लिए वेद-भाषा अगम्य और अप्रयोज्य है ।"
"तात! ब्राह्मण का तात्पर्य तो स्पष्ट है कि जिसका जन्म ब्राह्मण माता-पिता से हुआ वह ब्राह्मण हुआ । किन्तु यह ’वर्ण’ पद किस हेतु है?"
"हे वत्स! जन्म और माता-पिता तो प्राथमिक महत्व के हैं । कोई ब्राह्मण माता-पिता से जन्म लेकर भी ब्राह्मणोचित संस्कार से रहित हो सकता है, या उसका यज्ञोपवीत संस्कार न किये जाने पर अब्राह्मण ही रह जाता है, जबकि कोई जन्म से ब्राह्मण माता-पिता की संतान न होते हुए भी ब्राह्मण-संस्कारों से युक्त होता है और विधाता के संकल्प से ब्राह्मणेतर माता-पिता से उत्पन्न होता है । ऐसा मनुष्य भी ब्राह्मण तो है किन्तु वेद-विद्या में उसका अधिकार तब तक नहीं होता जब तक वह उपवीत नहीं हो जाता ।"
"हे तात! कृपया इस शङ्का का निराकरण करें । यदि कोई ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान है तो उसे यज्ञोपवीत कैसे प्राप्त हो सकता है ?"
"उसी विधाता के सङ्कल्प से जिसने उसे ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान के रूप में उत्पन्न किया ।"
"अर्थात् मेरा प्रश्न विधिबाह्य हुआ ?"
"हाँ वत्स!"
"तात ! वेद-भाषा और लोक-भाषा में भेद क्यों ?"
"उसी कारण से जिससे कोई ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान होता है और कोई ब्राह्मण माता-पिता की । वेद-भाषा सरस्वती है, जबकि लोकभाषा विभाषा है :
सर्वत्र विभाषा गोः... (अष्टाध्यायी 6/1/122)
लोके वेदे चैङन्तस्य गोरति वा प्रकृतिभावः पदान्ते । गो अग्रम्, गोऽग्रम् । एङन्तस्य किम् ? चित्रवग्रम् । पदान्ते किम् ? -गोः ..."
"तात इसे अधिक स्पष्ट करें .."
"वत्स, जैसे गौएँ एक-एक का अनुसरण करते हुए गव्यूति के भीतर विचरती हैं वैसे ही लोकभाषाएँ तथा वेद-भाषाएँ भी अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लङ्घन महीं करतीं ।"
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"तात! मुझे शब्द, अर्थ और भाषा के पारस्परिक संबंध के बारे में शिक्षा दें ।"
"वत्स शब्द अर्थ में व्यक्त होता है और अर्थ शब्द में प्रच्छन्न । भाषा शब्द और अर्थ का सामञ्जस्य और संतुलन से भास्या होती है ।
इसलिए माहेश्वर-सूत्रों से प्रत्येक शब्द में अनेक अर्थ प्रच्छन्न होते हैं और प्रत्येक अर्थ को भाषा या विभाषा के माध्यम से विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) से सर्वत्र अनेक रूपों में कहा, सुना और समझा जाता है । माहेश्वर-सूत्र शब्द, अर्थ तथा भाषा के अनुशासन के प्रबन्ध के ईश्वर हैं द्रविड / द्राविड और संस्कृत इन दो भाषाओं का विधान करते हैं । द्रविड उच्चारित शब्द अर्थात् ध्वनि का अनुकरण करती है, लिपि गौण है । संस्कृत ध्वनि का अनुकरण करती है लिपि गौण है ।"
" हे तात! यदि लिपि दोनों ही भाषाओं में लिपि गौण महत्व रखती है, तो इसका उल्लेख करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?"
"वत्स, दोनों ही भाषाएँ भगवान् शिव के मुख से निःसृत शब्दानुशासन है । किन्तु उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है । उन्हें लिपिबद्ध करने की वस्तुतः आवश्यकता ही नहीं है । किन्तु सहायक साधन और अर्थ-प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न निष्ठा के अनुसार भिन्न-भिन्न इन दो लिपियों का अवतरण हुआ । वे सरस्वती ही हैं अर्थात् वाक् का व्यक्त रूप । और यह शब्द और अर्थ के पारस्परिक संबंध की ही याथातथ्यवत् उसी तरह है, जैसा मैंने तुम्हें बतलाया ।"
"हे तात! फिर अन्य असंख्य भाषाओं का क्या प्रयोजन है?"
"पुत्र! द्रविड तथा संस्कृत का प्रयोजन वेद-भाषा के उद्देश्य की सिद्धि हेतु है । लोक में वेद-भाषा केवल ब्राह्मण-वर्ण के ही लिए प्रासंगिक है । ब्राह्मणेतर मनुष्यों के लिए वेद-भाषा अगम्य और अप्रयोज्य है ।"
"तात! ब्राह्मण का तात्पर्य तो स्पष्ट है कि जिसका जन्म ब्राह्मण माता-पिता से हुआ वह ब्राह्मण हुआ । किन्तु यह ’वर्ण’ पद किस हेतु है?"
"हे वत्स! जन्म और माता-पिता तो प्राथमिक महत्व के हैं । कोई ब्राह्मण माता-पिता से जन्म लेकर भी ब्राह्मणोचित संस्कार से रहित हो सकता है, या उसका यज्ञोपवीत संस्कार न किये जाने पर अब्राह्मण ही रह जाता है, जबकि कोई जन्म से ब्राह्मण माता-पिता की संतान न होते हुए भी ब्राह्मण-संस्कारों से युक्त होता है और विधाता के संकल्प से ब्राह्मणेतर माता-पिता से उत्पन्न होता है । ऐसा मनुष्य भी ब्राह्मण तो है किन्तु वेद-विद्या में उसका अधिकार तब तक नहीं होता जब तक वह उपवीत नहीं हो जाता ।"
"हे तात! कृपया इस शङ्का का निराकरण करें । यदि कोई ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान है तो उसे यज्ञोपवीत कैसे प्राप्त हो सकता है ?"
"उसी विधाता के सङ्कल्प से जिसने उसे ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान के रूप में उत्पन्न किया ।"
"अर्थात् मेरा प्रश्न विधिबाह्य हुआ ?"
"हाँ वत्स!"
"तात ! वेद-भाषा और लोक-भाषा में भेद क्यों ?"
"उसी कारण से जिससे कोई ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान होता है और कोई ब्राह्मण माता-पिता की । वेद-भाषा सरस्वती है, जबकि लोकभाषा विभाषा है :
सर्वत्र विभाषा गोः... (अष्टाध्यायी 6/1/122)
लोके वेदे चैङन्तस्य गोरति वा प्रकृतिभावः पदान्ते । गो अग्रम्, गोऽग्रम् । एङन्तस्य किम् ? चित्रवग्रम् । पदान्ते किम् ? -गोः ..."
"तात इसे अधिक स्पष्ट करें .."
"वत्स, जैसे गौएँ एक-एक का अनुसरण करते हुए गव्यूति के भीतर विचरती हैं वैसे ही लोकभाषाएँ तथा वेद-भाषाएँ भी अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लङ्घन महीं करतीं ।"
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