Wednesday, 11 October 2017

ज्ञात से मुक्ति / Freedom from the known

अध्यात्म और आत्म-ज्ञान
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वर्ष 1986 में राजकोट में नौकरी कर रहा था । स्वयं ही ऑप्शन से इस शहर को चुना थाताकि ’घर’ से कुछ समय के लिए दूर रहा जा सके । तब दो-चार महीने बाद ’घर’ लौटना, एक-दो दिन रहकर वापस ड्यूटी पर चले जाना अच्छा लगता था । राजकोट में ’बस-स्टैंड’ से मेरे ’घर’ का रास्ता मुश्किल से दस मिनट का था । सामने से ’भक्तिनगर’ स्टेशन से गुज़रनेवाली मीटर-गेज़ लाइन थी ।
’घर’ और दफ़्तर के बीच एक रास्ता ’रामकृष्ण-मठ / आश्रम’ से गुज़रता था ।
सुबह और शाम क़रीब एक-घंटे प्रतिदिन वहाँ ’ध्यान’ करता था ।
रविवार को तो शायद और अच्छी तरह ।
जब दिसंबर 16, 1985 को राजकोट पहुँचा था तो एक हफ़्ते ’होटल’ / ’गेस्ट-हॉउस’ में बिताने के बाद यह घर मुश्किल से मिला था ।
रोज़ की तरह 18 फ़रवरी (1986) की सुबह चाय पीने के लिए पास के चौराहे तक गया, जहाँ उस समय ’रामनाथ-टी-स्टॉल’ हुआ करता था, लेकिन मैं सड़क पर खड़े रेकड़ीवाले से दूध लेने जाता था जो चाय भी बनाता था, इसलिए वहीं चाय पी लेता था, जबकि दूध एक-दो दिन तक के लिए पर्याप्त होता था ।
उस दिन सुबह सवा सात बजे होंगे जब अपनी कलाई-घड़ी बाँध रहा था कि वह हाथ से छूट गई और बिलकुल बंद हो गई ।
मैंने उसे दो चार बार ठकठकाया लेकिन वह बस अड़ ही गई थी ।
मुझे किसी अनहोनी की आशंका ने जकड़ लिया । उद्विग्न-चित्त जब चौराहे पर पहुँचा तो ’चाय’ बन रही थी, चायवाले को दूध का हैंडलवाला डिब्बा दिया और लोकल गुजराती अख़बार ’फूलछाब’ / ફૂલછાબ देखने लगा । मुखपृष्ठ पर ही दाँयी ओर नज़र गई तो दिल धक् से रह गया :
’जे कृष्णमूर्ति नो बुझायेलो जीवन-दीप’
 'જે.કૃષ્ણમૂર્તિ નો બુઝાયેલો જીવન-દીપ'
उसके बाद जैसे-तैसे चाय ख़त्म की, ’घर’ लौटा और दो-दिन कैसे गुज़रे कुछ कह नहीं सकता ।
दफ़्तर में दूसरे-तीसरे दिन ’मैनेजर’ ने पूछा : ’वैद्यजी! सब-ठीक तो है?’
’जी’
’ऐसे ही लगा कि आप दो-दिनों से बहुत गंभीर और चुप-चुप नज़र आरहे हैं इसलिए पूछ लिया ।’
बातों-बातों में एक-दो-दिन बाद उन्हें बताया कि मेरे गुरु का देहावसान हो गया है, इसलिए थोड़ा उद्विग्न था ।
बात आई-गई हो गई ।

इसके कुछ महीनों बाद उज्जैन जाना हुआ तो एक परिचित से मिलना हुआ । उनकी पत्नी का कोई ऑपरेशन हुआ था । वे घर में पिछले कमरे में बिस्तर पर लेटीं थी और उनके पति भीतर थे । उन्हें आवाज़ लगाई तो वे प्रसन्न-मन बाहर आए । आते ही उन्होंने पूछा :
"ज्ञात से मुक्ति?"
"जी नहीं, अज्ञात से मुक्ति"
मैंने बिना एक सेकंड देर किए ज़वाब दिया ।
वे चौंक गए फिर अपनी पत्नी के पास मुझे ले जाकर कहने लगे :
कुछ दिनों पहले हमने (वे ’मैं’ के स्थान पर हम कहते थे) सपने में देखा कि हम आपसे पूछ रहे थे ’ज्ञात से मुक्ति?’, और आपने हमारे उस सपने में भी हमें बिलकुल यही ज़वाब दिया था और हमने आपकी ऑन्टी से भी इसका ज़िक्र किया था !
ऑन्टी ने बहुत कमज़ोर आवाज़ में उनकी बात की तसदीक़ की ।
जे.कृष्णमूर्ति की एक सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक है ’फ़्रीडम फ़्रॉम् द नोन’/ Freedom from the known  जिसके हिंदी अनुवाद का शीर्षक है "ज्ञात से मुक्ति"
और उन दिनों वे यही किताब पढ़ रहे थे जिसे मैं काफ़ी पहले पढ़ चुका था और श्री जे.कृष्णमूर्ति की बात को अपने ढंग से यही समझता था कि जिसे वे ’ज्ञात’ कह रहे हैं उसे वास्तव में कभी ’जाना’ ही नहीं जाता, इसलिए उससे मुक्ति का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? दूसरी ओर क्या कोई ऐसा है जो स्वयं से अनभिज्ञ हो या हो सके?
इसलिए ’अज्ञात से मुक्ति’ मुझे अधिक ग्राह्य लगता था ।
इसका एक कारण यह भी था कि मेरी आध्यात्मिक-दीक्षा भगवान् श्रीरमण की शिक्षाओं से हुई थी, इसलिए भी समस्त ’प्राप्त होनेवाला ज्ञान’ मेरी दृष्टि में अज्ञान का ही पर्याय था । अर्थात् यह मेरा ओरिएन्टेशन था । जे.कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से इसका अत्यन्त गहरा सामञ्जस्य था और मुझे उनकी शिक्षाओं में कहीं कोई विसंगति  नहीं दिखलाई देती थी ।
वर्षों बाद 1987-88  में श्री निसर्गदत्त महाराज के प्रसिद्धतम ग्रन्थ 'I AM THAT' में पढ़ा :
’ऑल नॉलेज इज़ इग्नरेन्स’/ 'All knowledge is ignorance'
तो मुझे यह बात एकदम गले उतर गई ।
सचमुच अध्यात्म की दृष्टि से यही सत्य है कि समस्त लौकिक-ज्ञान, यहाँ तक-कि ’ब्रह्म-ज्ञान’ भी, आत्म-ज्ञान के सन्दर्भ में अज्ञान मात्र है ।
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टिप्पणी :
'I AM THAT' और मेरे द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद 'अहं ब्रह्मास्मि' से चेतना, मुंबई  प्राप्य है । 

 

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