प्रश्न : प्रगतिशील होना क्या होता है? प्रगतिशील होना खराब होता है क्या?
उत्तर : शाब्दिक अर्थ में ’प्रगति’ का अर्थ होता है गतिशीलता । जीवन स्वयं ही एक विराट अपरिभाषेय, अबूझ गतिविधि / गतिशीलता है । इक धुँध से आना है, इक धुँध में जाना है । किन्तु यही गतिविधि ’उन्नति’ या ’अवनति’ हो जाती है । ’उन्नति’ और ’अवनति’, उत्थान और पतन यह मनुष्य का होता है, दूसरे प्राणियों के बारे में वही बेहतर जानते होंगे । किन्तु ’विकास’ सभी का होता है । विकास का अर्थ है अपनी क्षमताओं का चरम, पूर्णता । इसलिए एक वृक्ष / पौधा अपनी स्वाभाविक गतिविधि में विकसित होकर फल-फूलकर सूख जाता है, या बीजों के रूप में नए ’जीवन’ में अभिव्यक्त होता है । पता नहीं उसकी ’आत्मा’ ही नया जन्म लेती है या उसके संदर्भ में आत्मा-फ़ात्मा जैसी कोई चीज़ होती है या नहीं । दूसरे प्राणियों पर भी क़मोबेश यही बात लागू होती है । उन्हें हम ’बुद्धिहीन’ समझते हैं क्योंकि उन्हें न तो कार्य-कारण के उस सिद्धान्त की कल्पना या आभास भी होता होगा, जो हम मनुष्यों को समाज या परंपरा से प्राप्त होता है । हमारा (मनुष्य का) सारा ’विकास’ बुद्धिगत होता है और वह बुद्धि जाने-अनजाने ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त को स्वाभाविक रूप से सत्य की तरह ग्रहण कर लेती है । किन्तु यह भी विचारणीय है कि ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त केवल इन्द्रिय-ज्ञान पर आधारित एक तात्कालिक ’अनुमान’ है, जो ’स्मृति’ पर आधारित होता है और ’स्मृति’ ’पहचान’ पर, तात्पर्य यह है कि ’स्मृति’ ही पहचान है, और पहचान ही स्मृति । इस प्रकार स्मृति व्यवहारोपयोगी एक सुविधा है किन्तु स्वयं ’विचार’ के रूप में गतिशील रहती है । यह ’विचार’ कितना भी श्रेष्ठ या निकृष्ट हो, हमें उस जीवन से अलग-थलग कर देता है जो ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त में नहीं बँधता / बँध सकता । हमारी बुद्धि ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त में इस बुरी तरह जक्ड़ी और उसके वशीभूत हो जाती है कि हम ’भविष्य’ और ’अतीत’ जैसी काल्पनिक चीज़ों को ठोस वास्तविकता मानने लगते हैं जबकि ’भविष्य’ और ’अतीत’ का शुद्ध भौतिक आकलन से परे कहीं नहीं हो सकता । किन्तु हम एक ’मनोवैज्ञानिक-काल’ की कल्पना कर लेते हैं जिसमें हर मनुष्य अपना व्यक्तिगत जीवन जीता है । इस काल को वह न तो ओढ़-पहन सकता है, न खा या पी सकता है । ’विचार’ इस कल्पना को सदा निरन्तरता देता है और हम विचार के मोहपाश में बँधे नियति जहाँ ले जाए, उस ओर गतिशील रहते हैं । यह हमारा ’बुद्धि’ का विकास है, यह उन्नति है या अवनति इसे हमें ही तय करना होता है, किन्तु ’विचार’ इस संभावना की ओर हमारा ध्यान तक नहीं जाने देता । इसलिए ’प्रगतिशील’ होना अच्छा या खराब नहीं सार्थक या निरर्थक भर होता है । ’भय’ और हमारे कल्पित मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व और उससे जुड़े ’संसार’ का लोभ, उसमें ’कुछ’ पाने का आकर्षण, न पा सकने की आशंका और चिन्ता, व्यग्रता और व्याकुलता, आशा और निराशा, हमें उस वास्तविक जीवन को जानने / उसकी ओर जाने से भी रोक रखता है जो हमारे ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त की छाया तक से अछूता है ।
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उत्तर : शाब्दिक अर्थ में ’प्रगति’ का अर्थ होता है गतिशीलता । जीवन स्वयं ही एक विराट अपरिभाषेय, अबूझ गतिविधि / गतिशीलता है । इक धुँध से आना है, इक धुँध में जाना है । किन्तु यही गतिविधि ’उन्नति’ या ’अवनति’ हो जाती है । ’उन्नति’ और ’अवनति’, उत्थान और पतन यह मनुष्य का होता है, दूसरे प्राणियों के बारे में वही बेहतर जानते होंगे । किन्तु ’विकास’ सभी का होता है । विकास का अर्थ है अपनी क्षमताओं का चरम, पूर्णता । इसलिए एक वृक्ष / पौधा अपनी स्वाभाविक गतिविधि में विकसित होकर फल-फूलकर सूख जाता है, या बीजों के रूप में नए ’जीवन’ में अभिव्यक्त होता है । पता नहीं उसकी ’आत्मा’ ही नया जन्म लेती है या उसके संदर्भ में आत्मा-फ़ात्मा जैसी कोई चीज़ होती है या नहीं । दूसरे प्राणियों पर भी क़मोबेश यही बात लागू होती है । उन्हें हम ’बुद्धिहीन’ समझते हैं क्योंकि उन्हें न तो कार्य-कारण के उस सिद्धान्त की कल्पना या आभास भी होता होगा, जो हम मनुष्यों को समाज या परंपरा से प्राप्त होता है । हमारा (मनुष्य का) सारा ’विकास’ बुद्धिगत होता है और वह बुद्धि जाने-अनजाने ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त को स्वाभाविक रूप से सत्य की तरह ग्रहण कर लेती है । किन्तु यह भी विचारणीय है कि ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त केवल इन्द्रिय-ज्ञान पर आधारित एक तात्कालिक ’अनुमान’ है, जो ’स्मृति’ पर आधारित होता है और ’स्मृति’ ’पहचान’ पर, तात्पर्य यह है कि ’स्मृति’ ही पहचान है, और पहचान ही स्मृति । इस प्रकार स्मृति व्यवहारोपयोगी एक सुविधा है किन्तु स्वयं ’विचार’ के रूप में गतिशील रहती है । यह ’विचार’ कितना भी श्रेष्ठ या निकृष्ट हो, हमें उस जीवन से अलग-थलग कर देता है जो ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त में नहीं बँधता / बँध सकता । हमारी बुद्धि ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त में इस बुरी तरह जक्ड़ी और उसके वशीभूत हो जाती है कि हम ’भविष्य’ और ’अतीत’ जैसी काल्पनिक चीज़ों को ठोस वास्तविकता मानने लगते हैं जबकि ’भविष्य’ और ’अतीत’ का शुद्ध भौतिक आकलन से परे कहीं नहीं हो सकता । किन्तु हम एक ’मनोवैज्ञानिक-काल’ की कल्पना कर लेते हैं जिसमें हर मनुष्य अपना व्यक्तिगत जीवन जीता है । इस काल को वह न तो ओढ़-पहन सकता है, न खा या पी सकता है । ’विचार’ इस कल्पना को सदा निरन्तरता देता है और हम विचार के मोहपाश में बँधे नियति जहाँ ले जाए, उस ओर गतिशील रहते हैं । यह हमारा ’बुद्धि’ का विकास है, यह उन्नति है या अवनति इसे हमें ही तय करना होता है, किन्तु ’विचार’ इस संभावना की ओर हमारा ध्यान तक नहीं जाने देता । इसलिए ’प्रगतिशील’ होना अच्छा या खराब नहीं सार्थक या निरर्थक भर होता है । ’भय’ और हमारे कल्पित मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व और उससे जुड़े ’संसार’ का लोभ, उसमें ’कुछ’ पाने का आकर्षण, न पा सकने की आशंका और चिन्ता, व्यग्रता और व्याकुलता, आशा और निराशा, हमें उस वास्तविक जीवन को जानने / उसकी ओर जाने से भी रोक रखता है जो हमारे ’कार्य-कारण’-सिद्धान्त की छाया तक से अछूता है ।
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