सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥
(मनुस्मृति, 4/138)
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satyaṃ brūyāt priyaṃ brūyānna brūyāt satyamapriyaṃ |
priyaṃ ca nānṛtam brūyādeṣa dharma sanātanaḥ ||
(manusmṛti, 4/138)
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Meaning :
Speak what is true,
Speak what is sweet to the ears of the listeners,
Never speak what is true but is not sweet to their ears.
And though Speak what is sweet to the ears of the listeners,
Never Speak what is a lie.
This is the (essence of) sanātanaḥ dharma* .
(*sanātanaḥ dharma - The Truth That abides eternally and should be always practiced)
--
अर्थ :
वही कहो जो सत्य है,
वही कहो जो सुननेवाले को प्रिय है,
जो सुननेवाले के लिए अप्रिय है (ऐसा सत्य) उससे मत कहो ।
हाँ, उसे जो प्रिय है वही उससे कहो,
किन्तु उससे (उसका ऐसा प्रिय) कदापि मत कहो जो असत्य हो ।
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अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और मर्यादाएँ
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प्रथमदृष्ट्या यह बिल्कुल तर्कसंगत प्रतीत होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार है । किन्तु थोड़ा विचार करने पर ऐसा लगता है कि जैसे किसी अधिकार का उपभोग उससे जुड़े कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के निर्वाह की भी अपेक्षा रखता है वैसे ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की भी विवेकसम्मत मर्यादाएँ होती है । इस अधिकार का प्रयोग, उपयोग और उपभोग परिस्थितियों पर भी किसी सीमा तक निर्भर और संभव, आसान या कठिन, आवश्यक और अनावश्यक, यहाँ तक कि विहित या निषिद्ध भी हो सकता है । क्योंकि सब मनुष्य शुद्धतः भौतिक और तकनीकी ’सत्य’ के अतिरिक्त ’सत्य’ क्या है इस बारे में परस्पर भिन्न-भिन्न मत रखते हैं इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का स्वरूप प्रारंभ से ही अनिश्चित है । यदि हम व्यावहारिक सत्य के बारे में विचार करें तो जीवन के सरल और सुस्पष्ट सत्य अर्थात् भौतिक तथ्यों को यथावत् निर्विवाद रूप से कहना, उनकी अभिव्यक्ति करना संभव है, उपयोगी भी है इसमें संदेह नहीं । किन्तु जहाँ तक उस सत्य या उन सत्यों की अभिव्यक्ति के बारे में प्रश्न है जिनके स्वरूप के बारे में हम अनिश्चित हैं, उनकी स्पष्टता से अभिव्यक्ति करना एक आसान काम नहीं हो सकता ।
’वैज्ञानिक’ सत्य प्रायः प्रयोग और उनके सुनिश्चित प्रमाण से तय किए जाते हैं और व्यवहार में सर्वथा ग्राह्य हैं इसमें किसी को कोई आपत्ति कैसे हो सकती है? किन्तु विज्ञान केवल जड जगत के बारे में इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त निष्कर्षों तक सीमित है । जिससे इन्द्रिय-ज्ञान का उद्भव होता है, विज्ञान उस सत्य के बारे में कुछ कहने का अधिकार ही नहीं रखता । स्पष्ट है कि इन्द्रिय-ज्ञान किसी चेतन-सत्ता के लिए और उसके ही सन्दर्भ में हो सकता है । वह चेतन सत्ता ’मैं’, ’तुम’ या ’वह’ ’यह’ के रूप में है इस बारे में भी सन्देह करने के लिए कोई कारण हमारे पास नहीं हो सकता । संभव है कि भौतिक वस्तुओं में ऐसी ’चेतन-सत्ता’ अप्रकट होती हो और उन्हीं भौतिक वस्तुओं के विशिष्ट और अत्यंत जटिल रूप से संश्लिष्ट होने पर अस्तित्व में आए किसी ’शरीर’ में बोध-रूप में व्यक्त हो उठती हो, किन्तु फिर भी वह चेतन-सत्ता ही इन्द्रियों को जानती और स्वयं उनके स्वामी होने का दावा करती है । उस चेतन-सत्ता में ही अनुकूल और प्रतिकूल का संवेदन होता है और प्रथमतः शरीर की स्थितियों के अनुसार बदलता रहता है । जैसे भूख, प्यास, निद्रा, ये तीनों परिस्थितियों से तारतम्य बनाए रखनेवाले साधन हैं । लेकिन ये तीनों सत्य / तथ्य व्यक्ति के सन्दर्भ में हैं, जैसे ही इन्हें किसी समुदाय / समाज के सन्दर्भ में देखा जाता है, ये ’विचार’ का रूप ले लेते हैं क्योंकि समुदाय / समाज एक वैचारिक तथ्य है, यह विचार पर ही निर्धारित और अस्तित्वमान होता है । अर्थात् समुदाय / समाज एक वैचारिक धारणा मात्र है न कि कोई ठोस वैज्ञानिक सत्य ।
इतिहास, जो कि घटनाओं का संग्रह है इसी प्रकार विचारगत सत्य / तथ्य अर्थात् वैचारिक धारणा मात्र है न कि वैज्ञानिक सत्य । सत्य की मूल कसौटी ही यही है कि वह परिवर्तित नहीं होता है । विज्ञान के मूल सिद्धान्त ’सत्य’ की इसी अवधारणा पर आधारित हैं । किन्तु व्यावहारिक सत्य / तथ्य निरंतर प्रवाहमान ऐसी वास्तविकता है जो निरंतर नाम-रूप बदलती रहती है । उसके संबंध में एकमात्र स्थिर तत्व है (उसका) बोध जो स्वयं ही अपना प्रमाण है । ’विचार’ इस बोध को विरूपित कर नाम-रूप में बाँध देता है और एक आभासी अस्तित्व व्यक्त होता है जिसे संसार / जगत् कहा जाता है । यह उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है किन्तु ’बोध’ के अभाव में उसका होना, न-होना समान रूप से निरर्थक है । यह ’बोध’ यद्यपि वैज्ञानिक सत्य को भी ग्राह्य और परीक्षा करने योग्य बनाता है, किन्तु इस बोध को वैज्ञानिक सत्य की सीमा में परिभाषित कर पाना स्पष्टतः असंभव है । यह बोध ’अनुभव’ नहीं है, यह अनुभवगम्य भी नहीं है, क्योंकि अनुभव अस्थायी खंडित अंतराल है, जबकि जिसमें ’अनुभव’ घटित होता है, वह वस्तु, ’बोध’ एक अविच्छिन्न किन्तु स्थिर आधार है ।
यह ’बोध’ इस प्रकार एक अविकारी तत्व है, जो स्वरूपतः शाश्वत, नित्य, अनित्य और काल-स्थान निरपेक्ष आधारभूत व्यक्त और अव्यक्त अस्तित्व है । इसमें विचारक और विचार का विभाजन / द्वन्द्व नहीं है । इसका दिशा-निर्देश नहीं किया जा सकता, बस इतना भर समझा जा सकता है कि इसका संवेदन बुद्धि, मन या इन्द्रियों आदि के माध्यम से संभव नहीं क्योंकि बुद्धि, मन या इन्द्रियों में उसकी ही क्षमता उन्हें संवेदनशील बनाती है । यह बोध शाश्वत है क्योंकि किसी काल या स्थान में इसका अभाव नहीं होता । सत्य तो यह है कि जिसे ’काल-स्थान’ कहा जाता है वह बुद्धि-आश्रित एक अनुमान / विचार धारणा भर है, और यह बुद्धि / विचार बोध के ही अन्तर्गत तरंग / लहर की भाँति उठता-गिरता, आत-जाता रहता है । जिसे हम ’नित्य’ कहते हैं, वह उसी बोध में ग्रहण की जानेवाली वस्तुओं का सतत प्रतीत होनेवाला रूपान्तरण है । जैसे सूरज का उगना और डूबना, रात्रि का आगमन और बीत जाना । ’बोध’ इन असंख्य घटनाओं से अप्रभावित अक्षुण्ण यथावत स्थिर रहता है । जब यही बोध इन्द्रिय-बोध के रूप में देह-विशेष में सक्रिय होता है तो इन्द्रिय-अनुभव नामक प्रतीति उत्पन्न होती है । इसे अनुभव का नाम दिया जाता है और स्मृति में संजो लिया जाता है । विचार के माध्यम से इस ’अनुभव’ की तुलना ऐसे ही अन्य अनुभवों से की जाती है और उनका अनुकूल / प्रतिकूल के रूप में वर्गीकरण कर दिया जाता है । इस प्रकार इसी बोध के अन्तर्गत ’विचारक’-रूपी कृत्रिम सत्ता जन्म लेती है । विचारक और विचार एक दुष्चक्र होता है और स्वयं ही स्वयं का कारण होता है । किन्तु बोध के अन्तर्गत, बोध के परिप्रेक्ष्य में इसकी अवस्थिति को ठीक-ठीक जान-समझ लेने पर इस दुष्चक्र का स्वरूप अनित्य है यह स्पष्ट हो जाता है, तब इसका निवारण भी हो जाता है । फिर भी व्यावहारिक जगत् में इसका आगमन और विसर्जन आभास-रूप में पुनः पुनः होता रहता है किन्तु वह ’बोध’ को आवरित नहीं कर पाता ।
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वैज्ञानिक सत्य ऐसे ही नित्य सत्य होते हैं जो अपने प्रयोग / उपयोग के लिए किसी काल-स्थान और पात्र की अपेक्षा रखते हैं । वह काल-स्थान स्वयं भौतिक सत्य है और किसी उनके प्रति चेतन / बोधयुक्त पात्र के सन्दर्भ में ही होता है । पात्र स्वयं भी उन्हीं भौतिक-तत्वों / कारकों के विशिष्ट संयोजन से बना एक पिण्ड (शरीर) होता है, जो कीड़े या पशु-पक्षी, मछली या मनुष्य आदि के रूप में हुआ करता है । पात्र स्वयं साकार, स्थूल भौतिक सत्य है, जबकि उस पात्र को प्राणवान, जीवित, सक्रिय बनानेवाली चेतनता निराकार सर्वव्यापी बोध ही है जो सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है और जिसके भीतर ही विभिन्न प्राणी अपना विशिष्ट देहगत जीवन जीते हैं । इन विभिन्न शरीरों में व्याप्त और इन्हें सक्रिय करनेवाला बोध फिर भी उनसे यत्किञ्चित भी प्रभावित नहीं होता । इस प्रकार किसी शरीर के जन्म या मृत्यु से केवल उस शरीर में व्याप्त बोध अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त रूप ग्रहण करता रहता है । उस बोध के सान्निध्य से ही बुद्धि नामक प्रणाली का उद्भव और विस्तार होता है जिसमें त्रुटिवश विचार और विचारक के भेद को सत्य समझ लिया जाता है । यह ऐसी ’समझ’ ही मौलिक त्रुटि है । इस त्रुटि का निराकरण संभव है और किया भी जाना चाहिए । जब बुद्धि की यह प्रणाली अपनी शुद्धता और सूक्ष्मता की पूर्णतासहित कार्यशील होती है तो इस त्रुटि का निराकरण एक त्वरित आवश्यकता, आकुलता और बाध्यता हो जाती है । जब तक ऐसी आकुलता (urgency) चित्त में नहीं जागृत होती मनुष्य के जीवन में वास्तविक प्रेम और शांति का आगमन नहीं हो पाता ।
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ध्यान (Attention) और 'बोध' (Meditation).
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प्रियं च नानृतम् ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥
(मनुस्मृति, 4/138)
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satyaṃ brūyāt priyaṃ brūyānna brūyāt satyamapriyaṃ |
priyaṃ ca nānṛtam brūyādeṣa dharma sanātanaḥ ||
(manusmṛti, 4/138)
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Meaning :
Speak what is true,
Speak what is sweet to the ears of the listeners,
Never speak what is true but is not sweet to their ears.
And though Speak what is sweet to the ears of the listeners,
Never Speak what is a lie.
This is the (essence of) sanātanaḥ dharma* .
(*sanātanaḥ dharma - The Truth That abides eternally and should be always practiced)
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अर्थ :
वही कहो जो सत्य है,
वही कहो जो सुननेवाले को प्रिय है,
जो सुननेवाले के लिए अप्रिय है (ऐसा सत्य) उससे मत कहो ।
हाँ, उसे जो प्रिय है वही उससे कहो,
किन्तु उससे (उसका ऐसा प्रिय) कदापि मत कहो जो असत्य हो ।
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अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और मर्यादाएँ
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प्रथमदृष्ट्या यह बिल्कुल तर्कसंगत प्रतीत होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार है । किन्तु थोड़ा विचार करने पर ऐसा लगता है कि जैसे किसी अधिकार का उपभोग उससे जुड़े कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के निर्वाह की भी अपेक्षा रखता है वैसे ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की भी विवेकसम्मत मर्यादाएँ होती है । इस अधिकार का प्रयोग, उपयोग और उपभोग परिस्थितियों पर भी किसी सीमा तक निर्भर और संभव, आसान या कठिन, आवश्यक और अनावश्यक, यहाँ तक कि विहित या निषिद्ध भी हो सकता है । क्योंकि सब मनुष्य शुद्धतः भौतिक और तकनीकी ’सत्य’ के अतिरिक्त ’सत्य’ क्या है इस बारे में परस्पर भिन्न-भिन्न मत रखते हैं इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का स्वरूप प्रारंभ से ही अनिश्चित है । यदि हम व्यावहारिक सत्य के बारे में विचार करें तो जीवन के सरल और सुस्पष्ट सत्य अर्थात् भौतिक तथ्यों को यथावत् निर्विवाद रूप से कहना, उनकी अभिव्यक्ति करना संभव है, उपयोगी भी है इसमें संदेह नहीं । किन्तु जहाँ तक उस सत्य या उन सत्यों की अभिव्यक्ति के बारे में प्रश्न है जिनके स्वरूप के बारे में हम अनिश्चित हैं, उनकी स्पष्टता से अभिव्यक्ति करना एक आसान काम नहीं हो सकता ।
’वैज्ञानिक’ सत्य प्रायः प्रयोग और उनके सुनिश्चित प्रमाण से तय किए जाते हैं और व्यवहार में सर्वथा ग्राह्य हैं इसमें किसी को कोई आपत्ति कैसे हो सकती है? किन्तु विज्ञान केवल जड जगत के बारे में इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त निष्कर्षों तक सीमित है । जिससे इन्द्रिय-ज्ञान का उद्भव होता है, विज्ञान उस सत्य के बारे में कुछ कहने का अधिकार ही नहीं रखता । स्पष्ट है कि इन्द्रिय-ज्ञान किसी चेतन-सत्ता के लिए और उसके ही सन्दर्भ में हो सकता है । वह चेतन सत्ता ’मैं’, ’तुम’ या ’वह’ ’यह’ के रूप में है इस बारे में भी सन्देह करने के लिए कोई कारण हमारे पास नहीं हो सकता । संभव है कि भौतिक वस्तुओं में ऐसी ’चेतन-सत्ता’ अप्रकट होती हो और उन्हीं भौतिक वस्तुओं के विशिष्ट और अत्यंत जटिल रूप से संश्लिष्ट होने पर अस्तित्व में आए किसी ’शरीर’ में बोध-रूप में व्यक्त हो उठती हो, किन्तु फिर भी वह चेतन-सत्ता ही इन्द्रियों को जानती और स्वयं उनके स्वामी होने का दावा करती है । उस चेतन-सत्ता में ही अनुकूल और प्रतिकूल का संवेदन होता है और प्रथमतः शरीर की स्थितियों के अनुसार बदलता रहता है । जैसे भूख, प्यास, निद्रा, ये तीनों परिस्थितियों से तारतम्य बनाए रखनेवाले साधन हैं । लेकिन ये तीनों सत्य / तथ्य व्यक्ति के सन्दर्भ में हैं, जैसे ही इन्हें किसी समुदाय / समाज के सन्दर्भ में देखा जाता है, ये ’विचार’ का रूप ले लेते हैं क्योंकि समुदाय / समाज एक वैचारिक तथ्य है, यह विचार पर ही निर्धारित और अस्तित्वमान होता है । अर्थात् समुदाय / समाज एक वैचारिक धारणा मात्र है न कि कोई ठोस वैज्ञानिक सत्य ।
इतिहास, जो कि घटनाओं का संग्रह है इसी प्रकार विचारगत सत्य / तथ्य अर्थात् वैचारिक धारणा मात्र है न कि वैज्ञानिक सत्य । सत्य की मूल कसौटी ही यही है कि वह परिवर्तित नहीं होता है । विज्ञान के मूल सिद्धान्त ’सत्य’ की इसी अवधारणा पर आधारित हैं । किन्तु व्यावहारिक सत्य / तथ्य निरंतर प्रवाहमान ऐसी वास्तविकता है जो निरंतर नाम-रूप बदलती रहती है । उसके संबंध में एकमात्र स्थिर तत्व है (उसका) बोध जो स्वयं ही अपना प्रमाण है । ’विचार’ इस बोध को विरूपित कर नाम-रूप में बाँध देता है और एक आभासी अस्तित्व व्यक्त होता है जिसे संसार / जगत् कहा जाता है । यह उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है किन्तु ’बोध’ के अभाव में उसका होना, न-होना समान रूप से निरर्थक है । यह ’बोध’ यद्यपि वैज्ञानिक सत्य को भी ग्राह्य और परीक्षा करने योग्य बनाता है, किन्तु इस बोध को वैज्ञानिक सत्य की सीमा में परिभाषित कर पाना स्पष्टतः असंभव है । यह बोध ’अनुभव’ नहीं है, यह अनुभवगम्य भी नहीं है, क्योंकि अनुभव अस्थायी खंडित अंतराल है, जबकि जिसमें ’अनुभव’ घटित होता है, वह वस्तु, ’बोध’ एक अविच्छिन्न किन्तु स्थिर आधार है ।
यह ’बोध’ इस प्रकार एक अविकारी तत्व है, जो स्वरूपतः शाश्वत, नित्य, अनित्य और काल-स्थान निरपेक्ष आधारभूत व्यक्त और अव्यक्त अस्तित्व है । इसमें विचारक और विचार का विभाजन / द्वन्द्व नहीं है । इसका दिशा-निर्देश नहीं किया जा सकता, बस इतना भर समझा जा सकता है कि इसका संवेदन बुद्धि, मन या इन्द्रियों आदि के माध्यम से संभव नहीं क्योंकि बुद्धि, मन या इन्द्रियों में उसकी ही क्षमता उन्हें संवेदनशील बनाती है । यह बोध शाश्वत है क्योंकि किसी काल या स्थान में इसका अभाव नहीं होता । सत्य तो यह है कि जिसे ’काल-स्थान’ कहा जाता है वह बुद्धि-आश्रित एक अनुमान / विचार धारणा भर है, और यह बुद्धि / विचार बोध के ही अन्तर्गत तरंग / लहर की भाँति उठता-गिरता, आत-जाता रहता है । जिसे हम ’नित्य’ कहते हैं, वह उसी बोध में ग्रहण की जानेवाली वस्तुओं का सतत प्रतीत होनेवाला रूपान्तरण है । जैसे सूरज का उगना और डूबना, रात्रि का आगमन और बीत जाना । ’बोध’ इन असंख्य घटनाओं से अप्रभावित अक्षुण्ण यथावत स्थिर रहता है । जब यही बोध इन्द्रिय-बोध के रूप में देह-विशेष में सक्रिय होता है तो इन्द्रिय-अनुभव नामक प्रतीति उत्पन्न होती है । इसे अनुभव का नाम दिया जाता है और स्मृति में संजो लिया जाता है । विचार के माध्यम से इस ’अनुभव’ की तुलना ऐसे ही अन्य अनुभवों से की जाती है और उनका अनुकूल / प्रतिकूल के रूप में वर्गीकरण कर दिया जाता है । इस प्रकार इसी बोध के अन्तर्गत ’विचारक’-रूपी कृत्रिम सत्ता जन्म लेती है । विचारक और विचार एक दुष्चक्र होता है और स्वयं ही स्वयं का कारण होता है । किन्तु बोध के अन्तर्गत, बोध के परिप्रेक्ष्य में इसकी अवस्थिति को ठीक-ठीक जान-समझ लेने पर इस दुष्चक्र का स्वरूप अनित्य है यह स्पष्ट हो जाता है, तब इसका निवारण भी हो जाता है । फिर भी व्यावहारिक जगत् में इसका आगमन और विसर्जन आभास-रूप में पुनः पुनः होता रहता है किन्तु वह ’बोध’ को आवरित नहीं कर पाता ।
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वैज्ञानिक सत्य ऐसे ही नित्य सत्य होते हैं जो अपने प्रयोग / उपयोग के लिए किसी काल-स्थान और पात्र की अपेक्षा रखते हैं । वह काल-स्थान स्वयं भौतिक सत्य है और किसी उनके प्रति चेतन / बोधयुक्त पात्र के सन्दर्भ में ही होता है । पात्र स्वयं भी उन्हीं भौतिक-तत्वों / कारकों के विशिष्ट संयोजन से बना एक पिण्ड (शरीर) होता है, जो कीड़े या पशु-पक्षी, मछली या मनुष्य आदि के रूप में हुआ करता है । पात्र स्वयं साकार, स्थूल भौतिक सत्य है, जबकि उस पात्र को प्राणवान, जीवित, सक्रिय बनानेवाली चेतनता निराकार सर्वव्यापी बोध ही है जो सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है और जिसके भीतर ही विभिन्न प्राणी अपना विशिष्ट देहगत जीवन जीते हैं । इन विभिन्न शरीरों में व्याप्त और इन्हें सक्रिय करनेवाला बोध फिर भी उनसे यत्किञ्चित भी प्रभावित नहीं होता । इस प्रकार किसी शरीर के जन्म या मृत्यु से केवल उस शरीर में व्याप्त बोध अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त रूप ग्रहण करता रहता है । उस बोध के सान्निध्य से ही बुद्धि नामक प्रणाली का उद्भव और विस्तार होता है जिसमें त्रुटिवश विचार और विचारक के भेद को सत्य समझ लिया जाता है । यह ऐसी ’समझ’ ही मौलिक त्रुटि है । इस त्रुटि का निराकरण संभव है और किया भी जाना चाहिए । जब बुद्धि की यह प्रणाली अपनी शुद्धता और सूक्ष्मता की पूर्णतासहित कार्यशील होती है तो इस त्रुटि का निराकरण एक त्वरित आवश्यकता, आकुलता और बाध्यता हो जाती है । जब तक ऐसी आकुलता (urgency) चित्त में नहीं जागृत होती मनुष्य के जीवन में वास्तविक प्रेम और शांति का आगमन नहीं हो पाता ।
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ध्यान (Attention) और 'बोध' (Meditation).
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