Friday, 20 October 2017

विकल्प

आप से कुछ सीखने की लालसा है
सनातन धर्म को जानने का पहला उपाय क्या है?
मैंने आपका ब्लॉग पढ़ा
शायद आप स्त्रियों द्वारा वेदाध्ययन को उचित नहीं मानते
किन्तु अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं
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सनातन धर्म को जानने का पहला उपाय क्या है?
इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा कि सनातन के साथ धर्म शब्द लगाने का उद्देश्य है यह स्पष्ट करना कि धर्म वह है जो सनातन होता हो ।
शाश्वत, अनित्य, नित्य और सनातन ’काल’ को इन चार रूपों में ग्रहण किया जाता है । ग्रहण करनेवाला पात्र होता है । इसलिए पात्र के गुण-दोष के आधार पर यह सुनिश्चित है कि वह किसी वस्तु (या ज्ञान) को कितना, कैसे ग्रहण और धारण कर सकता है, उसका सही प्रयोग कर दूसरों को प्रदान कर सकता है ।
प्रथमतया पात्र का अर्थ है मनुष्य ।
मनुष्य भी अस्तित्व के मूल कारकों पुरुष और प्रकृति का संयोग है ।
प्रकृति होने का अर्थ है अहंकार को जाने देना ।
पुरुष होने का अर्थ है अहंकार को जान लेना ।
दोनों स्थितियों में मनुष्य आत्मा से अपनी अनन्यता को समझ लेता है ।
शरीर तो बाह्य प्रकृति है, जबकि मन / अन्तःकरण अन्तःप्रकृति है ।
पात्र होने के क्रम में ही वेद के अनुसार चार वर्ण और चार आश्रम मनुष्यमात्र को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ हैं, जिनमें बाह्य-प्रकृति की प्रमुखता से वह स्त्री या पुरुष शरीर धारण करता है ।
इस प्रकार बाह्य लक्षण (स्त्री या पुरुष) होना प्रथमतया इसका सूचक होता है कि उसके लिए जीवन में विकास होने का स्वाभाविक क्रम क्या होगा । इसलिए स्त्री के लिए सेवा ही स्वाभाविक धर्म है क्योंकि प्रकृति सदा देती ही है लेती नहीं कुछ ।
जबकि पुरुष के लिए कर्म / उद्यमशीलता ही स्वाभाविक धर्म है ।
फिर वेदाध्ययन ’कर्म’ है जो पुरुष के लिए तो स्वाभाविक है, स्त्री के लिए कठिन और अस्वाभाविक भी । किसी प्रतिक्रिया के रूप में स्त्री की प्रवृत्ति भले ही कर्म में हो जाए पर वह उसका स्थायी स्वभाव नहीं है । दूसरी ओर ’सृजन’ स्त्री के लिए नितांत स्वाभाविक धर्म है । और उसका गौरव भी है । पुरुष वस्तुतः ’श्रमिक’ है और प्रकृति का दास ।प्रकृति पूर्ण है, पुरुष को पूर्ण होने की कठिन यात्रा करना होती है ।
पुरुषों में ही ब्राह्मण को ही वेदाध्ययन का अधिकार (अर्थात् पात्रता) हो सकती है ।
वेद कोई ग्रंथ नहीं अलिखित सृष्टि-विधान है जिसे ऋषियों ने ’मंत्र-रूप’ में प्राप्त किया अर्थात् आविष्कार किया ।
वेद इसलिए काल के सन्दर्भ में नित्य, शाश्वत और सनातन हैं क्योंकि सृष्टि भी नित्य,  शाश्वत और सनातन है ।
वेदाध्यन ब्राह्मण का न सिर्फ़ अधिकार है बल्कि दायित्व और कर्तव्य भी है ।
इसलिए यज्ञोपवीत संस्कार के बिना मनुष्य द्विज नहीं होता ।
यदि मनुष्य का वर्ण बाधक या विपरीत न हो तो किसी अब्राह्मण को भी संस्कार देकर द्विज बनाया जा सकता है ।
वर्ण को जाति का पर्याय समझ लिया जाता है जबकि जाति एक बाह्य लक्षण है जिसका आधार तो वर्ण ही है ।
बाह्य लक्षण की अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार मनुष्य अपने मूल वर्ण को जान समझकर चार में से किसी एक वर्ण को अपने लिए स्वीकार कर सकता है । उस वर्ण के अनुसार ही जीवन में उसे सार्थक कर्म करने के लिए सहायता और प्रेरणा मिलती है । स्त्री का अपने वर्ण के अनुसार परिवार की सेवा करना ही एकमात्र धर्म है । और उसमें भी पति और उसका परिवार प्रमुख है । वेद इसका आग्रह नहीं करता कि मनुष्य वेद-धर्म को स्वीकार करे ही । तब वह अपनी राह चुनने के लिए उसकी प्रकृति के अनुसार स्वतंत्र (होने के भ्रम में रहे) तो वेद बलपूर्वक उसे धर्म का उपदेश नहीं करता ।
चूँकि वेद ग्रंथ नहीं ’मन्त्र-संहिता’ अर्थात् मंत्रों का संकलन मात्र है और वेद-विहित कर्मकाण्ड का अनुष्ठान सुचारु रूप से संभव हो सके इस दृष्टि से उन्हें ग्रंथ-रूप में लिखित स्वरूप में सुरक्षित कर लिया गया है अतः वेद का अनुवाद तक संभव नहीं । वेद छन्द और मंत्र हैं और तन्त्र (साधन) हैं । वेदों का संबंध प्रकृति के अधिष्ठाता ’देवता’ तत्व से है जिन्हें संतुष्ट किए बिना वैदिक कर्मकाण्ड का अनुष्ठान असंभव है । यह तो हुआ वेद का कर्म-काण्ड से संबंधित पक्ष, किंतु वेद स्वयं भी परम सत्य और परमेश्वर भी होने से परम-ज्ञान और परमेश्वर की प्राप्ति में भी सहायक हैं और इसलिए कर्मकाण्ड और देवता आदि को पूरी तरह नकारकर भी मनुष्य केवल भक्ति से भी वेद के सारतत्व को प्राप्त कर सकता है ।
भक्ति का अर्थ है निष्ठा और निष्ठा की प्राप्ति तप और जिज्ञासा से ही होती है न कि किसी दबाव या भय, प्रलोभन से प्रेरित किए जाने से ।
गीता के अनुसार ऐसी जिज्ञासा भी अपनी रुचि के अनुसार ’ज्ञान’ (सांख्य-निष्ठा) और ’कर्म’ (निष्काम कर्मयोग) के रूप में हर किसी के लिए इन दो रूपों में होती है ।
गीता तो अवर्ण या सवर्ण स्त्री-पुरुष सभी के लिए एकमात्र सर्वश्रेष्ठ ’विकल्प’ के रूप में भक्ति को ही सर्वोपरि मानती है ।
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