Sunday, 28 February 2016

होना, जानना, करना -2

होना, जानना, करना -2
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अपने इस होने को जानने और जानने (’जानना’ स्वरूपतः क्या है?) को ठीक से समझने के बीच जो चीज़ बाधा बनती है वह है, -इस बारे में मेरी अस्पष्टता की ओर मेरा ध्यान न जाना ।
उदाहरण के लिए शरीर है, शरीर की गतिविधियाँ हैं । इसी प्रकार मस्तिष्क और हृदय भी हैं । शरीर के दूसरे भी अन्य अंग और उनके क्रियाकलाप हैं । इस होने को मैं किसी प्रकार से प्रभावित नहीं कर सकता । क्योंकि प्रभावित करने का विचार मस्तिष्क में उठता और सक्रिय या शिथिल होता है । यह विचार स्मृति से ही आता है जो मस्तिष्क में ही किसी पैटर्न (Pattern) / क्रम-संयोजन के अन्तर्गत रैम (RAM) / रोम (ROM) की प्रणाली से बँधी, मेरे सामने क्षण क्षण प्रस्तुत होती रहती है । अगर मुझे लगता है कि मैं परिस्थितियों को बदल सकता हूँ, तो यह विचार भी स्मृति का ही उद्गार है । यह सब मेरे ’होने’ के अन्तर्गत किसी व्यवस्था में है । इस 'होने' को 'जानने' के लिए मुझे किसी दूसरे उपकरण की सहायता नहीं लेनी होती ।
दूसरी ओर मेरी भावनाएँ, चिन्ताएँ, लोभ, भय, क्रोध, शारीरिक कष्ट जैसे दर्द या कोई रोग, काम का आवेश उठना, लालसाएँ भी हैं, जो मुझे / मुझमें उठती हैं और थोड़े या कुछ अधिक समय तक सक्रिय रहकर विदा हो जाती हैं । वे एक ओर तो बाह्य परिस्थितियों के द्वारा प्रेरित होने से मुझमें पैदा होती हैं तो दूसरी ओर मेरे पहले के अनुभवों के दुःखद या सुखद होने की मेरी प्रतीति और उसे प्रतीति भर न समझकर वास्तविकता की तरह ग्रहण किए जाने से मुझमें प्रतिक्रिया के रूप में जाग उठती हैं ।  उन प्रतीतियों के पुनः उत्पन्न होने की आशा या आशंका से मुझे / मुझमें उनसे जुड़ी चिन्ताएँ, लोभ, भय, क्रोध, आदि सक्रिय हो उठते हैं । ये भी मेरे ’होने’ के ही अन्तर्गत हैं ।
किन्तु इन सब के साथ, इस सब के दौरान मैं इन्हें (इनके ’होने’) को जानता हूँ यह तो स्पष्ट ही है ।
यह ’होना’ न तो मेरे द्वारा ’किया’ जानेवाला कोई कृत्य / कार्य होता है और न मैं 'उसे' प्रत्यक्षतः जानता हूँ जो इसे कार्य का रूप दे रहा है । अर्थात् मैं इसके वास्तविक ’कर्ता’ के बारे में बिलकुल नहीं जानता ।
इसलिए जब मैं, "मैं लिखता हूँ", "मैं खाता हूँ", "मैं जागता हूँ"  जैसे वाक्य कहता हूँ तब वह व्यावहारिक दृष्टि से तो सुसंगत, आवश्यक तथा उपयोगी भी है ही, किंतु जब मैं "मैं सोचता हूँ", "मैं प्रेम / घृणा / चिन्ता / लोभ / इच्छा / क्रोध करता हूँ " जैसे वाक्य कहता हूँ तो एक बुनियादी भूल की ओर मेरा ध्यान नहीं जाता । वह यह कि ये चीज़ें मुझे / मुझमें ’होती’ हैं और मैं बस 'जानता' भर हूँ कि वे 'वहाँ' / मेरे ’मन-मस्तिष्क-हृदय’ के अन्तर्गत एक गतिविधि के रूप में व्यक्त और विलीन हो रही हैं । किंतु मेरा इस बुनियादी भूल की ओर ध्यान नहीं जाता । इसका एक कारण है ’मैं’ शब्द का प्रयोग अलग अलग समय पर अलग अलग चीज़ों के लिए किए जाने का मेरा अभ्यास जो आदत बन जाता है । व्यावहारिक धरातल पर अपने शरीर और उससे संबंधित गतिविधियों के लिए संकेत-रूप में ’मैं’ कहा जाना व्यवहार को आसान और सुचारु बनाता है, किंतु इस शरीर से संबद्ध ’मन-मस्तिष्क-हृदय’ के अन्तर्गत ’होनेवाली’ गतिविधियों को ’मैं’ पर आरोपित कर बैठना एक भूल / भ्रम है ।
अब प्रश्न यह है कि क्या मेरा ’जानना’ ही वह एकमात्र आधार नहीं जो इस सब को प्रमाणित करता है? क्या वह ’जानना’ इनमें से कोई वस्तु या इनका कुल जोड़ है?  इस ’जानने’ को ’जाननेवाला’ ही क्या मैं नहीं ? क्या वह ’जानना’ कल्पना या विचार भर है ? कल्पना तथा विचार तो आते-जाते हैं । क्या जानना आता-जाता है ?
स्पष्ट है कि यह ’होना’ तथा ’जानना’ दोनों परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
’विचार’ ही उनके परस्पर भिन्न होने की कल्पना जगाता है ।
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Saturday, 27 February 2016

होना, जानना, करना...

होना, जानना, करना
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ऐसा कहा जा सकता है कि मैं अपने लिए अपने अस्तित्व के तीन पक्षों में, तीन रूपों में हूँ और व्यक्त भी होता हूँ । मुझे इसमें सन्देह नहीं कि मैं हूँ क्योंकि अपने होने ही से मैं अपने आपको या अस्तित्व को, जैसा भी वह हो, जानता हूँ, अर्थात् इस जाननेवाले के अस्तित्व के बारे में और उसके ’जानने’ की स्वाभाविक प्रकृति होने के बारे में । वास्तव में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि यह ’होना’ और ’जानना’ कहने में दो चीज़ें लगती हों, एक ही वस्तु के दो पक्ष / पहलू हैं ।
फिर मैं जानता हूँ कि इसी तरह इस अस्तित्व को पुनः मैं प्रायःदो रूपों में पाता हूँ । मोटे तौर पर, एक को मैं मेरा संसार कहता हूँ और दूसरे को अपने-आप के रूप में स्वीकार करता हूँ । मैंने हालाँकि कभी नहीं पाया कि इनमें से एक के बिना दूसरे का अस्तित्व होता हो । फिर भी मेरे मन (?) में यह विचार दृढ़ हो चुका है कि मैं इस संसार से अलग कुछ हूँ । यद्यपि यह भी विचारणीय है कि यह ’मन’ विचार से भिन्न स्वतन्त्र कुछ है भी या नहीं ?
अभी तो इतना कहा जा सकता है कि कुछ चीज़ें मुझमें / मुझे होती हैं और कुछ मैं करता हूँ  । कुछ करने / न करने से पहले मेरा अस्तित्व स्वयंसिद्ध है । मेरे द्वारा कुछ किए जाने में और मुझमें कुछ होने के बीच समानता यह है कि मैं दोनों को जानता हूँ वैसे ही, जैसे कि मैं संसार को और मुझे जानता हूँ न कि जानकारी के रूप में । जो मुझमें / मुझे होता है उस पर शायद मेरा कोई नियंत्रण नहीं है, जैसे नींद आना या नींद समाप्त होकर या खुलने पर जाग उठना, भूख लगना, प्यास लगना, ठंड या गर्मी लगना, जैसी सामान्य बातें । फिर अपेक्षाकृत कुछ असामान्य बातें जैसे डर लगना, इच्छा या जरूरत होना, शरीर के किसी हिस्से में दर्द या खुजली जैसी अनुभूति होना । स्पष्ट है कि ये अनैच्छिक कही जानेवाली क्रियाएँ ’अनुभव’ के रूप में स्मृति बनती हैं और विचार द्वारा मैं इन्हें नाम देकर ’शब्द’ से जोड़ देता हूँ । अर्थात् ’भय’ शब्द जिस अनुभूति के लिए इस्तेमाल किया जाता है वह अनुभूति ’भय’ यह शब्द नहीं इससे बिलकुल भिन्न वस्तु है । ऐसे ही लज्जा / शर्म नामक वस्तु जो मुझमें / मुझे अनुभूति की तरह होती है लज्जा / शर्म शब्द से मेरे अनभिज्ञ होने पर भी मुझे हो सकती है । किसी अनुभूति के लिए कोई एक शब्द किसी भी भाषा में व्यवहार के लिए इस्तेमाल करना उपयोगी हो सकता है, किन्तु इससे वह शब्द अनुभूति का विकल्प नहीं हो सकता । अनुभूतियों की परस्पर तुलना से हम शब्दों के अनावश्यक आधिक्य की समस्या से बच जाते हैं और शुद्ध भौतिक अर्थ में भले ही एक अनुभूति के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं में अलग अलग शब्द प्रयोग करें हमें उसके तात्पर्य के बारे में कोई भ्रम नहीं होता । आप ’भय’ कहें या ’फ़ीयर’ आप इन शब्दों से एक ही भाव / अनुभूति-सूचक अर्थ व्यक्त और ग्रहण करते हैं । किन्तु शब्दों के विशिष्ट क्रम और संयोजन से जब हम किसी ऐसे वाक्य, विचार या ऐसी धारणा को जन्म देते हैं जिसका अपने-आप में अनुभूतिगत कोई तात्पर्य होता ही नहीं, या फिर कहनेवाले के लिए और सुननेवाले के लिए अलग अलग होता है, या उनमें से एक ही के लिए कोई अनुभूतिगत अर्थ होता है, दूसरे के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित अनुभूतिगत अर्थ नहीं होता, तो भ्रम प्रारंभ होता है ।
किसी चीज़ के प्रति मुझे / मुझमें भय या आकर्षण होता है तो मैं उससे दूर होने या बचने का प्रयास करता हूँ, या फिर मुझमें उसके प्रति उत्सुकता पैदा होती है और मैं उसे जानने का यत्न करता हूँ । यह जानना मुझमें प्रिय या अप्रिय अनुभूति पैदा करता है किन्तु ’प्रिय’ और ’अप्रिय’ शब्द उस अनुभूति की विशेषता को इंगित करते हैं । इस प्रकार से हम शब्दों के एक नए समूह को प्रयोग में लाने लगते हैं जिनके वास्तविक अर्थ के बारे में हमें निश्चित तौर पर कुछ नहीं पता होता, किन्तु काम चलाने के लिए वे पर्याप्त होते हैं । ऐसा ही स्वाद, गंध, रंग-रूप, ध्वनि और स्पर्श से ग्रहण की जानेवाली अलग-अलग वस्तुओं के संबंध में होता है । जैसा कि पहले कहा गया, शब्दों के विशिष्ट क्रम और संयोजन से जब हम किसी ऐसे वाक्य, विचार या ऐसी धारणा को जन्म देते हैं जिसका अपने-आप में अनुभूतिगत कोई तात्पर्य होता ही नहीं, या फिर कहनेवाले के लिए और सुननेवाले के लिए अलग अलग होता है, या उनमें से एक ही के लिए कोई अनुभूतिगत अर्थ होता है, दूसरे के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित अनुभूतिगत अर्थ नहीं होता । इस प्रकार से विभिन्न ’मत’ पैदा होते हैं । ठोस भौतिक अर्थ की दृष्टि से ये वैज्ञानिक आधार पर ये सुनिश्चित स्थिति के द्योतक अर्थात् ’तथ्य’ भी होते हैं किन्तु जब हम उन वस्तुओं के स्वरूप के बारे में कोई वक्तव्य देने का प्रयास करते हैं तो भ्रम प्रारंभ होता है । जैसे पदार्थ, स्थान ये स्वयं अनुभूतिगम्य हैं किन्तु उनका वास्तविक स्वरूप क्या है इसे जानना कठिन और कहना और भी कठिन है । क्योंकि उनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि वे बस अनुभूतिगम्य भर हैं । वे बुद्धिगम्य तक नहीं हैं । आप उन्हें परिभाषित कर सकते हैं पर वह एक कामचलाऊ व्यवस्था है । मैं नहीं जानता कि गणितज्ञ इस बारे में क्या कहते हैं किंतु शून्य नामक वस्तु की अवधारणा पर ध्यान दें तो समझा जा सकता है कि अत्यन्त प्राचीन वैदिक गणित की दृष्टि से इस अवधारणा का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है, पहला अभावसूचक व्यञ्जन / वर्ण (क्योंकि ’शून्य’ स्वर नहीं है यह तो स्पष्ट है) के रूप में, इसलिए आकाश को शून्य भी कहा जाता है क्योंकि वह ’रिक्तता’ है । किंतु पुनः आकाश को भी स्थान के अर्थ में चूँकि तत्व माना जाता है इसलिए वह जिस वस्तु के आधार से अस्तित्वमान है वह वस्तु / उसे ’जाननेवाला’ तत्व जो स्वप्रमाणित होना-जानना है, जानने का तत्व क्या है परिभाषित नहीं किया जा सकता । दूसरा गणना की अवधारणा के क्रम में अगली सीढ़ी गणितीय जोड़ने-घटाने की प्रक्रिया को सिद्ध करने के लिए । किन्तु वह भी संख्या 1 से 9 तक के लिए ही । और यदि जोड़ 9 से अधिक हो तो 10 और उससे बड़ी संख्याओं को परिभाषित करने के लिए । इसी प्रकार घटाने की प्रक्रिया में जब किसी संख्या से उसी संख्या को घटाना हो तो प्राप्त होनेवाले परिणाम को व्यक्त करने के लिए । इसे ही और विकसित कर भाग / विभाजन की प्रक्रिया पाई जाती है । किन्तु यह एक सुविधा (कंवेंशन / फैसिलिटी) हुई । इससे हमें शून्य अवधारणा के अतिरिक्त और क्या है, इस बारे में कुछ नहीं पता चलता । जैसे 1 से 9 तक की संख्याएँ अवधारणा हैं वैसे शून्य भी एक अवधारणा है जो भौतिक तथ्यों को किसी हद तक व्यावहारिक स्तर पर समझने के लिए उपयोगी भी है लेकिन ’सत्य’ है यह कैसे प्रमाणित होगा? गणित का पूरा आधार ही इस प्रकार असंदिग्ध, निर्विवाद रूप से ’सत्य’ है ऐसा नहीं कहा जा सकता । हम बस इतना कह सकते हैं कि ’अवधारणा’ के दायरे में अवश्य ही सत्य है । गणना की दृष्टि से ’शून्य’ का न तो कोई अर्थ है, न उपयोगिता । किसी वस्तु का संख्यात्मक परिमाण 1 है या 10 या 100 है इससे उसकी संख्यात्मक मात्रा अंकगत रूप में 1, 10 या 100 है यह तो कहा जा सकता है और इसकी व्यावहारिक सत्यता और उपयोगिता भी सिद्ध ही है, किंतु किसी वस्तु का संख्यात्मक परिमाण 0 है, ऐसा कहने का न तो व्यावहारिक और न उपयोगिता की दृष्टि से कोई अर्थ है । तब हम इतना ही कहते हैं कि वस्तु का अभाव है या वह है ही नहीं ।
इस प्रकार हम एक अवधारणा (कॉन्सेप्ट) को व्यावहारिक तौर पर उपयोगी भले ही पाएँ वह वैज्ञानिक / गणितीय सत्य हो यह आवश्यक नहीं है । गणना की (0,1) की द्विक-विधि (बाइनरी-सिस्टम) से भी वह पूरा गणितीय कार्य किया जा सकता है जो (1,2,3,...9,10...,99,100)) की दाशमिक-विधि (डेसाइल-सिस्टम) से किया जाता है ।
इस प्रकार से किसी भी अवधारणा का जन्म प्रायः भ्रम को ही जन्म देता है जिसमें हमें निरंतर खोज और सुधार करना होता है और जिसे ’प्रगति’ या ’विकास’ कहा जाता है । उपयोगिता की दृष्टि से शायद यह ’प्रगति’, उन्नति या विकासशीलता भले ही हो, मेरा ’होना’ और मेरा ’जानना’ वास्तव में क्या है, इसे समझने में इस ’प्रगति’, उन्नति या विकासशीलता से कोई सहायता मुझे नहीं मिलती ।
अब थोड़ा इस ओर ध्यान दें कि जो कुछ मुझे / मुझमें अनुभव होता है और जो कुछ मैं  अनुभव करता हूँ उसमें क्या अंतर है । भौतिक और शारीरिक संवेदनाओं के बारे में तो इनमें कोई विशेष अंतर नहीं होता किन्तु जहाँ भावनात्मक अनुभवों का प्रश्न उठता है, तो मैं गड़बड़ा जाता हूँ । ’अच्छा’, ’बुरा’, ’सुख’, ’दुःख’, ’प्रिय’, ’अप्रिय’, ’प्रेम’, ’घृणा’, ’गुस्सा’, ’क्रोध’, ’डर’, ’लालसा’, ’कामोत्तेजना’ आदि भावनाओं को दिए जानेवाले शब्द व्यावहारिक तल पर किसी हद तक उपयोगी और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति में सहायक भी होते हैं किंतु जब मैं वाक्य में, या कविता (जो किसी के लिए अधूरा वाक्य भी हो सकती है) के रूप में अपनी भावना(ओं) को व्यक्त करता हूँ तो अपनी भावना मैं कहाँ तक व्यक्त कर पाता हूँ और श्रोता किस सीमा तक वही तात्पर्य ग्रहण कर पाते हैं? अर्थात् वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का अंतर ।
इसलिए जो मैं ’करता’ हूँ अनैच्छिक या ऐच्छिक, वस्तुतः समय / काल के अन्तर्गत घटित भर होता है, और ’मैं करता हूँ’ मेरा यह विचार, -इस विचार का मुझमें पैदा होना भी इसी घटनाक्रम का ही अंश है ।
मेरा वह अंश जो ’जानना’ भर है, बस ’जानता’ भर है ।
मेरा वह अंश जो ’है’ भर, इस घटना-क्रम से अप्रभावित रहता है ।
मेरे ये दोनों अंश परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
मेरा संसार और मेरे संसार को जानने-अनुभव-करनेवाला तत्व भी इसी प्रकार परस्पर अभिन्न और अविभाज्य हैं ।
यदि मुझे यह स्पष्ट हो जाता है तो और कुछ जानने से मेरा क्या प्रयोजन रह जाता है?
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Friday, 26 February 2016

The Arya.

Though lengthy, done with great labor, worth going through at least once.
I too shall get a print-out as soon as possible.
Just now not in a position to express my views, until I have gone through the whole text.
The most important point to remember is that Indra, Yama, Varuna, Soma, Agni, Vayu, Marut, Ashvinau, Ushas, Vaishvanara, Matarishva, all these 'Gods' belong to the realm of 'Swarga' Which is their own eternal abode.
Historians fail to see this and mix-up Chronological History with Timeless Reality that Veda deal with and talk about.  
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This I loved, sharing here for others.

Thursday, 25 February 2016

प्रसंगवश : ’कला’ का जोख़िम

प्रसंगवश : ’कला’ का जोख़िम
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मेरी एक अत्यन्त प्रिय छोटी सी कविता है :
"तुम्हारे लिए दुःखी तो हूँ,
लेकिन निराश नहीं,
अपने लिए निराश तो हूँ,
लेकिन दुःखी नहीं ।"
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निर्मल वर्मा की एक पुस्तक का शीर्षक है :
’कला का जोख़िम’
बहुत बार पढ़ने की क़ोशिश की किन्तु ठीक से कभी नहीं पढ़ पाया । एक तो वैसी परिस्थिति नहीं बनी और कभी बनी तो मनःस्थिति ऐसी नहीं थी कि मन लग सके । किन्तु कला के जोख़िम के बारे में मैं इस क़िताब से परिचित होने से भी काफ़ी पहले से सोचता रहा हूँ ।
उस जमाने से, जब अपने पिता के साथ वर्ष 1970 के सितंबर माह में उनके एक चित्रकार मित्र श्री विष्णु चिंचालकरजी  से मिलने इंदौर गया था । उनकी कला-दृष्टि से प्रभावित तो हुआ था लेकिन चकित या अभिभूत बिलकुल नहीं हुआ । यह तो मानना होगा कि कुछ कलाकार जन्मजात भी प्रतिभासंपन्न होते होंगे किन्तु उनकी प्रतिभा उस नदी के समान कला की दिशा में बढ़ जाती है जिसका स्वाभाविक तय लक्ष्य न भी होता हो तो भी उसे बहने से रोककर उसके स्वाभाविक रास्ते से विचलित कर दिया जाता है, चाहे नहरें काटकर या बिजली बनाने के लिए ।
कला और साहित्य, तमाम बुद्धिजीवी गतिविधियाँ प्रायः इसी प्रकार उसके अपने और हमारे समूचे संसार के विनाश का कारण बनकर रह गई है ।
चाहे फ़िल्म हो, साहित्य हो, कलाक्षेत्र हो या गीत-संगीत हो ।
उपरोक्त पंक्तियाँ लिखने से जरा पहले ही, अभी-अभी इसी बारे में कुछ लिखा और फिर अधूरे मन से उसे डिलीट कर दिया था, किन्तु पुनः एक मित्र का ’इन्विटेशन’ पढ़कर दोबारा लिखने का ख़याल आया ।
’फ़ेसबुक’ पर उस निमंत्रण में किसी चित्रकार की कलाकृतियों के प्रदर्शन के आयोजन की सूचना थी ।
’कला’ के नाम पर प्रयोग करना सचमुच जोख़िम का काम है । और सबसे बड़ा जोख़िम यह कि प्रयोग करनेवालों और प्रशंसकों को कल्पना तक नहीं होती कि वे कितने बड़े संकट में पड़ सकते हैं । क्या बामियान के बुद्ध की मूर्ति बनानेवाले मूर्तिकार को आभास रहा होगा कि कुछ सौ या हज़ार वर्षों बाद वहाँ क्या होगा ? क्या भारत के अद्भुत शिल्पकला संपन्न, रत्न, हीरे-मोतियों से जड़े और स्वर्ण और रजत मूर्तियों से समृद्ध सैकड़ों भव्य मन्दिर बनानेवालों ने कल्पना की होगी कि उन्हें न सिर्फ़ लूटा जाएगा, बल्कि तहस-नहस कर दिया जाएगा, इतना ही नहीं वहाँ पर आततायियों द्वारा अपने आराधना-स्थल खड़े कर दिये जाएँगे?
यह तो हुआ इतिहास जिसके बारे में किसी भी सजग मनुष्य को वैसे ही बहुत कुछ समझ में आ जाता है किन्तु जब कला के नाम पर इतिहास को पेश किया जाता है तो सोचने के लिए बाध्य हो जाते हैं । औरंगज़ेब ने किसी मराठा शासक की बोटियाँ काटकर कुत्तों को परोस दी थीं इसका पुरातात्विक प्रामाणिक ऐतिहासिक चित्र देखकर लगा कि क्या उस चित्रकार ने कल्पना की होगी कि कभी वह चित्र औरंगज़ेब के असली चेहरे को भी उजागर करेगा ?
कभी राजा रवि वर्मा ने देवी देवताओं की पैंटिंग्स बनाईं थीं जिन्हें कैलेण्डरों पर छापे जाने को लेकर मतभेद थे, किन्तु कालान्तर में उन्हें समाज ने स्वीकार कर लिया । दीपावलि पर लक्ष्मी सरस्वती गणेश का चित्र हो या शिव-गौरी, राधा-कृष्ण, श्रीराम-दरबार, धीरे-धीरे सबको स्वीकार कर लिया गया । किन्तु बाद में माइकलेंजेलो, पिकासो जैसे ख्यातिप्राप्त चित्रकारों ने कला का जैसा प्रयोग किया उससे संसार का लाभ तो क़तई नहीं, क्षति ही अधिक हुई ।
कला शब्द का अर्थ ही है अंश जो पूर्ण नहीं होता । इसलिए कला की अभिव्यक्ति सदैव आंशिक होती है । कला का स्थान परंपरा तक सीमित होता है । धर्म के क्षेत्र में कला का प्रयोग बहुत सोच-समझकर और सावधानी से किया जाना आवश्यक है । अगर आप वास्तु-शास्त्र के किसी अनुभवी विद्वान से पूछें तो वह शायद यही कहेगा कि किसी भी कलाकृति का उसके स्थान और समय के अनुसार महत्व होता है । यदि आप दिशा-वास्तु को समझते हैं, तो शायद समझ सकें कि आठ दिशाओं के आठ वसु / लोकपाल, उनकी प्रकृति के अनुसार स्थान और मनुष्यों यहाँ तक कि चर-अचर जड-चेतन वस्तुओं को भी प्रभावित करते हैं । ये पोज़िटिव / नेगेटिव एनर्जी की बातें करनेवाले हालाँकि इसका प्रायः आधा-अधूरा ज्ञान ही रखते हैं, और वास्तु के नाम पर सीधे-साधे, भीरु या अन्धविश्वास से ग्रस्त लोगों को अपना शिकार बनाते हैं, किन्तु वास्तु के मूल तत्व को जाननेवालों को कोई संदेह नहीं कि ये आठ वसु न सिर्फ़ दिशाओं बल्कि भौगोलिक क्षेत्रों तक पर नियंत्रण रखते हैं ।
वैदिक यंत्र-शास्त्र इसी ज्ञान और इसके व्यावहारिक उपयोग के सिद्धान्त पर आधारित है । तंत्र-शास्त्र किसी प्रणाली की रूपरेखा और कार्य करने के तरीके के अध्ययन और प्रयोग के उद्देश्य को पूरा करता है जबकि मंत्र शास्त्र उन चेतन शक्तियों की सत्ता को, जिन्हें ’देवता’ कहा जाता है, समझकर, उनका आवाहन / आह्वान कर उनके माध्यम से इष्ट कार्य को सफलता प्रदान करता है ।
स्पष्ट है कि ’नाम’ ध्वन्यात्मक अक्षरों / वर्णों, स्वरों और व्यञ्जनों के विशिष्ट संयोजन का प्रकार होता है, जबकि ’रूप’ वास्तु (वस्तु का परिप्रेक्ष्य) उसके प्रकट चरित्र का द्योतक । जैसे (संगीत के) किन्हीं भी बेतरतीब स्वरों और ताल के संयोजन से मधुर और कर्णप्रिय संगीत (राग) नहीं उत्पन्न होता, वैसे ही रंगों और रेखाओं के बेतरतीब संयोजन से कोई ऐसा चित्र बनाया जाना भी संभव नहीं जो भाव-संप्रेषण में सफल हो । इसलिए कला के नाम पर जहाँ तक चित्रकला का प्रश्न है जितनी अधिक ’प्रयोगशीलता’ है चित्रकला उतनी ही व्यक्तिपरक होती गई है । बहुत से तथाकथित ’श्रेष्ठ’ कहे जानेवाले चित्र जिन्हें समझने में दूसरे कला-पारखी लोगों को भी पसीने आ जाते हैं केवल प्रचार और हाइप के चलते ’मूल्यवान’ बन जाते हैं । और चूँकि इनकी उत्कृष्टता और श्रेष्ठता का कोई सुनिश्चित पैमाना बनाया जाना संभव भी नहीं होता, वे लोगों का भावनात्मक शोषण करते हैं ।
यदि किसी कला-प्रेमी को कोई कलाकृति मोहित और आकर्षित करती है और वह इसके लिए मुहमाँगी क़ीमत देने को तैयार है तो इससे यह प्रमाणित नहीं हो जाता कि वास्तव में वह कलाकृति दूसरी समक्ष कलाकृतियों से सचमुच अधिक श्रेष्ठ है ।  ’कला’ बाज़ार में खरीदे-बेचे जाने की चीज़ हो भी नहीं सकती न होनी चाहिये । सरस्वती और लक्ष्मी दोनों गणेश के साथ समान रूप से पूज्य हैं किन्तु हमने लक्ष्मी को केन्द्र में और सरस्वती तथा गणेश को उसके क्रमशः दाएँ-बाएँ स्थापित कर रखा है । यहाँ स्त्रीवादी या पुरुषवादी का प्रश्न नहीं है क्योंकि कला और ऐश्वर्य प्रकृति से अधिक समीप होने से स्त्रीवाची हैं और बुद्धि अपेक्षाकृत पुरुषवाची है । क्योंकि बुद्धि ही निश्चयात्मक-प्रवृत्ति है जो उन दोनों की अपेक्षा अधिक चेतन है । प्रकृति बुद्धि को या अपने आप को भी जानती है या नहीं कुछ तय नहीं है, किन्तु यह तो तय है कि कोई चेतन तत्व ही प्रकृति को जानता है । अर्थात् चेतन तत्व प्रकृति से अधिक बोधयुक्त है, प्रकृति इसलिए भी अपेक्षातया जड है क्योंकि पुरुष ही उसे किसी सीमा तक प्रभावित करता है । पुनः यहाँ स्त्री-पुरुष का सन्दर्भ शरीर की रचना के सन्दर्भ में मनुष्य के स्त्री अथवा पुरुष होने से नहीं बल्कि  उस ’पुरुष’ से है, जो इस देहरूपी पुर में रहता है, उसे पूर्णता देता है, अर्थात् बुद्धि । यह बुद्धि बिल्कुल नवजात शिशु सी हो सकती है जिसे अभी मैं / पर का बोध तक नहीं है, या फिर किसी विशाल पशु (हाथी) जैसी जो मदग्रस्त होता है । उसी हाथी का सिर जब मनुज के धड़ पर होता है तो वह भूतगणों का ईश होता है ।
किन्तु हम बात कर रहे थे वास्तु की, यंत्र, तंत्र, और मंत्र की और ’कला’ के माध्यम से उन्हें जाने-अनजाने प्रयोग करने की ।
वेद जिन 33 देवताओं के बारे में कहते हैं और पुराण जिनके अनेक रूपों का कलात्मक वर्णन करते हैं उन देवताओं को हम जाने-अनजाने प्रसन्न भी कर सकते हैं और रुष्ट भी कर सकते हैं । और वे देवता हम मनुष्यों जैसे स्वेच्छाचारी न होकर ईश्ववरीय विधान के ही विभिन्न उपकरण / उपाधि हैं और अपनी मर्यादा में बँधे हैं ।
हम मनुष्य सोचते हैं कि हम स्वतंत्र हैं, हमें स्वतंत्र होने का जन्मसिद्ध अधिकार है । किन्तु विचारणीय है कि जब तक हम इच्छाओं और लालसाओं के दास हैं स्वतन्त्र कैसे हो सकते हैं? जब हमारी इच्छाओं में टकराहट होती है तो हममें अन्तर्द्वन्द्व पैदा होता है । यह बात व्यक्ति और समाज, दोनों ही स्तरों पर एक स्पष्ट तथ्य है । यदि कलाकार इस तथ्य को समझता है तो ही उसकी कला सार्थक है, यदि कलाकार स्वयं ही भ्रमित, असमंजस में है, तो उसकी कलाकृति दूसरों के भ्रम को और भी शक्तिशाली बनाएगी ।
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Wednesday, 24 February 2016

न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं...

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और ’परंपरा’ और ’धर्म’
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अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ’न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्’ से मर्यादित होती है । पूरा ग्रीक कल्चर (परंपरा और संस्कृति, न कि धर्म, क्योंकि वैदिक और पौराणिक अर्थों में जिसे धर्म कहते हैं वैसी अवधारणा ग्रीक कल्चर (परंपरा और संस्कृति) में कभी रही नहीं । ज्यू / यहूदी परंपरा के पहले विश्व-संस्कृति में या तो सनातन-धर्म प्रचलित था या लौकिक धर्म जो भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थानीय देवताओं की परंपरा से अलग अलग रूपों में पनपा । ’देवता’ या उन उच्चतर अलौकिक शक्तियों की धारणा ने, जो लौकिक जीवन को संचालित और प्रभावित करती हैं अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप ग्रहण किये और इसके आधार-रूप में मूलतः मनुष्य की आत्मा के अनश्वर होने की संकल्पना ही जाने-अनजाने मनुष्य को ऐसा करने के लिए प्रेरित करती रही । मनुष्य अनश्वर है या नहीं, है तो किस रूप में यह जानना समझना तो (आध्यात्मिक) खोज और अनुसंधान का विषय हो सकता है किन्तु मृत-आत्माओं / मृत पूर्वजों से उनकी मृत्यु के बाद भी सम्पर्क, (चाहे वह स्वप्न जैसी दशा में होता हो या जागृति के समय कल्पना की तरह) से मनुष्य के मन में यह विचार आया होगा कि लोकोत्तर मरणोत्तर जीवन जैसी कोई चीज़ होती है । कबीलों (कपिल) ने इस प्रकार एक परंपरा को बनाए रखा जिसमें उन्होंने पूर्वजों या स्थानीय देवी / देवता को उस अलौकिक शक्ति का प्रतिनिधि तत्व समझा जिससे वे अपने सुख-दुःख की बातें कर सकें । यदि कोई दिवंगत ’आत्मा’ उन्हें स्वप्न या स्वप्न जैसी आवेशयुक्त जागृत अवस्था में किसी औषधि का ज्ञान देती प्रतीत हुई हो, और उस औषधि या उपाय से उन्हें तत्काल लाभ हुआ हो तो उनमें स्वाभाविक आस्था ने जन्म लिया होगा । यह पूरी गतिविधि एक ओर कुछ स्थानों पर ’ऋषि-धर्म’ के रूप में एक अनुशासनबद्ध प्रक्रिया के रूप में हुई वहीं दूसरे अधिकाँश स्थानों पर ’ग्राम-देवता’ की स्वीकृति और आस्था के रूप में लोक-मानस में स्थापित हुई ।
ज्यू परंपरा इसी लौकिक धर्म का नया संस्करण था । ज्यू परंपरा ने मूर्ति-पूजा की घोर-निन्दा की जिसके फलस्वरूप लौकिक धर्म का स्थापित ’बहुदेववाद’ तहस-नहस हो गया किन्तु उसका विकल्प ज्यू परंपरा के पास नहीं था । रोमन कैथोलिक ने यहूदी माता और कैथोलिक कैटेशिज़्म (catechism) के द्वारा एक मानस-पुत्र को जन्म दिया और उसे (वाजश्रवा की परंपरा के अनुसार) उन्होंने सूली पर टाँग दिया जिससे आज की कैथोलिक और क्रिश्चियन परंपरा ने जन्म लिया ।
वाजश्रवा की ही परंपरा में एक और असुरनृप हुए जिनका नाम था हिरण्यकशिपु । विश्व के एकमात्र ईश्वर होने की आशा से उन्होंने भी अपने पुत्र (प्रह्लाद) की बलि देने का प्रयास किया किन्तु वे इसमें सफल न हुए ! उनकी भगिनी थी होलिका । ’हेलि’ नाम है सूर्य का । ग्रीक साम्राज्य के विस्तार से पहले सूर्य की पूजा ही प्रचलित थी ।
इसके बाद आगमन हुआ एक और नई परंपरा का जिसमें पुनः एक पिता ’परमेश्वर’ या उसके ’दूत’/ ’फ़रिश्ते’ की आज्ञा से अपने पुत्र की बलि देता है, किन्तु परमेश्वर / फ़रिश्ता उसे इस परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित कर उसके पुत्र के स्थान पर एक ’दुम्बा’ रख देता है । यह ’फ़रिश्ता’ जो एक फ़ारसी शब्द है, मूलतः संस्कृत ’पार्षद’ का अपभ्रंश है ।
आज दुर्भाग्य से हम ’परंपरा’ और ’धर्म’ के भेद को समझे बिना ही विभिन्न परंपराओं को धर्म का नाम देकर अनेक भिन्न-भिन्न आग्रहों, दुराग्रहों,  समुदायों और ’संस्कृतियों’ की टकराहट से त्रस्त हैं और किसी को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा ।
न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं’ / (मनुस्मृति 4 / 138) की यही शिक्षा है कि अप्रिय सत्य मत कहो क्योंकि उससे वैमनस्य केवल और अधिक बढ़ता है । और वैमनस्य के बढ़ने से संवाद की संभावनाएँ ही समाप्त हो जाती हैं !
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उशन् ह वै वाजश्रवसः ...

उशन् ह वै वाजश्रवसः ...
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आचार्य के उस गुरुकुल में ग्रन्थों के लिए कोई स्थान न था, ऐसा नहीं था । पुराने तालपत्रों पर, ताम्रपत्रों पर, मिट्टी की चर्पटी गुटिकाओं पर उत्कीर्ण और उन्हें सुखा कर पकाई गई लिखित पाण्डुलिपियों के रूप में वहाँ नित्य ही ग्रन्थों का सृजन किया जाता था किन्तु किसी भी ग्रन्थ को जब तक आचार्य का ऐसा स्पष्ट आदेश न हो, वहाँ रखने का निषेध था । इसलिए सभी ग्रन्थों का निर्माण ही इस विषय में उनकी अनुमति और निर्देश के ही अनुसार किया जाता था ।
ऐसा ही एक ग्रन्थ वहाँ पर था पर जिसे शायद / स्यात् मृगचर्म पर लिखा गया था ।
आचार्य ने जब किसी आगन्तुक ब्राह्मण अतिथि के लिए निर्माण करने हेतु कहा तो वह तब तक लिखता ही चला गया जब तक कि उसने कृष्णयजुर्वेद की कठशाखा के द्वितीय अध्याय की तृतीय वल्ली का अंतिम श्लोक लिपिबद्ध नहीं कर दिया ।
आचार्य ने कहना प्रारंभ किया था तो उसे उनके द्वारा कहे जानेवाले इन वचनों की आवृत्ति पुनः एक बार उनके साथ करने के लिए भी कहा था :
"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।"
फिर दोनों ने इसे साथ- साथ कहा :
"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।"
फिर आचार्य बोले :
"अब तुम्हें केवल सुनना और लिखना भर है, ...।"
"आम् तात!"
किञ्चित स्मितपूर्वक आचार्य ने ग्रन्थ-कथन प्रारंभ किया :
"ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः ..."
वे बहुत स्पष्ट उच्चारण सहित रुक-रुककर कहते रहे ताकि वह ठीक से सुखपूर्वक सुनकर लिख सके । इस बीच उसे इन मन्त्रों पर विचार करने का समय नहीं था । उसे यह भी अभ्यास था कि प्रमादवश या अनवधानता से बुद्धि की स्वाभाविक एकाग्रता क्षणमात्र में कैसे खंडित हो जाती है, इसलिए भी उसे पता था कि सुनने और लिखने के बीच संतुलन पर ध्यान देते हुए उसे विचार करने का अवकाश भी नहीं था ।
इस बीच कुछ अन्य सहपाठी और वे ब्राह्मण-अतिथि भी वहाँ उपस्थित थे किन्तु शायद उनमें से किसी-किसी ने ही इसे इतने ध्यानपूर्वक सुना होगा यद्यपि आचार्य के प्रारंभिक वचन / प्रार्थना को शायद सभी ने दोहराया था ।
आज आचार्य के समीप बैठा था तो आचार्य कह रहे थे :
उशन् वे दैत्यगुरु हैं शुक्राचार्य :
(कवीनामुशना कविः गीता 10/37),
अध्याय 10, श्लोक 37,

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।
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(वृष्णीनाम् वासुदेवः अस्मि पाण्डवानाम् धनञ्जयः ।
मुनीनाम् अपि अहम् व्यासः कवीनाम् उशना कविः॥

भावार्थ :
वृष्णिवंशियों में वासुदेव (कृष्ण) हूँ, पाण्डवों में धनंजय (अर्जुन), मुनियों में वेदव्यास, तथा कवियो में उशना (शुक्राचार्य / दैत्य-गुरु) मैं (हूँ) ।
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वाजश्रवा और विश्रवा वे उस परंपरा के ब्राह्मण-वंशोत्पन्न ऋषि हैं जिनके वंशजों में कुबेर तथा रावण उत्पन्न हुए । तमोगुण-प्रधान होने से वे तपस्वियों में उच्च कोटि गिने जाते थे । विश्व पर जय प्राप्ति की कामना से दूषित चित्त वाले होने से वाजश्रवा अपने पुत्र को भी यमराज को देने के लिए उद्यत हो गए थे । क्योंकि उनके पुत्र (उद्दालक) ने जब देखा कि पिता ऐसी गौएँ ब्राह्मणों को दे रहे हैं जो न तो बछड़े दे सकती हैं, न दूध, जो केवल अपनी आयु का शेष अंश व्यतीत करते हुए जी रही हैं, जिन्हें वैसे तो न तो प्यास लगती है, न भूख, किन्तु बस आयु शेष होने तक भूख और प्यास का कष्ट होने पर उपलब्ध होने पर, अन्न-जल का यत्किञ्चित सेवन अवश्य कर लेती हैं ।
उस वंश-परंपरा में वे गाय के माँस का सेवन करते थे और विधिपूर्वक वेद-मंत्रों सहित मेष (भेड़), मृगों, छाग (बकरों) और वृषभ आदि की बलि भी देते थे ।
वेद-मन्त्र-सहित किया जानेवाला पशु-वध अवश्य ही बलि किए जानेवाले पशु को स्वर्ग की प्राप्ति का साधन होता है किन्तु स्वार्थ-बुद्धि से दूषित होने से यह निन्दनीय है और श्रेष्ठ ब्राह्मण के लिए सर्वथा त्याज्य और निषिद्ध भी है । क्योंकि अज्ञानयुक्त / प्रमाद से युक्त या प्रेरित कर्म से कर्म का बंधन और भी दृढ होता है । इसलिए वेदविहित कर्मकाण्ड का अनुष्ठान भी वेदविहित कर्म के लिए किया जाना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है । किसी अन्य प्रयोजन के लिए वेद-विहित कर्म का अनुष्ठान अन्ततः अनिष्टकारी ही होता है । यज्ञ कर्म है और कर्म यज्ञ ही है (गीता 3/15) किन्तु अविधिपूर्वक किया जानेवाला यज्ञ / कर्म मनुष्य को किसी प्रकार से लाभकारी नहीं होता ..."
[अध्याय 3, श्लोक 15,

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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(कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्म-अक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात् सर्वगतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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भावार्थ :
यह जान लो कि कर्म का उद्भव ब्रह्म से होता है, जबकि ब्रह्म का (उद्भव), अक्षर (अविनाशी) परमात्मा से । इसलिए सबमें ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित, ब्रह्म सदैव यज्ञ में प्रतिष्ठित (भली-भाँति अवस्थित) है ।]
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"वस् वस् वत्स्!"
आचार्य ने उस पर प्रशंसा की दृष्टि डालकर उससे कहा ।
दो-तीन दिन बाद जब वे ब्राह्मण अतिथि विदा हो चुके थे, आचार्य ने पुनः उससे कहा :
"वत्स तुम्हारे लेखन-कार्य में कोई भी त्रुटि नहीं है, जैसा मैं कहता गया तुमने अक्षरशः वैसा ही लिखा । तुम्हारा कल्याण हो !"
वह शान्त भाव से प्रसन्नता से सुनता रहा ।
"जब मैं कह रहा था तब यह वेद-वाणी थी जिसे मैंने और तुमने सुना । हम दोनों के लिए यह ’श्रुति’ हुई । उन ब्राह्मण अतिथि के लिए ’स्मृति’ हुई और अनधिकारी विद्वानों के लिए यह परंपरा-मात्र है..."
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ह्यः रचितम् अनेन ...॥

ह्यः रचितम् अनेन ...॥
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अहं-ममश्च वृत्तयः सन् उद्भवन्ति प्रलीयन्ति ।
एकनैके चित्स्वरूपे आत्मनि तद्द्वयविलक्षणे ॥
जागरितायाः अवस्थायाम् प्रतीतिरूपेण भासन्ते / भान्ति ।
तथा स्वप्नसुषुप्तिभ्याम् अपि दृष्टरि-अद्वये ॥
कर्त्ता च भोक्ता च दृष्टा उपाधिः ।
चित्तस्य मनसः बुद्धेश्च अहमः ॥
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(अर्थ :
’मैं’ तथा ’मेरा’ ये दोनों विचार / कल्पनाएँ भी चित्त में उसी चित्-स्वरूप आत्मा से तरंगों सी उठती और उसी में पुनः विलीन होती रहती हैं जो उन दोनों से सर्वथा विलक्षण-स्वरूप है । ये तरंगे जागृत स्वप्न तथा सुषुप्ति में भी इसी प्रकार से उनके दृष्टास्वरूप उनके अधिष्ठान अद्वय आत्मा से अपृथक् हैं । ’कर्त्ता’, ’भोक्ता’ और ’दृष्टा’ ’चित्त’, ’मन’ ’बुद्धि’ और ’मैं’ के उपाधिमात्र हैं ।)
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hyaH rachitaM anena...॥
ahaṃ-mamaśca vṛttayaḥ san udbhavanti pralīyanti ।
ekanaike citsvarūpe ātmani taddvayavilakṣaṇe ॥
jāgaritāyāḥ avasthāyām pratītirūpeṇa bhāsante / bhānti  ।
tathā svapnasuṣuptibhyām api dṛṣṭari-advaye ॥
karttā ca bhoktā ca dṛṣṭā upādhiḥ ।
cittasya manasaḥ buddheśca ahamaḥ ॥
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Meaning :
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This was composed Yesterday by this (blogger). 
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'I' and 'mine' both these thoughts / imaginations emerge and dissolve in the mind from and into the same Transcendent Self that is Consciousness / Awareness only during the mental state when one says he is 'awake' to and in a world. Which is untouched by them. (These thought-) waves which are inseparable from That Transcendent Self that is Consciousness / Awareness like-wise arise and subside during the mental states of dream and deep sleep too. The sense 'Various actions and deeds are done by me', 'Various experiences are enjoyed by me', and 'Various activities are observed by me', are but the modes / adjuncts of the mind which has other names like : citta manas buddhi and ego also. 
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Note :
citta : the fluctuating mode of mind which comprises of feelings, moods, emotions.
manas : the activities that spring from memory and thought in the form of memory.
buddhi : intellect,
ego : The determination / conviction of oneself as a personal entity.
The first two stanzas were written for my preceding post in this blog yesterday and were included there-in. May be you would like to see.
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Tuesday, 23 February 2016

सु औ जस् / अस्...

सु औ जस् / अस्...
उस दिन वह अभी प्रातः के संध्योपासन से निवृत्त हुआ ही था कि उसे विवाद करते हुए उसके दो सहपाठी दिखाई दिये ।
गोशाला से थोड़ी दूर खड़े उनमें से एक ने दाहिना हाथ उठाते हुए कहा :
"सु औ जस् ...!"
"अम् औट् शस्...!"
दूसरे ने भी अपना हाथ उठाते हुए प्रत्युत्तर में कहा ।
"टा भ्याम् भिस्...!"
पहले ने उत्तर दिया  ।
"ङे भ्याम् भ्यस्...!"
दूसरे ने प्रत्युत्तर में कहा ।
"ङसि भ्याम् भ्यस्...!"
पहले की प्रतिक्रिया थी ।
"ङस् ओस् आम् ...!
दूसरे ने विकल्प प्रस्तुत किया ।
"ङि ओस् सुप्...!"
पहले ने हार न मानते हुए आग्रह किया ।
"हे!.. हे!...हे!!!"
दूसरे ने हाथ उठाकर उल्लासपूर्वक कहा ।
यह समझने में आने पर उसे आश्चर्य हुआ कि वे विवाद नहीं कर रहे थे, वे सूत्रपाठ कर रहे थे !
किन्तु इसके साथ उसे क्षण भर को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह कुछ सहस्र वर्षों पूर्व की उस स्मृति में पहुँच गया था, जिसे वह अपनी स्मृति कह भी सकता है और नहीं भी कह सकता ।
उसे ’प्रत्यक्ष’ हुआ कि कोई स्मृति अपनी नहीं होती और न कोई मति / विचार अपना होता है ।
उस एक क्षण में जो काल के लोचकता के गुण का दर्शन था, व्यक्तिगत रूप में उसे अपने उस पूर्व जन्म की घटना का स्मरण हुआ जब यह पूरा सूत्र उसे एक बार पढ़ते ही कण्ठस्थ हो गया था ।
"सु-औ-जस्-अम्-औट्-शस्-टा-भ्यां-भिस्-ङे-भ्यां-भ्यस्-ङसि-भ्यां-भ्यस्-ङस्-ओस्-आम्-ङि-ओस्-सुप्"
(सुप्-प्रत्ययाःनिदर्शनं : अष्टाध्यायी 4/1/2 ॥)
उसने मन ही मन दोहराया ।
"हाँ, यह ठीक है ।"
उसे संशय न था ।
किन्तु यह तो मन्त्र हुआ !
"हाँ वेद-मन्त्र..."
"तो क्या यह ऋचा भी है?"
"ऋचा के रूप में वेद है, मंत्र के रूप में व्याकरण..."
"वेद और व्याकरण में क्या भेद हुआ?"
"वेद ऋचा के रूप में प्राप्त भाषा है, मंत्र अर्थात् सूत्र उसका सीमित संदर्भ में प्रयोग ।"
"ऋचा सूक्त होती है, यत्किं (जबकि) सूत्र व्यवहार से उसका संबंध सुनिश्चित होता है ।"
"अर्थात् ?
"लक्षण ।"
"अर्थात् चिह्न, लिङ्ग ?"
"हाँ !"
वह प्रसन्नता पूर्वक आगे बढ़ गया था ।
भोजन के पश्चात् घड़ी-भर (घटिकां-विश्रान्तिक्षणे) उसे पुनः विचार आया कि न तो मंत्र को और न ऋचा को वह किसी भी भाषा में व्यक्त में कर सकता है । यह वेद-वाणी है जो नित्य है और  उसे ध्वनि-रूप के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में उसे रूपान्तरित करते ही उसका वास्तविक अर्थ अर्थात् उद्देश्य एवं प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है । अन्य सभी भाषाएँ जो कि मनुष्यनिर्मित हैं, व्यावहारिक रूप से तो उपयोगी हैं किन्तु मनुष्य के अपने जातिगत संस्कारों के स्पर्श से वेद-भाषा के ध्वनि-रूप की शुद्धता को नष्ट कर देती हैं । यह वेद-वाणी पात्र और अधिकारी के द्वारा ही कही और सुनी जाती है, अपने ही हृदय में या केवल ऐसे ही दूसरे पात्र और अधिकारी के समक्ष । सामान्यजन मलिन संस्कारों से युक्त बुद्धि होने तक तो इसका श्रवण तक नहीं कर सकता, स्मरण और उसे लिपिबद्ध करना तो और भी कठिन है । और लिपिबद्ध को भी केवल वही समझ सकता है जिसने सम्यक् श्रवण किया हो, जो अधिकारी हो । और यह तो वेद-वाणी की करुणा है, जिससे कि अनधिकारी इसे श्रवण कर अपना और जगत् का अहित न कर बैठे । इसका अपनी भाषा में अनुवाद करने का विचार ही उसे अत्यन्त अनिष्टकारी प्रतीत हुआ ।
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अहं-ममश्च वृत्तयः सन् उद्भवन्ति प्रलीयन्ति ।
एकनैके चित्स्वरूपे आत्मनि तद्द्वयविलक्षणे ॥
जागरितायाः अवस्थायाम् प्रतीतिरूपेण भासन्ति ।
तथा स्वप्नसुषुप्तिभ्याम् अपि दृष्टरि-अद्वये ॥
(अर्थ :
’मैं’ तथा ’मेरा’ ये दोनों विचार / कल्पनाएँ भी चित्त में उसी चित्-स्वरूप आत्मा से तरंगों सी उठती और उसी में पुनः विलीन होती रहती हैं जो उन दोनों से सर्वथा विलक्षण-स्वरूप है । ये तरंगे जागृत स्वप्न तथा सुषुप्ति में भी इसी प्रकार से उनके दृष्टास्वरूप उनके अधिष्ठान अद्वय आत्मा से अपृथक् हैं ।)
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अपने हृदय में ये शब्द अनायास जैसे झँकृत हो रहे हों उसे ऐसा लगा ।
इन शब्दों को वैसे तो कुछ सहस्र वर्ष पहले उसने ही रचना में बाँधा था, किन्तु उसे लगा मानों वह इन्हें पहली बार सुन रहा हो । नितांत नए, उस एक क्षण में जो काल के लोचकता के गुण का दर्शन था, व्यक्तिगत रूप में उसे अपने उस पूर्व जन्म की घटना का पुनः स्मरण हुआ ।
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काल के स्वरूप के बारे में उसे भ्रम नहीं था । सौर, सावन, चान्द्र तथा नाक्षत्र इन चार प्रकार से मनुष्य का जीवन व्यतीत होता है । सौर मान से एक (सौर-)वर्ष तीन सौ पैंसठ दिनोंका होता है अर्थात् इतने सूर्योदय जम्बूद्वीप में काशी, काञ्ची, जगन्नाथ-पुरी या उज्जैन आदि स्थानों पर होते हैं । सावन मान से तीन सौ चौवन दिनों का और नाक्षत्र मान से तीन सौ पैंतीस दिनों का वर्ष होता है । सर्दी, गर्मी और वर्षा सौरमान से होती है । अग्निष्टोम आदि यज्ञ, उत्सव और विवाह - ये सावनमान से किए जाते हैं, व्याज आदि व्यवहार मलमासयुक्त चान्द्रमान से किए जाते हैं । नाक्षत्रमान से ग्रहों की चाल होती है । पृथ्वी पर इन चारों के सिवा दूसरा कोई मान नहीं होता ।
(स्कन्द-पुराण, नागर खण्ड, 229)
लौकिक मनुष्य पृथ्वी-तत्व का ही शरीर लेकर जन्म लेता है और मृत्यु के बाद अपने जीवन में किए गए कर्मों के अनुसार जिन शुभ-अशुभ लोकों को प्राप्त होता है वे सभी नितान्त वैयक्तिक होते हैं । ऐसे असंख्य लोक हैं किन्तु मनुष्य जीवन में किए कर्मों से फलित प्रारब्धवश वहाँ मनुष्य अपने शुभ-अशुभ फलों को भोगता है । देवता भी पुण्यकर्मों के भोग के पश्चात् भूलोक पर मनुष्य या अन्य जीव के रूप में जन्म लेते हैं किन्तु मनुष्यों के अतिरिक्त किसी को इतनी स्वतंत्रता नहीं होती कि वेदोक्त कर्म का विवेकपूर्वक अनुष्ठान करता हुआ उस धाम को प्राप्त हो सके जिसे न सूर्य प्रकाशित करता है, न चंद्र, न भौतिक प्रकाश, जबके उसके ही प्रकाश से इन समस्त लोकों का उद्भव और विलय होता है ।
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Sunday, 21 February 2016

शून्यमाहात्म्यम्-स्तोत्रम् / śūnyamāhātmyam-stotram

शून्यमाहात्म्यम्-स्तोत्रम्
औन्यं प्रवर्तते यस्य युज्यते वा वियुज्यते ।
श-परं अथ वा शून्यं तदङ्कमिति स्मृतम् ॥1
गणनायामदृश्यं सनभावमेव सूचयति ।
कतीति संख्याभावे विस्मिता साङ्ख्याप्यत्र ॥2
दक्षिणे दक्षिणामूर्तिः वामे तु शक्त्यात्मकं ।
युक्ते अन्यान्यङ्कानि दशगुणं परिवर्धयेत् ॥3
शपरं सर्वदा तिष्ठेच्छक्तिशिवयोः शून्यम् ।
इतिशून्यमाहात्म्यम् यः पठेत् गणेशम् भजेत् ॥4
इति श्रीविनायकस्वामिविरचितं शून्यमाहात्म्यम्-स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥
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 अर्थ :
1. जिसके जोड़े जाने या घटाए जाने से संख्या का मान नहीं बदलता इस प्रकार प्रत्येक संख्या में प्रच्छन्न-रूप (प्र-शं) 0 छिपा होने से इसे शून्य कहा जाता है ।
2. गणना की दृष्टि से यह (0) केवल अभाव का द्योतक है इसलिए यह कैसी संख्या है इस विषय में साङ्ख्य (महर्षि कपिलप्रोक्त साङ्ख्यसिद्धान्त को माननेवाले ज्ञानी) भी आश्चर्य करते हैं ।
3. किसी संख्या के दाहिनी ओर होने पर यह दक्षिण-अमूर्त (अर्थात् भगवान् शिव का दक्षिणामूर्ति) रूप ग्रहण कर लेता है, (जैसे 5 और 05 दोनों का एक ही मान होता है ।) वहीं किसी संख्या के बाईं ओर होने पर उसे दस गुना कर देता है (जैसे 1 > 10) ।
4. ’श’-कार होने से शून्य शिव और शक्ति दोनों में उभयनिष्ठ होने से दोनों के माहात्म्य से संपन्न है ।
इस शून्यमाहात्म्यम् स्तोत्र का जो पाठ करता है भगवान् गणेश को प्रिय होता है ।
श्रीविनायस्वामीकृत शून्यमाहात्म्यम्-स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥
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 टिप्पणी :
1. शपर से cipher की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है ।
2. ऊन् > कम होना / करना,
तुलना करें : एकोनविंशति  उन्नीस (19)>
(एक ऊन विंशति )
पौन > तीन-चौथाई > पाय ऊनम् > एक से एक-चौथाई कम,
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śūnyamāhātmyam-stotram
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aunyaṃ pravartate yasya yujyate vā viyujyate |
śa-paraṃ atha vā śūnyaṃ tadaṅkamiti smṛtam ||1
gaṇanāyāmadṛśyaṃ sanabhāvameva sūcayati |
katīti saṃkhyābhāve vismitā sāṅkhyāpyatra ||2
dakṣiṇe dakṣiṇāmūrtiḥ vāme tu śaktyātmakaṃ |
yukte anyānyaṅkāni daśaguṇaṃ parivardhayet ||3
śaparaṃ sarvadā tiṣṭhecchaktiśivayoḥ śūnyam |
itiśūnyamāhātmyam yaḥ paṭhet gaṇeśam bhajet ||4
iti śrīvināyakasvāmiviracitaṃ śūnyamāhatmyam-stotram saṃpūrṇam ||
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Meaning :
1. The number that added to or subtracted from any other number does not alter its value and thus lies latent in every number is therefore called śūnyaṃ / zero .
2. While counting which denotes absence of the thing counted, and even the sāṅkhya jñānī those who follow the maharṣi kapilaprokta sāṅkhyasiddhānta express surprise about this 0, what this number signifies?
3.When this number (0) is on the right of another number, stays hidden and appears to have no meaning (Like as in : 5 and 05), but when occupies a place left to a number makes it 10-fold.
4. 0  therefore as śa shares the glory of both : The Lord Shiva and His Divine Consort devī (Shakti).
Whosoever  sings this hymn to śūnyaṃ / zero attains the devotion of  Lord gaṇeśa (The Lord of Intellect and Intelligence).
Thus concludes this glory to śūnyaṃ / zero hymn composed by śrīvināyakasvāmi.
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Note : Compare शपर / śaparaṃ and Cipher.

Saturday, 20 February 2016

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रश्न

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रश्न
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(विचार की) अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का 'अधिकार'
कोई विचार मुझे आकर्षित करता है और यदि मैं भी उसके प्रति आकर्षित हूँ तो उससे तादात्म्य स्थापित कर लेता हूँ और फिर इस भ्रम का शिकार हो जाता ह्ँ कि यह ’मेरा’ विचार है । तब मैं अपने ’विचार’ को अभिव्यक्त करने का प्रयास करने लगता हूँ और ’अपने’ विचार की अभिव्यक्ति करने को ’अपना’ अधिकार मान बैठता हूँ । मजे की बात है कि मैं जब चाहे तब ’अपने’ विचार के नितांत विपरीत या उस ’मेरे’ विचार से बिल्कुल भिन्न प्रकार के विचार के द्वारा इस पुराने विचार को प्रतिस्थापित कर सकता हूँ और तब इसे ’मेरा’ कहता हूँ । जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी ’विचार’ मूलतः ’मेरा’ या किसी का भी नहीं होता । राजनैतिक, सामाजिक, ’दार्शनिक’ और तथाकथित धार्मिक ’विचार’ तो और अधिक पराये  होते हैं । तथाकथित 'वैज्ञानिक' यहाँ तक की 'गणितीय' मान्यताओं की सत्यता तक संदिग्ध है क्योंकि जिन वस्तुओं के बारे में वे विचार करते हैं उन वस्तुओं जैसे स्थान समय / काल / पदार्थ आदि की न तो कोई संतोषजनक परिभाषा उनके पास है न व्याख्या । 'ईश्वर' की अवधारणा सहित, ये सभी यथार्थ प्रतीत होनेवाले विचार  परिस्थितियों और मनःस्थिति तथा मानसिक परिपक्वता के अनुसार अपने समय पर महत्वपूर्ण, अप्रासंगिक या अनावश्यक प्रतीत हुआ करते हैं ।
जैसे किसी चित्रकार की कूँची का कार्यक्षेत्र कॅनवस तक सीमित होता है और वह अपने तईं  कितनी भी उत्कृष्ट या सामान्य पैंटिग बनाये, उसकी स्वतंत्रता उस कॅनवस से सीमित होती है और शायद ही यह संभव हो कि वह जिस भावना / विचार / स्मृति को कॅनवस पर प्रदर्शित करना चाहता था उसे पूरे आत्म-विश्वास से व्यक्त कर पाया हो । इसके बावज़ूद उस पैंटिंग को वह ’अपना’ कहता है, किन्तु यह कहना कठिन है कि उस पैंटिंग को देखनेवाले उस भावना / विचार / स्मृति को कितना / कैसे समझ सके हों । इसलिए एक ही पैंटिंग जहाँ भिन्न-भिन्न दर्शकों, कलाकारों और कला-समीक्षकों के लिए भिन्न-भिन्न ’अर्थ’ रखती है, वैसे ही ’शब्दगत’ कोई भी ’विचार’ अपनी सीमाओं में बद्ध होता है । यह कहना कि ’विचार’ स्वतंत्र होता है, ’सत्य’ या ’असत्य’ होता है, मूलतः एक भ्रम है । ’विचार’ की ’सत्यता’ / ’असत्यता’ / यथार्थता उसकी व्यावहारिकता और उसे प्रयोग किए जाने पर पाए जानेवाले परिणामों तक सीमित होती है ।
’विचार’ की तुलना में ’भावनाएँ’ और विशेषकर मानसिक स्तर पर घटित होनेवाली अनुभूतियाँ, अपेक्षतया अधिक स्पष्ट प्रतीतियाँ होते हैं और उनके होने के समय सर्वाधिक प्रामाणिक भी होते हैं किन्तु समय बीतते ही मन उन्हें स्मृति तथा अच्छे-बुरे, सही-गलत, प्रिय-अप्रिय आदि के वैचारिक वर्गीकरण में रूपान्तरित कर लेता है । उनकी अनायास ’अभिव्यक्ति’ कभी संभव होती है कभी-कभी नहीं भी होती । तब ’विचार’ के माध्यम से किसी हद तक उन्हें व्यक्त तो किया जा सकता है किन्तु उन्हें कितना और किस रूप में समझा जाता है इस बारे में कुछ तय नहीं ।
जीवन, चेतना, संवेदन, अनुभूति, अस्तित्व का प्रच्छन्न आयाम है, जबकि जिस भौतिक इन्द्रिय-मन-बुद्धिग्राह्य संसार को मनुष्य अपने से भिन्न समझता है वह अस्तिव का प्रकट आयाम है और भावना, स्मृति, विचार, अभिव्यक्ति, अर्थात् ’चित्त’ उन दोनों के बीच अवस्थित अन्तर्वर्ती आयाम (इंटरफ़ेस)  / व्यक्ति है ।
’यथार्थ’ वह है, जिसे व्यावहारिक धरातल पर प्रयोग में लाया जा सकता है । इसलिए ’सामाजिक’/ ’राजनैतिक’ विचार, उनकी कल्पना से पृथक् वास्तव में कहीं होते ही नहीं । इसलिए ’सामाजिक’ / ’राजनैतिक’ यथार्थ एक छलावा, नाटक है जिससे व्यक्ति कभी नहीं समझ पाता । यदि यह स्पष्ट हो जाता है कि ’विचार’ अभिव्यक्ति के लिए एक अपर्याप्त / अनुपयुक्त, यहाँ तक कि प्रायः अनर्थकारी माध्यम भी हो सकता है तो यह समझना कठिन नहीं कि ’अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ जैसी कोई चीज़ कहीं नहीं होती ।
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Friday, 19 February 2016

संज्ञाप्रकरणम्

वरदराजाचार्यविरचिता लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् संज्ञाप्रकरणम्
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नत्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् ।
पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् ॥
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अक्षरसमाम्नायः
अइउण् 1
ऋलृक् 2
एओङ् 3
ऐओच् 4
हयवरट् 5
लण् 6
ञमङणनम् 7
झभञ् 8
घढ्धष् 9
जबगडदश् 10
खफछठथचटतव् 11
कपय् 12
शषसर् 13
हल् 14
अक्षरसमाम्नायप्राप्तिहेतुफलयोः प्रदर्शनम्
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि ।
वर्णसमाम्नायसूत्रस्थान्त्यवर्णानामित्संज्ञकत्वप्रतिज्ञा
एषामन्त्या इतः ।
हकारादिव्यञ्जनस्थाकारप्रयोजनम्
हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः ।
लण्-प्रत्याहारस्थस्य अकारस्य इत्संज्ञकत्वप्रतिज्ञा
लण्मध्येत्वित्संज्ञकः ।
इत्संज्ञासूत्रम्
1. हलन्त्यम् ।
(अष्टाध्यायी 1/3/3 ॥)
उपदेशेऽन्त्यं हलित्स्यात् !
उपदेशलक्षणम्
उपदेश आद्योच्चारणम् ।
अनुवृत्तिप्रकारप्रदर्शनम्
सूत्रेष्वदृष्टं पदं सूत्रान्तरादनुवर्त्तनीयं सर्वत्र ।
लोपसंज्ञासूत्रम्
2. अदर्शनं लोपः ।
(अष्टाध्यायी 1/1/60 ॥)
प्रसक्तस्यादर्शनं लोपसंज्ञं स्यात् ।
लोपविधायकसूत्रम्
3. तस्य लोपः ।
(अष्टाध्यायी 1/3/9 ॥)
णकारादि-अनुबन्धप्रयोजनम्
णादयोऽणाद्यार्थाः ।
’हल्’ आदिप्रत्याहारसंज्ञाविधायकसूत्रम्
4. आदिरन्त्येन सहेता ।
(अष्टाध्यायी 1/ 1 71 ॥)
अन्त्येनेतासहित आदिर्मध्यगानां स्वस्य च संज्ञा स्यात् ।
यथा ’अण्’ इति ’अ इ उ’ वर्णानां संज्ञा । एवम् - अच्, अल् इत्यादयः ।
5. ऊकालोऽज्ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतः ।
(अष्टाध्यायी 1/2/27 ॥)
उश्च ऊश्च उ३श्च वः ।
वां काल इव कालो यस्य सोऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात् ।
अचां त्रैविध्यनिरूपणम्
स प्रत्येकमुदात्तादिभेदेन त्रिधा ।
उदात्तसंज्ञासूत्रम्
6. उच्चैरुदात्तः ।
(अष्टाध्यायी 1/2/29 ॥)
ताल्वादिषु सभागेषु स्थानेष्वूर्ध्वभागे निष्पन्नोऽजुदात्तसंज्ञः स्यात् ।
अनुदात्तसंज्ञासूत्रम्
7. नीच्चैरनुदात्तः ।
(अष्टाध्यायी 1/2/30 ॥)
ताल्वादिषु सभागेषु स्थानेष्वधोभागे निष्पन्नोऽच् अनुदात्तसंज्ञः स्यात् ।
स्वरितसंज्ञासूत्रम्
8. समाहारः स्वरितः ।
(अष्टाध्यायी 1/2/31 ॥)
उदात्तादनुदात्तत्वे वर्णधर्मौ समाह्रियेते यत्र सोऽच् स्वरितसंज्‘जः स्यात् ।
अचामनुनासिकनिरनुनासिकभेदेन पुनर्द्वैविध्यप्रतिपादनम्
स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा ।
अनुनासिकसंज्ञा सूत्रम्
9. मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः ।
(अष्टाध्यायी 1/1/8 ॥)
मुखसहितनासिकयोच्चर्यमाणोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् ।
अचां सर्वभेदनिरूपणम्
तदित्थम् -
’अ इ उ ऋ’ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः ।
’लृ’ वर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् ।
एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् ।
सवर्णसंज्ञाविधायकं सूत्रम्
10. तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् ।
(अष्टाध्यायी 1/1/9 ॥)
ताल्वादिस्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नश्चेत्येतद् द्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथः सवर्णसंज्ञं स्यात् ।
ऋलृवर्णयोः सवर्णसंज्ञाविधायकं वार्त्तिकम्
वार्त्तिकम् - ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्यं वाच्यम् ।
वर्णानां स्थानानि
-1. अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।
-2. इचुयशानां तालु ।
-3. ऋटुरषाणां मूर्धा ।
-4. लृतुलसानां दन्ताः ।
-5. उपूपध्मानीयानामोष्ठौ ।
-6. ञमङणानानां नासिका च ।
-7. एदैतोः कण्ठतालु ।
-8. ओदौतोः कण्ठोष्ठम् ।
-9. वकारस्य दन्तोष्ठम् ।
-10. जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् ।
-11 नासिकाऽनुस्वारस्य ।
यत्ननिरूपणम्
यत्नो द्विधा - आभ्यन्तरो बाह्यश्च ।
आभ्यन्तरप्रयत्नभेदनिरूपणम्
आद्यः पञ्चधा-स्पृष्टेषत्स्पृष्टेषद्विवृतविवृतसंवृतभेदात् ।
तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् ।
ईषत्स्पृष्टमन्तःस्थानाम् ।
ईषद्विवृतमूष्मणाम् ।
विवृतं स्वराणाम् ।
ह्रस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम्, प्रक्रियादशायां तु विवृतमेव ।
बाह्ययत्नभेदनिरूपणम्
बाह्यस्त्वेकादशधा -
विवारः संवारः श्वासो नादो घोषोऽघोषोऽल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति ।
खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
हशो संवारा नादा घोषाश्च ।
वर्गाणां प्रथम-तृतीय-पञ्चमा यणश्चाल्पप्राणाः ।
वर्गाणां द्वितीय-चतुर्थौ शलश्च महाप्राणाः ।
वर्णानां ’वर्ग’ करणम्
कादयो मावसानाः स्पर्शाः ।
यणोऽन्तस्थाः ।
शल ऊष्माणः ।
अचः स्वराः ।
’क*ख*’ इति कखाभ्यां प्रागर्द्धविसर्गसदृशो जिह्वामूलीयः ।
(अधोबिन्दु सहित ’क’ तथा ’ख’)
’प*फ*’ पफाभां इति प्रागर्द्धविसर्गसदृश उपध्मानीयः ।
(अधोबिन्दु सहित ’प’ तथा ’फ’)
’अं अः’ इत्यचः परानुस्वारविसर्गौ ।
सवर्णग्राहकसूत्रम्
11. अणुदित्सवर्णस्यचाप्रत्ययः ।
(अष्टाध्यायी 1/1/69 ॥)
प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययः ।
अविधीयमानोऽणुदिच्च सवर्णस्य संज्ञा स्यात् ।
अत्रैवाण् परेण णकारेण ।
(पर-ण > परण > तृतीया एकवचनं > परेण)
उदितां निरूपणम्
कु चु टु तु पु एते उदितः ।
अकारादिवर्णानां स्व-यावद्-बोध्यनिरूपणम्
तदेवम् -
अ इत्यष्टादशानां संज्ञा ।
तथाकारोकारौ ।
ऋकारस्त्रिंशत् ।
एवं लृकारोऽपि ।
एचो द्वादशानाम् ।
यवलवर्णानां द्वैविध्यनिरूपणम्
अनुनासिकाननुनासिकभेदेन यवला द्विधा ।
तेनाननुनासिकास्ते द्वयोर्द्वयोः संज्ञा ।
संहितासंज्ञासूत्रम्
12. परः संनिकर्षः संहिता ।
(अष्टाध्यायी 1/4/109 ॥)
वर्णानामतिशयितः संनिधिः संहितासंज्ञः स्यात् ।
संयोगसंज्ञा सूत्रम्
13. हलोऽनन्तराः संयोगः ।
(अष्टाध्यायी 1/1/7 ॥)
अज्भिरव्यवहिता हलः संयोगसंज्ञाः स्युः ।
पदसंज्ञासूत्रम्
14. सुप्तिङन्तं पदम् ।
(अष्टाध्यायी 1/1/14 ॥)

इति संज्ञाप्रकरणम्
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Thursday, 18 February 2016

भविष्य की राजनीति और राजनीति का भविष्य

भविष्य की राजनीति और राजनीति का भविष्य
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राजनीति सदैव किसी काल्पनिक ध्येय, आदर्श स्वप्न की डोर से बँधी पतंग की तरह होती है जो ऐसे ही काल्पनिक भविष्य के आकाश में उड़ते रहने का और किसी भी दूसरी पतंग को न उड़ने देने का संकल्प होती है । मजे की बात यह है कि ऐसे सभी भविष्य एक-दूसरे से नितांत अपरिचित होते हुए भी राजनीति करनेवाले के लिए अपने-आप के लिए नितांत सत्य होते हैं । विचारक, चाहे वे किसी भी वाद के पक्ष में या उसके कट्टर विरोधी हों भविष्य की राजनीति और राजनीति के भविष्य के विचार की डोर में इतनी मजबूती से बँधे होते हैं कि ’किसकी राजनीति?’ और ’किसका भविष्य?’ यह मूल प्रश्न उनके जेहन में कौंधता ही नहीं । मुझे नहीं लगता कि किसी ने भी उनके सामने यह प्रश्न कभी रखा होगा और मुझे यह भी लगता है कि इसे यदि कोई उनके समक्ष रख भी दे तो वे उसे हकबकाकर ऐसे देखेंगे जैसे आपके पवित्र पूजास्थल में किसी ने इरादतन, आपकी भावनाओं को चोट पहुँचाने के लिए किसी निषिद्ध अत्यन्त अपवित्र वस्तु को  तब फेंक दिया हो जब आप अपनी आराधना में संलग्न होने जा ही रहे थे ।
राजनीति और भविष्य सदैव चित्त के किसी भय और लोभ, आशा और आशंका की मनःस्थिति होने पर ही विचार के रूप में मन में उठते हैं । यह ’विचार’ स्वयं न तो वह राजनीति है, न वह भविष्य जिसे आधार बनाकर वह व्यक्त होकर अपना शाब्दिक और क्षणिक अस्तित्व प्राप्त कर लेता है । और क्षण भर जीकर मर भी जाता है, किन्तु फिर भी वह विलीन होते-होते अपनी संतान पैदा कर जाता है । यह संतान ही वह डोर है जिस पर भविष्य की राजनीति और राजनीति का भविष्य जैसी कल्पना पतंग सी बँधी भय और लोभ, आशा और आशंका की मनःस्थिति की हवा में डोलती, उठती गिरती रहती है और मेरी पतंग सब दूसरी पतंगों को काटकर आकाश पर एकछत्र साम्राज्य के परचम सी लहराती रहे इस प्रेरणा से  विचारक को अभिभूत किए रहती है ।
’किसकी राजनीति?’ और ’किसका भविष्य?’ जब यह प्रश्न उसके सामने कोई रखता है तो स्वाभाविक ही है कि उस प्रश्नकर्ता को बेमतलब का हस्तक्षेप या बाधा समझा जाए, किन्तु किसी भी स्वस्थ-बुद्धि मनुष्य के मन में उसका अपना विवेक ही जब उसके सामने यह प्रश्न रख देता है और वह इस पर ध्यान देता है गौर से इस बारे में समझने की क़ोशिश करता है और इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए तड़प उठता है, तो शायद पहली और अन्तिम बार, अर्थात् सदा-सदा के लिए राजनीति और भविष्य नामक चीज़ से उसका मोहभंग हो सकता है । किन्तु यदि यह प्रश्न उसे बस छूकर गुज़र जाता है तो अभी उसे राजनीति और भविष्य नामक चीज़ों के दलदल में वैसा ही मजा आ रहा होगा, जैसा गर्मियों के दिनों में पानी से भरे गड्ढे में भैंसों को शायद अनुभव होता होगा ।
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Love, Lust, Pleasure and Happiness.

Love, Lust, Pleasure and Happiness.
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Happiness alone is the cause of love. You love what makes you happy. One loves you when you make him / her happy. This love is not a feeling, rather the essential nature of the Self that is in all beings and things without distinction. When this takes the manifest form it's reflection in mind is what we take for love. Pleasure is the absence of this love, because pleasure soon fades away or turns into boredom if not into misery. Lust is the craving for pleasure which fails its own purpose. Lust begins with longing, discomfort and ends into dissatisfaction, disappointment, but never in fulfillment / contentedness.

Tuesday, 16 February 2016

वेद, भाषा, और व्याकरण

वेद, भाषा, और  व्याकरण
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जब वह यहाँ पर आया था तो उसे बहुत से सहपाठियों की भाषा सुनने-समझने में कौतूहल और कुछ कठिनाई भी होती थी । किन्तु इससे उसे कोई असुविधा नहीं थी । उसे पता चल गया था कि इस गुरुकुल में दूर-दूर देशों से विद्यार्थी शिक्षा पाने के लिए आते हैं किन्तु आचार्य उनमें से किसी किसी को ही गुरुकुल में प्रवेश की अनुमति देते हैं । उसे यह भी स्पष्ट हो गया था कि अधिकाँश विद्यार्थी निर्धन परिवारों से आते हैं और ब्राह्मण जाति में उत्पन्न हैं । जाति और भाषा के आधार पर उन विद्यार्थियों में अलग-अलग समूह थे और ऐसा होना स्वाभाविक भी था किन्तु भोजनशाला और पाकशाला सबके लिए एक ही थी । और गुरुकुल में होने से ही सभी आचार्य के गोत्र में गिने जाते थे। पर्याय से वे सभी 'ब्राह्मण' थे, भले ही जाति या जन्म से किसी भी वर्ण के हों ! प्रायः भोजन के समय घंटी बजते ही सभी एक-एक कर आने लगते जबकि किसी के विलंब से आने पर उसे फलाहार से संतोष करना होता था । और इसलिए वह और दूसरे विद्यार्थी कभी-कभी जान-बूझकर भी देर से आते थे । फल कभी तो प्रचुर मात्रा में होते थे किन्तु कभी कभी बिल्कुल भी नहीं होते थे । तब उन्हें दूध पर रहना होता था । वह भी उपलब्ध न हो तो वे वन या उपवन से कुछ तोड़कर अपनी क्षुधा को शांत कर लेते । कभी-कभी वे गुरुकुल से थोड़ी दूर स्थित ग्राम में जाकर भिक्षान्न माँग लाते, और कभी-कभी कुछ भूखे ही रह जाते ।
उसे भिन्न-भिन्न भाषाएँ सीखने में विशेष रुचि थी और किसी भाषा को ठीक से कैसे सीखा जाता है, उसका अधिकारपूर्वक प्रयोग और उपयोग कैसे किया जाता है, इसका रहस्य उसे पिता ने ही सिखाया था ।
"वत्स, तुम भाषा और व्याकरण सीखना चाहते हो न! अपनी मातृभाषा तुमने कैसे सीखी?"
"अनुकरण और अनुग्रहण से तात!"
"क्या तुम्हें उसका व्याकरण पृथक् से सीखना पड़ा?"
"नहीं तात!"
"फिर व्याकरण की आवश्यकता क्या है?"
"व्याकरण तो भाषा की शुद्धता और संप्रेषण की स्पष्टता की परीक्षा के लिए एक प्रमाण / निकष होता है तात!"
"क्या व्याकरण का कोई और प्रयोजन भी हो सकता है?"
"तात! वेद-भाषा और लोक-भाषा के सन्दर्भ में व्याकरण के प्रयोजन भिन्न-भिन्न होते हैं ।"
"कैसे?"
"लोकभाषा का व्याकरण रूढियों और प्रचलन आधार पर निष्कर्ष-रूप में प्राप्त नियमों और मान्यताओं से निर्धारित होता है और इसीलिए निरंतर परिवर्तनशील भी होता है, जबकि वेद-भाषा के  व्याकरण का बोध वाणी के सम्यक् और स्वाभाविक प्रयोग और उपयोग की प्रक्रिया के अध्ययन से प्राप्त अटल सिद्धान्तों के ज्ञान से होता है । इसलिए वेद-भाषा का व्याकरण मूलतः नित्य अविकारी होता है ।"
"क्या वेद-भाषा के व्याकरण का ज्ञान उसी तरह पाया जा सकता है जैसे कि लोक-भाषा के ज्ञान को पाया जाता है?"
"नहीं, वेद-भाषा के व्याकरण का ज्ञान उसके नियमित अभ्यास से ही होता है, जिसका एक प्रकार है पाठ ।"
"तो तुम्हें कौन सा व्याकरण सीखने में रुचि है? वेद-भाषा का या लोक-भाषा का?"
"तात, प्रयोजन के अर्थ में तो मुझे वेद-भाषा का ही व्याकरण सीखना है ।"
"क्या वेद-भाषा और उसका व्याकरण परस्पर भिन्न हैं?"
"नहीं तात! वेद व्याकरण है और व्याकरण वेद है । वेद भाषा है और भाषा वेद, इसलिए व्याकरण उनका परस्पर संबंध है ।"
"कोऽर्थो तर्हि पाणिनीयः ?"
"ग्रन्थरूपेण प्रकाशो, ज्ञानरूपेण वेदो, धर्मरूपेण व्यवहारः ...।"
"साधु वत्स!"
पिता ने उस पर आशीष वर्षा की ।
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श्रीवरदराजविरचिता-लघुसिद्धान्तकौमुद्याम्

श्रीवरदराजविरचिता-लघुसिद्धान्तकौमुद्याम्
विभक्ति-अर्थ प्रकरणम्
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891. प्रातिपदिकार्थ-लिङ्ग-परिणाम-वचन-मात्रे प्रथमा ।
(अष्टाध्यायी 2/3/46 ॥)
नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकाऽर्थः । मात्राशब्दस्य प्रत्येकं योगः ।प्रातिपदिकार्थमात्रे लिङ्गमात्राधिक्ये परिमाणमात्रे संख्यामात्रे च प्रथमा स्यात् ।
प्रातिपदिकार्थमात्रे :
उच्चैः । नीचैः। कृष्णः । श्रीः । ज्ञानम् ।
लिङ्गमात्रे :
तटः । तटी । तटम् ।
परिमाणमात्रे :
द्रोणो व्रीहिः । वचनं श्रुत्वा ।
संख्यामात्रे :
एकः । द्वौ । बहवः ।
’प्रथमा’ विभक्तिविधिसूत्रम् :
892.
सम्बोधने च ।
(अष्टाध्यायी 2/3/47 ॥)
प्रथमा स्यात् ।
हे राम!
’कर्म’ संज्ञासूत्रम् :
893. कर्तुरीप्सीतमं कर्म ।
(अष्टाध्यायी 1/4/49 ॥)
कर्तुः क्रियया आप्तुमिष्टतमं कारकं कर्मसंज्ञं स्यात् ।
’द्वितीया’ विभक्तिसूत्रम् :
894. कर्मणि द्वितीया ।
(अष्टाध्यायी 2/3/2 ॥)
अनुक्ते कर्मणि द्वितीया स्यात् ।
हरिं भजति ।
अभिहिते तु कर्मादौ प्रथमा :
हरिः सेव्यते ।
लक्ष्म्याः सेवितः ।
’कर्म’ संज्ञासूत्रम् :
895. अकथितं च ।
(अष्टाध्यायी 1/4/51 ॥)
अपादानादिविशेषैरविवक्षितं कारकं कर्मसंज्ञं स्यात् ।
(’दुह्’ आदिधातुपरिणामम्)
दुह्-याच्-पच्-दन्ड्-रुधि-प्रच्छि-चि-ब्रू-शासु-जि-मथ्-मुषाम् ।
कर्मयुक् स्यादकथित तथा स्यात् नी-हृ-कृष्-वहाम् ॥
गां दोग्धि पयः ।
(गां द्वितीया पञ्चम्यार्थे अपादाने > गोः दोग्धि पयः)
बलिं याचते वसुधाम् ।
(बलिं द्वितीया पञ्चम्यार्थे अपादाने > बलेः ...)
तण्डुलान् ओदनं पचति ।
(तण्डुलान् द्वितीया पञ्चम्यार्थे अपादाने > ...तण्डुलेभ्यः > पञ्चमी न तु चतुर्थी)
गर्गान् शतं दण्डयति ।
(गर्गेभ्यः ...)
व्रजम् अवरुणद्धि गाम् ।
(व्रज > अधिकरणं सप्तम्यामर्थे द्वितीया अत्र)
माणवकं पन्थानं पृच्छति ।
(माणवकः > बालकः अपादान-अर्थे द्वितीया)
वृक्षं अवचिनोति फलानि ।
(वृक्षं > वृक्षात् इति अपादानं)
माणवकं धर्मं ब्रूते शास्ति वा ।
(माणवकं > सम्प्रदान-अर्थे > माणवकाय [आचार्यः] धर्मं ब्रूते शास्ति वा ..)
शतं जयति देवदत्तम् ।
(देवदत्तम् > देवदत्तात्... पञ्चमी)
सुधां क्षीरनिधिं मथ्नाति ।
(सुधाम् > द्वितीया, सम्प्रदान-अर्थे सुधाम्-प्राप्त्यर्थे)
देवदत्तं शतं मुष्णाति ।
(देवदत्तम् > पञ्चमी )
ग्रामम् > ग्रामात् ...अजां नयति, हरति, कर्षति, वहति वा ।
अर्थ-निबन्धना इयम् संज्ञा
बलिं भिक्षते वसुधाम् ।
माणवकं धर्मं भाषते अभिधत्ते वक्ति-इत्यादि ।
’कर्तृ’ संज्ञासूत्रम्
896. स्वतन्त्रः कर्ता ।
(अष्टाध्यायी 1/4/54 ॥)
क्रियायाम् स्वातन्त्रेण विवक्षितोऽर्थः कर्ता स्यात् ।
’करण’ संज्ञासूत्रम्
897. साधक-तमं करणम् ।
(अष्टाध्यायी 1/4/42 ॥)
क्रिया-सिद्धौ प्रकृष्टोपकारकं करणसंज्ञं स्यात् ।
’तृतीया’ विभक्तिसूत्रम्
898. कर्तृ-करणयोस्तृतीया ।
(अष्टाध्यायी 2/3/18)
अनभिहिते कर्तरि करणे च तृतीया स्यात् ।
रामेण वाणेन हतो वाली ।
अनभिहिते > अनुक्ते, ’हतः’ कर्मवाचकः प्रत्ययः..
सम्प्रदान-सज्ञासूत्रम्
899. कर्माणा यम् अभिप्रैति स सम्प्रदानम् ।
(अष्टाध्यायी 1/4/32 ॥)
दानस्य कर्मणा यम् अभिप्रैति स सम्प्रदानसंज्ञः स्यात् ।
’चतुर्थी’ विभक्तिसूत्रम्
900. चतुर्थी सम्प्रदाने ।
(अष्टाध्यायी 2/3/ 13)
विप्राय गां ददाति ।
चतुर्थी’ विभक्तिसूत्रम्
901. नमः- स्वस्ति-स्वाहा-स्वधा-ऽलं-वषट्‍योगाच्च ।
(अष्टाध्यायी 2/3/16 ॥)
एभिर्योगे चतुर्थी ।
हरये नमः ।
प्रजाभ्यः स्वस्ति ।
अग्नये स्वाहा ।
पितृभ्यः स्वधा ।
अलमिति प्र्याप्यर्थम्, तेन-दैयेभ्यो हरिरलं, प्रभुः, समर्थः, शक्तः इत्यादि ।
’अपादान’ संज्ञासूत्रम्
902. ध्रुवम् अपायेऽपादानम् ।
(अष्टाध्यायी 1/4/24 ॥)
अपायो विश्लेषः, तस्मिन् साध्ये यद् ध्रुवम् अवधिभूतं कारकं तद् अपादानं स्यात् ।
’पञ्चमी’ विभक्तिसूत्रम्
903. अपादाने पञ्चमी ।
(अष्टाध्यायी 2/3/28 ॥)
ग्रामाद् आयाति । धावतोऽश्वात् पतति-इत्यादि ।
’षष्ठी’ विभक्तिसूत्रम्
904. षष्ठी शेषे ।
(अष्टाध्यायी 2/3/50 ॥)
कारक-प्रातिपदिकाऽर्थ-व्यतिरिक्तः स्वस्वामिभावाऽदिः संबंधः, तत्र षष्ठी ।
राज्ञः पुरुषः ।
कर्मादीनामपि संबंधमात्रविवक्षायां षष्ठ्येव ।
सतां गतम् ।
सर्पिषो जानीते ।
मातुः स्मरति ।
एधोदकस्यपस्कुरुते ।
एधस् > एधः > पञ्चमी, षष्ठी, उदकस्य अपः कुरुते ।*
(*editing needed)
भजे (अहं) शम्भोश्चरणयोः ।
’अधिकरण’ संज्ञासूत्रम्
905. आधारोऽधिकरणम् ।
(अष्टाध्यायी 1/4/ 45 ॥)
कर्तृ-कर्मद्वारा तन्निष्ठ क्रियाया आधारः कारकं अधिकरणं स्यात् ।
’सप्तमी’ विभक्तिसूत्रम्
906. सप्तम्यधिकरणे च ।
(अष्टाध्यायी 2/3/36 )
अधिकरणे सप्तमी स्यात्, चकाराद् दूराऽन्तिकार्थेभ्यः । औपश्लेषिकः, वैषयिकः, अभिव्यापकश्च इति आधारस्त्रिधा ।
कटे आस्ते ।
स्थाल्यां पचति ।
मोक्षे इच्छास्ति ।
सर्वस्मिन्नात्मास्ति ।
वनस्य दूरे अन्तिके वा ।
इति विभक्ति-अर्थ प्रकरणम् ॥
--

Monday, 15 February 2016

कल की कविता और समीक्षा

कल की कविता 
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क़लम का सर क़लम हो तो,
घिसती तो नहीं, रिसती तो है,
और बिखर जाती है बीज बनकर,
बनती है जड़ें नई, बुनियाद नये पौधों की,
खेतियाँ उग आती हैं कलमों की,
उग आती हैं तलवारें शर और तीक्ष्ण,
खड्ग शूल कृपाण कई!
--
समीक्षा :
अभी कल ही इसे लिखा था और इसकी प्रशंसा बटोरकर दुष्ट-बिन (अर्थात् dust-bin) में फेंक दी । जिन्होंने प्रशंसा की उनका अनादर करने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैं स्वयं अपनी इस रचना को प्रशंसनीय नहीं मानता । हालाँकि इस रचना को ’समीक्षा’ के लिए एक उपयोगी केस-स्टडी-मॉडल की तरह पेश करना और उस तरह से ’समीक्षा’ करने के विचार से उत्साहित अवश्य हूँ ।
कुछ दिनों पहले प्रसंगवश मनुस्मृति के संभवतः सर्वाधिक प्रसिद्ध श्लोक के बारे में चिन्तन कर रहा था :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः ॥
(अध्याय 4, श्लोक 138)
यहाँ इस ओर ध्यान देना आवश्यक है कि मनु-स्मृति या दूसरी अन्य स्मृतियाँ गौण महत्व के दिशा-निर्देश हेतु उपयोगी ग्रन्थ हैं और उन्हें शास्त्र के आदेश की तरह ग्रहण करने का कोई आग्रह नहीं होता । स्मृतियाँ परस्पर विरोधाभासी या भिन्न दृष्टियों तथा प्रसंगों में ही व्यवहार्य हो सकती हैं । इसलिए यह उनकी मर्यादा हुई । वैसे प्रामाणिक मूल-ग्रन्थ वेद स्वयं भी नित्य-वाणी के ही रूप में सर्वाधिक और सदा ग्राह्य हैं, किन्तु उसी के लिये जो उसे सुनने का अधिकारी / पात्र है, न कि उसके लिए जिसने उसे ’लिपिबद्ध’ किया है या लिपिबद्ध ग्रन्थ का पाठ करता है । चूँकि यह ’नित्य-वाणी’ है इसलिए इसकी सत्यता वैसी ही अकाट्य है जैसे विज्ञान के नियम ’नित्य-सत्य’ होते हैं किन्तु किसी उचित प्रसंग और परिस्थितियों में उनकी परीक्षा और सत्यता की पुष्टि होती है । वेद-वाणी चेतना का सत्य है जो इस प्रकार चेतना के रूप में नित्य प्रकट है ।  ’वैज्ञानिक’ सत्य भी हम तक उन ’नियमों’ और ’सिद्धान्तों’ के रूप में पहुँचता है जिन्हें वैज्ञानिक हमारी / अपनी भाषा में शब्दबद्ध करता है, किन्तु स्वयं उस तक वह ’सत्य’ क्या किसी शाब्दिक भाषा में पहुँचता है? हम कह सकते हैं कि वह प्रातिभ अर्थात् प्रतिभा से उत्पन्न ज्ञान है किन्तु उस प्रतिभा को क्या कहेंगे? जैसे भूमि पर सूर्य का प्रकाश दिन के समय  सर्वत्र प्रकट होता है, और कोई अपने बंद घर में रहता हुआ उस प्रकाश का चिन्तन करता हुआ उसके बारे में अनुमान, तर्क-वितर्क और व्याख्या आदि करे तो क्या उसे सूर्य के प्रकाश की सच्चाई का सही सही ज्ञान हो जाएगा?
किसी राजनीतिक ’महापुरुष’ की उक्ति सुनी / पढ़ी थी :
"Be yourself the change you want to bring-out in your world"
गीता 
अध्याय 7 श्लोक 27
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
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(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम्  सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
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के सन्दर्भ में यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि जिन्हें हम महापुरुष मान बैठे हैं वे भले ही अपनी बुद्धि के कौशल और वाक्-चातुर्य से सफल और महान बन बैठे हों, उनके वचनों को आँख मूँदकर आदर्श-वाक्य मान बैठना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण भी हो सकता है । और ’वाद’ के नाम पर उनके अनुयायी होना तो और भी हानिकारक विनाशकारी भी । केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि पूरे संसार के लिए भी ।
अब इस ’कविता’ को भिन्न भिन्न कोणों से अवलोकन करें :
1 व्याजोक्ति : वह जो व्याजनिन्दा अथवा व्याजस्तुति हो । अपनी रचना की तीक्ष्ण शैली से कुछ पाठक इसे पढ़कर चकित और प्रभावित हो सकते हैं । यदि कविता लिखनेवाला इतना ही चाहता है तो वह प्रशंसा के लिए लालायित हुआ । क्योंकि शब्दों का जादू जगाना अभ्यास और कौशलमात्र भी हो सकता है, यह आवश्यक नहीं कि रचना में कोई सार हो भी । कालिदास या दूसरे कवियों की रचनाएँ या उर्दू का अधिकाँश साहित्य इसी का एक उदाहरण हो सकता है । तब बह बौद्धिक-मनोविलास  मात्र बनकर रह जाता है ।
2 व्यंग्योक्ति : अर्थात् कथ्य कुछ तथा उससे इंगित किया गया कुछ और ही ।
3 वक्रोक्ति : जिसे भिन्न-भिन्न श्रोता भिन्न-भिन्न दिशा में मोड़ देकर विवाद तर्क-वितर्क का आधार बना सकें । इसमें एक छल यह भी होता है कि लक्ष्यार्थ और यथार्थ को किसी के लिए अनुकूल बनाया जा सके । इसका एक उदाहरण होगा :
"सब धर्म एक ही शिक्षा देते हैं ।"
इससे अनायास ही सहमत हो जाता है क्योंकि वह डरता है कि उसे ’असहिष्णु’ न समझा जाए । और कोई इस विचार (की सत्यता) पर गहराई से खोज-बीन करने के बारे में सोचता तक नहीं । वास्तव में यह एक ऐसा असत्य है जिसे केवल बार बार कहे जाने से स्वाभाविक / सहज ’सत्य’ जैसा समझा जाने लगा है ।
4 कूटोक्ति : जिसके मूल में कुछ निहित उद्देश्य छिपे होते हैं, जैसे ’सर्वहारा’ का सिद्धान्त
5 कटूक्ति : जो वैमनस्य उत्पन्न करने, पक्ष या विपक्ष के लोगों को उत्तेजित करने और अपनी शक्ति-प्रदर्शन के लिए की जाती है ।
6 सूक्ति : जो प्रायः सबके सामान्य हितों को सिद्ध करने के लिए सुझाव के रूप में होती है ।
वेद ’धर्म’ क्या है और ’अधर्म’ क्या, इस बारे में कहता है और यह ’धर्म’ विवेकशील मनुष्य के लिए जीवन में सिद्ध किए जानेवाले चार ’पुरुषार्थों’ में से सिर्फ़ एक है । इसलिए इस ’धर्म’ का शाश्वत सत्य तो अटल है, जबकि सनातन सत्य निरंतर प्रवाहशील, और नित्य सत्य उसका व्यावहारिक आचरण, जिसे करना मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है । भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में संभवतः वह कभी कभी कष्टप्रद भी हो सकता है किन्तु तब कष्ट सहकर भी उसका आचरण किया जाना तितिक्षा कहलाता है ।
’संसार’ को बदलने का विचार ही प्रथम भूल है, किन्तु अपने-आपको बदलने का विचार इससे भी अधिक गहरी भूल है ।
वास्तव में अपने-आपको जानना-समझना अधिक महत्वपूर्ण और सर्वाधिक, मूलतः आवश्यक है क्योंकि जानने-समझने के बाद ही उसे बदलने या न बदलने का प्रश्न उत्पन्न होगा । शायद हम सोच सकते हैं कि संदर्भित महापुरुष का अभिप्राय अपने-आपका सुधार करने से है । उस स्थिति में भी पहले यह जानना तो आवश्यक है ही कि हममें क्या दोष हैं, दोषों को जाने बिना ही उन्हें दूर नहीं किया जा सकता । तब हमें ज्ञात होगा कि ’संसार’ का सुधार करने की इच्छा भी दृष्टिदोष है क्योंकि ऐसा कोई स्थायी नित्य संसार कहीं है या नहीं इसका भी हमारे पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है । है भी त्तो किस रूप में है यह भी अत्यन्त अस्पष्ट है, जबकि अपने होने के बारे में संदेह करने का कोई कारण नहीं हो सकता । किन्तु अपने होने का यथार्थ तत्व क्या है इसे न समझ पाना ही हमारी एकमात्र विडम्बना है ।
7 ऋजूक्ति > ऋजु-उक्ति : किसी तथ्य की सरल सहज अभिव्यक्ति जैसे
"सुबह हो गई ।" / "भूख लग रही है ।"
8 ऋजुक्ति > ऋक् / ऋत् / ऋच् / ऋज् उक्ति : सत्य की याथातथ्यतः अभिव्यक्ति जिसे केवल ऋषि ही जानते हैं ।
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Sunday, 14 February 2016

सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरंगभङ्गरञ्जितं ।

गुरुकुल में आए उसे पाँच वर्ष हो चुके थे । उसे कभी ऐसा नहीं लगा कि वह माता-पिता से कहीं दूर वन के दुर्गम क्षेत्र में रह रहा हो । आचार्य और दूसरे पितृजन जो उसे अनौपचारिक शिक्षा देते थे प्रायः व्यवहार और कर्म के बारे में ही उसे निर्देश देते थे । पहले कुछ दिन प्रातःकाल के शौच स्नानादि के लिए वह दूसरे विद्यार्थियों के साथ जाया करता था किन्तु बाद में प्रायः अकेले भी चला जाता था । आचार्य का निर्देश था कि वन में कभी अकेले मत जाओ और यदि जाना ही हो तो दण्ड अथवा कुल्हाड़ी साथ रखो । विभिन्न जीव-जन्तुओं के स्वभाव के बारे में भी उसने पर्याप्त सीख लिया था और कुछ तो उसके मित्र भी बन गए थे । पक्षी, छोटे बड़े पशु जैसे मृग या शशक (खरगोश), कपोत और नेवले तथा सर्प भी । उसे पता था कि जिस क्षेत्र में नेवले होते हैं वहाँ सर्प प्रायः कम होते हैं । जिस भौगोलिक क्षेत्र में उसका गुरुकुल था वहाँ घोर जंगल नहीं था किन्तु कभी-कभी कोई हिंस्र पशु संयोगवश दिन में भी दिखलाई देते थे । उसे आश्चर्य होता था कि वे मनुष्यों से प्रायः दूर ही रहते थे, और मनुष्य से प्रायः उदासीन रहते थे । वानर और पक्षी गिलहरियाँ तथा मछलियाँ अवश्य ही उसके हाथ से अन्न के कण उठ लिया करते थे, किन्तु वे बहुत समय बाद ही उससे घुल-मिल पाए थे और फिर भी सचेत रहते थे । बहुत समय बाद उसे यह देखकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता होने लगी थी कि इन वानरों, पक्षियों गिलहरियों और मछलियों के शिशु अपेक्षाकृत उससे निर्भय थे और कभी कभी उसे दुलारते भी थे । गुरुकुल में गौएँ और बकरियाँ भी थीं और वे भी उसे स्नेह से चाटती थीं, किन्तु वन्य पशु ऐसा करेंगे ऐसी उसने कभी कल्पना तक न की थी । कभी-कभी सर्प भी उससे सटते हुए अपनी राह चले जाते थे और उसे कौतूहल होता था कि वे उसकी ओर ध्यान तक नहीं देते थे, मानों वह कोई वृक्ष या पत्थर हो ।
बहुत काल तक वह गुरुकुल के आश्रम में निवास करता रहा, पर उसे यह समझने में कठिनाई अनुभव होती थी कि वह भी आचार्य के दूसरे शिष्यों की भाँति भूमि पर ही चटाई बिछाकर और कम्बल ओढ़कर सोता था, वन से समिधा लाता था, कभी कभी आचार्य या आचार्यानी की आज्ञा होने पर विशिष्ट नक्षत्र, तिथि, योग,  मुहूर्त या दिन में वन में जाकर वहाँ से कोई वनौषधि या वनस्पति भी लाता था, किन्तु उसे अन्य शिष्यों की अपेक्षा अधिक महत्व क्यों प्राप्त था । उससे ज्येष्ठ और उससे अधिक समय तक गुरुकुल में रहनेवाले अन्य छात्र भी आचार्यों द्वारा उससे अधिक स्नेह का व्यवहार किया जाना देखकर किञ्चित ईर्ष्या रखते थे किन्तु अपनी ईर्ष्या की इस भावना को व्यक्त करने का साहस नहीं जुटा पाते थे । शायद इसका एक कारण उसका उनके प्रति स्वाभाविक विनम्रतापूर्ण व्यवहार भी रहा होगा ।
ऐसे ही एक बार आचार्य ने उसे अमावास्या के दिन दोपहर में वन से गुञ्जा का क्षुप लाने भेजा । आचार्य ने उसे एक लाल और एक काला कपड़ा दिया जिसमें उसे उस क्षुप को रखकर लाना था । वह जानता था कि गुञ्जा के क्षुप कहाँ होंगे । प्रायः ही वह और उसके सहपाठी गुञ्जा के बीजों को एकत्र कर गुरुकुल में लाते थे ।
जब वह उस पूर्व-निश्चित स्थान पर पहुँचा तो उसे दूर-दूर तक कोई क्षुप नहीं दिखलाई दिया । तब आचार्य के निर्देश के अनुसार उसने गुञ्जा का स्मरण किया और उसे तत्काल ही अनेक क्षुप दृष्टिगत हुए । आचार्य के निर्देश के अनुसार उसने उस विशिष्ट दिशा की ओर जाकर उसे प्रणाम कर मूलसहित भूमि से उखाड़ा और पहले उस काले तथा फिर लाल कपड़े से ढाँककर ले आया । आचार्य ने उसे दूसरे वृक्षों के बीच नई खोदी भूमि में रोप दिया । उसी रात्रि में स्वप्न में उसने देखा कि वह पुनः गुञ्जा के क्षुप को लेने वन में गया है और वहाँ उसे अनेक वन्य पशु दिखलाई दे रहे थे । बहुत दूर उसे एक विशाल विकराल राक्षस जैसी एक आकृति भी दिखलाई दे रही थी किन्तु शायद वह उसे नहीं देख पा रही थी । उस राक्षस-आकृति की दो बड़ी-बड़ी भुजाएँ और बहुत बड़ा धड तथा पैर थे, किन्तु उसका सिर नहीं था । अर्थात् वह केवल मानव-कबंध ही था । अपने पूर्व अनुभवों से वह तत्क्षण समझ गया कि वह स्वप्न देख रहा है जबकि उसका शरीर भूमि पर कहीं सोयी हुई स्थिति में है । किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी वह अपनी उस स्थिति को नहीं स्मरण कर पा रहा था ।
"हाँ, यह मेरा कबंध ही तो है जो मुझे मेरे स्वप्न में दिखलाई दे रहा है और मैं अपने उस मुख को नहीं देख पा रहा जो कहीं किसी और स्थान पर आँखें बंदकर ’सोया’ हुआ है । "
-उसने सोचा ।
स्वप्न में ही वह उस कबंध की ओर दौड़ा और उसके पास पहुँचते-पहुँचते स्वप्न भंग हो जाने से वह जाग उठा था । अभी रात्रि शेष थी इसलिए वह करवट बदलकर पुनः सो गया ।
प्रातःकाल में सन्ध्योपासन के उपरांत आचार्य ने उससे पूछा :
"वत्स, तुम्हें निद्रा ठीक से आई?"
"हाँ आचार्य, बस एक स्वप्न आया था जिससे बीच में टूट गई थी किन्तु बाद में पूरी हो गई ।"
"कैसा स्वप्न?"
तब उसने आचार्य से अपना स्वप्न कह सुनाया ।
इसके बहुत दिनों बाद आचार्य ने उसे रामायण-काल की कबंध राक्षस की कथा पढ़ने के लिए उसे कहा ।
"तुमने जिसे देखा था वह वही था जिसका वर्णन तुम पढ़ रहे हो ।"
-आचार्य ने उससे कहा ।
"क्या तुम्हारे स्वप्न के उस राक्षस से तुम भयभीत नहीं हुए?"
"नहीं आचार्य ! तब मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं अपने जागृत-अवस्था की स्थिति को क्यों स्मरण नहीं कर पा रहा था ।"
"तुम्हें पता है तुम्हारा जन्म यज्ञ से हुआ था?"
आचार्य ने उससे पूछा।
"हाँ आचार्य! तात ने मुझे बतलाया था किन्तु मैं इसका अभिप्राय ठीक से नहीं समझ सका था ।"
आचार्य जानते थे कि अभी उसके लिए यह सब समझना तथा समझाया जाना अनावश्यक था ।
किन्तु आचार्य को तत्काल ही इसका प्रमाण मिल गया था कि जिस देवता का आवाहन बालक के पिता ने पुत्रेष्टि-यज्ञ के माध्यम से किया था वही उन्हें उनकी शारीरिक संतान के रूप में प्राप्त हुआ था ।
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गुरुकुल में आचार्य के आवास से लौटते और अपने कक्ष की ओर जाते समय उसके कानों में आचार्य के द्वारा उच्चारित किए जा रहे ये शब्द सुनाई दिए  :
सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरंगभङ्गरञ्जितं
द्विषत्सु पापजात-जातकारिवारिसंयुतम् ।
कृतान्तदूत कालभूत भीतिहारि वर्मदे,
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ! ॥
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Saturday, 13 February 2016

धर्म का प्रयोजन :

धर्म का प्रयोजन :   
"तात! क्या मेरा भी यज्ञोपवीत होना है ?
"नहीं वत्स, तुम्हारा जन्म ही यज्ञ से हुआ है इसलिए पुनः यज्ञोपवीत किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । फिर भी लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए तुम्हारा यह संस्कार शीघ्र ही होने जा रहा है । विद्याध्ययन के लिए तुम्हें गुरुकुल जाना होगा जहाँ तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार किया जायेगा और तुम ब्रह्मचर्य-आश्रम में रहते हुए शिक्षा पूर्ण करोगे ।"
"मेरा जन्म यज्ञ से कैसे हुआ ? क्या आपका जन्म भी यज्ञ से हुआ था ? और मेरी माता का जन्म ?"
"वत्स जब मेरा विवाह हुआ और मैंने तुम्हारी माता का पाणिग्रहण किया और वह उसके पिता के घर को छोड़कर मेरे साथ दांपत्य में बँध गई, तो गृहस्थ आश्रम के धर्म का पालन करने हेतु संतान की प्राप्ति कर कुल-परंपरा का निर्वाह करना हमारा दायित्व था । तुम्हें पता ही है कि किस प्रकार स्त्री-पुरुष के पारस्परिक शारीरिक संबंध से संतान का जन्म होता है । इस प्रक्रिया के अंतर्गत पुरुष या तो काम-भावना के वशीभूत होकर स्त्री-संसर्ग करता है, या विधिपूर्वक पुत्र की कामना से भोग-बुद्धि से रहित होकर ऐसा करता है । तुम्हारे जन्म से कुछ काल पहले तुम्हारी माता नैमित्तिक प्रसंग से नगर के कामदेव के मन्दिर में आयोजित मदनोत्सव में गई थी । मदनोत्सव में कामदेव की पूजा स्त्रियाँ इसलिए करती हैं कि कामदेव उनके पति को संतानोत्पत्ति के लिए यह कार्य करने हेतु प्रेरित करें । चूँकि मुझे कामोपभोग में विशेष रुचि नहीं थी इसलिए मैंने पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान किया, तुम्हारा आवाहन और तुमसे मेरे पुत्र-रूप से जन्म लेने का निवेदन किया । फिर तुम्हारी माता के साथ कुछ काल तक मैंने कर्तव्य-बुद्धि से अनिच्छापूर्वक रमण किया जिससे तुम्हारा जन्म हुआ । हाँ, मेरा भी जन्म यज्ञ से हुआ था किन्तु तुम्हारी माता के विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता । स्त्री प्रकृतिस्वरूपा होने से अनिच्छया ही सृष्टि का विस्तार करती है । पुरुष स्वेच्छया भोग-बुद्धि से, कर्तव्य बुद्धि से या विधाता के सङ्कल्प से इस कार्य में प्रवृत्त होता है । इसलिए पुरुष के लिये ही यज्ञोपवीत का विधान है । स्त्री नित्य पवित्र है, पुरुष जन्म से ही दोषों से युक्त हो सकता है । जिसकी निवृत्ति के लिए यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है ।"
"तात! मेरे इस शरीर को धारण करने से पूर्व मैं कहाँ और किस रूप में था ?"
"पुत्र, तुम संस्कार-समष्टि के व्यक्तिगत सूक्ष्मतम अंश की तरह से दिव्य-लोक में अपने पूर्व-जन्म के पुण्यों का उपभोग कर रहे थे, और वे पुण्य क्षीण होने पर तुम्हें पुनः इस मृत्युलोक में लौटना था, क्योंकि वह विधाता का सङ्कल्प था ।"
"तात विधाता का क्या स्वरूप है?"
"हे वत्स! वेद में विधाता को पुरुष कहा जाता है और उसका स्वरूप इन्द्रियों मन बुद्धि और निश्चय का विषय नहीं है क्योंकि वही इन सब रूपों में प्रकट होता है ।"
"किसके लिए?"
"दृष्टिर्वै चक्षुः । दृष्टादृश्ययोः दृणाति दृणातीति दृष्टिः । दृष्टि ही नेत्र / नेतृ है, वह एक ही अविभाज्य सत् का दो में आभासी विभाजन करती है । यही पुरुष का यथार्थ स्वरूप है ।"
"तात! ब्रह्मचर्य आश्रम क्या होता है और किसे प्राप्त होता है?"
"पुत्र! वैसे तो प्राणिमात्र को जन्म से ही प्राप्त होता है किन्तु मनुष्य को यह विधि द्वारा भी प्राप्त होता है, वह भी पात्र अर्थात् अधिकारी को ही । जो मनुष्य ब्राह्मणत्व के संस्कार लेकर जन्म लेता है उसे यज्ञोपवीत संस्कार के द्वारा विद्याध्ययन में प्रवृत्त किया जाता है, ताकि वह जीवन के चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सके । "
"तात जो मनुष्य ब्राह्मणत्व के संस्कार लेकर नहीं उत्पन्न होते क्या वे ब्रह्मचर्य-आश्रम को पाने की पात्रता या अधिकार से रहित होते हैं ?"
"वत्स, जो मनुष्य ब्राह्मणत्व के संस्कार लेकर नहीं उत्पन्न होता उसकी स्वाभाविक रुचि ही ऐसे विषयों और कार्यों के प्रति होती है जिन्हें शास्त्रों ने ब्राह्मण के लिए निषिद्ध कहा है ।"
"अर्थात् ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश प्राप्त करना मनुष्य की अपनी अभिरुचि पर निर्भर करता है ।"
"हाँ, क्योंकि कोई मनुष्य एक ही समय में दो मार्गों पर नहीं चल सकता ।"
"हे पिता, क्या मुझे गुरुकुल जाना ही होगा? आपकी क्या आज्ञा है?"
"यदि तुम घर पर ही रहना चाहते हो तो भी माता-पिता और घर में आने-जानेवाले अतिथि गुरुजनों की सेवा करते हुए भी ब्रह्मचर्य-आश्रम का जीवन व्यतीत कर सकते हो । किन्तु तब शिक्षा का नियमित सुचारु अध्ययन गुरुकुल में हो पायेगा ।"
"तात तब तो मैं गुरुकुल ही जाना चाहूँगा ।"
"अवश्य, ..."
"तात! क्या गृहस्थ आश्रम प्राप्त होने पर ब्रह्मचर्य-आश्रम को त्याग दिया जाता है?"
"नहीं वत्स, ब्रह्मचर्य-आश्रम की शिक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर ही गृहस्थ-आश्रम के लिए पात्रता होती है । यदि कोई ब्रह्मचर्य-आश्रम में रहते हुए ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कुशलता से करता है तो गृहस्थ-आश्रम के कर्तव्यों का निर्वाह और अच्छी तरह और सरलता से कर सकता है ।"
"तात ! यदि कोई गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश का पात्र होने पर भी इसे अपने लिए अनुकूल नहीं पाता तो उसे क्या करना चाहिए?"
"वत्स, यदि कोई पुरुष इतना वैराग्यवान है कि उसे गृहस्थ-धर्म एक अनावश्यक बोझ प्रतीत होता है तो वह सीधे वानप्रस्थ और परिपक्व होने पर संन्यास आश्रम को भी प्राप्त कर लेता है ।"
"कैसे प्राप्त कर लेता है तात!"
"क्योंकि उसे सांसारिक भोगों की व्यर्थता स्पष्ट हो जाती है, वह समझ लेता है कि जब तक देह नीरोग है तभी तक मर्यादित भोग उसके लिए ग्राह्य हैं और देह-रक्षण के लिए आवश्यक भी हैं किन्तु कभी-न-कभी तो वृद्ध और दुर्बल होकर देह का समाप्त होना अटल सत्य है इसलिए देह के नष्ट होने से पहले ही उस तत्व  को जान लिया जाए जिसमें संपूर्ण जगत प्रतीत होता है, किन्तु वह तत्व स्वयं जगत से अप्रभावित अनश्वर है ।"
"मर्यादित भोग का क्या अर्थ है तात!"
"उतना ही भोग जिससे देह, मन, बुद्धि स्वस्थ और सुचारु रूप से अपना कार्य कुशलता से कर सकें । जैसे उचित अन्न, जल और वायु का सेवन, समुचित शारीरिक श्रम, और निद्रा आदि ।"
"क्या ये धर्म / निर्देश केवल ब्राह्मण के द्वारा ही आचरित करने के लिए हैं, या सभी वर्णों के लिये समान रूप से पालन किये जाने योग्य हैं?"
"पुत्र, वैसे तो ये सभी के लिए उपादेय हैं किन्तु अपने अपने कुल, वंश और सामाजिक स्थिति से प्राप्त रीतियों और परंपराओं से इनमें परिवर्तन हो जाता है और तब उचित आचरण क्या है इस विषय में चित्त में संशय, आग्रह और द्वंद्व उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु धर्म की इस मूल भावना को यथासंभव बनाए रखना चाहिए ।"
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"तात ! स्त्रियों और पुरुषों की स्थिति के अनुसार इस धर्म का स्वरूप कितना और कैसे समान अथवा भिन्न होता है ?"
"वत्स, पुरुष और स्त्री सभी के लिए अपने जातिगत वर्ण-आश्रम का पालन करना जीवन में और मृत्यु के बाद के लिए भी श्रेयस्कर है, किन्तु गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त करना सभी पुरुषों के लिए कर्तव्य है । यहाँ कर्तव्य का अर्थ है परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर । स्त्रियों के लिये घर में ही रहना और गृहस्थ-धर्म के अपने कर्तव्यों की शिक्षा पाना पर्याप्त है ।"
"तात क्या स्त्रियों के लिए लिखना-पढ़ना निषिद्ध है?"
"वत्स ’निषिद्ध’ वह होता है जिससे कोई प्रयोजन सिद्ध न होता हो, अर्थात् व्यर्थ या निरर्थक । ’वर्जित’ वह होता है जो अभीष्ट की प्राप्ति में बाधक हो । इसलिए कला और कौशल की दृष्टि से पुरुष हो या स्त्री लिखने-पढ़ने में जिसकी अभिरुचि है, उसे अवश्य ही इस कौशल का संवर्धन करना चाहिए । इससे बुद्धि का विकास भी होता है ।"
"क्या स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन निषिद्ध या वर्जित है?"
"हाँ वर्जित है..."
"और पुरुषों के लिए ?"
"वेदाध्ययन केवल उन्हीं पुरुषों के लिए विहित है जिन्हें ब्रह्म को जानने में रुचि हो, या जो आजीविका के लिए ब्राह्मण-कर्म करने में कुशल हों ।"
"आजीविका के लिए?"
"हाँ धन के लोभ से किया जानेवाला किसी भी प्रकार का कर्म निषिद्ध होता है । किन्तु आश्रम-धर्म के रूप में जो कर्म प्राप्त हुआ है उसे कुशलता से करना सदैव श्रेयस्कर होता है । और उस कर्म के लिए उचित पारिश्रमिक ग्रहण करना आजीविका की पूर्ति करता है । पुरोहित को यजमान से उसकी क्षमता के अनुसार ही पारिश्रमिक प्राप्त करने की आशा रखना चाहिए और यजमान को भी अपनी क्षमता के अनुसार पुरोहित को उसके कार्य के लिए श्रद्धापूर्वक अधिकतम प्रतिदान देना चाहिए । इस विषय में मनुष्य का मन ही जानता है कि वह लोभ से ग्रस्त है या नहीं ।"
"स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन वर्जित क्यों है?"
"क्योंकि वेदों का संबंध देवताओं से है । वेद का आधार देवता-तत्व का सिद्धान्त है । स्त्री चन्द्रमा के समान 16 कलाओं अर्थात् 16 चान्द्र-वर्षों (या 12 से 13 वर्ष के सौर वर्षों) में ऋतुमती होती है । और उस आयु में प्रकृति के अनुसार गर्भ-धारण करने के लिए सक्षम होती है । इसी प्रकार पुरुष सूर्य प्रतिदिन होनेवाले उदय अस्त के समान जीवन में एक ही बार युवा होता है और आयु बीतते हुए वृद्ध हो जाता है । चंद्र का संबंध सोम से है जो पृथ्वी पर ओषधि और अन्न तथा वनस्पति की वृद्धि का कारण है । इस प्रकार अग्नि, सोम, वरुण, सूर्य, यम, इन्द्र, वायु, आदि देवता जीवन की प्रेरक और संचालक शक्तियां हैं । वेद के अनुसार ये जड भौतिक वस्तुएँ न होकर चेतन सत्ताएँ हैं जिनका आवाहन यज्ञ के माध्यम से किया जाता है । ये सभी परमात्मा के ही विभिन्न रूप हैं किन्तु इनमें से कोई अकेला ही परमात्मा नहीं हो सकता । साँख्य-दर्शन परमात्मा को एकमेव सत्ता के रूप में स्वीकार तो करता है किन्तु उसके स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कहता क्योंकि तब वह वाणी / विचार का विषय हो जाता है और तब उसके बारे में जो कुछ कहा जाता है वह उसका अपर्याप्त वर्णन होता है । किन्तु देवता तत्व उसी परमात्मा की भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ हैं जिनके माध्यम से सृष्टि का संचालन और जगत का व्यवहार संभव होता है । इन देवताओं को यज्ञ द्वारा संतुष्ट कर मनुष्य अभीष्ट प्राप्त कर सकता है यह लौकिक धर्म है । व्यावहारिक धर्म के रूप में परस्पर सम्मान और प्रेम एकमात्र धर्म है । स्त्री के लिए कोई भी देवता या उसका पौराणिक स्वरूप इष्ट हो सकता है क्योंकि पुराण वेद का ही सरलीकरण है जो स्त्री की बुद्धि और स्वभाव से अधिक अनुकूल है । किन्तु पुराण के ही अनुसार मनुष्य स्त्री हो या पुरुष, उसे अपनी प्रकृति के अनुकूल प्रकृति वाले देवता की ही उपासना करनी चाहिए । क्योंकि जैसे अनुकूल उपासना से इन देवताओं को प्रसन्न किया जाता है, वैसे ही उनके प्रति उनकी प्रकृति से किया जानेवाला प्रतिकूल व्यवहार उनके कोप का कारण भी हो सकता है ।"
"तात, स्त्रियों के और पुरुषों के धर्म एक दूसरे से कितने समान और भिन्न होते हैं ?"
"यदि मनुष्य वेद-धर्म को स्वीकार करता है तो उसे वेद-विहित स्त्री-धर्म और पुरुष-धर्म का पालन करना चाहिए । इसका अर्थ यह हुआ कि वह देवता-तत्व को स्वीकार करता है और वर्णाश्रम-धर्म को भी । किन्तु यदि कोई वेद-धर्म के प्रति संशय-युक्त है तो उसे चाहिए कि रुचि होने पर वह शैव-सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर की भक्ति करे । यदि उसे यह भी स्वीकार नहीं है तो उसे स्वयं ही खोजना चाहिए कि उसका स्वाभाविक धर्म क्या है । किन्तु यदि उसे इसमें भी रुचि नहीं है और वह जीवन के भोगों को ही एकमात्र ध्येय मानता है तो उसे कोई कैसे रोक सकता है? किन्तु तब वह समाज से सामञ्जस्य नहीं रख सकेगा और सुख भी नहीं पा सकेगा । क्योंकि उसकी प्रकृति ही उसे सुख से वंचित रखेगी ।"
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Thursday, 11 February 2016

शब्द, अर्थ और भाषा

शब्द, अर्थ और भाषा
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"तात! मुझे शब्द, अर्थ और भाषा के पारस्परिक संबंध के बारे में शिक्षा दें ।"
"वत्स शब्द अर्थ में व्यक्त होता है और अर्थ शब्द में प्रच्छन्न । भाषा शब्द और अर्थ का सामञ्जस्य और संतुलन से भास्या होती है ।
इसलिए माहेश्वर-सूत्रों से प्रत्येक शब्द में अनेक अर्थ प्रच्छन्न होते हैं और प्रत्येक अर्थ को भाषा या विभाषा के माध्यम से विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) से सर्वत्र अनेक रूपों में कहा, सुना और समझा जाता है । माहेश्वर-सूत्र शब्द, अर्थ तथा भाषा के अनुशासन के प्रबन्ध के ईश्वर हैं द्रविड / द्राविड और संस्कृत इन दो भाषाओं का विधान करते हैं । द्रविड उच्चारित शब्द अर्थात् ध्वनि का अनुकरण करती है, लिपि गौण है । संस्कृत ध्वनि का अनुकरण करती है लिपि गौण है ।"
" हे तात! यदि लिपि दोनों ही भाषाओं में लिपि गौण महत्व रखती है, तो इसका उल्लेख करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?"
"वत्स, दोनों ही भाषाएँ भगवान् शिव के मुख से निःसृत शब्दानुशासन है । किन्तु उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है । उन्हें लिपिबद्ध करने की वस्तुतः आवश्यकता ही नहीं है । किन्तु सहायक साधन और अर्थ-प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न निष्ठा के अनुसार भिन्न-भिन्न इन दो लिपियों का अवतरण हुआ । वे सरस्वती ही हैं अर्थात् वाक् का व्यक्त रूप । और यह शब्द और अर्थ के पारस्परिक संबंध की ही याथातथ्यवत् उसी तरह है, जैसा मैंने तुम्हें बतलाया ।"
"हे तात! फिर अन्य असंख्य भाषाओं का क्या प्रयोजन है?"
"पुत्र! द्रविड तथा संस्कृत का प्रयोजन वेद-भाषा के उद्देश्य की सिद्धि हेतु है । लोक में वेद-भाषा केवल ब्राह्मण-वर्ण के ही लिए प्रासंगिक है । ब्राह्मणेतर मनुष्यों के लिए वेद-भाषा अगम्य और अप्रयोज्य है ।"
"तात! ब्राह्मण का तात्पर्य तो स्पष्ट है कि जिसका जन्म ब्राह्मण माता-पिता से हुआ वह ब्राह्मण हुआ । किन्तु यह ’वर्ण’ पद किस हेतु है?"
"हे वत्स! जन्म और माता-पिता तो प्राथमिक महत्व के हैं । कोई ब्राह्मण माता-पिता से जन्म लेकर भी ब्राह्मणोचित संस्कार से रहित हो सकता है, या उसका यज्ञोपवीत संस्कार न किये जाने पर अब्राह्मण ही रह जाता है, जबकि कोई जन्म से ब्राह्मण माता-पिता की संतान न होते हुए भी ब्राह्मण-संस्कारों से युक्त होता है और विधाता के संकल्प से ब्राह्मणेतर माता-पिता से उत्पन्न होता है । ऐसा मनुष्य भी ब्राह्मण तो है किन्तु वेद-विद्या में उसका अधिकार तब तक नहीं होता जब तक वह उपवीत नहीं हो जाता ।"
"हे तात! कृपया इस शङ्का का निराकरण करें । यदि कोई ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान है तो उसे यज्ञोपवीत कैसे प्राप्त हो सकता है ?"
"उसी विधाता के सङ्कल्प से जिसने उसे ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान के रूप में उत्पन्न किया ।"
"अर्थात् मेरा प्रश्न विधिबाह्य हुआ ?"
"हाँ वत्स!"
"तात ! वेद-भाषा और लोक-भाषा में भेद क्यों ?"
"उसी कारण से जिससे कोई ब्राह्मणेतर माता-पिता की संतान होता है और कोई ब्राह्मण माता-पिता की । वेद-भाषा सरस्वती है, जबकि लोकभाषा विभाषा है :
सर्वत्र विभाषा गोः... (अष्टाध्यायी 6/1/122)
लोके वेदे चैङन्तस्य गोरति वा प्रकृतिभावः पदान्ते । गो अग्रम्, गोऽग्रम् । एङन्तस्य किम् ? चित्रवग्रम् । पदान्ते किम् ? -गोः ..."
"तात इसे अधिक स्पष्ट करें .."
"वत्स, जैसे गौएँ  एक-एक का अनुसरण करते हुए गव्यूति के भीतर विचरती हैं वैसे ही लोकभाषाएँ तथा वेद-भाषाएँ भी अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लङ्घन महीं करतीं ।"
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Wednesday, 10 February 2016

सत्यसंधान / Truth Revealed.

सत्यसंधान / Truth Revealed
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आकाश के असंख्य पिंडों का निरीक्षण करते हुए ऋषि के पुत्र ने अपने पिता से पूछा :
"पृथ्वी गोल है या चपटी?"
तब ऋषि ने कहा :
"वत्स! व्यावहारिक सत्य और यथार्थ सत्य में विरोधाभास होता है ।"
"विरोधाभास ? कैसे ?"
"व्यावहारिक सत्य नित्य होते हुए भी अस्थायी होता है, क्योंकि वह अनुमान पर आधारित होता है, यथार्थ सत्य अनुमान की अपेक्षा नहीं रखता ।"
"क्या यथार्थ सत्य नित्य होता है?"
"हाँ वह इसलिए नित्य होता है कि हर बार उसकी पुष्टि हो जाती है जबकि व्यावहारिक सत्य को सिद्ध तक नहीं किया जा सकता, और पुष्टि तो असंभव ही है ।"
"सिद्ध होने / करने और पुष्टि होने में क्या भेद है?"
"तुमने पूछा था :
’पृथ्वी गोल है या चपटी?’
पृथ्वी व्यावहारिक रूप से कभी गोल है कभी चपटी इसलिए इसे गोल या चपटी सिद्ध करना मूलतः दृष्टिदोष है । यह तो देखनेवाले की अवस्थिति के अनुसार गोल या चपटी प्रतीत होती है । यदि तुम कहोगे कि यह गोल है तो व्यावहारिक रूप से तुम्हें कठिनाई होगी क्योंकि व्यवहार में इसे चपटी की तरह ग्रहण करना ही उपादेय है । किन्तु तुम आकाश के असंख्य पिंडों की तरह जैसे इसे भी यदि दूर से देखोगे तो यह एक पिंड जैसी दिखाई देगी । तब तुम कह सकते हो कि यह गोल है, चपटी नहीं । वह भी एक व्यावहारिक सत्य है ।"
"क्या नित्य भी स्थायी और अस्थायी दो प्रकार का होता है?"
"देखो नित्य या तो सनातन होता है या शाश्वत, अनित्य सदैव अनुमान पर आश्रित / आधारित विचार या शाब्दिक निष्कर्ष होता है । जब नित्य पुनरावृत्तिपरक होता है और अपनी पुष्टि स्वयं ही करता है तो उसे चिरंतन या सनातन कहते हैं वह सतत गतिशील होते हुए भी अपने विधान / धर्म से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता । और जब उस अटल विधान / स्थिर धर्म को नित्य के रूप में देखा / कहा जाता है, तो वही शाश्वत अनादि और अंतरहित यथार्थ सत्य होता है ।"
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"वेद क्या है ?"
"वत्स, वेद वही शाश्वत अनादि और अंतरहित यथार्थ सत्य है जो नित्य वाणी है ।"
"यदि यह नित्य है तो हमें सुनाई क्यों नहीं देती?"
"जैसे नगर के कोलाहल भरे वातावरण में हमें अपनी श्वास और हृदय के स्पन्दन की ध्वनि नहीं सुनाई देती, वैसे ही जब तक हमारे चित्त पर दूसरों से सीखी ग्रहण की हुई जानकारी आवरित होती है तब तक हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम इसे नहीं सुन पा रहे ।"
"क्या ये भूर्जपत्र पर लिखे हस्तलिखित ग्रन्थ वेद नहीं हैं?"
"यह व्यावहारिक सत्य है, जिसे सिद्ध नहीं किया जा सकता किन्तु फिर भी हम समझ सकते हैं कि जिसने इन्हें लिखा होगा उसने अवश्य ही उन ग्रन्थों में उसे ही लिखा होगा जिसे उसने वेद-वाणी की तरह से अपने हृदय में सुना होगा ।"
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"हे तात, इसे मैंने सुना है,... यह संस्कृत भाषा से मिलती जुलती क्यों है?"
"वत्स! क्योंकि यह जिस भाषा में कही-सुनी जाती है वह हमारी दृष्टि से सर्वाधिक परिमार्जित भाषा अर्थात् संस्कृत का भी उद्गम है .... ।
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Tuesday, 9 February 2016

यथावत् / As is.

यथावत्
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224 - सिद्धरुद्रेश्वर तीर्थ से दो मील आगे मांटियर नामक ग्राम  के समीप वैद्यनाथ तीर्थ है । पिछले स्थानों से तो नर्मदा दूर पड़ जाती हैं किन्तु वैद्यनाथजी के तो प्रायः समीप ही है । यहाँ से पास ही एक प्रसिद्ध तीर्थ  47- सूर्यकुण्ड है । उसकी भी कथा सुन लीजिये- महर्षि कश्यप की दिति नामक पत्नी से दैत्य हुए और अदिति नामक पत्नी से आदित्य - सूर्य हुए । सूर्य का नाम विवस्वान् था (गीता अध्याय 4, श्लोक 1) । उनका विवाह विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के साथ हुआ । विवस्वान् से संज्ञा में तीन संतानें हुईं । एक वैवस्वत् मनु, दूसरे यम और तीसरी यमिना नाम्नी कन्या । सूर्यनारायण का तेज अत्यधिक था, उसे संज्ञा सहन न कर सकी । उसने सूर्यदेव से प्रार्थना की-
"आपका तेज असीम है, मैं उसे अधिक सहन करने में असमर्था हूँ, अतः मुझे आज्ञा दीजिये मैं अपने पिताजी के यहाँ जाकर रहूँ ।"
यह सुनकर सूर्यदेव ने कहा -
"यह कैसे हो सकता है । बच्चों की देख-रेख कौन करेगा ?"
यह सुनकर सझ्ञा उस समय तो शान्त हो गयी किन्तु उसके लिये सूर्य का तेज सहन करना असह्य हो गया । एक दिन उसने सूर्य से छिपकर अपनी छाया को सजीव बना लिया । और छाया से कहा-
"देख, तू यहीं रहना, सूर्यनारायण को यह मत बताना कि यथार्थ संज्ञा नहीं उसकी छाया हूँ ।"
छाया ने कहा-
"जब तक मृत्यु संकट नहीं आवेगा, तब तक तो बताऊँगी नहीं । जब मेरे सिर पर मृत्युसंकट आ जायेगा तब तो मुझे बताना ही पड़ेगा ।"
संज्ञा ने कहा-
"अच्छी बात है,.."
यह कहकर वह अपने पिता विश्वकर्मा के घर चली गयी । विश्वकर्मा ने पूछा-
"तू अकेली कैसे चली आयी ?"
तब इसने बताया उनका तेज मैं सहन नहीं कर सकती ।
विश्वकर्मा ने कहा-
"सयानी लड़की को अधिक दिनों तक पिता के घर में नहीं रहना चाहिये । तू वहीं चली जा ।"
पिता की बात सुनकर वह चली तो गयी किन्तु सूर्यनारायण के यहाँ न जाकर घोर वन में चली गयी । अपने पतिव्रत की रक्षा के निमित्त उसने घोड़ी का रूप रख लिया । घोड़ी बनकर वन में चरती रहती समय को बिताती रहती । इधर सूर्यनारायण संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझ रहे थे । उसके भी तीन सन्तानें हो गयीं । पहिला सावर्णी मनु, दूसरे शनिश्चरदेव और तीसरी तापी नदी ।
संज्ञा के पुत्र यमराज क्रोधी स्वभाव के थे । छाया अपनी सन्तानों को तो बहुत अधिक प्यार करे, अच्छी-अच्छी वस्तुएँ खाने को दे । संज्ञा के पुत्रों की उपेक्षा कर दे । इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण वर्ताव देखकर यमराज को क्रोध आ गया । उन्होंने क्रोध में भरकर छाया को मारने के लिए पैर उठाया । इस पर छाया ने यमराज को शाप दे दिया ।
तब यमराज ने पिता से सब व्त्तान्त बताकर कहा-
"पिताजी ! प्रतीत होता है यह हमारी यथार्थ माता नहीं ! माता अपने पुत्र को कभी शाप नहीं देती ।"
तब सूर्यदेव ने उसे धमकाकर डाँटते हुए पूछा- तब उसने सब समाचार सत्य-सत्य बता दिये ।
अब सूर्यदेव को संज्ञा की चिन्ता हुई । वे अपनी ससुराल विश्वकर्मा के यहाँ गये । और जाकर संज्ञा के संबंध के सभी समाचार पूछे ।
विश्वकर्मा ने कहा-
"हाँ वह आयी तो थी किन्तु मैंने फिर उसे तुम्हारे ही पास भेज दिया था ।"
सूर्यनारायण ने कहा-
"अच्छी बात है, मैं उसे खोजता हूँ ।"
यह कहकर वे संज्ञा को खोजने गये । देखा वह घोर अरण्य में घोड़ी बनी घूम रही है, तब सूर्यनारायण ने भी घोड़ा का रूप रख लिया । वहीं अश्विनीकुमारों का जन्म हुआ । तब सूर्यनारायण संज्ञा को लेकर विश्वकर्मा के समीप आये । विश्वकर्मा ने एक आदित्य के बारह आदित्य बना दिये और सूर्यनारायण का तेज भी कम कर दिया । इससे सूर्यनारायण को ग्लानि हुई, उन्होंने यहाँ नर्मदा किनारे आकर दस सहस्र वर्षों तक तप किया ।
(स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे...)
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व्याख्या :
जगत् और जीव के रूपों में एक ही आत्मतत्व के अनेक नाम-रूपों से व्यक्त होकर सृष्टि की लीला का यह याथातथ्यतो वर्णन है । इसके सभी पात्र वही एकमात्र आत्मतत्व है जो देवताओं,  जीवों और मनुष्यों का रूप धारण कर यह नाटक खेलता है । संक्षेप में देखें कि कौन क्या है-
सूर्य - (The Sun) इस सृष्टि का एकमात्र कारण और इसे जीवन देनेवाला कारक । भौतिक रूप से अग्निपिण्ड, आध्यात्मिक दृष्टि से शुद्ध प्रकाश (बोध / ज्ञानाग्नि) जिसमें कोई अन्य नहीं रह पाता ।
(Pure Knowledge)
संज्ञा- इस बोध का प्रतिबिंबित प्रकाश जो जीवों में ’संज्ञा’ अर्थात् लौकिक पहचान / शुद्ध बुद्धि के रूप में व्यक्त होता है । यह संज्ञा भी अत्यन्त पावनी है किन्तु वह भी सूर्य के तेज को नहीं सह पाती । यह मनुष्य में उत्पन्न ’संशय’ आत्म-स्वरूप से अपरिचय है ।
Cognizance / Impure knowledge,
विश्वकर्मा- वह तत्व जो जगत् की समस्त कर्म-समष्टि का अधिष्ठान / विधाता है ।
The Cosmic Energy as Potential that facilitates all actions and deeds.
महर्षि कश्यप - मनुष्य और बहुत से अन्य जीवों के पितृ-पुरुष, जीव-सृष्टि का विधान,
Sage Kashyapa > Caspian Sea.
विवस्वान् - वह सूर्य जो हमारी वर्तमान सृष्टि का अधिष्ठाता है । ऐसी असंख्य सृष्टियाँ (अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड) हैं, सभी सहवर्ती हैं ।
श्रीमद्भग्वद्गीता 
अध्याय 4, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
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(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
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भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप  मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
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विवस्वान् से संज्ञा में तीन सन्तानें -
वैवस्वत् मनु (मानव का प्रथम पितृ-पुरुष)
Manu > Noah
यम- सृष्टि जिन वैज्ञानिक नियमों से संचालित होती है वे अटल नियम / Law as Time, Death, Law,
(यम से याम अर्थात् समय का एक अंश बनता है, अरबी भाषा में ’दिन’ को ’यौम’ कहा जाता है, काल अर्थात् मृत्यु, क्योंकि वह भी अनिश्चित किन्तु अटल सत्य है ।)
यमुना / यामिनी / यामुन / / जामुनी /जमुना - River Yamuna ; Law as Space/ Earth, The land of Mortals.
रात्रि, अंधकार,
अश्विनीकुमार / अश्विनौ / Equinox
The Whole Zodiac beginning with अश्विनी /Ashvinee Constellation
छाया- Shadow Knowledge,
इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला भौतिक-ज्ञान (बुद्धि-आधारित प्रयोग के द्वारा परीक्षित जानकारी जो काल-स्थान-सापेक्ष है ।)
छाया से उत्पन्न सूर्य की तीन सन्तानें :
सावर्णी मनु : जो मनु से सवर्ण तो हैं किन्तु जिनकी प्रकृति मनु से बहुत भिन्न है ।
A look-alike of Noah > Emmanuel

शनैश्चर - Saturn,
मंथर गति से चलनेवाली बुद्धि । यही शनैश्चर एक चरण के विकल होने से लंगडाकर चलते हैं । ज्योतिष में वे अपने स्थान से तीसरे सातवें और दसवें स्थान को देखते हैं और यह भी उनके चरित्र का अंग है । यम के स्वभाव की तुलना में उनका स्वभाव । दोनों सूर्यपुत्र हैं । दोनों को प्रसन्न करने पर मनुष्य उनके कोप से दूर रहता है ।
तापी नदी :
River Tapi : जो मनुष्य के त्रिविध तापों का कारण है, किन्तु उसकी विधिपूर्वक उपासना करने पर त्रिविध तापों से मुक्ति भी हो जाती है ।
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अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, और मर्यादाएँ

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥
(मनुस्मृति, 4/138)
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satyaṃ brūyāt priyaṃ brūyānna brūyāt satyamapriyaṃ |
priyaṃ ca nānṛtam brūyādeṣa dharma sanātanaḥ ||
(manusmṛti, 4/138)
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Meaning :
Speak what is true,
Speak what is sweet to the ears of the listeners,
Never speak what is true but is not sweet to their ears.
And though Speak what is sweet to the ears of the listeners,
Never Speak what is a lie.
This is the (essence of)  sanātanaḥ dharma* .
(*sanātanaḥ dharma  - The Truth That abides eternally and should be always practiced)
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अर्थ :
वही कहो जो सत्य है,
वही कहो जो सुननेवाले को प्रिय है,
जो सुननेवाले के लिए अप्रिय है (ऐसा सत्य) उससे मत कहो ।
हाँ, उसे जो प्रिय है वही उससे कहो,
किन्तु उससे (उसका ऐसा प्रिय) कदापि मत कहो जो असत्य हो ।
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अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और मर्यादाएँ
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प्रथमदृष्ट्या यह बिल्कुल तर्कसंगत प्रतीत होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार है । किन्तु थोड़ा विचार करने पर ऐसा लगता है कि जैसे किसी अधिकार का उपभोग उससे जुड़े कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के निर्वाह की भी अपेक्षा रखता है वैसे ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की भी विवेकसम्मत मर्यादाएँ होती है । इस अधिकार का प्रयोग, उपयोग और उपभोग परिस्थितियों पर भी किसी सीमा तक निर्भर और संभव, आसान या कठिन, आवश्यक और अनावश्यक, यहाँ तक कि विहित या निषिद्ध भी हो सकता है । क्योंकि सब मनुष्य शुद्धतः भौतिक और तकनीकी ’सत्य’ के अतिरिक्त ’सत्य’ क्या है इस बारे में परस्पर भिन्न-भिन्न मत रखते हैं इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का स्वरूप प्रारंभ से ही अनिश्चित है । यदि हम व्यावहारिक सत्य के बारे में विचार करें तो जीवन के सरल और सुस्पष्ट सत्य अर्थात् भौतिक तथ्यों को यथावत् निर्विवाद रूप से कहना, उनकी अभिव्यक्ति करना संभव है, उपयोगी भी है इसमें संदेह नहीं । किन्तु जहाँ तक उस सत्य या उन सत्यों की अभिव्यक्ति के बारे में प्रश्न है जिनके स्वरूप के बारे में हम अनिश्चित हैं, उनकी स्पष्टता से अभिव्यक्ति करना एक  आसान काम नहीं हो सकता ।
’वैज्ञानिक’ सत्य प्रायः प्रयोग और उनके सुनिश्चित प्रमाण से तय किए जाते हैं और व्यवहार में सर्वथा ग्राह्य हैं इसमें किसी को कोई आपत्ति कैसे हो सकती है? किन्तु विज्ञान केवल जड जगत के बारे में इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त निष्कर्षों तक सीमित है । जिससे इन्द्रिय-ज्ञान का उद्भव होता है, विज्ञान उस सत्य के बारे में कुछ कहने का अधिकार ही नहीं रखता । स्पष्ट है कि इन्द्रिय-ज्ञान किसी चेतन-सत्ता के लिए और उसके ही सन्दर्भ में हो सकता है । वह चेतन सत्ता ’मैं’, ’तुम’  या ’वह’ ’यह’ के रूप में है इस बारे में भी सन्देह करने के लिए कोई कारण हमारे पास नहीं हो सकता । संभव है कि भौतिक वस्तुओं में ऐसी ’चेतन-सत्ता’ अप्रकट होती हो और उन्हीं भौतिक वस्तुओं के विशिष्ट और अत्यंत जटिल रूप से संश्लिष्ट होने पर अस्तित्व में आए किसी ’शरीर’ में बोध-रूप में व्यक्त हो उठती हो, किन्तु फिर भी वह चेतन-सत्ता ही इन्द्रियों को जानती और स्वयं उनके स्वामी होने का दावा करती है । उस चेतन-सत्ता में ही अनुकूल और प्रतिकूल का संवेदन होता है और प्रथमतः शरीर की स्थितियों के अनुसार बदलता रहता है । जैसे भूख, प्यास, निद्रा, ये तीनों परिस्थितियों से तारतम्य बनाए रखनेवाले साधन हैं । लेकिन ये तीनों सत्य / तथ्य व्यक्ति के सन्दर्भ में हैं, जैसे ही इन्हें किसी समुदाय / समाज के सन्दर्भ में देखा जाता है, ये ’विचार’ का रूप ले लेते हैं क्योंकि समुदाय / समाज एक वैचारिक तथ्य है, यह विचार पर ही निर्धारित और अस्तित्वमान होता है । अर्थात् समुदाय / समाज एक वैचारिक धारणा मात्र है न कि कोई ठोस वैज्ञानिक सत्य ।
इतिहास, जो कि घटनाओं का संग्रह है इसी प्रकार विचारगत सत्य / तथ्य अर्थात् वैचारिक धारणा मात्र है न कि वैज्ञानिक सत्य । सत्य की मूल कसौटी ही यही है कि वह परिवर्तित नहीं होता है । विज्ञान के मूल सिद्धान्त ’सत्य’ की इसी अवधारणा पर आधारित हैं । किन्तु व्यावहारिक सत्य / तथ्य निरंतर प्रवाहमान ऐसी वास्तविकता है जो निरंतर नाम-रूप बदलती रहती है । उसके संबंध में एकमात्र स्थिर तत्व है (उसका) बोध जो स्वयं ही अपना प्रमाण है । ’विचार’ इस बोध को विरूपित कर नाम-रूप में बाँध देता है और एक आभासी अस्तित्व व्यक्त होता है जिसे संसार / जगत् कहा जाता है । यह उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है किन्तु ’बोध’ के अभाव में उसका होना, न-होना समान रूप से निरर्थक है । यह ’बोध’ यद्यपि वैज्ञानिक सत्य को भी ग्राह्य और परीक्षा करने योग्य बनाता है, किन्तु इस बोध को वैज्ञानिक सत्य की सीमा में परिभाषित कर पाना स्पष्टतः असंभव है । यह बोध ’अनुभव’ नहीं है, यह अनुभवगम्य भी नहीं है, क्योंकि अनुभव अस्थायी खंडित अंतराल है, जबकि जिसमें ’अनुभव’ घटित होता है, वह वस्तु, ’बोध’ एक अविच्छिन्न किन्तु स्थिर आधार है ।
 यह ’बोध’ इस प्रकार एक अविकारी तत्व है, जो स्वरूपतः शाश्वत, नित्य, अनित्य और काल-स्थान निरपेक्ष आधारभूत व्यक्त और अव्यक्त अस्तित्व है । इसमें विचारक और विचार का विभाजन / द्वन्द्व नहीं है । इसका दिशा-निर्देश नहीं किया जा सकता, बस इतना भर समझा जा सकता है कि इसका संवेदन बुद्धि, मन या इन्द्रियों आदि के माध्यम से संभव नहीं क्योंकि बुद्धि, मन या इन्द्रियों में उसकी ही क्षमता उन्हें संवेदनशील बनाती है । यह बोध शाश्वत है क्योंकि किसी काल या स्थान में इसका अभाव नहीं होता । सत्य तो यह है कि जिसे ’काल-स्थान’ कहा जाता है वह बुद्धि-आश्रित एक अनुमान / विचार धारणा भर है, और यह बुद्धि / विचार बोध के ही अन्तर्गत तरंग / लहर की भाँति उठता-गिरता, आत-जाता रहता है । जिसे हम ’नित्य’ कहते हैं, वह उसी बोध में ग्रहण की जानेवाली वस्तुओं का सतत प्रतीत होनेवाला रूपान्तरण है । जैसे सूरज का उगना और डूबना, रात्रि का आगमन और बीत जाना । ’बोध’ इन असंख्य घटनाओं से अप्रभावित अक्षुण्ण यथावत स्थिर रहता है । जब यही बोध इन्द्रिय-बोध के रूप में देह-विशेष में सक्रिय होता है तो इन्द्रिय-अनुभव नामक प्रतीति उत्पन्न होती है । इसे अनुभव का नाम दिया जाता है और स्मृति में संजो लिया जाता है । विचार के माध्यम से इस ’अनुभव’ की तुलना ऐसे ही अन्य अनुभवों से की जाती है और उनका अनुकूल / प्रतिकूल के रूप में वर्गीकरण कर दिया जाता है । इस प्रकार इसी बोध के अन्तर्गत ’विचारक’-रूपी कृत्रिम सत्ता जन्म लेती है । विचारक और विचार एक दुष्चक्र होता है और स्वयं ही स्वयं का कारण होता है । किन्तु बोध के अन्तर्गत, बोध के परिप्रेक्ष्य में इसकी अवस्थिति को ठीक-ठीक जान-समझ लेने पर इस दुष्चक्र का स्वरूप अनित्य है यह स्पष्ट हो जाता है, तब इसका निवारण भी हो जाता है । फिर भी व्यावहारिक जगत् में इसका आगमन और विसर्जन आभास-रूप में पुनः पुनः होता रहता है किन्तु वह ’बोध’ को आवरित नहीं कर पाता ।
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वैज्ञानिक सत्य ऐसे ही नित्य सत्य होते हैं जो अपने प्रयोग / उपयोग के लिए किसी काल-स्थान और पात्र की अपेक्षा रखते हैं । वह काल-स्थान स्वयं भौतिक सत्य है और किसी उनके प्रति चेतन / बोधयुक्त पात्र के सन्दर्भ में ही होता है । पात्र स्वयं भी उन्हीं भौतिक-तत्वों / कारकों के विशिष्ट संयोजन से बना एक पिण्ड (शरीर) होता है, जो कीड़े या पशु-पक्षी, मछली या मनुष्य आदि के रूप में हुआ करता है । पात्र स्वयं साकार, स्थूल भौतिक सत्य है, जबकि उस पात्र को प्राणवान, जीवित, सक्रिय बनानेवाली चेतनता निराकार सर्वव्यापी बोध ही है जो सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है और जिसके भीतर ही विभिन्न प्राणी अपना विशिष्ट देहगत जीवन जीते हैं । इन विभिन्न शरीरों में व्याप्त और इन्हें सक्रिय करनेवाला बोध फिर भी उनसे यत्किञ्चित भी प्रभावित नहीं होता । इस प्रकार किसी शरीर के जन्म या मृत्यु से केवल उस शरीर में व्याप्त बोध अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त रूप ग्रहण करता रहता है । उस बोध के सान्निध्य से ही बुद्धि नामक प्रणाली का उद्भव और विस्तार होता है जिसमें त्रुटिवश विचार और विचारक के भेद को सत्य समझ लिया जाता है । यह ऐसी ’समझ’ ही मौलिक त्रुटि है । इस त्रुटि का निराकरण संभव है और किया भी जाना चाहिए । जब बुद्धि की यह प्रणाली अपनी शुद्धता और सूक्ष्मता की पूर्णतासहित कार्यशील होती है तो इस त्रुटि का निराकरण एक त्वरित आवश्यकता, आकुलता और बाध्यता हो जाती है । जब तक ऐसी आकुलता (urgency) चित्त में नहीं जागृत होती मनुष्य के जीवन में वास्तविक प्रेम और शांति का आगमन नहीं हो पाता ।
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ध्यान (Attention) और 'बोध' (Meditation).
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