Thursday, 25 February 2016

प्रसंगवश : ’कला’ का जोख़िम

प्रसंगवश : ’कला’ का जोख़िम
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मेरी एक अत्यन्त प्रिय छोटी सी कविता है :
"तुम्हारे लिए दुःखी तो हूँ,
लेकिन निराश नहीं,
अपने लिए निराश तो हूँ,
लेकिन दुःखी नहीं ।"
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निर्मल वर्मा की एक पुस्तक का शीर्षक है :
’कला का जोख़िम’
बहुत बार पढ़ने की क़ोशिश की किन्तु ठीक से कभी नहीं पढ़ पाया । एक तो वैसी परिस्थिति नहीं बनी और कभी बनी तो मनःस्थिति ऐसी नहीं थी कि मन लग सके । किन्तु कला के जोख़िम के बारे में मैं इस क़िताब से परिचित होने से भी काफ़ी पहले से सोचता रहा हूँ ।
उस जमाने से, जब अपने पिता के साथ वर्ष 1970 के सितंबर माह में उनके एक चित्रकार मित्र श्री विष्णु चिंचालकरजी  से मिलने इंदौर गया था । उनकी कला-दृष्टि से प्रभावित तो हुआ था लेकिन चकित या अभिभूत बिलकुल नहीं हुआ । यह तो मानना होगा कि कुछ कलाकार जन्मजात भी प्रतिभासंपन्न होते होंगे किन्तु उनकी प्रतिभा उस नदी के समान कला की दिशा में बढ़ जाती है जिसका स्वाभाविक तय लक्ष्य न भी होता हो तो भी उसे बहने से रोककर उसके स्वाभाविक रास्ते से विचलित कर दिया जाता है, चाहे नहरें काटकर या बिजली बनाने के लिए ।
कला और साहित्य, तमाम बुद्धिजीवी गतिविधियाँ प्रायः इसी प्रकार उसके अपने और हमारे समूचे संसार के विनाश का कारण बनकर रह गई है ।
चाहे फ़िल्म हो, साहित्य हो, कलाक्षेत्र हो या गीत-संगीत हो ।
उपरोक्त पंक्तियाँ लिखने से जरा पहले ही, अभी-अभी इसी बारे में कुछ लिखा और फिर अधूरे मन से उसे डिलीट कर दिया था, किन्तु पुनः एक मित्र का ’इन्विटेशन’ पढ़कर दोबारा लिखने का ख़याल आया ।
’फ़ेसबुक’ पर उस निमंत्रण में किसी चित्रकार की कलाकृतियों के प्रदर्शन के आयोजन की सूचना थी ।
’कला’ के नाम पर प्रयोग करना सचमुच जोख़िम का काम है । और सबसे बड़ा जोख़िम यह कि प्रयोग करनेवालों और प्रशंसकों को कल्पना तक नहीं होती कि वे कितने बड़े संकट में पड़ सकते हैं । क्या बामियान के बुद्ध की मूर्ति बनानेवाले मूर्तिकार को आभास रहा होगा कि कुछ सौ या हज़ार वर्षों बाद वहाँ क्या होगा ? क्या भारत के अद्भुत शिल्पकला संपन्न, रत्न, हीरे-मोतियों से जड़े और स्वर्ण और रजत मूर्तियों से समृद्ध सैकड़ों भव्य मन्दिर बनानेवालों ने कल्पना की होगी कि उन्हें न सिर्फ़ लूटा जाएगा, बल्कि तहस-नहस कर दिया जाएगा, इतना ही नहीं वहाँ पर आततायियों द्वारा अपने आराधना-स्थल खड़े कर दिये जाएँगे?
यह तो हुआ इतिहास जिसके बारे में किसी भी सजग मनुष्य को वैसे ही बहुत कुछ समझ में आ जाता है किन्तु जब कला के नाम पर इतिहास को पेश किया जाता है तो सोचने के लिए बाध्य हो जाते हैं । औरंगज़ेब ने किसी मराठा शासक की बोटियाँ काटकर कुत्तों को परोस दी थीं इसका पुरातात्विक प्रामाणिक ऐतिहासिक चित्र देखकर लगा कि क्या उस चित्रकार ने कल्पना की होगी कि कभी वह चित्र औरंगज़ेब के असली चेहरे को भी उजागर करेगा ?
कभी राजा रवि वर्मा ने देवी देवताओं की पैंटिंग्स बनाईं थीं जिन्हें कैलेण्डरों पर छापे जाने को लेकर मतभेद थे, किन्तु कालान्तर में उन्हें समाज ने स्वीकार कर लिया । दीपावलि पर लक्ष्मी सरस्वती गणेश का चित्र हो या शिव-गौरी, राधा-कृष्ण, श्रीराम-दरबार, धीरे-धीरे सबको स्वीकार कर लिया गया । किन्तु बाद में माइकलेंजेलो, पिकासो जैसे ख्यातिप्राप्त चित्रकारों ने कला का जैसा प्रयोग किया उससे संसार का लाभ तो क़तई नहीं, क्षति ही अधिक हुई ।
कला शब्द का अर्थ ही है अंश जो पूर्ण नहीं होता । इसलिए कला की अभिव्यक्ति सदैव आंशिक होती है । कला का स्थान परंपरा तक सीमित होता है । धर्म के क्षेत्र में कला का प्रयोग बहुत सोच-समझकर और सावधानी से किया जाना आवश्यक है । अगर आप वास्तु-शास्त्र के किसी अनुभवी विद्वान से पूछें तो वह शायद यही कहेगा कि किसी भी कलाकृति का उसके स्थान और समय के अनुसार महत्व होता है । यदि आप दिशा-वास्तु को समझते हैं, तो शायद समझ सकें कि आठ दिशाओं के आठ वसु / लोकपाल, उनकी प्रकृति के अनुसार स्थान और मनुष्यों यहाँ तक कि चर-अचर जड-चेतन वस्तुओं को भी प्रभावित करते हैं । ये पोज़िटिव / नेगेटिव एनर्जी की बातें करनेवाले हालाँकि इसका प्रायः आधा-अधूरा ज्ञान ही रखते हैं, और वास्तु के नाम पर सीधे-साधे, भीरु या अन्धविश्वास से ग्रस्त लोगों को अपना शिकार बनाते हैं, किन्तु वास्तु के मूल तत्व को जाननेवालों को कोई संदेह नहीं कि ये आठ वसु न सिर्फ़ दिशाओं बल्कि भौगोलिक क्षेत्रों तक पर नियंत्रण रखते हैं ।
वैदिक यंत्र-शास्त्र इसी ज्ञान और इसके व्यावहारिक उपयोग के सिद्धान्त पर आधारित है । तंत्र-शास्त्र किसी प्रणाली की रूपरेखा और कार्य करने के तरीके के अध्ययन और प्रयोग के उद्देश्य को पूरा करता है जबकि मंत्र शास्त्र उन चेतन शक्तियों की सत्ता को, जिन्हें ’देवता’ कहा जाता है, समझकर, उनका आवाहन / आह्वान कर उनके माध्यम से इष्ट कार्य को सफलता प्रदान करता है ।
स्पष्ट है कि ’नाम’ ध्वन्यात्मक अक्षरों / वर्णों, स्वरों और व्यञ्जनों के विशिष्ट संयोजन का प्रकार होता है, जबकि ’रूप’ वास्तु (वस्तु का परिप्रेक्ष्य) उसके प्रकट चरित्र का द्योतक । जैसे (संगीत के) किन्हीं भी बेतरतीब स्वरों और ताल के संयोजन से मधुर और कर्णप्रिय संगीत (राग) नहीं उत्पन्न होता, वैसे ही रंगों और रेखाओं के बेतरतीब संयोजन से कोई ऐसा चित्र बनाया जाना भी संभव नहीं जो भाव-संप्रेषण में सफल हो । इसलिए कला के नाम पर जहाँ तक चित्रकला का प्रश्न है जितनी अधिक ’प्रयोगशीलता’ है चित्रकला उतनी ही व्यक्तिपरक होती गई है । बहुत से तथाकथित ’श्रेष्ठ’ कहे जानेवाले चित्र जिन्हें समझने में दूसरे कला-पारखी लोगों को भी पसीने आ जाते हैं केवल प्रचार और हाइप के चलते ’मूल्यवान’ बन जाते हैं । और चूँकि इनकी उत्कृष्टता और श्रेष्ठता का कोई सुनिश्चित पैमाना बनाया जाना संभव भी नहीं होता, वे लोगों का भावनात्मक शोषण करते हैं ।
यदि किसी कला-प्रेमी को कोई कलाकृति मोहित और आकर्षित करती है और वह इसके लिए मुहमाँगी क़ीमत देने को तैयार है तो इससे यह प्रमाणित नहीं हो जाता कि वास्तव में वह कलाकृति दूसरी समक्ष कलाकृतियों से सचमुच अधिक श्रेष्ठ है ।  ’कला’ बाज़ार में खरीदे-बेचे जाने की चीज़ हो भी नहीं सकती न होनी चाहिये । सरस्वती और लक्ष्मी दोनों गणेश के साथ समान रूप से पूज्य हैं किन्तु हमने लक्ष्मी को केन्द्र में और सरस्वती तथा गणेश को उसके क्रमशः दाएँ-बाएँ स्थापित कर रखा है । यहाँ स्त्रीवादी या पुरुषवादी का प्रश्न नहीं है क्योंकि कला और ऐश्वर्य प्रकृति से अधिक समीप होने से स्त्रीवाची हैं और बुद्धि अपेक्षाकृत पुरुषवाची है । क्योंकि बुद्धि ही निश्चयात्मक-प्रवृत्ति है जो उन दोनों की अपेक्षा अधिक चेतन है । प्रकृति बुद्धि को या अपने आप को भी जानती है या नहीं कुछ तय नहीं है, किन्तु यह तो तय है कि कोई चेतन तत्व ही प्रकृति को जानता है । अर्थात् चेतन तत्व प्रकृति से अधिक बोधयुक्त है, प्रकृति इसलिए भी अपेक्षातया जड है क्योंकि पुरुष ही उसे किसी सीमा तक प्रभावित करता है । पुनः यहाँ स्त्री-पुरुष का सन्दर्भ शरीर की रचना के सन्दर्भ में मनुष्य के स्त्री अथवा पुरुष होने से नहीं बल्कि  उस ’पुरुष’ से है, जो इस देहरूपी पुर में रहता है, उसे पूर्णता देता है, अर्थात् बुद्धि । यह बुद्धि बिल्कुल नवजात शिशु सी हो सकती है जिसे अभी मैं / पर का बोध तक नहीं है, या फिर किसी विशाल पशु (हाथी) जैसी जो मदग्रस्त होता है । उसी हाथी का सिर जब मनुज के धड़ पर होता है तो वह भूतगणों का ईश होता है ।
किन्तु हम बात कर रहे थे वास्तु की, यंत्र, तंत्र, और मंत्र की और ’कला’ के माध्यम से उन्हें जाने-अनजाने प्रयोग करने की ।
वेद जिन 33 देवताओं के बारे में कहते हैं और पुराण जिनके अनेक रूपों का कलात्मक वर्णन करते हैं उन देवताओं को हम जाने-अनजाने प्रसन्न भी कर सकते हैं और रुष्ट भी कर सकते हैं । और वे देवता हम मनुष्यों जैसे स्वेच्छाचारी न होकर ईश्ववरीय विधान के ही विभिन्न उपकरण / उपाधि हैं और अपनी मर्यादा में बँधे हैं ।
हम मनुष्य सोचते हैं कि हम स्वतंत्र हैं, हमें स्वतंत्र होने का जन्मसिद्ध अधिकार है । किन्तु विचारणीय है कि जब तक हम इच्छाओं और लालसाओं के दास हैं स्वतन्त्र कैसे हो सकते हैं? जब हमारी इच्छाओं में टकराहट होती है तो हममें अन्तर्द्वन्द्व पैदा होता है । यह बात व्यक्ति और समाज, दोनों ही स्तरों पर एक स्पष्ट तथ्य है । यदि कलाकार इस तथ्य को समझता है तो ही उसकी कला सार्थक है, यदि कलाकार स्वयं ही भ्रमित, असमंजस में है, तो उसकी कलाकृति दूसरों के भ्रम को और भी शक्तिशाली बनाएगी ।
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