अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रश्न
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(विचार की) अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का 'अधिकार'
कोई विचार मुझे आकर्षित करता है और यदि मैं भी उसके प्रति आकर्षित हूँ तो उससे तादात्म्य स्थापित कर लेता हूँ और फिर इस भ्रम का शिकार हो जाता ह्ँ कि यह ’मेरा’ विचार है । तब मैं अपने ’विचार’ को अभिव्यक्त करने का प्रयास करने लगता हूँ और ’अपने’ विचार की अभिव्यक्ति करने को ’अपना’ अधिकार मान बैठता हूँ । मजे की बात है कि मैं जब चाहे तब ’अपने’ विचार के नितांत विपरीत या उस ’मेरे’ विचार से बिल्कुल भिन्न प्रकार के विचार के द्वारा इस पुराने विचार को प्रतिस्थापित कर सकता हूँ और तब इसे ’मेरा’ कहता हूँ । जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी ’विचार’ मूलतः ’मेरा’ या किसी का भी नहीं होता । राजनैतिक, सामाजिक, ’दार्शनिक’ और तथाकथित धार्मिक ’विचार’ तो और अधिक पराये होते हैं । तथाकथित 'वैज्ञानिक' यहाँ तक की 'गणितीय' मान्यताओं की सत्यता तक संदिग्ध है क्योंकि जिन वस्तुओं के बारे में वे विचार करते हैं उन वस्तुओं जैसे स्थान समय / काल / पदार्थ आदि की न तो कोई संतोषजनक परिभाषा उनके पास है न व्याख्या । 'ईश्वर' की अवधारणा सहित, ये सभी यथार्थ प्रतीत होनेवाले विचार परिस्थितियों और मनःस्थिति तथा मानसिक परिपक्वता के अनुसार अपने समय पर महत्वपूर्ण, अप्रासंगिक या अनावश्यक प्रतीत हुआ करते हैं ।
जैसे किसी चित्रकार की कूँची का कार्यक्षेत्र कॅनवस तक सीमित होता है और वह अपने तईं कितनी भी उत्कृष्ट या सामान्य पैंटिग बनाये, उसकी स्वतंत्रता उस कॅनवस से सीमित होती है और शायद ही यह संभव हो कि वह जिस भावना / विचार / स्मृति को कॅनवस पर प्रदर्शित करना चाहता था उसे पूरे आत्म-विश्वास से व्यक्त कर पाया हो । इसके बावज़ूद उस पैंटिंग को वह ’अपना’ कहता है, किन्तु यह कहना कठिन है कि उस पैंटिंग को देखनेवाले उस भावना / विचार / स्मृति को कितना / कैसे समझ सके हों । इसलिए एक ही पैंटिंग जहाँ भिन्न-भिन्न दर्शकों, कलाकारों और कला-समीक्षकों के लिए भिन्न-भिन्न ’अर्थ’ रखती है, वैसे ही ’शब्दगत’ कोई भी ’विचार’ अपनी सीमाओं में बद्ध होता है । यह कहना कि ’विचार’ स्वतंत्र होता है, ’सत्य’ या ’असत्य’ होता है, मूलतः एक भ्रम है । ’विचार’ की ’सत्यता’ / ’असत्यता’ / यथार्थता उसकी व्यावहारिकता और उसे प्रयोग किए जाने पर पाए जानेवाले परिणामों तक सीमित होती है ।
’विचार’ की तुलना में ’भावनाएँ’ और विशेषकर मानसिक स्तर पर घटित होनेवाली अनुभूतियाँ, अपेक्षतया अधिक स्पष्ट प्रतीतियाँ होते हैं और उनके होने के समय सर्वाधिक प्रामाणिक भी होते हैं किन्तु समय बीतते ही मन उन्हें स्मृति तथा अच्छे-बुरे, सही-गलत, प्रिय-अप्रिय आदि के वैचारिक वर्गीकरण में रूपान्तरित कर लेता है । उनकी अनायास ’अभिव्यक्ति’ कभी संभव होती है कभी-कभी नहीं भी होती । तब ’विचार’ के माध्यम से किसी हद तक उन्हें व्यक्त तो किया जा सकता है किन्तु उन्हें कितना और किस रूप में समझा जाता है इस बारे में कुछ तय नहीं ।
जीवन, चेतना, संवेदन, अनुभूति, अस्तित्व का प्रच्छन्न आयाम है, जबकि जिस भौतिक इन्द्रिय-मन-बुद्धिग्राह्य संसार को मनुष्य अपने से भिन्न समझता है वह अस्तिव का प्रकट आयाम है और भावना, स्मृति, विचार, अभिव्यक्ति, अर्थात् ’चित्त’ उन दोनों के बीच अवस्थित अन्तर्वर्ती आयाम (इंटरफ़ेस) / व्यक्ति है ।
’यथार्थ’ वह है, जिसे व्यावहारिक धरातल पर प्रयोग में लाया जा सकता है । इसलिए ’सामाजिक’/ ’राजनैतिक’ विचार, उनकी कल्पना से पृथक् वास्तव में कहीं होते ही नहीं । इसलिए ’सामाजिक’ / ’राजनैतिक’ यथार्थ एक छलावा, नाटक है जिससे व्यक्ति कभी नहीं समझ पाता । यदि यह स्पष्ट हो जाता है कि ’विचार’ अभिव्यक्ति के लिए एक अपर्याप्त / अनुपयुक्त, यहाँ तक कि प्रायः अनर्थकारी माध्यम भी हो सकता है तो यह समझना कठिन नहीं कि ’अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ जैसी कोई चीज़ कहीं नहीं होती ।
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(विचार की) अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का 'अधिकार'
कोई विचार मुझे आकर्षित करता है और यदि मैं भी उसके प्रति आकर्षित हूँ तो उससे तादात्म्य स्थापित कर लेता हूँ और फिर इस भ्रम का शिकार हो जाता ह्ँ कि यह ’मेरा’ विचार है । तब मैं अपने ’विचार’ को अभिव्यक्त करने का प्रयास करने लगता हूँ और ’अपने’ विचार की अभिव्यक्ति करने को ’अपना’ अधिकार मान बैठता हूँ । मजे की बात है कि मैं जब चाहे तब ’अपने’ विचार के नितांत विपरीत या उस ’मेरे’ विचार से बिल्कुल भिन्न प्रकार के विचार के द्वारा इस पुराने विचार को प्रतिस्थापित कर सकता हूँ और तब इसे ’मेरा’ कहता हूँ । जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी ’विचार’ मूलतः ’मेरा’ या किसी का भी नहीं होता । राजनैतिक, सामाजिक, ’दार्शनिक’ और तथाकथित धार्मिक ’विचार’ तो और अधिक पराये होते हैं । तथाकथित 'वैज्ञानिक' यहाँ तक की 'गणितीय' मान्यताओं की सत्यता तक संदिग्ध है क्योंकि जिन वस्तुओं के बारे में वे विचार करते हैं उन वस्तुओं जैसे स्थान समय / काल / पदार्थ आदि की न तो कोई संतोषजनक परिभाषा उनके पास है न व्याख्या । 'ईश्वर' की अवधारणा सहित, ये सभी यथार्थ प्रतीत होनेवाले विचार परिस्थितियों और मनःस्थिति तथा मानसिक परिपक्वता के अनुसार अपने समय पर महत्वपूर्ण, अप्रासंगिक या अनावश्यक प्रतीत हुआ करते हैं ।
जैसे किसी चित्रकार की कूँची का कार्यक्षेत्र कॅनवस तक सीमित होता है और वह अपने तईं कितनी भी उत्कृष्ट या सामान्य पैंटिग बनाये, उसकी स्वतंत्रता उस कॅनवस से सीमित होती है और शायद ही यह संभव हो कि वह जिस भावना / विचार / स्मृति को कॅनवस पर प्रदर्शित करना चाहता था उसे पूरे आत्म-विश्वास से व्यक्त कर पाया हो । इसके बावज़ूद उस पैंटिंग को वह ’अपना’ कहता है, किन्तु यह कहना कठिन है कि उस पैंटिंग को देखनेवाले उस भावना / विचार / स्मृति को कितना / कैसे समझ सके हों । इसलिए एक ही पैंटिंग जहाँ भिन्न-भिन्न दर्शकों, कलाकारों और कला-समीक्षकों के लिए भिन्न-भिन्न ’अर्थ’ रखती है, वैसे ही ’शब्दगत’ कोई भी ’विचार’ अपनी सीमाओं में बद्ध होता है । यह कहना कि ’विचार’ स्वतंत्र होता है, ’सत्य’ या ’असत्य’ होता है, मूलतः एक भ्रम है । ’विचार’ की ’सत्यता’ / ’असत्यता’ / यथार्थता उसकी व्यावहारिकता और उसे प्रयोग किए जाने पर पाए जानेवाले परिणामों तक सीमित होती है ।
’विचार’ की तुलना में ’भावनाएँ’ और विशेषकर मानसिक स्तर पर घटित होनेवाली अनुभूतियाँ, अपेक्षतया अधिक स्पष्ट प्रतीतियाँ होते हैं और उनके होने के समय सर्वाधिक प्रामाणिक भी होते हैं किन्तु समय बीतते ही मन उन्हें स्मृति तथा अच्छे-बुरे, सही-गलत, प्रिय-अप्रिय आदि के वैचारिक वर्गीकरण में रूपान्तरित कर लेता है । उनकी अनायास ’अभिव्यक्ति’ कभी संभव होती है कभी-कभी नहीं भी होती । तब ’विचार’ के माध्यम से किसी हद तक उन्हें व्यक्त तो किया जा सकता है किन्तु उन्हें कितना और किस रूप में समझा जाता है इस बारे में कुछ तय नहीं ।
जीवन, चेतना, संवेदन, अनुभूति, अस्तित्व का प्रच्छन्न आयाम है, जबकि जिस भौतिक इन्द्रिय-मन-बुद्धिग्राह्य संसार को मनुष्य अपने से भिन्न समझता है वह अस्तिव का प्रकट आयाम है और भावना, स्मृति, विचार, अभिव्यक्ति, अर्थात् ’चित्त’ उन दोनों के बीच अवस्थित अन्तर्वर्ती आयाम (इंटरफ़ेस) / व्यक्ति है ।
’यथार्थ’ वह है, जिसे व्यावहारिक धरातल पर प्रयोग में लाया जा सकता है । इसलिए ’सामाजिक’/ ’राजनैतिक’ विचार, उनकी कल्पना से पृथक् वास्तव में कहीं होते ही नहीं । इसलिए ’सामाजिक’ / ’राजनैतिक’ यथार्थ एक छलावा, नाटक है जिससे व्यक्ति कभी नहीं समझ पाता । यदि यह स्पष्ट हो जाता है कि ’विचार’ अभिव्यक्ति के लिए एक अपर्याप्त / अनुपयुक्त, यहाँ तक कि प्रायः अनर्थकारी माध्यम भी हो सकता है तो यह समझना कठिन नहीं कि ’अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ जैसी कोई चीज़ कहीं नहीं होती ।
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