लिपि और भाषा / Language and Script
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श्रीमद्भग्वद्गीता
अध्याय 2,
श्लोक 62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
श्लोक 63
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
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उपरोक्त दोनों श्लोकों का अर्थ यह है कि विषयों के ध्यान से बुद्धिनाश तक मनुष्य कैसे पहुँचता है ।
’लिपि’ अर्थात् नागरी और दूसरी तमाम हिन्द-महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र की सभी भाषाओं का मूल ब्राह्मी लिपि है । यह नागरी सहित अन्य सभी लिपियों की आधारभूत लिपि है । संक्षेप में यदि आप असामिया Assamese, ओडिया / Oriya, तिब्बती / Tibetan, तेलुगु / Telugu, कन्नड / Kannada, तमिल / Tamil, मलयालम / Malayalam, सिंहल / Sinhalese, बर्मी Burmese, लाओ / Lao, थाई / Thai, ख्मेर / Khmer, जावानी (जावानीज़) / Javanese, बाली / Bali, टैगोलोग / Tagalog, बटक / Batak, तथा बुगिस / Buginese, लिपियों और वर्णाक्षरों का अध्ययन करें तो उन सभी का ब्राह्मी से उद्भव एक सुनिश्चित तारतम्य के साथ हुआ है यह स्पष्ट हो जाता है । यहाँ तक उनकी बारहखड़ी तक भौगोलिक स्थितियों के साथ-साथ सीधे-सीधे ब्राह्मी के वर्णाक्षरों का रूपांतरित और परिवर्तित रूप है । यहाँ तक कि वर्ण-विन्यास और क्रम भी संस्कृत व्याकरण के नियमों पर आधारित है । ब्राह्मी के दो स्वरूप लोकभाषा और शास्त्रभाषा प्रारंभ से ही विद्यमान हैं । लोकभाषा व्यवहार के लिए है और संस्कृत केवल अध्ययन हेतु ।
दूसरी भाषाएँ (अरबी, हिब्रू, और यूरोपियन) जो स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई उनकी शब्द-निर्मिति और भाषा का विकास जिन नियमों से हुआ उन्हें भी संस्कृत व्याकरण और ध्वनि-शास्त्र में आसानी से पाया जा सकता है । ’अक्षर-समाम्नाय’ न सिर्फ़ वैदिक या शास्त्रीय संस्कृत की उत्पत्ति कैसे हुई इसकी व्याख्या करता है, बल्कि वह ’सभी’ भाषाओं के लिये आधारभूत सिद्धान्त है ।
कहने का सार यह कि आँग्ल-संस्कृति ने हमारी हिन्द-महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र की सभी भाषाओं में परस्पर विद्वेष उत्पन्न किया और आँग्ल-भाषा और आँग्ल-भाषा को माध्यम स्वीकार करने के साथ ही हमारा अपनी संस्कृति से दुराव हो गया ।
किन्तु हिन्द-महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र की सभी भाषाओं की ’लिपि’ को एक बार समझ लिया जाए, तो हम अपनी इस दुर्भाग्यजनक स्थिति से उबर सकते हैं । किन्तु किसे दिलचस्पी है? मुझे लगता है कि यदि हमें ही रुचि नहीं तो विदेशी क्यों हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर दिलायेंगे, हमारी दिलचस्पी जगायेंगे?
उपरोक्त तथ्यों की खोज हमें स्वयं ही करनी होगी किन्तु आज के बुद्धिजीवियों को देखता हूँ तो सभी स्मृति-भ्रंश से ग्रस्त दिखाई देते हैं !
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श्रीमद्भग्वद्गीता
अध्याय 2,
श्लोक 62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
श्लोक 63
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
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उपरोक्त दोनों श्लोकों का अर्थ यह है कि विषयों के ध्यान से बुद्धिनाश तक मनुष्य कैसे पहुँचता है ।
’लिपि’ अर्थात् नागरी और दूसरी तमाम हिन्द-महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र की सभी भाषाओं का मूल ब्राह्मी लिपि है । यह नागरी सहित अन्य सभी लिपियों की आधारभूत लिपि है । संक्षेप में यदि आप असामिया Assamese, ओडिया / Oriya, तिब्बती / Tibetan, तेलुगु / Telugu, कन्नड / Kannada, तमिल / Tamil, मलयालम / Malayalam, सिंहल / Sinhalese, बर्मी Burmese, लाओ / Lao, थाई / Thai, ख्मेर / Khmer, जावानी (जावानीज़) / Javanese, बाली / Bali, टैगोलोग / Tagalog, बटक / Batak, तथा बुगिस / Buginese, लिपियों और वर्णाक्षरों का अध्ययन करें तो उन सभी का ब्राह्मी से उद्भव एक सुनिश्चित तारतम्य के साथ हुआ है यह स्पष्ट हो जाता है । यहाँ तक उनकी बारहखड़ी तक भौगोलिक स्थितियों के साथ-साथ सीधे-सीधे ब्राह्मी के वर्णाक्षरों का रूपांतरित और परिवर्तित रूप है । यहाँ तक कि वर्ण-विन्यास और क्रम भी संस्कृत व्याकरण के नियमों पर आधारित है । ब्राह्मी के दो स्वरूप लोकभाषा और शास्त्रभाषा प्रारंभ से ही विद्यमान हैं । लोकभाषा व्यवहार के लिए है और संस्कृत केवल अध्ययन हेतु ।
दूसरी भाषाएँ (अरबी, हिब्रू, और यूरोपियन) जो स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई उनकी शब्द-निर्मिति और भाषा का विकास जिन नियमों से हुआ उन्हें भी संस्कृत व्याकरण और ध्वनि-शास्त्र में आसानी से पाया जा सकता है । ’अक्षर-समाम्नाय’ न सिर्फ़ वैदिक या शास्त्रीय संस्कृत की उत्पत्ति कैसे हुई इसकी व्याख्या करता है, बल्कि वह ’सभी’ भाषाओं के लिये आधारभूत सिद्धान्त है ।
कहने का सार यह कि आँग्ल-संस्कृति ने हमारी हिन्द-महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र की सभी भाषाओं में परस्पर विद्वेष उत्पन्न किया और आँग्ल-भाषा और आँग्ल-भाषा को माध्यम स्वीकार करने के साथ ही हमारा अपनी संस्कृति से दुराव हो गया ।
किन्तु हिन्द-महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र की सभी भाषाओं की ’लिपि’ को एक बार समझ लिया जाए, तो हम अपनी इस दुर्भाग्यजनक स्थिति से उबर सकते हैं । किन्तु किसे दिलचस्पी है? मुझे लगता है कि यदि हमें ही रुचि नहीं तो विदेशी क्यों हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर दिलायेंगे, हमारी दिलचस्पी जगायेंगे?
उपरोक्त तथ्यों की खोज हमें स्वयं ही करनी होगी किन्तु आज के बुद्धिजीवियों को देखता हूँ तो सभी स्मृति-भ्रंश से ग्रस्त दिखाई देते हैं !
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